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मंगलवार, 10 अक्टूबर 2023

राजस्थानी मुक्तिका, मानव, चित्रगुप्त, जनक छंद, हाइकु, शे'र, लघुकथा, गुजराती

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
चंद्र-विजय अभियान काव्य संकलन
कीर्तिमान सहभागिता आमंत्रण
*
इसरो के वैज्ञानिकों अभियंताओं की अभूतपूर्व उपलब्धि पर कलमकारों द्वारा कविता रचकर उनकी मानवंदना की जा रही है। अब तक २५ भाषाओं/बोलिओं के १२१ कवि जुड़कर कीर्तिमान बना रहे हैं।

रचना, चित्र, परिचय (जन्म दिनांक माह वर्ष स्थान, माता- पिता, पति/पत्नि, शिक्षा, संप्रति, प्रकाशित पुस्तकें, डाक पता, ईमेल, चलभाष, वाट्स एप), सहयोग निधि ३००/- प्रति पृष्ठ, वाट्स ऐप ९४२५१८३२४४ पर आमंत्रित है। देश के हर क्षेत्र तथा हर भाषा/ बोली के कवियों का हृदय से स्वागत है। अब तक बुंदेली, बघेली, पचेली, भुआड़ी, निमाड़ी, मालवी, अंगिका, पाली, प्राकृत, संस्कृत, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, ब्रज, भोजपुरी, मारवाड़ी, राजस्थानी, मैथिली, संबलपुरी, उर्दू, गुजराती, मराठी, बांग्ला, कुमायूँनी, गढ़वाली, अंग्रेजी आदि कीर्तिमान बनाने में सम्मिलित हो चुके हैं। शेष का स्वागत है।
*
राजस्थानी मुक्तिका
*
घाघरियो घुमकाय
मरवण घणी सुहाय
*
गोरा-गोरा गाल
मरते दम मुसकाय
*
नैणा फोटू खैंच
हिरदै लई मँढाय
*
तारां छाई रात
जाग-जगा भरमाय
*
जनम-जनम रै संग
ऐसो लाड़ लड़ाय
*
देवी-देव मनाय
मरियो साथै जाय
१०-१०-२०२०
***
मुक्तिका
(१४ मात्रिक मानव जातीय छंद, यति ५-९)
मापनी- २१ २, २२ १ २२
*
आँख में बाकी न पानी
बुद्धि है कैसे सयानी?
.
है धरा प्यासी न भूलो
वासना, हावी न मानी
.
कौन है जो छोड़ देगा
स्वार्थ, होगा कौन दानी?
.
हैं निरुत्तर प्रश्न सारे
भूल उत्तर मौन मानी
.
शेष हैं नाते न रिश्ते
हो रही है खींचतानी
.
देवता भूखे रहे सो
पंडितों की मेहमानी
.
मैं रहूँ सच्चा विधाता!
तू बना देना न ज्ञानी
.
संजीव, १०.१०.२०१८
***
वन्दन
शरणागत हम
*
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आये।
*
अनहद, अक्षय,अजर,अमर हे!
अमित, अभय,अविजित अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर हटाने
अरुणागत हम
द्वार तिहांरे आये।
*
वर्ण, जात, भू, भाषा, सागर
अनिल, अनल,दिश, नभ, नद,गागर
तांडवरत नटराज ब्रम्ह तुम,
तुम ही बृज-रज के नटनागर।
पैग़ंबर, ईसा,गुरु बनकर
तारों अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो
चरणागत हम
झलक निहारें आये।
*
आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि,कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम।
जन्म-मरण,यश-अपयश चक्रित
छाया-माया,सुख-दुःख हो सम।
द्वेष भुला दो
करुणाकर हे!
सुनों पुकारें, आये।
*****
गुजराती अनुवाद
વન્દના
શરણાગત અમે
શરણાગત અમે
ચિત્રગુપ્ત પ્રભુ
હાથ પસારી આવ્યા .
અમાપ ,અખુંટા ,અજર ,અમર છે
અમિત ,અભય, અવિજયી, અવિનાશી,
નિરાકાર, સાકાર તમે છો
નિર્ગુણ ,સગુણ દેવ આકાશી
પથ -પગ લક્ષ્ય વિજય,યશ તમે છો
તમેજ મત -મતદાતા ,પ્રત્યાશી
અંધકાર મટાવા
સૂર્ય સમક્ષ અમે
દ્વાર તમારે આવ્યા .
વર્ણ ,જાત , ભૂ, ભાષા ,સાગર
અનિલ, અગ્નિ ,ખૂણો ,નભ, નદી ,ગાગર
તાંડવકરનાર નટરાજ બ્રહ્મ તમે
તમેજ બૃજ -રજ ના નટનાગર
પૈગમ્બર,ઈસા, ગુરુ બનીને
તારાજ અંશ શ્રુષ્ટિ છે ભાસ્વર
આત્મા જગાડવાને
ચરણાગત અમે
ઝલક નિહારવાને આવ્યા.
આદિ -અંત ,ક્ષય -ક્ષર વિહીન છે
કટાર-અંજન , કલમ તૂલિકા તમે છો
પારકા નથી કોઈ બધાંજ તમે છો
કાયા માં છે પોતાના બધા અમે
જન્મ -મરણ , યશ-અપયશ ચક્રીત
છાયા-માયા ,સુખ -દુઃખ સર્વ સરખા
દ્વેષ ભુલાવો
કરુણાકર છો
સાંભળો પોકારવાને આવ્યા .
મૂળ રચના :આચાર્ય સંજીવ વર્મા "સલિલ"
ભાવાનુવાદ :કલ્પના ભટ્ટ
***
मुक्तक सलिला
*
जीवन की आपाधापी ही है सरगम-संगीत
रास-लास परिहास इसी में मन से मन की प्रीत
जब जी चाहे चाहों-बाँहों का आश्रय गह लो
आँख मिचौली खेल समय सँग, हँसकर पा लो जीत
*
प्रीत की रीत सरस गीत हुई
मीत सँग श्वास भी संगीत हुई
आस ने प्यास को बुझने न दिया
बिन कहे खूब बातचीत हुई
*
क्या कहूँ, किस तरह कहूँ बोलो?
नित नई कल्पना का रस घोलो
रोक देना न कलम प्रभु! मेरी
छंद ही श्वास-श्वास में घोलो
*
छंद समझे बिना कहे जाते
ज्यों लहर-साथ हम बहे जाते
बुद्धि का जब अधिक प्रयोग किया
यूं लगा घाट पर रहे जाते
*
गेयता हो, न हो भाव रहे
रस रहे, बिम्ब रहे, चाव रहे
बात ही बात में कुछ बात बने
बीच पानी में 'सलिल' नाव रहे
*
छंद आते नहीं मगर लिखता
देखने योग्य नहीं, पर दिखता
कैसा बेढब है बजारी मौसम
कम अमृत पर अधिक गरल बिकता
*
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
*
छंद-छंद में बसे हैं, नटखट आनंदकंद
भाव बिम्ब रस के कसे कितने-कैसे फन्द
सुलझा-समझाते नहीं, कहते हैं खुद बूझ
तब ही सीखेगा 'सलिल' विकसित होगी सूझ
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
* ·
कहाँ और कैसे हो कुछ बतलाओ तो
किसी सवेरे आ कुण्डी खटकाओ तो
बहुत दिनों से नहीं ठहाके लगा सका
बहुत जल चुका थोड़ा खून बढ़ाओ तो
*
क्षणिका :
पुज परनारी संग
श्री गणेश गोबर हुए
रूप - रूपए का खेल
पुजें परपुरुष साथ पर
लांछित हुईं न लक्ष्मी
दोहा :
तुलसी जब तुल सी गयी, नागफनी के साथ
वह अंदर यह हो गयी, बाहर विवश उदास.
सोरठा :
घटे रमा की चाह, चाह शारदा की बढ़े
गगन न देता छाँह, भले शीश पर जा चढ़े
जनक छंद :
नोबल आया हाथ जब
उठा गर्व से माथ तब
आँख खोलना शेष अब
हाइकु :
ईंट रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता
मुक्तक  :
मेरा गीत शहीद हो गया, दिल-दरवाज़ा नहीं खुला
दुनियादारी हुई तराज़ू, प्यार न इसमें कभी तुला
राह देख पथराती अखियाँ, आस निराश-उदास हुई
किस्मत गुपचुप रही देखती, कभी न पाई विहँस बुला
शे'र :
लिए हाथों में अपना सर चले पर
नहीं मंज़िल को सर कर सके अब तक
१०-१०-२०१६
***
लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता थ. क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें शेष सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे.'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका.
१०-१०-२०१४
***
दोहा सलिला :
*
शत वंदन मैया सजा, अद्भुत रूप अनूप
पूनम का राकेश हँस, निरखे रूप अरूप
सलिल-धार बरसा रहे, दर्शन कर घन श्याम
किये नीरजा ने सभी, कमल तुम्हारे नाम
मृदुल कीर्ति का कर रहीं, शार्दूला गुणगान
प्रतिभा अनुपम दिव्य तव, सकता कौन बखान
कुसुम किरण जिस चमन में, करती शर संधान
वहाँ बहार न लुट सके, मधुकर करते गान
मैया भारत भूमि को, ऐसे दें महिपाल
श्री प्रकाश से दीप्त हो, जिनका उन्नत भाल
कर महेश की वंदना, मिले अचल आनंद
ॐ प्रकाश निहारिये, रचकर सुमधुर छंद
प्रणव नाद कर भारती से पायें आशीष
सीता-राम सदय रहें, कृपा करें जगदीश
कंकर-कंकर में बसे, असित अजित अमरीश
धूप-छाँव सुख-दुःख तुम्हीं, श्वेत-श्याम अवनीश
ललित लास्य तुम हास्य तुम, रुदन तुम्हीं हो मौन
कहाँ न तुम?, क्या तुम नहीं? कह सकता है कौन?
रहा ज्ञान पर बुद्धि का, अंकुश प्रति पल नाथ
प्रभु-प्रताप से छंद रच, धन्य कलम ले हाथ
प्रभु सज्जन अमिताभ की, किरण छुए आकाश
नव दुर्गा को नमन कर, पाये दिव्य-प्रकाश
स्नेह-सलिल का आचमन, हरता सकल विकार
कलकल छलछल निनादित, नेह नर्मदा धार
१०-१०-२०१३
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गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

भाषा सेतु

भाषा सेतु 
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
बाङ्ला-हिंदी-गुजराती-छत्तीसगढ़ी  
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।

यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्‍म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***

भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
*
गुजराती में रूपान्तरण -
द्वारा कल्पना भट्ट, भोपाल

શ્રાવણ નભ ની આ અંધારી રાત રે
કેમે પહુંચે બાગ માં કોમળ નાર રે
મસ્ત હવા ફૂંકારે યમુના તીર રે
ગરજે વાદળ ,વરસે મેઘ અહીં રે
દામિની દમકે તરૂ તન કમ્પૅ થર થર રે
ઘન ઘન રીમઝીમ રીમઝીમ રીમઝીમ વરસે વાદળ સમૂહ રે
છે અંધારું ઘોર , તૂટી પડયા છે ઝાડ રે
જાણું છું આ બધું પણ જો ને aa નિષ્ઠુર કાન્હ ને
રાધા નામની મધુર તાણ વગાડતો આ છલિયો રે
સજાઓ મુને મુક્ત મણિ થી
લગાડો માથે એક કાળો દીઠડો રે
ક્ષુબ્ધ હૃદય છે ,લટ બાંધો ,ચંપો બાંધો સુહાથ રે
અરજ કરતો હૂં 'સલિલ' ભાવ ભારી રે
હૂં 'ભાનુ' છું પ્રભુ તમારો દાસ રે .

***
श्रावण नभ् नी आ अंधारी रात रे
केमे पहुंचे बाग़ मां कोमल नार रे
मस्त हवा फुंकारे यमुना तीर रे
गरजे वादळ, वरसे मेघ अहीं रे
दामिनी दमके तरु तन कम्पे थर थर रे
घन घन रिमझिम रिमझिम रिमझिम वरसे वादळ समूह रे
छे अंधारु घोर, टूटी पड्या छे झाड़ रे
जाणु छुं आ बधुं पण जो ने आ निष्ठुर कान्ह ने
राधा नाम नी मधुर तान वगाळतो आ छलियो रे
सजाओ मुने मुक्त मणि थी
लगाड़ो माथे एक काडो डिठडो रे
क्षुब्ध ह्रदय छे ,लट बांधो चम्पो बाँधो सुहाथ रे
अरज करतो हूँ 'सलिल' भाव भारी रे
हूँ ' भानु' छु प्रभु तमारो दास रे
***

छत्तीसगढ़ी रूपांतरण द्वारा ज्योति मिश्र, बिलासपुर
***
सावन आकास मां बादर छागे आधी रात ऱे।
बाड़ी रद्दा कोन जतन जाबे, तैं दूबर मितान रे।
बइहा हवा हे ,जमुना फुंकारे गरजत-बरसत हे मेघ।
चमकत हे बिजरी, रद्दा- पेड़ लोटत झुर-झुर कपथे सरीर।
घन-घन, झिमिर ,झिमिर, झिमिर बरसे बादर के झुण्ड।
साल अउ चार, ताड़-तेज बिरिख अब्बड़ अंधियारे हे बारी।
कइसे मितानिन ! अत्त मचात हे, काबर ये कन्हई।
बंसी बजाथे,"राधा" के नांव ले अब्बड़ दुखिया कन्हई।
मोती, जेवर जाथा पहिरा दे, काला चीन्हा लगा दे माथ।
मन ह ब्याकुल हे, गूंद चोटी पिरो,खोंच चंपा सुहात।
अंधियार रात, झन जाबे छोड़ कन्हाई मिले के आस।
गरजत हे बादर, भय भारी, सुरुज तोरे हे दास।
या
गरजत हे बादर, भय भारी, "भानु" तोरे हे दास।
***