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मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत:
जिजीविषा अंकुर की
पत्थर का भी दिल
दहला देती है
*
धरती धरती धीरज
बनी अहल्या गुमसुम
बंजर-पड़ती लोग कहें
ताने दे-देकर
सिसकी सुनता समय
मौन देता है अवसर
हरियाती है कोख
धरा हो जाती सक्षम
तब तक जलती धूप
झेलकर घाव आप
सहला लेती है
*
जग करता उपहास
मारती ताने दुनिया
पल्लव ध्यान न देते
कोशिश शाखा बढ़ती
द्वैत भुला, अद्वैत राह पर
चिड़िया उड़ती
रचती अपनी सृष्टि आप
बन अद्भुत गुनिया
हार न माने कभी
ज़िंदगी खुद को खुद
बहला लेती है
*
छाती फाड़ पत्थरों की
बहता है पानी
विद्रोहों का बीज
उठाता शीश, न झुकता
तंत्र शिला सा निठुर
लगे जब निष्ठुर चुकता
याद दिलाना तभी
जरूरी उसको नानी
जन-पीड़ा बन रोष
दिशाओं को भी तब
दहला देती है
*
१२-१२-२०१४
www.divyanarmada.in
#हिंदी_ब्लॉगर

शुक्रवार, 15 मई 2009

कविता: धात्री -शोभना चौरे

वह कभी हिसाब नहीं माँगती
तुम एक बीज डालते हो
वह अनगिनत दाने देती है।
बीज भी उसी का होता है
और वह ही उसके लिए
उर्वरक बनती है।
अनेक कष्ट सहकर
अपनी कोख में
उस बीज को पुष्ट बनाती है।
जब- बीज अँकुरित हो
अपने हाथ-पाँव पसारता है
तब वह खुश होती है,
आनंदित होकर बीज को
अर्थात तुमको पनपने देती है
किंतु तुम
उसे कष्ट देकर
बाहर आ जाते हो,
इतराने लगते हो अपने अस्तित्व पर
पालते हो भरम अपने होने का,
लोगो की भूख मिटाने का।
तुम बडे होकर फ़िर फ़ैल जाते हो
उसकी छाती पर अपना हक़ जमाने
तुम हिसाब करने लगते हो
उसके आकार का,
उसके प्रकार का,
भूल जाते हो उसकी उर्वरा शक्ति को ,
जो उसने तुम्हें भी दी
तुम निस्तेज हो पुनः
उसी में विलीन हो जाते
न ही वह बीज को दर्द सुनाती है,
न ही बीज डालनेवाले को।
वह निरंतर देती जाती है।

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