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गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

विष्णु खरे की कविताएं

विष्णु खरे की कविताएं

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छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश में 9 फरवरी, 1940 को जन्मे विष्णु खरे हिंदी कविता, आलोचना और संपादन की दुनिया में एक विरल उपस्थिति हैं। खाते में आधा दर्जन कविता संकलन, बहुत सारे अनुवाद और समीक्षाएं। ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक रहे। लघु पत्रिका ‘वयम्’ निकाली। दो टूक लहजे के कारण हमेशा विवादों से भी वास्ता। फिलहाल दिल्ली
छोड़कर मुंबई में वास। दुनिया के बहुत सारे देशों की यात्राएं।  ईमेलः vishnukhare@yahoo.com
असह्य
दुनिया भर की तमाम प्यारी औरतों और आदमियों और बच्चों
मेरे अपने लोगो
सारे संगीतों महान कलाओं विज्ञानों
बड़ी चीज़ें सोच कह रच रहे समस्त सर्जकों
अब तक के सारे संघर्षों जय-पराजयों
प्यारे प्राणियों चरिन्दों परिन्दों
ओ प्रकृति
सूर्य चन्द्र नक्षत्रों सहित पूरे ब्रह्माण्ड
हे समय हे युग हे काल
अन्याय से लड़ते शर्मिंदा करते हुए निर्भय (मुझे कहने दो) साथियों
तुम सब ने मेरे जी को बहुत भर दिया है भाई
अब यह पारावार मुझसे बर्दाश्त नहीं होता
मुझे क्षमा करो
लेकिन आख़िर क्या मैं थोड़े से चैन किंचित् शान्ति का भी हक़दार नहीं

तभी

सृष्टि के सारे प्राणियों का
अब तक का सारा दुःख
कितना होता होगा यह मैं
अपने वास्तविक और काल्पनिक दुखों से
थोड़ा-बहुत जानता लगता हूँ
और उन पर हुआ सारा अन्याय?
उसका निहायत नाकाफ़ी पैमाना
वे अन्याय हैं जो
मुझे लगता है मेरे साथ हुए
या कहा जाता है मैंने किए
कितने करोड़ों गुना वे दुःख और अन्याय
हर पल बढ़ते ही हुए
उन्हें महसूस करने का भरम
और ख़ुशफ़हमी पाले हुए
यह मस्तिष्क
आख़िर कितना ज़िन्दा रहता है
कोशिश करता हूँ कि
अंत तक उन्हें भूल न पाऊँ
मेरे बाद उन्हें महसूस करने का
गुमान करनेवाला एक कम तो हो जाएगा
फिर भी वे मिटेंगे नहीं
इसीलिए अपने से कहता हूँ
तब तक भी कुछ करता तो रह

संकल्प

सूअरों के सामने उसने बिखेरा सोना
गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्पन व्यंजन
चटाया श्वानों को हविष्य का दोना
कौओं उलूकों को वह अपूप देता था अपनी हथेली पर
उसने मधुपर्क-चषक भर-भर कर
किया शवभक्षियों का रसरंजन
सभी बहरूपिये थे सो उसने भी वही किया तय
जन्मान्धों के समक्ष करता वह मूक अभिनय
बधिरों की सभा में वह प्रायः गाता विभास
पंगुओं के सम्मुख बहुत नाचा वह सविनय
किए जिह्वाहीन विकलमस्तिष्कों को संकेत-भाषा सिखाने के प्रयास
केंचुओं से करवाया उसने सूर्य-नमस्कार का अभ्यास
बृहन्नलाओं में बाँटा शुद्ध शिलाजीत ला-लाकर
रोया वह जन-अरण्यों में जाकर
स्वयं को देखा जब भी उसने किए ऐसे जतन
उसे ही मुँह चिढ़ाता था उसका दर्पन
अन्दर झाँकने के लिए तब उसने झुका ली गर्दन
वहाँ कृतसंकल्प खड़े थे कुछ व्यग्र निर्मम जन

साभार: रचनाकार
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

कवितायेँ: अर्चना मलैया


इस स्तम्भ में रचनाकार का संक्षिप्त परिचय, लघु रचनाएँ  तथा संक्षिप्त प्रतिक्रियाएँ  प्रस्तुत की जा सकेंगी. 
अर्चना मलैया
जन्म : कटनी, मध्य प्रदेश.
शिक्षा : एम. ए. (हिंदी).
संप्रति : हिंदी उपन्यासों में नारी विद्रोह पर शोधरत.
संपर्क : ०७६१-५००६७२३
कवितायेँ:


१. रचना प्रक्रिया:

भावना के सागर पर
वेदना की किरण पड़ती है,
भावों की भाप जमती है.
धीरे-धीरे
भाप मेघ में बदलती है
फिर किसी आघात से
मेघ फटते हैं,
बरसात होती है
और ये नन्हीं-नन्हीं बूदें
कविता होती हैं.
*
२. लडकी

वही था सूरज वही था चाँद
और वही आकाश
जिसके आगोश में
खिलते थे सितारे.
पाखी तुम भी थे
पाखी मैं भी
फिर क्यों तुम
केवल तुम
उड़ सके?,
मैं नहीं.
क्यों बींधे गये
पंख मेरे
क्यों हर उड़न
रही घायल?
*
३. आदिम अग्नियाँ
हो रही हैं उत्पन्न
खराशें हममें
हमारी सतत तराश से.
मत डालो अब और आवरण
क्योंकि अवरणों की
मोती सतह के नीचे
चेहरे न जने
कहाँ गुण हो रहे हैं?
असंभव है कि
बुझ जाएँ
वे आदिम अच्नियाँ
जो हममें सोई पड़ी हैं
बलपूर्वक दबाई चिनगारी
कभी-कभी
विस्फोटक हो जाती है.
*
अर्चना मलैया की कविताओं में व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंधों को तलाशने-तराशने, पारंपरिक और अधुनातन मूल्यबोध को परखने की कोशिश निहित है. दर्द, राग, सामाजिक सरोकारों और संवेदनात्मक दृष्टि के तने-बाने से बुनी रचनाएँ सहज भाषा, सटीक बिम्ब और सामयिक कथ्य के कारण आम पाठक तक पहुँच पाती हैं.

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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