जागो रे!
रवींद्रनाथ ठाकुर
*
हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
जागो रे धीरे.
हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-छीन.
शक-हूण डीके पठान-मोगल एक देहे होलो लीन.
पश्चिमे आजी खुल आये द्वार
सेथाहते सबे आने उपहार
दिबे आर निबे, मिलाबे-मिलिबे.
जाबो ना फिरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
*
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
हे मेरे मन! पुण्य तीर्थ में जागो धीरे रे.
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
आर्य-अनार्य यहीं थे, आए यहीं थे द्राविड़-चीन.
हूण पठन मुग़ल शक, सब हैं एक देह में लीन..
खुले आज पश्चिम के द्वार,
सभी ग्रहण कर लें उपहार.
दे दो-ले लो, मिलो-मिलाओ
जाओ ना फिर रे...
*
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 9 मई 2021
जागो रे! रवींद्रनाथ ठाकुर
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रवींद्रनाथ ठाकुर
गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020
भाषा सेतु
भाषा सेतु
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
बाङ्ला-हिंदी-गुजराती-छत्तीसगढ़ी
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।
यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
*
गुजराती में रूपान्तरण -
द्वारा कल्पना भट्ट, भोपाल
શ્રાવણ નભ ની આ અંધારી રાત રે
કેમે પહુંચે બાગ માં કોમળ નાર રે
મસ્ત હવા ફૂંકારે યમુના તીર રે
ગરજે વાદળ ,વરસે મેઘ અહીં રે
દામિની દમકે તરૂ તન કમ્પૅ થર થર રે
ઘન ઘન રીમઝીમ રીમઝીમ રીમઝીમ વરસે વાદળ સમૂહ રે
છે અંધારું ઘોર , તૂટી પડયા છે ઝાડ રે
જાણું છું આ બધું પણ જો ને aa નિષ્ઠુર કાન્હ ને
રાધા નામની મધુર તાણ વગાડતો આ છલિયો રે
સજાઓ મુને મુક્ત મણિ થી
લગાડો માથે એક કાળો દીઠડો રે
ક્ષુબ્ધ હૃદય છે ,લટ બાંધો ,ચંપો બાંધો સુહાથ રે
અરજ કરતો હૂં 'સલિલ' ભાવ ભારી રે
હૂં 'ભાનુ' છું પ્રભુ તમારો દાસ રે .
***
श्रावण नभ् नी आ अंधारी रात रे
केमे पहुंचे बाग़ मां कोमल नार रे
मस्त हवा फुंकारे यमुना तीर रे
गरजे वादळ, वरसे मेघ अहीं रे
दामिनी दमके तरु तन कम्पे थर थर रे
घन घन रिमझिम रिमझिम रिमझिम वरसे वादळ समूह रे
छे अंधारु घोर, टूटी पड्या छे झाड़ रे
जाणु छुं आ बधुं पण जो ने आ निष्ठुर कान्ह ने
राधा नाम नी मधुर तान वगाळतो आ छलियो रे
सजाओ मुने मुक्त मणि थी
लगाड़ो माथे एक काडो डिठडो रे
क्षुब्ध ह्रदय छे ,लट बांधो चम्पो बाँधो सुहाथ रे
अरज करतो हूँ 'सलिल' भाव भारी रे
हूँ ' भानु' छु प्रभु तमारो दास रे
***
छत्तीसगढ़ी रूपांतरण द्वारा ज्योति मिश्र, बिलासपुर
***
सावन आकास मां बादर छागे आधी रात ऱे।
बाड़ी रद्दा कोन जतन जाबे, तैं दूबर मितान रे।
बइहा हवा हे ,जमुना फुंकारे गरजत-बरसत हे मेघ।
चमकत हे बिजरी, रद्दा- पेड़ लोटत झुर-झुर कपथे सरीर।
घन-घन, झिमिर ,झिमिर, झिमिर बरसे बादर के झुण्ड।
साल अउ चार, ताड़-तेज बिरिख अब्बड़ अंधियारे हे बारी।
कइसे मितानिन ! अत्त मचात हे, काबर ये कन्हई।
बंसी बजाथे,"राधा" के नांव ले अब्बड़ दुखिया कन्हई।
मोती, जेवर जाथा पहिरा दे, काला चीन्हा लगा दे माथ।
मन ह ब्याकुल हे, गूंद चोटी पिरो,खोंच चंपा सुहात।
अंधियार रात, झन जाबे छोड़ कन्हाई मिले के आस।
गरजत हे बादर, भय भारी, सुरुज तोरे हे दास।
या
गरजत हे बादर, भय भारी, "भानु" तोरे हे दास।
***
बाङ्ला-हिंदी-गुजराती-छत्तीसगढ़ी
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।
यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
*
गुजराती में रूपान्तरण -
द्वारा कल्पना भट्ट, भोपाल
શ્રાવણ નભ ની આ અંધારી રાત રે
કેમે પહુંચે બાગ માં કોમળ નાર રે
મસ્ત હવા ફૂંકારે યમુના તીર રે
ગરજે વાદળ ,વરસે મેઘ અહીં રે
દામિની દમકે તરૂ તન કમ્પૅ થર થર રે
ઘન ઘન રીમઝીમ રીમઝીમ રીમઝીમ વરસે વાદળ સમૂહ રે
છે અંધારું ઘોર , તૂટી પડયા છે ઝાડ રે
જાણું છું આ બધું પણ જો ને aa નિષ્ઠુર કાન્હ ને
રાધા નામની મધુર તાણ વગાડતો આ છલિયો રે
સજાઓ મુને મુક્ત મણિ થી
લગાડો માથે એક કાળો દીઠડો રે
ક્ષુબ્ધ હૃદય છે ,લટ બાંધો ,ચંપો બાંધો સુહાથ રે
અરજ કરતો હૂં 'સલિલ' ભાવ ભારી રે
હૂં 'ભાનુ' છું પ્રભુ તમારો દાસ રે .
***
श्रावण नभ् नी आ अंधारी रात रे
केमे पहुंचे बाग़ मां कोमल नार रे
मस्त हवा फुंकारे यमुना तीर रे
गरजे वादळ, वरसे मेघ अहीं रे
दामिनी दमके तरु तन कम्पे थर थर रे
घन घन रिमझिम रिमझिम रिमझिम वरसे वादळ समूह रे
छे अंधारु घोर, टूटी पड्या छे झाड़ रे
जाणु छुं आ बधुं पण जो ने आ निष्ठुर कान्ह ने
राधा नाम नी मधुर तान वगाळतो आ छलियो रे
सजाओ मुने मुक्त मणि थी
लगाड़ो माथे एक काडो डिठडो रे
क्षुब्ध ह्रदय छे ,लट बांधो चम्पो बाँधो सुहाथ रे
अरज करतो हूँ 'सलिल' भाव भारी रे
हूँ ' भानु' छु प्रभु तमारो दास रे
***
छत्तीसगढ़ी रूपांतरण द्वारा ज्योति मिश्र, बिलासपुर
***
सावन आकास मां बादर छागे आधी रात ऱे।
बाड़ी रद्दा कोन जतन जाबे, तैं दूबर मितान रे।
बइहा हवा हे ,जमुना फुंकारे गरजत-बरसत हे मेघ।
चमकत हे बिजरी, रद्दा- पेड़ लोटत झुर-झुर कपथे सरीर।
घन-घन, झिमिर ,झिमिर, झिमिर बरसे बादर के झुण्ड।
साल अउ चार, ताड़-तेज बिरिख अब्बड़ अंधियारे हे बारी।
कइसे मितानिन ! अत्त मचात हे, काबर ये कन्हई।
बंसी बजाथे,"राधा" के नांव ले अब्बड़ दुखिया कन्हई।
मोती, जेवर जाथा पहिरा दे, काला चीन्हा लगा दे माथ।
मन ह ब्याकुल हे, गूंद चोटी पिरो,खोंच चंपा सुहात।
अंधियार रात, झन जाबे छोड़ कन्हाई मिले के आस।
गरजत हे बादर, भय भारी, सुरुज तोरे हे दास।
या
गरजत हे बादर, भय भारी, "भानु" तोरे हे दास।
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गुजराती,
छत्तीसगढ़ी,
बाङ्ला,
रवींद्रनाथ ठाकुर
सोमवार, 20 जुलाई 2020
काव्यानुवाद सावन गगने घोर घनघटा
काव्यानुवाद सावन गगने घोर घनघटा
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएँ और बरसें जिससे तन-मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इंद्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना? आईए, आज एक सुंदर गीत सुनकर आनंद लें जिसे रचा है भानु सिंह ने। अरे! आप भानुसिंह को नहीं जानते? अब जान लीजिए, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी 'प्रेम कवितायेँ' भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
*
सावन गगने घोर घन घटा; निशीथ यामिनी रे!
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब; अबला कामिनी रे!!
उन्मद पवने जमुना तर्जित; घन-घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित; थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम; बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले; निविड़ तिमिरमय कुञ्ज।
कह रे सजनी! ये दुर्योगे; कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत; सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे; टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम; बाँध ह चंपक माले।
गहन रैन में न जाओ, बाला! नवल किशोर क' पास
गरजे घन-घन बहु डरपाव;ब कहे 'भानु' तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाए; आधी रतिया रे!
बाग़ डगर किस विधि जाएगी?; निर्बल गुइयाँ रे!!
मत्त हवा यमुना फुँफकारे; गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि; मग-वृक्ष लोटते; थर-थर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेज तरु; घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर; कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले; 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे; लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट-चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत; तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है: देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं: हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बाँसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
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काव्यानुवाद सावन गगने घोर घनघटा,
रवींद्रनाथ ठाकुर
मंगलवार, 16 जून 2020
रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना का भावानुवाद
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक
रचना का भावानुवाद:
संजीव 'सलिल'
*
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
१६-६-२०१७
*
रचना का भावानुवाद:
संजीव 'सलिल'
*
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
१६-६-२०१७
*
चिप्पियाँ Labels:
भावानुवाद,
रवींद्रनाथ ठाकुर
शनिवार, 13 जून 2020
रवींद्रनाथ ठाकुर : भावानुवाद
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक
रचना का भावानुवाद:
संजीव 'सलिल'
*
रचना का भावानुवाद:
संजीव 'सलिल'
*
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद-द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद-द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
१३-६-२०१०
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काव्यानुवाद,
रवींद्रनाथ ठाकुर
शनिवार, 25 जनवरी 2020
रवींद्रनाथ ठाकुर
काव्यानुवाद :
जागो रे!
रवींद्रनाथ ठाकुर
*
मूल रचना - भाषा बांग्ला
जागो रे!
रवींद्रनाथ ठाकुर
*
मूल रचना - भाषा बांग्ला
हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
जागो रे धीरे.
हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-छीन.
शक-हूण डीके पठान-मोगल एक देहे होलो लीन.
पश्चिमे आजी खुल आये द्वार
सेथाहते सबे आने उपहार
दिबे आर निबे, मिलाबे-मिलिबे.
जाबो ना फिरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
*
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
हे मेरे मन! पुण्य तीर्थ में जागो धीरे रे.
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
आर्य-अनार्य यहीं थे, आए यहीं थे द्राविड़-चीन.
हूण पठन मुग़ल शक, सब हैं एक देह में लीन..
खुले आज पश्चिम के द्वार,
सभी ग्रहण कर लें उपहार.
दे दो-ले लो, मिलो-मिलाओ
जाओ ना फिर रे...
*
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
यह रचना शांत रस, राष्ट्रीय गौरव तथा 'विश्वैक नीडं' की सनातन भावधारा से ओतप्रोत है. राष्ट्र-गौरव, सब को समाहित करने की सामर्थ्य आदि तत्व इस रचना को अमरता देते हैं. हिंदी पद्यानुवाद में रचना की मूल भावना को यथासंभव बनाये रखने तथा हिंदी की प्रकृति के साथ न्याय करने का प्रयास है. रचना की समस्त खूबियाँ रचनाकार की, कमियाँ अनुवादक की अल्प सामर्थ्य की हैं.
*
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
जागो रे धीरे.
हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-छीन.
शक-हूण डीके पठान-मोगल एक देहे होलो लीन.
पश्चिमे आजी खुल आये द्वार
सेथाहते सबे आने उपहार
दिबे आर निबे, मिलाबे-मिलिबे.
जाबो ना फिरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
*
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
हे मेरे मन! पुण्य तीर्थ में जागो धीरे रे.
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
आर्य-अनार्य यहीं थे, आए यहीं थे द्राविड़-चीन.
हूण पठन मुग़ल शक, सब हैं एक देह में लीन..
खुले आज पश्चिम के द्वार,
सभी ग्रहण कर लें उपहार.
दे दो-ले लो, मिलो-मिलाओ
जाओ ना फिर रे...
*
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
यह रचना शांत रस, राष्ट्रीय गौरव तथा 'विश्वैक नीडं' की सनातन भावधारा से ओतप्रोत है. राष्ट्र-गौरव, सब को समाहित करने की सामर्थ्य आदि तत्व इस रचना को अमरता देते हैं. हिंदी पद्यानुवाद में रचना की मूल भावना को यथासंभव बनाये रखने तथा हिंदी की प्रकृति के साथ न्याय करने का प्रयास है. रचना की समस्त खूबियाँ रचनाकार की, कमियाँ अनुवादक की अल्प सामर्थ्य की हैं.
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रवींद्रनाथ ठाकुर
सोमवार, 1 अक्टूबर 2012
धरोहर :९ कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर -संजीव 'सलिल'
इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार
का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो
तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में
सुमित्रा नंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त, नागार्जुन, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महीयसी महादेवी वर्मा, स्व. धर्मवीर भारती तथा मराठी-कवि कुसुमाग्रज के पश्चात् अब आनंद लें कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाओं
का।
९.
* चित्र-चित्र स्मृति
भौतिकशास्त्री एल्बर्ट आइन्स्टीन के साथ
महात्मा गाँधी के साथ
कविगुरु के साथ इंदिरा गाँधी
स्मारक सिक्के डाक टिकिट नोबल पदक
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पेंटिंग्स:
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कृतियाँ:
हस्त लिपि:
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प्रतिनिधि रचना:
जागो रे!
रवींद्रनाथ ठाकुर
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हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
जागो रे धीरे.
हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-छीन.
शक-हूण डीके पठान-मोगल एक देहे होलो लीन.
पश्चिमे आजी खुल आये द्वार
सेथाहते सबे आने उपहार
दिबे आर निबे, मिलाबे-मिलिबे.
जाबो ना फिरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
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हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
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हे मेरे मन! पुण्य तीर्थ में जागो धीरे रे.
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
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आर्य-अनार्य यहीं थे, आए यहीं थे द्राविड़-चीन.
हूण पठन मुग़ल शक, सब हैं एक देह में लीन..
खुले आज पश्चिम के द्वार,
सभी ग्रहण कर लें उपहार.
दे दो-ले लो, मिलो-मिलाओ
जाओ ना फिर रे...
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इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
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यह रचना शांत रस, राष्ट्रीय गौरव तथा 'विश्वैक नीडं' की सनातन भावधारा से ओतप्रोत है. राष्ट्र-गौरव, सब को समाहित करने की सामर्थ्य आदि तत्व इस रचना को अमरता देते हैं. हिंदी पद्यानुवाद में रचना की मूल भावना को यथासंभव बनाये रखने तथा हिंदी की प्रकृति के साथ न्याय करने का प्रयास है. रचना की समस्त खूबियाँ रचनाकार की, कमियाँ अनुवादक की अल्प सामर्थ्य की हैं.
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पूजा
हे चिर नूतन! आजि ए दिनेर प्रथम गाने
जीवन आमार उठुक विकाशि तोमारि पाने.
तोमर वाणीते सीमाहीन आशा,
चिर दिवसेर प्राणमयी भाषा-
क्षयहीन धन भरि देय मन तोमार हातेर दाने..
ए शुभलगने जागुक गगने अमृतवायु
आनुक जीवने नवजनमेरअमल वायु
जीर्ण जा किछु, जाहा-किछु क्षीण
नवीनेर माझे होक ता विलीन
धुएं जाक जत पुरानो मलिन नव-आलोकेर स्नाने..
(गीत वितान, पूजा, गान क्र. २७३)
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हे चिर नूतन!गान आज का प्रथम गा रहा.
उठ विकास कर तुझको पाने विनत आ रहा..
तेरी वाणी से मुझको आशा असीम है.
चिर दिवसों की प्राणमयी भाषा नि:सीम है..
तेरे कर से मन अक्षय धन, दान पा रहा...
इस शुभ क्षण में, नभ में अमिय पवन प्रवहित हो.
जीवन- नव जीवन की अमल वायु पूरित हो..
जीर्ण-क्षीर्ण निष्प्राण पुराना या मलीन जो-
वह नवीन में हो विलीन फिर से जीवित हो..
नवालोक में स्नानित शुभ पुनि प्राण पा रहा...
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देश की माटी
देश की माटी तुझे मस्तक नवाता मैं.
विश्व माँ की झलक तुझमें देख पाता मैं..
समाई तन-मन में, दिखी है प्राण-मन में-
सुकुमार प्रतिमा एकता में देख पाता मैं..
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कोख से जन्मा, गोद में प्राण निकलें.
करी क्रीड़ा, सुख मिला, दुःख सहा रख आस तुझसे.
कौर दे मुँह में, पिला जल तृप्त करती तू-
चुप सहा जो गहा, माँ की झलक तुझमें देख पाता मैं..
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जो दिया भोगा हमेशा, सर्वस्व तुझसे लिया.
चिरऋणी, किंचित नहीं प्रतिदान कुछ भी किया.
सब समय बीता निरर्थक, किया है कुछ भी न सार्थक-
शक्तिदाता! व्यर्थ कर दी शक्ति मैंने- लेख पाता मैं..
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मन निडर, निर्भय, आशंकित शीश उन्नत.
ज्ञान हो निस्सीम, गृह अक्षत सदा प्रभु!
कर न खंडित धरा, लघु आँगन विभाजित.
उद्गमित हो वाक्, अंतर-हृदय से प्रभु!.
हो प्रवाहित सता-अविकल कर्म सलिला.
देश-देशांतर, दसों दिश में परम प्रभु!
तुच्छ आचारों का मरु ग्रास ले न धारा.
शुभ विचारों की न किंचित भी परम प्रभु!
कर्म औ' पुरुषार्थ हों अनुगत तुम्हारे,
करो निज कर ठोकरें देकर परम प्रभु!
हे पिता! वह स्वर्ग भारत में उतारो.
देश भारत को जगा दो, जगा दो प्रभु!
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गान गल्पो
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जेते नाहीं दिबो ४
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कविता
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