संक्रांति में पतंगबाजी:
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
क्रियाकलाप में दीखती है. सभी छः ऋतुओं के
चक्र, दैनिक प्रात-रात का प्रभाव, धरती की घुर्णन गति से होने वाले
परिवर्त्तन, चन्द्र कलाओं का प्रभाव, सूर्य के परिवृत धरती का परिधि
बनाना, सारा कुछ हमारी दैनिक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं.
उत्तर
प्रदेश में इस दिन को ’खिचड़ी’ के नाम से जानते हैं. पवित्र नदियों, जैसे
कि गंगा, में प्रातः स्नान कर दान-पुण्य किया जाता है. तिल का दान मुख्य
होता है. तिल आर्युवेद के अनुसार गर्म तासीर का होता है. अतः तिल के
पकवान-मिष्टान्न का विशेष
महत्त्व है. सूबे में प्रयाग क्षेत्र में संगम के घाट पर एक मास तक चलने
वाला ’माघ-मेला’ विशेष आकर्षण हुआ करता है. वाराणसी, हरिद्वार और
गढ़-मुक्तेश्वर में भी स्नान का बहुत ही महत्त्व है. हम सभी ’ऊँ विष्णवै
नमः’ कह कर तिल, गुड़(Jaggery), अदरक, नया चावल, उड़द की छिलके वाली दाल,
बैंगन, गोभी, आलू और क्षमतानुसार धन का दान करते हैं जो कि इस पर्व का
प्रमुख कर्म है. और, चावल-दाल की स्वादिष्ट खिचड़ी का भोजन भला कौन भूल
सकता है, यह कहते हुए --’खिचड़ी के चार यार, दही पापड़ घी अचार ’ !
बिहार
में सारी विधियाँ उत्तर प्रदेश की परंपरा के अनुसार ही मनाते हैं. पवित्र
नदियों का स्नान और दान-पुण्य मुख्य कर्म है. गंगा में स्नान का विशेष
महत्त्व है. साथ ही साथ मिथिलांचल और बज्जिका क्षेत्र (मुज़फ़्फ़रपुर
मण्डल) में इस दिन ’दही-चूड़ा’ खाने का विशेष महत्त्व है. और खिचड़ी का
सेवन तो है ही ! साथ में गन्ना खाने की भी परिपाटी है.
मकर-संक्रान्ति पर्व को तमिलनाडु में ’पोंगल’
के नाम से जानते हैं, जोकि एक तरह का पकवान है. पोंगल चावल, मूँगदाल और
दूध के साथ गुड़ डाल कर पकाया जाता है. यह एक तरह की खिचड़ी ही है.
तमिलनाडु में पोंगल सूर्य, इन्द्र देव, नयी फसल तथा पशुओं को समर्पित पर्व
है जोकि चार दिन का हुआ करता है और अलग-अलग नामों से जाना जाता है. इसकी
कुल प्रकृति उत्तर भारत के ’नवान्न’ से मिलती है.
आंध्र में पोंगल कमोबेश तमिल परिपाटियों
के अनुसार ही मनाते हैं. अलबत्ता भाषायी भिन्नता के कारण दिनों के नाम
अवश्य बदल जाते हैं. आंध्र में इस पर्व को पेड्डा पोंगल कहते हैं, यानि बहुत ही बड़ा उत्सव ! पहले दिन को भोगी पोंगलकहते हैं, दूसरा दिन संक्रान्ति कहलाता है. तीसरे दिन को कनुमा पोंगल कहते हैं जबकि चौथा दिन मुक्कनुमा पोंगल के नाम से जाना जाता है. उत्साह और विविधता में आंध्र का पर्व तमिलनाडु से कत्तई कम नहीं होता है.
इस प्रदेश में यह पर्व सम्बन्धियों और
रिश्तेदारों या मित्रों से मिलने-जुलने के नाम समर्पित है. यहाँ इस दिन
पकाये जाने वाले पकवान को एल्लु कहते हैं, जिसमें तिल,
गुड़ और नारियल की प्रधानता होती है. उत्तर भारत में इसी तर्ज़ पर काली तिल
का तिलवा बनाते और खाते हैं. पूरे कर्नाटक प्रदेश में एल्लु और गन्ने को उपहार में लेने और देने का रिवाज़ है. इस पर्व को इस प्रदेश में संक्रान्ति ही कहते हैं. यहाँ भी चावल और गुड़ का पोंगल बना कर खाते हैं और उसे पशुओं को खिलाया जाता है. यहाँ ’एल्लु बेल्ला थिन्डु, ओल्ले मातु आडु’ यानि ’तिल-गुड़ खाओ और मीठा बोलो’ कह कर सभी अपने परिचितों और प्रिय लोगों को एक दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं.
सर्वोपरि होती है, पतंगबाजी. स्नानादि कर बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी मैदान या छत पर पतंग और लटाई ले कर निकल पड़ते हैं. 
प्रस्तुत
आलेख में हम इन गणनाओं से संबंधित कुछ रोचक तथ्य जानने का प्रयास करते
हैं. जिससे संक्राति के बारे में रोचक तथ्य तो स्पष्ट तो होंगे ही, यह भी
प्रमाणित होगा कि प्राचीन हिन्दु-पंचांग की गणना-अवधारणाएँ कितनी सटीक और
दूरगामी हुआ करती थीं जो आज भी सार्थक हैं ! भारतीय पंचांग के अनुसार
गणनाएँ नक्षत्रों या सितारों के समुच्चय (constellation of stars) की
सापेक्ष गति के अनुसार तय होती हैं. ध्यातव्य है कि सितारों की दूरियों और
उनकी गतियों की गणनाएँ सामान्य अंकीय राशियों (general mathematical
digits) से कहीं बहुत बड़ी राशियाँ होती हैं. हमें सादर गर्व होता है अपने
पूर्वजों और भारतीय मनीषियों पर जिन्होंने गणनाओं की उस समय ऐसी तकनीकि
विकसित कर ली थी जब अन्य मतावलम्बियों द्वारा इतनी बड़ी अंक-राशियाँ सोची
तक नहीं गयी थीं.
मकर संक्रान्ति और कर्क संक्रान्ति दो अयन या अयनी संक्रान्तियाँ हैं जिन्हें क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायण संक्रान्ति
भी कहते हैं. वैचारिक रूप से और गणनाओं के अनुसार ये संक्रान्तियाँ ऋतुओं
में क्रमशः शरद और ग्रीष्म ऋतु में उन घड़ियों की परिचायक हैं जब पृथ्वी का
विषुवत भाग (equator) सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर होता है. किन्तु कालान्तर
में राशियों के अनुसार सूर्य की स्थिति में और ऋतु के अनुसार सूर्य की
स्थिति में मूलभूत अंतर आता चला गया. इसका मूल कारण पृथ्वी का अपने अक्ष
(axis) पर साढ़े 23 डिग्री नत होना तथा उसी पर घुर्णन (revolve) भी करना
है. माना जाता है कि हज़ारों वर्षों के पश्चात ऋतुओं और राशियों के अनुसार
सूर्य की स्थिति में पृथ्वी के सापेक्ष अपने आप ही पुनः एका हो जायेगा,
जैसा कि प्रारंभ मे हुआ करता होगा. इस तरह अयन या अयनी संक्रान्तियाँ स्वतः
ऋतुओं के समकक्ष आ मिलेंगीं. इस तथ्य को हम आगे और ठीक से देखंगे कि यह
अंतर कितना है और प्राचीनकाल से गणनाओं को कैसे साधा गया है.