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बुधवार, 29 मार्च 2017

sapt shloki durga - hindi kavyanuvad


नवरात्रि और सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र हिंदी काव्यानुवाद सहित)
*
नवरात्रि पर्व में मां दुर्गा की आराधना हेतु नौ दिनों तक व्रत किया जाता है। रात्रि में गरबा व डांडिया रास कर शक्ति की उपासना तथा विशेष कामनापूर्ति हेतु दुर्गा सप्तशती, चंडी तथा सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती तथा चंडी पाठ जटिल तथा प्रचण्ड शक्ति के आवाहन हेतु है। इसके अनुष्ठान में अत्यंत सावधानी आवश्यक है, अन्यथा क्षति संभावित हैं। दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ करने में अक्षम भक्तों हेतु प्रतिदिन दुर्गा-चालीसा अथवा सप्तश्लोकी दुर्गा के पाठ का विधान है जिसमें सामान्य शुद्धि और पूजन विधि ही पर्याप्त है। त्रिकाल संध्या अथवा दैनिक पूजा के साथ भी इसका पाठ किया जा सकता है जिससे दुर्गा सप्तशती,चंडी-पाठ अथवा दुर्गा-चालीसा पाठ के समान पूण्य मिलता है।
कुमारी पूजन नवरात्रि व्रत का समापन कुमारी पूजन से किया जाता है। नवरात्रि के अंतिम दिन दस वर्ष से कम उम्र की ९ कन्याओं को माँ दुर्गा के नौ रूप (दो वर्ष की कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा, दस वर्ष की सुभद्रा) मान पूजन कर मिष्ठान्न, भोजन के पश्चात् व दान-दक्षिणा भेंट करें। सप्तश्लोकी दुर्गा ॐ निराकार ने चित्र गुप्त को, परा प्रकृति रच व्यक्त किया। महाशक्ति निज आत्म रूप दे, जड़-चेतन संयुक्त किया।। नाद शारदा, वृद्धि लक्ष्मी, रक्षा-नाश उमा-नव रूप- विधि-हरि-हर हो सके पूर्ण तब, जग-जीवन जीवन्त किया।। *
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः
जनक-जननि की कर परिक्रमा, हुए अग्र-पूजित विघ्नेश। आदि शक्ति हों सदय तनिक तो, बाधा-संकट रहें न लेश ।। सात श्लोक दुर्गा-रहस्य को बतलाते, सब जन लें जान- क्या करती हैं मातु भवानी, हों कृपालु किस तरह विशेष? * शिव उवाच- देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी। कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः॥ शिव बोले: 'सब कार्यनियंता, देवी! भक्त-सुलभ हैं आप। कलियुग में हों कार्य सिद्ध कैसे?, उपाय कुछ कहिये आप।।' * देव्युवाच- श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्‌। मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥ देवी बोलीं: 'सुनो देव! कहती हूँ इष्ट सधें कलि-कैसे? अम्बा-स्तुति बतलाती हूँ, पाकर स्नेह तुम्हारा हृद से।।' * विनियोग-
स्वस्थ्य चित्त वाले सज्जन, शुभ मति पाते, जीवन खिलता है।
अनुष्टप्‌ छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः। ॐ रचे दुर्गासतश्लोकी स्तोत्र मंत्र नारायण ऋषि ने छंद अनुष्टुप महा कालिका-रमा-शारदा की स्तुति में श्री दुर्गा की प्रीति हेतु सतश्लोकी दुर्गापाठ नियोजित।। * ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥१॥ ॐ ज्ञानियों के चित को देवी भगवती मोह लेतीं जब। बल से कर आकृष्ट महामाया भरमा देती हैं मति तब।१। * दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि। दारिद्र्‌यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥२॥ माँ दुर्गा का नाम-जाप भयभीत जनों का भय हरता है,
रोगानशोषानपहंसि तुष्टा
दुःख-दरिद्रता-भय हरने की माँ जैसी क्षमता किसमें है? सबका मंगल करती हैं माँ, चित्त आर्द्र पल-पल रहता है।२। * सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥३॥ मंगल का भी मंगल करतीं, शिवा! सर्व हित साध भक्त का। रहें त्रिनेत्री शिव सँग गौरी, नारायणी नमन तुमको माँ।३। * शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते॥४॥ शरण गहें जो आर्त-दीन जन, उनको तारें हर संकट हर। सब बाधा-पीड़ा हरती हैं, नारायणी नमन तुमको माँ ।४। * सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥५॥ सब रूपों की, सब ईशों की, शक्ति समन्वित तुममें सारी। देवी! भय न रहे अस्त्रों का, दुर्गा देवी तुम्हें नमन माँ! ।५। *
***
रूष्टा तु कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्माश्रयतां प्रयान्ति॥६॥ शेष न रहते रोग तुष्ट यदि, रुष्ट अगर सब काम बिगड़ते। रहे विपन्न न कभी आश्रित, आश्रित सबसे आश्रय पाते।६। * सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि। एवमेव त्वया कार्यमस्यद्वैरिविनाशनम्‌॥७॥ माँ त्रिलोकस्वामिनी! हर कर, हर भव-बाधा। कार्य सिद्ध कर, नाश बैरियों का कर दो माँ! ।७। * ॥इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा संपूर्णम्‌॥
।श्री सप्तश्लोकी दुर्गा (स्तोत्र) पूर्ण हुआ।

बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II मूल पाठ-तद्रिन, हिंदी काव्यानुवाद-संजीव 'सलिल'

 II  ॐ II

***********************************II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II

( मूल पाठ-तद्रिन हिंदी काव्यानुवाद-संजीव 'सलिल' )

नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते I
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II१II

सुरपूजित श्रीपीठ विराजित, नमन महामाया शत-शत.
शंख चक्र कर-गदा सुशोभित, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

नमस्ते गरुड़ारूढ़े कोलासुर भयंकरी I
सर्व पापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II२II

कोलाsसुरमर्दिनी भवानी, गरुड़ासीना नम्र नमन.
सरे पाप-ताप की हर्ता,  नमन महालक्ष्मी शत-शत..

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी I
सर्व दु:ख हरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II३II

सर्वज्ञा वरदायिनी मैया, अरि-दुष्टों को भयकारी.
सब दुःखहरनेवाली, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

सिद्धि-बुद्धिप्रदे देवी भुक्ति-मुक्ति प्रदायनी I
मन्त्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II४II

भुक्ति-मुक्तिदात्री माँ कमला, सिद्धि-बुद्धिदात्री मैया.
सदा मन्त्र में मूर्तित हो माँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

आद्यांतर हिते देवी आदिशक्ति महेश्वरी I
योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II५II

हे महेश्वरी! आदिशक्ति हे!, अंतर्मन में बसो सदा.
योग्जनित संभूत योग से, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

स्थूल-सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोsदरे I
महापापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II६II

महाशक्ति हे! महोदरा हे!, महारुद्रा  सूक्ष्म-स्थूल.
महापापहारी श्री देवी, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्ह स्वरूपिणी I
परमेशीजगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II७II

कमलासन पर सदा सुशोभित, परमब्रम्ह का रूप शुभे.
जगज्जननि परमेशी माता, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

श्वेताम्बरधरे देवी नानालंकारभूषिते I
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II८II

दिव्य विविध आभूषणभूषित, श्वेतवसनधारे मैया.
जग में स्थित हे जगमाता!, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

महा लक्ष्यमष्टकस्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर: I
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यंप्राप्नोति सर्वदा II९II

जो नर पढ़ते भक्ति-भाव से, महालक्ष्मी का स्तोत्र.
पाते सुख धन राज्य सिद्धियाँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

एककालं पठेन्नित्यं महापाप विनाशनं I
द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन-धान्यसमन्वित: II१०II

एक समय जो पाठ करें नित, उनके मिटते पाप सकल.
पढ़ें दो समय मिले धान्य-धन, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रु विनाशनं I
महालक्ष्मीर्भवैन्नित्यं प्रसन्नावरदाशुभा II११II

तीन समय नित अष्टक पढ़िये, महाशत्रुओं का हो नाश.
हो प्रसन्न वर देती मैया, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

 II तद्रिन्कृत: श्री महालक्ष्यमष्टकस्तोत्रं संपूर्णं  II

तद्रिंरचित, सलिल-अनुवादित, महालक्ष्मी अष्टक पूर्ण.
नित पढ़ श्री समृद्धि यश सुख लें, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

*********

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

अष्टावक्र गीता काव्यानुवाद --मृदुल कीर्ति

 
काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति  
   संग्रह —
अष्टावक्र गीता / मृदुल कीर्ति
यह देह , मन ,बुद्धि ,अहम् भ्रम जाल किंचित सत नहीं ,
पर कर्म कर कर्तव्य वत्बिन चाह फल के , रत नहीं .[1]
अब तेरी चेष्टाएं सब प्रारब्ध के आधीन हैं
कर्म रत पर मन विरत , चित्त राग द्वेष विहीन हैं [ २ ]
पर रूप में जो अरूप है , वही सत्य ब्रह्म स्वरूप है
दृष्टव्य अनुभव गम्य जो , तेरे भाव के अनुरूप है. [ ३ ]
तू शुद्ध , बुद्ध, प्रबुद्ध , चिन्मय आत्मा चैतन्य है .
बोध रूप अरूप ब्रह्म का , तत्व है तू धन्य है . [ ४ ]
यह तू है और मैं का विभाजन , अहम् मय अभिमान है ,
व्यक्तिव जब अस्तित्व में मिल जाए तब ही विराम है , [ ५ ]
निर्जीव होने से प्रथम , निर्बीज यदि यह जीव है
उन्मुक्त , मुक्त विमुक्त , यद्यपि कर्मरत है सजीव है . [ ६ ]
अनेकत्व से एकत्व का , जब बोध उदबोधन हुआ ,
बस उसी पल आत्मिक जीवन का संशोधन हुआ , [ ७ ]
विक्षेप मन चित , देह और संसार के निःशेष हैं ,
सर्वोच्च स्थिति आत्मज्ञान में आत्मा ही शेष है . [ ८ ]
ब्रह्माण्ड में चैतन्य की ही ऊर्जा है , विधान है ,
निर्जीव रह निर्बीज कर , यही मूल ज्ञान प्रधान है [ ९ ]
जनक उवाचः

हे ईश ! मानव ज्ञान कैसे , प्राप्त कर सकता अहो !
हमें मुक्ति और वैराग्य कैसे , मिल सकें कृपया कहो [ १ ]

अष्टावक्र उवाचः
प्रिय तात यदि तू मुमुक्ष, तज विषयों को ,जैसे विष तजें,
सन्तोष, करूणा सत, क्षमा, पीयूष वत नित -नित भजें . [ २ ]

न ही वायु, जल, अग्नि, धरा और न ही तू आकाश है,
मुक्ति हेतु साक्ष्य तू, चैतन्य रूप प्रकाश है . [ ३ ]

यदि पृथक करके देह भाव को, देही में आवास हो
तब तू अभी सुख शांति, बन्धन मुक्त भव, विश्वास हो .[ ४ ]

वर्ण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है,
आकार हीन असंग केवल, साक्ष्य भाव प्रबंध है . [ ५ ]

सुख दुःख धर्म - अधर्म मन के, विकार हैं तेरे नहीं,
कर्ता, कृतत्त्व का और भर्ता भाव भी घेरे नहीं . [ ६ ]

सर्वस्व दृष्टा एक तू , और सर्वदा उन्मुक्त है ,
यदि अन्य को दृष्टा कहे, भ्रम, तू ही बन्धन युक्त है . [ ७ ]

तू अहम् रुपी सर्प दंषित, कह रहा कर्ता मैं ही ,
विश्वास रुपी अमिय पीकर कह रहा, कर्ता नहीं . [ ८ ]

मैं सुध, बुद्ध, प्रबुद्ध, चेतन, ज्ञानमय चैतन्य हूँ,
अज्ञान रुपी वन जला कर, ज्ञान से मैं धन्य हूँ . [९ ]

सब जगत कल्पित असत, रज्जु मैं सर्प का आभास है
इस बोध का कारण कि तुझमें, भ्रम का ही वास है .[१०]

प्रथम प्रकरण / श्लोक 11-20 / मृदुल कीर्ति

 
अष्टावक्र उवाचः
जो मुक्त माने ,मुक्त स्व को, बद्ध माने बद्ध है,
जैसी मति वैसी गति, किवंदंती ऐसी प्रसिद्ध है.---११

परिपूर्ण,पूर्ण है, एक विभु, चैतन्य साक्षी शांत है,
यह आत्मा निःस्पृह विमल , संसारी लगती भ्रांत है .---१२

यह देह मन बुद्धि अहम्, ममकार , भ्रम, है अनित्य हैं,
कूटस्थ बोध अद्वैत निश्चय , आत्मा ही नित्य है.---१३

बहुकाल से तू देह के अभिमान में आबद्ध है,
कर ज्ञान रूपी अरि से बेधन, नित्य तब निर्बद्ध है.---१४

निष्क्रिय निरंजन स्व प्रकाशित , आत्म तत्व असंग है,
तू ही अनुष्ठापित समाधी, कर रहा क्या विसंग है.---१५

यह विश्व तुझमें ही व्याप्त है, तुझमें पिरोया सा हुआ,
तू वस्तुतः चैतन्य, सब तुझमें समाया सा हुआ.---१६

निरपेक्ष अविकारी तू ही, चिर शान्ति मुक्ति का मूल है,
चिन्मात्र चिद्घन रूप तू, चैतन्य शक्ति समूल है .---१७

देह मिथ्या आत्म तत्व ही , नित्य निश्चल सत्य है ,
उपदेश यह ही यथार्थ, जग आवागमन, से मुक्त है.---१८

ज्यों विश्व में प्रतिबिम्ब अपने रूप का ही वास है,
त्यों बाह्य अंतर्देह में, परब्रह्म का आवास है.---१९

ज्यों घट में अन्तः बाह्य स्थित सर्वगत आकाश है,
त्यों नित निरंतर ब्रह्म का सब प्राणियों में प्रकाश है.---२०

द्वितीय प्रकरण / श्लोक 1-12 / मृदुल कीर्ति

बोधस्वरूपी मैं निरंजन , शांत प्रकृति से परे,
ठगित मोह से काल इतने , व्यर्थ संसृति में करे.----१

ज्यों देह देही से प्रकाशित, जगत भी ज्योतित तथा,
या तो जगत सम्पूर्ण या कुछ भी नहीं मेरा यथा .----२

इस देह में ही विदेह जग से त्याग वृति आ गई
आश्चर्य ! कि पृथकत्व भाव से ब्रह्म दृष्टि भा गई ----३

ज्यों फेन और तरंग में , जल से न कोई भिन्नता,
त्यों विश्व ,आत्मा से सृजित , तद्रूप एक अभिन्नता ----४

ज्यों तंतुओं से वस्त्र निर्मित, तन्तु ही तो मूल हैं.
त्यों आत्मा रूपी तंतुओं से, सृजित विश्व समूल हैं.----५

ज्यों शर्करा गन्ने के रस से ही विनिर्मित व्याप्त है,
त्यों आत्मा में ही विश्व , विश्व में आत्मा भी व्याप्त है.----६

संसार भासित हो रहा, बिन आत्मा के ज्ञान से,
ज्यों सर्प भासित हो रहा हा,रज्जू के अज्ञान से.----७

ज्योतिर्मयी मेरा रूप मैं, उससे पृथक किंचित नहीं ,
जग आत्मा की ज्योति से ,ज्योतित निमिष वंचित नहीं ----८

अज्ञान- से ही जगत कल्पित , भासता मुझमें अहे,
रज्जू में ,अहि सीपी में चांदी , रवि किरण में जल रहे .-----९

माटी में घट जल में लहर , लय स्वर्ण भूषन में रहे ,
वैसे जगत मुझसे सृजित , मुझमें विलय कण कण अहे.----१०

ब्रह्मा से ले पर्यंत तृण, जग शेष हो तब भी मेरा,
अस्तित्व, अक्षय , नित्य, विस्मय, नमन हो मुझको मेरा.---११

मैं देहधारी हूँ, तथापि अद्वैत हूँ, विस्मय अहे,
आवागमन से हीन जग को व्याप्त कर स्थित महे.-----१२
 
मुझको नमन आश्चर्यमय ! मुझसा न कोई दक्ष है.
स्पर्श बिन ही देह धारूँ, जगत क्या समकक्ष है.------१३

मैं आत्मा आश्चर्य वत हूँ , स्वयं को ही नमन है,
या तो सब या कुछ नहीं, न वाणी है न वचन है.------१४

जहाँ ज्ञेय, ज्ञाता,ज्ञान तीनों वास्तविकता मैं नहीं,
अज्ञान- से भासित हैं केवल, आत्मा सत्यम मही.------१५

चैतन्य रस अद्वैत शुद्ध,में,आत्म तत्व महिम मही,
द्वैत दुःख का मूल, मिथ्या जगत, औषधि भी नहीं.-----१६

अज्ञान- से हूँ भिन्न कल्पित, अन्यथा मैं अभिन्न हूँ,
मैं निर्विकल्प हूँ, बोधरूप हूँ, आत्मा अविछिन्न हूँ.------१७

में बंध मोक्ष विहीन, वास्तव में जगत मुझमें नहीं,
हुई भ्रांति शांत विचार से, एकत्व ही परमं मही.-------१८

यह देह और सारा जगत, कुछ भी नहीं चैतन्य की,
एक मात्र सत्ता का पसारा, कल्पना क्या अन्य की -----१९

नरक, स्वर्ग, शरीर, बन्धन, मोक्ष भय हैं, कल्पना,
क्या प्रयोजन आत्मा का, चैतन्य का इनसे बना.----२०

हूँ तथापि जन समूहे, द्वैत भाव न चित अहो,
एकत्व और अरण्य वत, किसे दूसरा अपना कहो.----२१

न मैं देह न ही देह मेरी, जीव भी में हूँ नहीं,
मात्र हूँ चैतन्य, मेरी जिजीविषा बन्धन मही.-----२२

मैं महोदधि, चित्त रूपी पवन भी मुझमें अहे,
विविध जग रूपी तरंगें, भिन्न न मुझमें रहे .----२३

मैं महोदधि चित्त रूपी, पवन से मुझमें मही,
विविध जगरूपी तरंगें, भाव बन कर बह रहीं .----२४

मैं महोदधि, जीव रूपी, बहु तरंगित हो रहीं,
ज्ञान से मैं हूँ यथावत, न विसंगति हो रही.-----२५

तृतीय प्रकरण / श्लोक 1-7 / मृदुल कीर्ति
 
अद्वैत आत्मिक अमर तत्व से, सर्वथा तुम् विज्ञ हो,
क्यों प्रीति, संग्रह वित्त में, ऋत ज्ञान से अनभिज्ञ हो.---१

ज्यों सीप के अज्ञान से,चांदी का भ्रम और लोभ हो,
त्यों आत्मा के अज्ञान से,भ्रमित मति, अति क्षोभ हो.----२

आत्मा रूपी जलधि में, लहर सा संसार है,
मैं हूँ वही, अथ विदित, फ़िर क्यों दीन, हीन विचार हैं.------३

अति सुन्दरम चैतन्य पावन, जानकर भी आत्मा,
अन्यान्य विषयासक्त यदि,तू मूढ़ है, जीवात्मा.-------४

आत्मा को ही प्राणियों में,आत्मा में प्राणियों
आश्चर्य !ममतासक्त मुनि, यह जान कर भी ज्ञानियों.-----५

स्थित परम अद्वैत में, तू शुद्ध, बुद्ध, मुमुक्ष है,
आश्चर्य ! है यदि तू अभी, विषयाभिमुख कामेच्छु है.-----६

काम रिपु है ज्ञान का, यह जानते ऋषि जन सभी,
आश्चर्य ! कामासक्त हो सकता है मरणासन्न भी.------७
 
 
 
 
विरत नित्यानित विवेचक, भोग हैं निरपेक्ष में,
आश्चर्य ! है यद्यपि मुमुक्षु , भय तथापि मोक्ष में.-----८

ज्ञानी जन तो भोग पीडा , भाव में समभाव हैं,
हर्ष क्रोध का आत्मा ,पर कोई भी न प्रभाव है.----९

देह में वैदेह ऋत अर्थों में ,है ज्ञानी वही,
हों भाव सम निंदा प्रसंशा , में कोई अन्तर नहीं . ------१०

अज्ञान जिसका शेष, ऐसा धीर इस संसार को,
मात्र माया मान, तत्पर मृत्यु के सत्कार को.-----११

इच्छा रहित मन मोक्ष में भी, महि महिम महिमा महे,
उस आत्म ज्ञानी से तृप्त जन की, साम्यता किससे अहे.----१२

धीर ज्ञानी जानता है, जगत छल है प्रपंच है,
ग्रहण त्याग से मन परात्पर, न रमे कहीं रंच है.-----१३

वासना के कषाय कल्मष, जिसने अंतस से तजे,
निर्द्वंद दैविक सुख या दुःख, पर शान्ति अंतस में सजे.-----१४
 
 
आत्म ज्ञानी धीर जन के, कर्म अतिशय गूढ़ हैं,
जग लिप्त जन से साम्यता, किंचित करें वे मूढ़ हैं.----१

देवता इन्द्रादि भी, इच्छुक हैं जिस पद को मही,
स्थित उसी पद पर अहो! योगी को किंचित मद नहीं.-----२

निर्लिप्त अंतस पाप -पुण्य से, आत्म ज्ञानी का रहे,
ज्यों गगन का धूम से ,सम्बन्ध किंचित न रहे.------३

विश्वात्मा के रूप में, देखा जगत जिस संत ने,
उसे कोई इच्छित कार्य से, नहीं रोक सकता अनंत में.------४

ब्रह्मा से पर्यंत चींटी, चार जीव प्रकार हैं,
बस विज्ञ को इच्छा अनिच्छा, त्याग पर अधिकार है.-------५

है आत्मा परमात्म मय, कोई विरला जानता,
ज्ञानी ही निर्द्वंद केवल कर सके जो ठानता .--------६
 
अष्टावक्र उवाचः
नहीं संग है तेरा किसी से, शुद्ध तू चैतन्य है,
त्याज्य, तन अभिमान ताज दे, मोक्ष पा तू अनन्य है.-----१

तुझसे निःसृत संसार, जैसे जलधि से हो बुलबुला
आत्मा के एकत्व बोध से, मोक्ष शान्ति पथ खुला.------२

दृश्य जग प्रत्यक्ष किंतु , रज्जू सर्प प्रतीत है,
चैतन्य पर तेरी आत्म तत्व में, सत्य दृढ़ प्रतीति है.----३

आशा-निराशा , दुःख -सुख, जीवन -मरण समभाव हैं,
ब्रह्म -दृष्टि, प्रज्ञ स्थित, पर न इसका प्रभाव है.------४
 
अष्टावक्र उवाचः
घटवत जगत, प्रकृति निःसृत आकाश वाट में अनंत है,
अतः इसके ग्रहण त्याग और लय में भी निश्चिंत है.-------१

में समुद्र सदृश्य हूँ, यह जग तरंगों तुल्य है,
अतः इसके ग्रहण, लय और त्याग का क्या मूल्य है.------२

सीपवत मैं हूँ यथा जग में रजत सम भ्रान्ति है,
अतः इसको ग्रहण लय न त्याग, ज्ञान ही, शान्ति है.------३

में आत्मा अद्वैत व्यापक , प्राणियों का मूल हूँ,
अतः इसके ग्रहण लय और त्याग में निर्मूल्य हूँ.------४
 
मुझ अनंत महोदधि में, विश्व रूपी नाव जो,
मन स्वरूपी पवन विचलित, पर न मैं सम्भव जो.------१

मुझ अनंत महोदधि में, जग कल्लोल स्वभाव जो,
उदय, चाहे अस्त, अब मैं वृद्धि क्षय, समभाव जो.-----२

मैं अनंत महोदधि , जग कल्पना निःसार है,
अब शांत, मैं स्थित अवस्था, में न कोई विकार है .----३

आसक्ति विषयों के प्रति, मन देह की मेरी नहीं,
आत्मज्ञ , मुक्त हूँ स्पृहा से, विषयों की चेरी नहीं.------४

आश्चर्य ! मैं चैतन्य और यह विश्व मात्र प्रपंच है,
अतः जग की लाभ हानि मैं, रूचि नहीं रंच है.-----५
 
कुछ त्यागता कुछ ग्रहण करता, मन दुखित हर्षित कभी,
यही भाव मन के विकार , बंधन युक्त हैं, बंधित सभी.--------१

न ही ग्रहण, न ही त्याग , दुःख से परे मन मोक्ष है,
एक रस मन की अवस्था, सर्वदा निरपेक्ष है.-----२

मन लिप्त होता जब कहीं, तो बंध बंधन हेतु है,
निर्लिप्त होता जब वही मन , मोक्ष का मन सेतु है.-----३

"मैं" भाव ही बंधन महत, " मैं " का हनन ही मोक्ष है,
त्याग और ग्रहण से हो परे मन, तब मनन निरपेक्ष है.----------४
 
अष्टावक्र उवाचः
कर्म कृत और अकृत दुःख - सुख, शांत कब किसके हुए
त्यक्त वृति, अव्रती चित्त, निरपेक्ष हैं जिनके हिये.-----१

उत्पत्ति और विनाश धर्मा तात ! विश्व नितांत है,
जगत के प्रति जिजीविषा, नहीं संत की भी शांत है.-----२

त्रैताप दूषित, हेय, निन्दित , जगत केवल भ्रान्ति है,
त्यक्त है, निःसार जग को, त्यागने में शान्ति है.-----३

वह अवस्था काल कौन सी, जब मनुज निर्द्वंद हो,
सुलभ से संतुष्ट, सिद्धि पथ चले , स्वच्छंद हो.------४

बहु मत मतान्तर योगियों की, मति भ्रमित करते यथा,
अध्यात्म और वैरागियों की, शान्ति भंग करें तथा.-----५

प्रारब्ध के अनुसार तेरी, देह गति व्यवहार है,
तू वासनाएं सकल तज दे, वासना संसार है.------६

जब इन्द्रियों ही इन्द्रियों में, देह वर्ते देह में,
तत्काल बंधन मुक्त प्राणी, आत्मा निज गह में.-----७

हेय तात ! तज दे वासनाएं, वासना संसार है,
कृत कर्म अब जो भी करे, प्रारब्ध का ही प्रकार है.-----८
 
 
सब अनर्थों का मूल कारण, अर्थ है और काम है,
इनकी उपेक्षा मूल धर्म है, कर्म में निष्काम है.------१

धन, मित्र, क्षेत्र , निकेत, स्त्री, बंधु स्वप्न समान हैं,
इन्द्र जाल समान, पाँच या तीन दिन के विधान हैं.-----२

जिस वस्तु में इच्छा बसे , समझो वहां संसार है,
वैराग्य भाव प्रधान चित्त से,जान सब निःसार है.------३

संसार तृष्णा रूप है,तृष्णा जहों संसार है,
वैराग्य आश्रय हो मना, तृष्णा रहित सुख सार है.-----४

यह अविद्या भी असत और असत जड़ संसार है,
चैतन्य रूप विशुद्ध, तुझको तो जगत निःसार है.-----५

देह, नारी, राज्य, सुत आसक्त जन के सुख सभी,
हर जनम में मरण धर्मा, नष्ट ये होंगे सभी.-----६

धर्म, अर्थ, और काम हित, बहु कर्म तो कितने किए,
जगत रुपी वन में तो भी, शान्ति हित भटके हिये.-----७

देह, मन, वाणी से श्रम, दुःख पूर्ण बहु तूने किए,
उपराम कर अब तो तनिक, विश्रांति चित हिय में किए.-----८

श्वेताश्वतर उपनिषद्- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति


 
श्वेताश्वतर उपनिषद्- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति  



शान्ति मंत्र

ॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

रक्षा करो, पोषण करो, गुरु शिष्य की प्रभु आप ही,
ज्ञातव्य ज्ञान हो तेजमय, शक्ति मिले अतिशय मही।
न हों पराजित हम किसी से ज्ञान विद्या क्षेत्र में,
हो त्रिविध तापों की निवृति, अशेष प्रेम हो नेत्र में।

किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा।
अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥१॥
क्या इस जगत का मूल कारण, ब्रह्म कौन व् हम सभी?
उत्पन्न किससे, किसमें जीते, किसके हैं आधीन भी?
किसकी व्यवस्था के अनंतर, दुःख सुख का विधान है,
कथ कौन संचालक जगत का, कौन ब्रह्म महान है? [ १ ]

कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।
संयोग एषां न त्वात्मभावा-दात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः॥२॥

कहीं मूल कारण काल को कहीं प्रवृति को कारण कहा,
कहीं कर्म कारण तो कहीं, भवितव्य को माना महा,
पाँचों महाभूतों को कारण, तो कहीं जीवात्मा,
पर मूल कारण और कुछ, जिसे जानता परमात्मा। [ २ ]

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्।
यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः॥३॥

वेदज्ञों ने तब ध्यान योग से ब्रह्म का चिंतन किया,
उस आत्म भू अखिलेश ब्रह्म को, जाना जब मंथन किया।
परब्रह्म त्रिगुणात्मक लगे, पर सत्व, रज, तम से परे,
संपूर्ण कारण तत्वों पर, एकमेव ही शासन करे। [ ३ ]

तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः।
अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम्॥४॥

यह विश्व रूप है चक्र उसका , एक नेमि केन्द्र है,
सोलह सिरों व् तीन घेरों, पचास अरों में विकेन्द्र है।
छः अष्टको बहु रूपमय और त्रिगुण आवृत प्रकृति है,
इस विश्व चक्र में सम अरों, अंतःकरण की प्रवृति है। [ ४ ]

पञ्चस्रोतोम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां पञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम्।
पञ्चावर्तां पञ्चदुःखौघवेगां पञ्चाशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः॥५॥

यदि विश्व रूप नदी का है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ,
दुर्गम गति व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ।
ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट है,
अज्ञान, मद, तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। [ ५ ]

सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते अस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति॥६॥

है जीविका आश्रय जगत, परब्रह्म प्रभु परमात्मा,
स्व कर्मों के अनुरूप घूमे, चक्र में जीवात्मा।
वह ब्रह्म में यदि लीन हो तो, जन्म मृत्यु से मुक्त हो,
होकर अमियमय शुद्ध, शाश्वत ब्रह्म से संयुक्त हो। [६]

उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः॥७॥

परब्रह्म जो वेदों में वर्णित, सर्व श्रेष्ठ है अमर है,
उसमें ही तीनों लोक स्थित, वही मुक्ति की डगर है।
उस हृदय स्थित ब्रह्म को, वेदज्ञ समुचित जानते,
उसके परायण लीन हो अथ मुक्ति पथ पहचानते। [७]

संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः।
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृ-भावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥८॥

चेतन व जड़ संयोग से, अव्यक्त -व्यक्त जो जग यहाँ,
धारक व पोषक ब्रह्म तो, जीवात्मा भोक्ता यहाँ।
विषयों के भोगों से, प्रकृति आधीन बंधता जीव है,
हो प्रभु अहैतु की कृपा, तो मुक्त होता जीव है। [८]

ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता।
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्॥९॥

परब्रह्म जीव व् प्रकृति में, परमात्मा का तत्व है,
तीनों अनादि अजन्मा पर, परब्रह्म अद्भुत सत्व है।
यह विश्व रूप विराट का, निष्काम ब्रह्म की वृति है,
मानव जो जाने मर्म प्रवृति, जन्म मृत्यु से निवृति है। [९]

क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्व भावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥१०॥

जीवात्मा अक्षय, अमर, क्षयशील प्रकृति की वृति है,
जड़ तत्व चेतन आत्मा में, प्रभुत्व प्रभु की शक्ति है।
उसका सतत जो स्मरण, और ध्यान में तन्मय रहे,
तो अंत में माया निवृति और चित्त में चिन्मय रहे। [१०]

ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः वलेशेर्जन्ममृत्युप्रहाणिः।
तस्याभिध्यानात्तृतीयं देहभेदे विश्वैश्वर्यं केवल आप्तकामः॥११॥

परब्रह्म प्रभु के सतत चिंतन से ही पाप का नाश हो,
हो जन्म मृत्यु का सर्वथा ही अभाव मन में प्रकाश हो।
वही मुक्तकाम हो, जीव वृतियां सात्विक सम्पूर्ण हो,
वही आप्तकाम विशुद्ध, अतिशय निर्विकल्प हो पूर्ण हो। [११]

एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥१२॥

परब्रह्म अपने हृदय स्थित, एक मात्र ही ज्ञेय है,
इससे परम और चरम, कोई भी नहीं, न श्रेय है।
जीवात्मा जड़ वर्ग के, प्रेरक परम प्रभु ब्रह्म हैं,
वह ही नियामक ज्ञात हो तो, कहाँ कुछ भी अगम्य है। [१२]

वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिनर् दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः।
स भूय एवेन्धनयोनिगृह्य स्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे॥१३॥

ज्यों अरणियों में अग्नि, पर किंचित नहीं दृष्टव्य है,
त्यों ब्रह्म में जीवात्मा होती नहीं ज्ञातव्य है।
पर ॐ जप निश्चय करे, साक्षात उस परमेश को,
अदृश्य पर अणु- कण बसे, अद्भुत अगम्य विशेष को। [१३]

स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।
ध्याननिर्मथनाभ्यासादेवं पश्यन्निगूढवत्॥१४॥

जब दो अरणियों का हो मंथन, अग्नि तब ही प्रगट हो,
स्व देह अर्णिम, प्रणव अर्णिम, से ही परब्रह्म निकट हों।
ओमकार का जप, ध्यान द्वारा, यदि निरंतर जाप हो,
तब काष्ठ निहित अग्नि सम ही, प्रगट प्रभुवर आप हों। [१४]

तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पि रापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः।
एवमात्माऽत्मनि गृह्यतेऽसौ सत्येनैनं तपसायोऽनुपश्यति॥१५॥

जैसे दही में घी, तिलों में तेल, जल श्रोतों में है,
अग्नि अरणियों में यथा,परमात्मा हृदयों में है।
यदि सत्य संयम रूप तप निष्काम वृति साधक में हो,
मिले निश्चय ही परमात्मा, किंचित कोई बाधक न हो। [१५]

सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्।
आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम्॥१६॥

ज्यों दूध में स्थित है घी, सर्वत्र है परिपूर्ण है,
त्यों पूर्ण प्रभु परमेश जग में व्याप्त है सम्पूर्ण है।
वह आत्म विद्या और तप, साधन से ही प्राप्तव्य है,
परब्रह्म तत्व परम प्रभो, उपनिषदों से ज्ञातव्य है। [१६]

द्वितीय अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः।
अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत्॥१॥

अति प्रथम सृष्टा मन हमारी बुद्धि को पावन करे,
हों बाह्य विषयासक्ति निवृति और सत्य स्थापन करें
जिससे हमारी इन्द्रियों की शक्ति अंतर्मुख रहे,
पार्थिव पदार्थों से विमुख, पर ब्रह्म से आमुख रहे॥ [ १ ]

युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे।
सुवर्गेयाय शक्त्या॥२॥

परमेश की आराधना मय, यज्ञ में मन लीन जो,
मन के ही द्वारा परम सुख , आनंद मय परब्रह्म भजो
आराधना में मन लगे, और प्रार्थना विभु की करें.
हम सब यथा शक्ति सतत , अभ्यर्थना प्रभु की करें॥ [ २ ]

युक्त्वाय मनसा देवान् सुवर्यतो धिया दिवम्।
बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान्॥३॥

जो व्योम में स्वर्गादि लोकों में गमन करते सदा,
ज्योति विकीरण वे करें , देवें सहारा सर्वदा.
मन बुद्धि को संयुक्त हे सविता !हमारी वे करें,
आलस्य निद्रा , ध्यान के जो विघ्न हैं वे सब हरें॥ [ ३ ]

युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥४॥

जिस परम ब्रह्म में विप्र अपनी , बुद्धि करते प्रवृत हैं
अग्नि होत्र व् स्वस्ति वृतियों में चित्त जिनका नियत है.
ऐसे विचारक चिंतकों से हम करें स्तुति वही,
जिस सर्वव्यापी , अज्ञ ब्रह्म की महिमा न जाती कही॥ [ ४ ]

युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूरेः।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥५॥

मन बुद्धि के स्वामी तथा अति आदि कारण सृष्टि के,
पुनि नमन में संयुक्त ब्रह्म से , और याचक दृष्टि के.
इस श्लोक स्तुति पाठ से , शुभ कीर्ति का विस्तार हो ,
अमर ब्रह्म के पुत्र भी सब सुनें इसका प्रसार हो॥ [ ५ ]

अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र सञ्जायते मनः॥६॥

ओंकार के जप ध्यान द्वारा, ब्रह्म रूपी अग्नि को ,
ज्योतित प्रकाशित जब करें, तब विजित करते विध्न को.
विधिवत निरोध हो प्राण वायु का, सोम रस आनंद हो ,
उस स्थिति में सर्वदा मन शुद्ध , शेष भी द्वंद हों॥ [ ६ ]

सवित्रा प्रसवेन जुषेत ब्रह्म पूर्व्यम्।
यत्र योनिं कृणवसे न हि ते पूर्तमक्षिपत्॥७॥

अति आदि कारण ब्रह्म ही, सृष्टा है सारी सृष्टि का
साधक करे आराधना तो पात्र हो शुभ दृष्टि का.
फ़िर पूर्व साँची कर्म न बाधक हों जड़ता शेष हो,
यदि सर्व आश्रय लीन ऋत साधक की दृढ़ता विशेष ॥ [ ७ ]

त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयानकानि॥८॥

साधक गला, सिर और छाती, तीनों को उन्नत रखे,
करे सीधा और स्थिर शरीर व् इन्द्रियों में सत रखे.
फ़िर इन्द्रियों को मन के द्वारा हृदय में संचित करे,
ओंकार की नौका से दुष्कर , भव प्रवाहों से तरे॥ [ ८ ]

प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत।
दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः॥९॥

आहार और विहार भी साधक के समुचित योग्य हों ,
प्राणायाम से प्राण सूक्ष्म व् उच्छ्वास के योग्य हों.
तब दुष्ट घोडों से युक्त रथ, ज्यों सारथी वश में करे,
त्यों योग्य साधक इन्द्रियों को , साध मन वश में करे॥ [ ९ ]

समे शुचौ शर्करावह्निवालिका विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः।
मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत्॥१०॥

हो ध्यान स्थल सुखद शीतल, शुद्ध, समतल, शांत भी.
अति, शुचि, मनोरम, सौम्य बहु, हों दृश्य सुखदायक सभी .
बहु अग्नि बालू और कंकड़, वायु शून्य गुहा न हो.
बहु लोग आश्रय, आगमन, व्यवधान और जहाँ न हो॥ [ १० ]

नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्।
एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥११॥

कोहरा, धुआं, रवि, वायु, अग्नि व् स्फटिक, मणि शशि कभी,
जुगनू व् बिजली के समानान्तर हो दृश्यों के सभी.
पुनरावृति योगी को हो, जो ब्रह्म योग में लीन हैं,
ये सफलता के चिन्ह, योगी ऋत दिशा तल्लीन है॥ [ ११ ]

पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥१२॥

आकाश, पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, ये पाँचों तत्व का.
साधक में जब उत्थान और अधिकार होता सत्व का.
उस योग अग्निमय देह में , कभी रोग का न प्रवेश हो.
न ज़रा, न मृत्यु असमय , इच्छा शक्ति विशेष हो॥ [ १२ ]

लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादः स्वरसौष्ठवं च।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति॥१३॥

आरोग्य जड़ता , हीनता, हर्षित हृदय व् प्रफुल्लता,
विषयासक्ति की निवृति, वाणी में मृदु स्वर मृदुलता.
देह में हो गंध सुरभित, वर्ण की उज्जवलता
अविकारी होवें सिद्ध , जब हो सिद्धिओं की बहुलता॥ [ १३ ]

यथैव बिंबं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम्।
तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः॥१४॥

यदि रत्न आवृत मृत्तिका से तेजहीन लगे यथा,
धुलकर प्रकाशित हो यदि निज रूप में आता तथा.
वैसे ही यदि जीवात्मा को, आत्म तत्व प्रत्यक्ष हो,
कैवल्य पा हो कृतार्थ निश्चय ब्रह्म उसको प्रत्यक्ष हों॥ [ १४ ]

यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः॥१५॥

अथ आत्म तत्व के द्वारा योगी, जानते ब्रह्मत्व को,
नहीं इन्द्रियां हैं समर्थ किंचित, ब्रह्म के प्रत्यक्ष को.
यदि जान ले ध्रुव ऋत अजन्मा महिमामय परमात्मा,
पुनि - पुनि जनम और मृत्यु भय से, मुक्त हो जीवात्मा॥ [ १५ ]

एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः।
स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥१६॥

परब्रह्म परमेश्वर ही निश्चय, सब दिशाओं में व्याप्त है,
अति आदि कारण, आदि सृष्टि का और उसी में समाप्त है.
वही सर्वतोमुख हिरण्यगर्भा और अन्तर्यामी है,
ब्रह्माण्ड रूपी गर्भ स्थित, त्रिकाल दर्शी स्वामी है॥ [ १६ ]

यो देवो अग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश।
य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः॥१७॥

परब्रह्म जो परमात्मा, अग्नि में है, जल में वही,
विश्वानि लोकों में प्रतिष्ठित, गरिमामय मंडित मही.
है वनस्पति औषधि में भी, सत्ता उसी सम्राट की,
पुनि - पुनि नमन महिमा यही, उस विश्व रूप विराट की॥ [ १७ ]


तृतीय अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति


य एको जालवानीशत ईशनीभिः सर्वांल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
य एवैक उद्भवे सम्भवे च य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१॥

यह विश्व रूप है जाल का, और जिसका अधिपति ब्रह्म है,
स्वरुप शासन शक्तियों से, सत्ता जिसकी अगम्य है।
वह एकमेव ही ब्रह्म पूर्ण समर्थ क्षमतावान है,
जो जानते परब्रह्म को वे ही अमर भी हैं, महान हैं॥ [ १ ]

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु र्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः॥२

वही आत्म भू सत्ता व् शक्ति से विश्व पर शासन करे,
वही एकमेव अभिन्न पूर्ण जो सृष्टि का नियमन करे।
वही प्राणियों में प्राण, सृष्टि का नियामक रूप है,
वही प्रलय काले सृष्टि स्व में , समेट लेता अनूप है॥ [ २ ]

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रै-र्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः ॥३॥

सर्वत्र चक्षु व् हाथ, मुख, वही पैरों वाला ही ब्रह्म है,
आकाश पृथ्वी का रचयिता , अगम मर्म अगम्य है।
हाथों से दो- दो जीवों को तो युक्त करता है प्रभो,
पंखों से दो-दो पक्षियों को , युक्त करता है विभो॥ [ ३ ]

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं जनयामास पूर्वं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥४॥

विश्वधिपति परब्रह्म का, जो रुद्र रूप उत्कर्ष है,
वही वृद्धि व् उत्पत्ति का सर्वज्ञ हेतु महर्षि है।
सृष्टि के आदि में हिरण्य गर्भ की, ब्रह्म ने की सर्जना,
वही स्वस्ति बुद्धि से हमें संयुक्त कर दे, प्रार्थना॥ [ ४ ]

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी ।
तया नस्तनुवा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ॥५॥

शिव,सौम्य, पुण्य प्रभा प्रकाशित , रुद्र रूप महान जो,
उस मूर्ति से कल्याण पाओ , मानवों उसको भजो।
शिव शक्ति स्वस्ति अभिप्रियम , कल्याणमय गिरिशन्त हे!
तेरी कृपा की दृष्टि मात्र को, हम प्रनत हैं अनंत हे! ॥ [ ५ ]

याभिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे ।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥६॥

गिरिशन्त ! हे गिरिराज ! रक्षक तुम हिमालय के महा,
जो वाण धारण हाथ में , वह न विनाशक हो अहा !
उस वाण को कल्याण मय, होने दो हे करुणा निधे,
हिंसा जगत से जीव की , किंचित न होवे महाविधे॥ [ ६ ]

ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथानिकायं सर्वभूतेषु गूढम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितार-मीशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति ॥७॥

पूर्वोक्त जीव समूह जग से , ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ हैं,
सब जीवों में अनुकूल उनके जीवों के ही तिष्ठ हैं।
सब जगत को सब ओर से , घेरे हुए व्यापक महा,
उस एक ब्रह्म को जान , ज्ञानी अमर हो जाते यहाँ॥ [ ७ ]

वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥८॥

जो ज्ञानी महिमामय परम परमेश प्रभु को जानता,
वही तम् अविद्या से परे , रवि रूप की हो महानता।
जिसे जान कर ही मनुष्य मृत्यु का उल्लंघन कर सके,
फ़िर जन्म-मृत्यु विहीन हो, पद परम पाकर तर सके॥ [ ८ ]

यस्मात् परं नापरमस्ति किंचिद्य-स्मान्नणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक-स्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥९॥

परमेश प्रभु से श्रेष्ठ , कोई दूसरा किंचित कहीं ,
सूक्ष्मातिसूक्ष्म , महिम महे कोई अन्य अथ स्थित नहीं।
वही एक निश्छल भाव से , सम वृक्ष नभ आरूढ़ है,
ब्रह्माण्ड में परिपूर्ण स्थित , मर्म ब्रह्म के गूढ़ हैं॥ [ ९ ]

ततो यदुत्तरततं तदरूपमनामयम् ।
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥१०॥

आकार हीन विकास शून्य , अति परम प्रभो जिसे विज्ञ है,
वे ही जन्म मृत्यु विहीन , जिनका लक्ष्य ब्रह्म प्रतिज्ञ है।
इस मर्म से अनभिज्ञ जो , पुनि -पुनि जनम व् मरण के,
दुःख पाते और भटकते हैं, बिन करुणा निधि की शरण के॥ [ १० ]

सर्वानन शिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः ।
सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः ॥११॥

सब ओर मुख सर ग्रीवा वाला है महत करुणानिधे,
सब प्राणियों के हृदय रूपी गुफा में है महाविधे।
प्रभु सर्वव्यापी है अतः, व्यापकता अणु- कण व्याप्त है,
साधक जहाँ जिस रूप में , चाहें वह सबको प्राप्त है॥ [ ११ ]

महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्वस्यैष प्रवर्तकः ।
सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः ॥१२॥

निश्चय ही प्रभुता पूर्ण प्रभु , शासक समर्थ महान है,
अविनाशी अव्यय ज्योतिमय के, न्याय पूर्ण विधान हैं।
अंतःकरण मानव का प्रेरित , करता अपनी ओर है,
किंतु मानव सुप्त , माया मोह में ही विभोर है॥ [ १२ ]

अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१३॥

अंगुष्ठ के परिमाण वाला है, ब्रह्म सबके हृदय में,
सम्यक विधि स्थित समाहित काल क्रम व् समय में।
निर्मल हृदय व् विशुद्ध मन , साधक यदि करे ध्यान तो,
वही जन्म -मृत्यु विहीन लीन हो, ब्रह्म में ही शत कृतो॥ [ १३ ]

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१४॥

वह परम पुरुषोत्तम सहस्त्रों , चक्षु , सिर, पग युक्त है,
विश्वानि जग सब ओर से आवृत किए संयुक्त है।
नाभी से दस अंगुल जो ऊपर , हृदय में स्थित सदा,
है निर्विकारी , व्याप्त, हृदयों में दीन वत्सल वसुविदा॥ [ १४ ]

पुरुष एवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥१५॥

त्रिकाल चक्र तो ब्रह्म इच्छा के ही सब अनुरूप है,
खाद्यान्नों से विकसित है जो कुछ , ब्रह्म का ही स्वरुप है।
मोक्ष का स्वामी , अमिय रूपी अचिन्त्य की शक्ति से,
भावः बंधनों से मुक्त मानव होता प्रभु की भक्ति से॥ [ १५ ]

सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१६॥

सर्वत्र ही मुख, आँख, सिर व् कानों वाला है विभो,
वह परम पुरुषोत्तम जनार्दन , व्याप्त कण - कण में प्रभो।
ब्रह्माण्ड को सब ओर से आवृत किए वह महान हैं,
सबको ही स्व में करके स्थित , कर रहा कल्याण है॥ [ १६ ]

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं सुहृत् ॥१७॥

वह परम प्रभु परमेश सारी इन्द्रियों से विहीन है,
फ़िर भी सकल इन्द्रिय के विषयों में तो पूर्ण प्रवीण है।
परमेश प्रभु परमात्मा ही स्वामी है, सर्वेश है,
शासक बृहत,आश्रय विरल, अधिपति, शरण है, महेश है॥ [ १७ ]

नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः ।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥१८॥

परमात्मा नव द्वार वाले , इस शरीरी नगर में,
स्थित है अन्तर्यामी रूप से , हर निमिष , हर पहर में।
जंगम व् स्थावर चराचर , जगत का वही केन्द्र है,
बाह्य जग लीला उसी की , केन्द्र सबका महेंद्र है॥ [ १८ ]

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥१९॥

वह हाथ पैरों से रहित , पर ग्रहण गमन अपूर्व है,
और चक्षु, कर्णों के बिना , देखे , सुने सम्पूर्ण है।
अथ ज्ञेय व् अज्ञेय का सब अर्थ ईश्वर जानता
उसको भला पर कौन जाने , किसमें इतनी महानता॥ [ १९ ]

अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥२०॥

अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परब्रह्म , महत से अति महत है,
वही जीवों की तो हृदय रूपी , गुफा में अथ निहित है।
सविता की करुणा दृष्टि से , मानव को करुणा प्राप्त है,
सब दुःख निषाद निःशेष होते हैं, यदि मानव आप्त है॥ [ २० ]

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम् ॥२१॥

वेदज्ञ जो भी ब्रह्म के अति निकट , उनका कथन है,
मैं ब्रह्म पुराण पुरूष महत को , जानता हूँ नमन है।
ज़रा जन्म - मृत्यु से हीन , शाश्वत नित्य सत्य विराट है,
कण - कण बसा वही, प्राणियों में बस रहा सम्राट है॥ [ २१ ]

चतुर्थ अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति

य एकोऽवर्णो बहुधा शक्तियोगाद् वरणाननेकान् निहितार्थो दधाति ।
विचैति चान्ते विश्वमादौ च देवः स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥१॥

जो निराकार स्वरुप में तो, अवर्ण है व् अरूप है,
निहितार्थ वह ही विविध रूपों में, विविध रखता रूप है।
और अंत में विश्वानि विश्व भी , ब्रह्म में ही लीन है,
वही एकमेव प्रभो हमें, शुभ बुद्धि दे हम दीन हैं॥ [ १ ]

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदापस्तत् प्रजापतिः ॥२॥

ये ही ब्रह्म हैं जल, वायु, अग्नि , सूर्य, शशि, नक्षत्र भी,
यही जल प्रजापति, यही ब्रह्मा, व्याप्त अथ सर्वत्र भी.
परब्रह्म परमेश्वर की ही तो विभूतियाँ कण -कण में हैं.
हो श्रेय चिंतन मानवों को, प्रेय वह क्षण - क्षण में है. [ २ ]

त्वं स्त्री पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥३॥

प्रभु आप ही तो कुमार हो अथवा कुमारी नर भी तू ,
नारी तू ही और वृद्ध तू , चले दंड के आधार तू.
जन -जन के मुख के रूप में, परमेश का ही रूप है,
अर्थात इस सम्पूर्ण जग में, तेरा ही तो स्वरुप है. [ ३ ]

नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः ।
अनादिमत् त्वं विभुत्वेन वर्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा ॥४॥

तू ही नील वर्ण पतंग है, तू ही मेघ ऋतुएं बसंत है,
तू ही हरित वर्ण व् लाल चक्षुओं वाला खग है , अनंत है.
तू ही सप्त जलधि रूप , तुझसे सब जगत निष्पन्न है,
आद्यंतहीन , अव्यक्त, व्यापक, सबमें तू आसन्न है. [ ४ ]

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥५॥

सत रज व् तम् ये त्रिगुणात्मक , प्रकृति प्रभु से सृजित है,
अपरा प्रकृति के जीव भोगें, भोग जो स्व रचित है.
और परा प्रकृति के जीव , कर्मों के भोग करते क्षीण हैं,
निःसार क्षण भंगुर समझ, परित्याग करते प्रवीण हैं [ ५ ]

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥६॥

यह देह मानव की तो मानो वृक्ष पीपल का अहे,
जीवात्मा परमात्मा , दो मित्र पक्षी बन रहे .
जीवात्मा खग कर्म करता और फल भी है भोगता,
परमात्मा खग विरत वृति से देखता नहीं भोगता॥ [ ६ ]

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः ।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥७॥

उस वृक्ष पर जीवात्मा, आसक्ति में ही निमग्न है,
मोहित हुआ सुख दुःख , विकारों में ही अथ संलग्न है.
जब प्रभु अहैतु की कृपा हो , तब ही करुनागार के,
अति महिम रूप को देख , दुःख हों शेष सब संसार के॥ [ ७ ]

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ॥८॥

प्रभु दिव्य अविनाशी परम नभ रूप में व्यापक महे,
सब देवगण जिसमें यथोचित वेद भी स्थित रहे .
वेदादि सारे देव सेवक, पार्षदों के रूप में ,
इस मर्म के मर्मज्ञ, जानें ब्रह्म रूप अनूप को॥ [ ८ ]

छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति ।
अस्मान् मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः ॥९॥

बहु विविध व्रत, यज्ञादि ज्योतिष छंद तीनों काल का,
हैं वेदों में वर्णन यथोचित , इनमें अंश त्रिकाल का .
विश्वानि जग प्रकृति का अधिपति, ब्रह्म से ही सृजित है,
जीवात्मा माया से बंध, बहु मोह से भी ग्रसित है॥ [ ९ ]

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम् ।
तस्यवयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥१०॥

माया तो प्रभु परमेश की ही , शक्ति रूपा प्रकृति है,
अधिपति प्रकृति का ब्रह्म है, संसार जिसकी कृति है,
इसी कार्य कारण रूप का , परिणाम यह ब्रह्माण्ड है,
माया व् मायापति की महिमा , महिम है व् प्रकांड॥ [ १० ]

यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको यस्मिन्निदाम् सं च विचैति सर्वम् ।
तमीशानं वरदं देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ॥११॥

है अधिष्ठाता योनियों का , ब्रह्म तो एकमेव ही,
वही सृष्टि काले विविध रोपों में, प्रगट हो सदैव ही.
हो प्रलय काले विलीन जग , उसी एक सर्वाधार में,
कैवल्य सुख, जिसे जान पाये, जीव करुणाधार में॥ [ ११ ]

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥१२॥

विश्वधिपति सर्वज्ञ रुद्र ने , इन्द्र देवों को रचा,
उसने हिरण्यगर्भ को, अति आदि में आदि रचा.
वही ब्रह्मा के भी पूर्ववर्ती , ब्रह्म शुभ शुचि बुद्धि से,
हम कर्म सब शुभ कर सकें , अति सत्य सात्विक शुद्धि से॥ [ १२ ]

यो देवानामधिपो यस्मिन्ल्लोका अधिश्रिताः ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥१३॥

देवाधिपति है ब्रह्म जिसमें , लोक सब आश्रित तथा,
वही जीव समुदायों का शासक और स्वामी है यथा .
हम पूर्ण श्रद्धा भक्ति से, हविः रूप अर्पित अर्चना ,
कर दें समर्पण पूर्ण प्रभु को , सिद्ध हो अभ्यर्थना॥ [ १३ ]

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ॥१४॥

प्रभु सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अति और विशद बहु आकार भी,
वही हृदय रूप गुफा में स्थित , विश्व रचनाकार भी .
बहु रूप धारक विश्व वेष्ठित, शिवम् ब्रह्म से विज्ञ जो,
उन्हें शान्ति शाश्वत , चित्त उपरत, निकट है सर्वज्ञ जो॥ [ १४ ]

स एव काले भुवनस्य गोप्ता विश्वाधिपः सर्वभूतेषु गूढः ।
यस्मिन् युक्ता ब्रह्मर्षयो देवताश्च तमेवं ज्ञात्वा मृत्युपाशांश्छिनत्ति ॥१५॥

वही काल ब्रह्मांडों का रक्षक , विश्व अधिपति गूढ़ है,
वेदज्ञ , देव, महर्षि जिसके ध्यान में आरूढ़ हैं,
उसे जान मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जीवात्मा,
संलग्न निश्चय ब्रह्म से हो पायें वे परमात्मा॥ [ १५ ]

घृतात् परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गूढम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१६॥

यही सार का भी सार अतिशय , सूक्ष्म अनुपम गूढ़ है,
सब प्राणियों ब्रह्माण्ड में मक्खन के सम आरूढ़ है.
परब्रह्म तो ब्रह्माण्ड को वेष्ठित किए , स्थित महे,
मानव जो उसको जानता, बंधन कहाँ कोई रहे ? [ १६ ]

एष देवो विश्वकर्मा महात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१७॥

वह विश्व करता तो मानवों के हृदय स्थित सर्वदा,
जो हृदय से, बुद्धि मन से, हो ध्यान स्थित वसुविदा.
इस तरह साधक को ही प्रत्यक्ष हो परमात्मा,
अथ, मर्म के मर्मज्ञ होते अमिय रूप महात्मा॥ [ १७ ]

यदाऽतमस्तान्न दिवा न रात्रिः न सन्नचासच्छिव एव केवलः ।
तदक्षरं तत् सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥१८॥

यह अज्ञान- तम् जब शेष हो , अनुभूति तत्व विशेष हो,
वह तत्व दिन है न रात है, न सत असत का प्रवेश हो.
शिव स्वस्ति अविनाशी अनादि अमिय अक्षर शुभ महे,
वह सूर्य का भी उपास्य , उससे ही ज्ञान विस्तृत हो रहे॥ [ १८ ]

नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये न परिजग्रभत् ।
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद् यशः ॥१९॥

ऊपर न नीचे मध्य से नहीं ग्राह्य न ही विराम है,
अतिशय परात्पर ब्रह्म की , उपमा नहीं न ही नाम है.
परमेश प्रभु अतिशय विलक्षण , सर्वथा ही अग्राह्य है,
उसकी कृपा करुणा का सारे , विश्व में तो प्रवाह है॥ [ १९ ]

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥२०॥

नहीं चक्षुओं से दृष्टि गोचर ,ब्रह्म हो सकता कभी,
अन्तः करण में भक्त को ही , ब्रह्म दिखता है कभी.
भक्ति से साधक को हृदय स्थित, प्रभो साकार है,
जिसे दिव्य दृष्टि दया निधि से मिलती वह भव पार है॥ [ २० ]

अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्यते ।
रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ॥२१॥

है रुद्र संहारक अजन्मा , आप मृत्यु विहीन है,
हम जन्म - मृत्यु के भय ग्रसित, मानव हैं बुद्धि विहीन हैं,
हम जन्म - मृत्यु भय विहीन हों , अथ शरण हैं आपकी,
मम सर्वदा रक्षा करो, हटे भावना संताप की॥ [ २१ ]

मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा न अश्वेषु रीरिषः ।
वीरान् मा नो रुद्र भामितो वधीर्हविष्मन्तः सदामित् त्वा हवामहे ॥२२॥

हे रुद्र संहारक, विविध उपहार लेकर हम सदा,
तुझको बुलाते, तू अतः कल्याण करना सर्वदा.
मम पुत्र , पौत्रों, अश्वों, गौओं पर न क्रोधित हों कभी,
शुभ दृष्टि रखना सर्वदा , संताप हर लेना सभी॥ [ २२ ]

पंचम अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः ॥१॥

है ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ , गूढ़, असीम अक्षर ब्रह्म मैं,
विद्या - अविद्या जड़ व् चेतन , निहित दोनों अगम्य में।
जड़ वर्ग क्षर चेतन अमर,विद्या, अविद्या नाम है,
दोनों का ईशानम प्रभु , शासक परम है अनाम है॥ [ १ ]

यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः ।
ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् ॥२॥

एकमेव ही विश्वानि रूपों , कारणों और योनियों,
पर करे आदित्य परब्रह्म , उसके शासन में जियो.
सब ज्ञानों से संपन्न उन्नत, करता है परमात्मा ,
अति आदि दृष्टा, हिरण्यगर्भ का देखे सब विश्वात्मा॥ [ २ ]

एकैक जालं बहुधा विकुर्वन्नस्मिन् क्षेत्रे संहरत्येष देवः ।
भूयः सृष्ट्वा पतयस्तथेशः सर्वाधिपत्यं कुरुते महात्मा ॥३॥

अथ सृष्टि काले देव तत्वों से , जाल को निर्मित करे,
फ़िर कर विभाजन प्रलय काले , पुनि वही संचित करें.
पूर्व इव पुनि सृष्टि काले , लोक पालों को रचे,
फिर स्वयं आधिपत्य करता है, विश्व सब उसके रचे॥ [ ३ ]

सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वान् ।
एवं स देवो भगवान् वरेण्यो योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः ॥४॥

रवि एक ही चहुँ ओर ज्यों सारी दिशा ज्योतित करे
वैसे अकेला ब्रह्म सारी, सृष्टि को नियमित करे,
वही वरन करने योग्य अद्भुत आत्म भू अखिलेश है,
आधिपत्य कर्ता, सृष्टि का, कल्याण कर्ता महेश है॥ [ ४ ]

यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद् यः ।
सर्वमेतद् विश्वमधितिष्ठत्येको गुणांश्च सर्वान् विनियोजयेद् यः ॥५॥

संकल्प द्वारा ब्रह्म पुनि, होता प्रगट निज रूप में,
कर्ता त्रिगुण सृष्टि रचित , फल कर्म रूप अनूप में.
अथ विविध रूपों योनियों में, सृजित जग विस्तृत महे,
अति आदि कारण ब्रह्म की, करुणा से ही आवृत रहे॥ [ ५ ]

तद् वेदगुह्योपनिषत्सु गूढं तद् ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम् ।
ये पूर्वं देवा ऋषयश्च तद् विदुस्ते तन्मया अमृता वै बभूवुः ॥६॥

प्रभु मर्म, विद्या रूप वेदों के, उपनिषद अति गूढ़ हैं,
ब्रह्म के निःश्वास वेद हैं, ब्रह्म मर्म निगूढ़ हैं.
हैं विज्ञ ब्रह्मा ब्रह्म से और अन्य ऋषि भी जानते,
निश्चय ही तन्मय ब्रह्म में हो , ब्रह्म को पहचानते॥ [ ६ ]

गुणान्वयो यः फलकर्मकर्ता कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता ।
स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्त्मा प्राणाधिपः सञ्चरति स्वकर्मभिः ॥७॥

गुण कर्म रूप सकाम वृतियों से बंधा जीवात्मा,
पुनि जन्म - मृत्यु कर्म के अनुरूप पाता है आत्मा.
अथ तीन वृतियां , तीन गतियों का गमन प्रेरित करें ,
निज कर्म रूप विधान गति , जीवात्मा निश्चित करे॥ [ ७ ]

अङ्गुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः सङ्कल्पाहङ्कारसमन्वितो यः ।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः ॥८॥

अंगुष्ठ के परिमाण मय, रवि रूप सम जीवात्मा ,
सूजे की अग्रिम नोक सम , ज्ञानी कहे जीवात्मा .
ममता अहंता मय है अतः ब्रह्म से लगे भिन्न है,
अन्यथा जीवात्मा परमात्मा से तो अभिन्न है॥ [ ८ ]

बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥९॥

यदि बाल की एक नोक के सौ भाग , पुनि सौ भाग हों,
कल्पित उसी के एक भाग समान हो, जो विभाग हो.
उसके बराबर जीव का है स्वरुप , अथ यह जानिए ,
अति सूक्ष्म , अति उससे भी लघु , जीवात्मा को जानिए॥ [ ९ ]

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेने तेने स युज्यते ॥१०॥

जीवात्मा न तो नपुंसक , न ही पुरूष न ही नारी हैं,
यह देह जैसी ग्रहण करता, वैसा ही रूप धारी है,
जीवात्मा तो सर्व भेद से , शून्य है अविकार है,
अथ नर व् नारी रूप में तो , देह के ही प्रकार है॥ [ १० ]

सङ्कल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहैर्ग्रासांबुवृष्ट्यात्मविवृद्धिजन्म ।
कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रूपाण्यभिसम्प्रपद्यते ॥११॥

स्पर्श दृष्टि व् मोह वृष्टि , भोजन तथा संकल्प से,
हों गर्भ धारण , देह वृद्धी, भांति विविध विकल्प से,
बहु विविध लोकों देह में, अनुक्रम से होती प्राप्त है,
कर्मानुरूप जीवात्मा , देहों में होती व्याप्त है॥ [ ११ ]

स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति ।
क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां संयोगहेतुरपरोऽपि दृष्टः ॥१२॥

निज संस्कारों , अहम ममता की बुद्धिमन अनुरूप ही,
उसे सूक्ष्म और स्थूल धारण , देह हो तद्रूप ही.
संयोग कारण योनियों का तो अन्य ही अव्यक्त है,
निज कर्म मूल हैं मूल कारण , मूल मंत्र ही व्यक्त है॥ [ १२ ]

अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१३॥

जिसने स्वयं यह विश्व वेष्ठित , कर लिया निज रूप में,
बहु रूप धारी ब्रह्म अनुपम , मिलते रूप अनूप में,
दुर्गम जटिल , जग व्याप्त ब्रह्म को, जो भी मानव जानते,
उसे कोई बंधन अहम् ममता , के न किंचित बांधते॥ [ १३ ]

भावग्राह्यमनीडाख्यं भावाभावकरं शिवम् ।
कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम् ॥१४॥

काया विहीन तथापि श्रद्धा भक्ति से, जो ग्राह्य है,
सृष्टि रचयिता सूक्ष्म संहारक है, अन्तः बाह्य है.
सोलह कलाओं का रचयिता , स्वस्ति शुभ आराध्य है,
जो जानता भव मुक्त है, यदि ब्रह्म उसका साध्य है॥ [ १४ ]

षष्ठ अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः ।
देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ॥१॥

कुछ विज जग का मूल कारण, काल कहते, स्वभाव है,
पर वस्तुतः मोहित सभी, कुछ और अन्तः भाव है.
प्रत्यक्ष जो ब्रह्माण्ड वह तो, ब्रह्म की महिमा महे,
यह ब्रह्म चक्र है संचलित, परब्रह्म से, कैसे कहें ? [ १ ]

येनावृतं नित्यमिदं हि सर्वं ज्ञः कालकारो गुणी सर्वविद् यः ।
तेनेशितं कर्म विवर्तते ह पृथिव्यप्तेजोनिलखानि चिन्त्यम् ॥२॥

वह तो काल का भी महाकाल व् विश्व को आवृत किए,
जग सर्व गुण सर्वज्ञ से शासित , हो सब उसके किये .
जल, तेज, वायु, नभ, धरा का है , शक्ति संचालक वही,
चिन्मय का चिंतन चित्र से , मानव करो प्रभु अति मही॥ [ २ ]

तत्कर्म कृत्वा विनिवर्त्य भूयस्तत्त्वस्य तावेन समेत्य योगम् ।
एकेन द्वाभ्यां त्रिभिरष्टभिर्वा कालेन चैवात्मगुणैश्च सूक्ष्मैः ॥३॥

निज शक्ति भूता , पृकृति ब्रह्म ने तो कर्म संपादित किया,
जड़ चेतना दो तत्वों का संयोग प्रतिपादित किया .
सत रज व् तम, आठों प्रकृति और काल के सम्बन्ध से ,
यह जग रचा , ममता, अहंता, मोह तत्व प्रबंध से॥ [ ३ ]

आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावांश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः ।
तेषामभावे कृतकर्मनाशः कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः ॥४॥

सत रज व् तम तीनों गुणों, स्व वर्ण आश्रम के यथा
करें आचरण निष्काम वृति प्रभु , को समर्पण हो तथा.
साधक वही कर्मादि फल , विश्वानि भोगों से मुक्त हो,
अथ कर्मों का जब नाश हो, तब ब्रह्म से संयुक्त हो॥ [ ४ ]

आदिः स संयोगनिमित्तहेतुः परस्त्रिकालादकलोऽपि दृष्टः ।
तं विश्वरूपं भवभूतमीड्यं देवं स्वचित्तस्थमुपास्य पूर्वम् ॥५॥

अति आदि कारण ब्रह्म कालों से परे, अतिशय परे.
जीव और प्रकृति संयोग कर्ता, विश्व संचालित करे.
स्तुत्य अन्तः करण स्थित, विश्व रूप विराट है,
अति आदि, कारणहीन , अद्भुत देव है, सम्राट है॥ [ ५ ]

स वृक्षकालाकृतिभिः परोऽन्यो यस्मात् प्रपञ्चः परिवर्ततेऽयम् ।
धर्मावहं पापनुदं भगेशं ज्ञात्वात्मस्थममृतं विश्वधाम ॥६॥

संसार रूप प्रपंच अविरल घूमे , जिसके प्रभाव से,
विश्व रूपी वृक्ष , आकृति परे काल विभाव से.
आकार हीन तथापि जगदाधार, अधिपति ईमहे ,
अमृत स्वरूपी ब्रह्म को , साधक हैं ध्याते धी महे॥ [ ६ ]

तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद्विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ॥७॥

उस ईश्वरों के परम ईश्वर , यह महेश्वर ब्रह्म हैं,
देवों के भी आराध्य , पतियों के पति हैं अगम्य है.
ब्रह्माण्ड के स्वामी परम , स्तुत्य ज्योति रूप हैं
हैं जगत के कारण तथापि , पृथक जग से अनूप हैं॥ [ ७ ]

न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥८॥

वह इन्द्रियों काया विहीन व् सूक्ष्म अति है अदृश्य है,
कोई न उससे है बड़ा , सम दृश्य भी नहीं दृश्य है.
विख्यात है बल ज्ञान उसका ,कर्म भी यश पूर्ण है,
दिव्य शक्ति स्वभाव अनुपम , वृति से परिपूर्ण है॥ [ ८ ]

न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम् ।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ॥९॥

इस विश्व में कोई भी तो , उस विश्व पति का पति नहीं ,
वही कारणों का परम कारण , कोई भी अधिपति नहीं.
करुणाधिपाधिप ब्रह्म है, वही एक जग का साध्य है,
नहीं जनक उसका कोई भी , वही जग पिता आराध्य है॥ [ ९ ]

यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः स्वभावतः ।
देव एकः स्वमावृणोति स नो दधातु ब्रह्माप्ययम् ॥१०॥

मकड़ी स्व निर्मित तंतुओं से , स्वयं ज्यों आवृत किए,
वैसे नियंता जग रचित कर , स्वयं को परिवृत किए .
इसलिए ही मानवों को तो , ब्रह्म लगता अदृश्य है,
इस रूप में सर्वत्र व्याप्त है , कौन उसके सदृश्य है॥ [ १० ]

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥११॥

वही हृदय रूपी गुफा में , अन्तर्निहित होकर छिपा,
सब प्राणियों में बस रहा, सृष्टि सकल उसकी कृपा.
निर्गुण शुभाशुभ कर्म दृष्टा, साक्षी चेतन शुभ महे,
उस कर्म फल दाता, प्रदाता की कृपा कैसे कहें॥ [ ११ ]

एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥१२॥

एकमेव ही बहुनाम स्थित , जीवों का अधिपति महा,
जो की प्रकृति रूपी बीज एक, अनेक कर जग रच रहा.
आत्मस्थ ब्रह्म को धीर ज्ञानी, अनवरत ही देखते ,
उनको ही शाश्वत परम सुख , नहीं अन्य को हो ऋत मते॥ [ १२ ]

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१३॥

है ब्रह्म चेतन नित्य जो कि नित्य बहु जीवात्मा,
के कर्म फल नियमन करे , एकमेव ही परमात्मा.
अति आदि कारण ज्ञान योग से, कर्म योग से प्राप्त हो,
जो जानते , जग चक्र बंधन , सकल उसके समाप्त हों॥ [ १३ ]

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥१४॥

न तो सूर्य न ही चन्द्रमा ,न ही तारा गण, न बिजलियाँ ,
होते प्रकाशित तो भला क्या , अग्नि लौकिक है वहॉं.
ज्योतिर्स्वरूपी ब्रह्म ज्योति, से ही सब ज्योतित वहाँ ,
उस ज्योति पुंज समूह को कोई ज्योति दे सकता कहाँ॥ [ १४ ]

एको हंसः भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः ।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥१५॥

इस मध्य में ब्रह्माण्ड के , बसता परम प्रभु सत्य है,
जल में है स्थित अग्नि यद्यपि यह विलक्षण सत्य है.
इस मृत्यु रूपी जग जलधि से पार हो पाता वही,
मर्मज्ञ जो इस तथ्य के , जो अन्य मग है ही नहीं॥ [ १५ ]

स विश्वकृद् विश्वविदात्मयोनिर्ज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद् यः ।
प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतुः ॥१६॥

ज्ञानस्वरूपी, सर्वसृष्टा, जो काल का भी काल है,
अपने ही उद्भव का स्वयं , कारण है ब्रह्म त्रिकाल है.
जीवात्मा व् प्रकृति का , स्वामी गुणी है गणेश है,
जीवन मरण की गति व् स्थिति , मुक्ति दाता महेश है॥ [ १६ ]

स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो ज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता ।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव नान्यो हेतुर्विद्यत ईशनाय ॥१७॥

स्थित जगत क स्वरुप में, सर्वज्ञ पूर्ण अनूप है,
ब्रह्माण्ड का रक्षक नियंत्रक , लोक पालों का भूप है.
नहीं दूसरा कोई अन्य शासक , न ही कोई समर्थ है,
करे विश्व सञ्चालन नियंत्रण , किसकी क्या सामर्थ्य है॥ [ १७ ]

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवं आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥१८॥

निश्चय ही ब्रह्म ने अति प्रथम, ब्रह्मा की रचना रचित की,
फ़िर ज्ञान वेदों का कराया , दिव्यता संचारित की .
वही आत्म बुद्धि प्रकाश कर्ता, ब्रह्म पूज्य प्रणाम है,
मैं मोक्ष का इच्छुक शरणदाता है, प्रभुवर प्राण है॥ [ १८ ]

निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् ।
अमृतस्य परं सेतुं दग्धेन्दनमिवानलम् ॥१९॥

निर्दोष, निष्क्रिय , शांत , निर्मल, निर्विकारी है सर्वथा.
अमृत स्वरूपी मोक्ष का , प्रभु परम सेतु है यथा .
अति दग्ध उज्जवल , प्रज्जवलित , अंगारे क सम ब्रह्म तो,
निर्मल परम चेतन व् निर्गुण , निराकार अगम्य तो॥ [ १९ ]

यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥२०॥

यदि चर्मवत मानव कभी स्व से लपेटे ब्रह्म को ,
संभाव्य यदि न कदापि हो, न दुःख कटें बिन ॐ के.
परब्रह्म को जाने बिना , समुदाय दुःख न शेष हो,
एकाग्र मन यदि स्मरण , तो प्रभु कृपा भी

तैत्तरीय उपनिषद- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति

 
तैत्तरीय उपनिषद- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति  
ॐ श्री परमात्मने नमः

शांति पाठ

मम हेतु शुभ हों, इन्द्र, मित्र, वरुण, बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, प्राण वायु देव, तुम, तुमको नमः।
प्रभो ग्रहण भाषण आचरण हो, सत्य का हमसे सदा,
ऋत रूप, ऋत के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा।

 
 
प्रथम अनुवाक
मम हेतु शुभ हों, इन्द्र, मित्र, वरुण, बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, प्राण वायु देव, तुम, तुमको नमः,
प्रभो! ग्रहण, भाषण, आचरण हो सत्य का हमसे सदा,
ऋत रूप, ऋत के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा॥ [ १ ]

द्वितीय अनुवाक

ऋत भाषा की शिक्षा, विधा और व्याकरण का ज्ञान हो।
सब, वर्ण, स्वर, मात्राएँ, संधि, शुद्ध ज्ञान प्रधान हों।
वर्णों का समवृति उच्चरण हो, गान रीति महान हो,
अथ वेद उच्चारण की शिक्षा कथित, इसका ज्ञान हो॥ [ १ ]

तृतीय अनुवाक

यश ब्रह्म वर्चस वृद्धि हो, सह शिष्य और आचार्य की,
हम लोक ज्योति प्रजा विद्या, अध्यात्म पाँच प्रकार की।
अथ संहिता, महा संहिता, उपनिषद व्याख्या कथित है,
भू पूर्व द्यौ नभ संधि उत्तर, वायु संयोजक अथ रचित है॥ [ १ ]


अग्नि महे अति पूर्व रूप है,आदित्य उत्तर रूप है,
जल मेघ का अस्तित्व दोनों का ही संधि स्वरुप है।
विद्युत् है इनका संधि सेतु व् संधि संघानं महा,
यही ज्योति विषयक संहिता का तथ्य है जाता कहा॥ [ २ ]


गुरु वर्ण पहला पूर्व एवं शिष्य वर्ण है दूसरा,
दोनों के सामंजस्य से, विद्या प्रकाशित है परा।
यह ज्ञान ही यहॉं संधि है, अस्तित्व मय संधान है,
यही विद्या विषयक संहिता, उपनिषद कथित विधान है॥ [ ३ ]


अथ पूर्व माता रूप है और पिता उत्तर रूप है,
उन दोनों की ही संधि से, संतान लेती स्वरुप है।
इस संधि के कारण ही प्रजनन प्रजा का अस्तित्व है,
अथ प्रजा विषयक संहिता, उपनिषद कथयति तत्व है॥ [ ४ ]


नीचे का जबड़ा पूर्व व् ऊपर का उत्तर रूप है,
जब दोनों की हो संधि, तब ही बनता वाक् स्वरुप है।
वाणी ही ब्रह्म स्वरुप है, वाणी विलक्षण शक्ति है,
अथ आत्म विषयक तथ्य की, उपनिषद में अभिव्यक्ति है॥ [ ५ ]


पाँचों महा यह संहिताएँ, उपनिषद में कथित हैं,
जो जानता जीवन उसे, श्री शान्ति मय सुख सहित है।
संतान, पशुधन, ब्रह्म वर्चस, अन्य भोग व् अन्न से,
परिपूर्ण जीवन, पूर्ण श्री एश्वर्य होवें प्रसन्न से॥ [ ६ ]


चतुर्थ अनुवाक

ओंकार वेदों से निःसृत अति श्रेष्ठ अमृत सिद्ध है,
संपन्न मेघा से करे , प्रभु, इन्द्र नाम प्रसिद्ध है।
मृदु भाषी स्वस्थ शरीर हो, कल्याण मय वाणी सुनूँ,
शुभ श्रुतम की स्मृति रहे, सब भाँति कल्याणी बनूँ॥ [ १ ]


मेरे लिए गौएं व् खाद्य पदार्थ, सुख साधन रहे,
बहु वस्त्र , आभूषण, विविध पशु, श्री व् संवर्धन रहे।
हे! अधिष्ठाता अग्नि के परमेश प्रभु सर्वज्ञ से,
श्री संपदा सुख ऋद्धि को, आहुति समर्पित यज्ञ से॥ [ २ ]


सब ब्रह्मचारी कपट शून्य व् हों पिपासु ज्ञान को,
मन दमन की सामर्थ्य समझें, शमन के भी विधान को।
इस लक्ष्य से आहुति, हे प्रभुवर ! स्वाहा की स्वीकार हो,
स्वीकार, अंगीकार हो तो ब्रह्म एकाकार हो॥ [ ३ ]


मम कीर्ति सौरभ हे प्रभो! सर्वत्र व्यापे समष्टि में,
धनवानों से धनवान अति मैं, बनूँ सबकी दृष्टि में।
अब तुझमें मैं और मुझमें तू, होवें समाहित हे प्रभो!
इस लक्ष्य से यह आहुतियों, स्वीकार करना हे विभो! [ ४ ]


यथा जल नदियों के अंत में, करते जलधि प्रवेश हैं,
यथा काले मास संवत्सर, समय के गर्भ करते निवेश हैं।
वैसे ही सब ब्रह्म चारी , स्वस्ति शुभ उपदेश को
अथ ग्रहण कर दैदीप्य हों, वही पाये ब्रह्म महेश को॥ [ ५ ]

पंचम अनुवाक

ॐ भूः, भुर्वः, स्वः, तीन चौथी महः व्याहृतियों यथा,
इसे महाचमस के पुत्र ने, अति प्रथम जाना यह कथा।
वह चौथी व्याहृति ब्रह्म भू व् भुवः स्वः की आत्मा,
यह सूर्य जिससे जग प्रकाशित करता है परमात्मा॥ [ १ ]


भूः अग्नि व्याहृति, भुवः वायु और स्वः आदित्य है,
यह चन्द्रमा जो मन का देव है ज्योति देता सत्य है।
ऋग्वेद भूः व् भुवः साम व् यजुः स्वः महः ब्रह्म है,
परमेश प्रभु का तत्व तात्विक , वेदों से ही गम्य है॥ [ २ ]


भूः प्राण व्याहृति, भुवः अपान व् स्वः व्याहृति व्यान है,
महः अन्न, अथ इस अन्न से ही प्राण होते प्राण हैं।
इन चारों व्याहृतियों की सोलह व्याहृति व् भेद है,
इन्हें तत्व से जो जानता उसे देव देते भेंट हैं॥ [ ३ ]

षष्ठ अनुवाक

इस हृदय के अन्तर अनंतर जो भी यह आकाश है,
वह ज्योतिरूप विशुद्ध प्रभु परमेश का ही प्रकाश है.
उसमें विशुद्ध प्रकाश रूपी, ब्रह्म अविनाशी रहे,
वह मनोमय महिमा महिम है,अमित अविनाशी अहे॥ [ १ ]


दो तालुओं के मध्य में जो कंठ है , स्थित वहॉं,
पर ब्रह्मरंध्र व् सर कपालों के मध्य से निःसृत जहों
नाड़ी सुषुम्ना मूल ब्रह्मा का, अंत काले प्राणी को ,
अग्नि वायु सूर्य में , फ़िर ब्रह्म गति कल्याणी को॥ [ २ ]


जो ब्रह्म में स्थित प्रतिष्ठित, बनता स्वामी स्वयं का,
फ़िर तो अहंता मुक्त हो, बन जाता शासक अहम का .
वह मन के स्वामी ब्रह्म का, ज्ञाता विजेता बन सके,
मन वाणी, चक्षु, श्रोत्र, इन्द्रियों का भी ज्ञाता बन सके॥ [ ३ ]


उस ब्रह्म का आकाश के सम , बृहद व्यापी शरीर है,
एक मात्र सत्ता मय तथापि , सूक्ष्म अति अशरीर है.
सब इन्द्रियाँ उस शान्ति निधि में , शान्ति पाती हैं जहाँ,
हे ब्रह्म वेत्ता !अति पुरातन , अमृत गमय तू हो वहाँ॥ [ ४ ]

सप्तम अनुवाक

भू , द्यौ, दिशाएँ, अन्तरिक्षम और आवंतर दिशाएँ ,
नक्षत्र, अग्नि, वायु, रवि, शशि, व्योम, जल सब, दवाएँ.
अथ प्राण पाँचों इन्द्रियाँ सब और शरीरी धातु भी,
पांदाक्त हैं निश्चय जिन्हें, करे पूर्ण क्रम से साधु भी॥ [ १ ]

अष्टम अनुवाक

यही ॐ ब्रह्म है , ॐ विश्व है, ॐ अनुकृति सिद्ध है,
शुभ कर्म, अध्धयन यक्ष आदि में, ॐ रिद्धि प्रसिद्ध है.
कह ॐ ही ऋत्विक अध्वर्युः , मंत्र प्रतिगर का कहें.
वेदों के अध्ययन से प्रथम , ओंकार ही ब्राह्मण कहे.॥ [ १ ]

नवं अनुवाक

स्वाध्याय और वेदादि अध्ययन , मानवोचित धर्म भी ,
शम, दम, नियम, तप, अग्निहोत्र , कुटुंब प्रजनन कर्म भी.
धर्माचरण और सत्य भाषण , तप ही अतिशय श्रेष्ठ है,
मुनि तपोनित्य, पुरुशिष्टि सत्यम, "नाक" मत यही श्रेष्ठ है.॥ [ १ ]

दशम अनुवाक

संसार वृक्ष का मैं हूँ उच्छेदक , त्रिशंकु ने कहा,
अन्नोत्पादक शक्ति रवि सम , कीर्ति मम पर्वत महा .
मैं अमिय सम अतिशय हूँ पावन , ज्योति मय धन मूल हूँ,
है अमिय अभिसिंचित सुमेधा, ज्ञान स्रोत्र समूल हूँ॥ [ १ ]

एकादश अनुवाक
शिक्षित करें आचार्य स्व आश्रम निवासी शिष्य को,
दी सत्य वद, स्वाध्याय, धर्मं चर की शिक्षा समष्टि को.
तुम देव पितृ आचार्य , धर्म के पंथ पर चलना सदा,
तुम्हें वेदों के पड़ने पढाने में रूचि हो सर्वदा॥ [ १ ]

तुम्हें मातु - पितु , आचार्य अतिथि, देवो भव का भान हो ,
निर्दोष सात्विक आचरण और श्रेष्ठ कर्मों का ज्ञान हो,
उन सबके प्रति अति दान श्रद्धा, सेवा शुभ का विधान हो,
और दंभ हीन विनम्र शुभ निष्काम वृतियां प्रधान हों॥ [ २ ]

यदि हो कदाचित कोई दुविधा मार्ग में कर्तव्य के,
लो मार्ग दर्शन युक्ति विधि से, जो कुशल गंतव्य के.
यदि दोष से लांछित कोई तो उससे क्या व्यवहार हो,
निर्देश लो यदि कोई दुविधा , श्रेष्ठ जो आचार्य हो॥ [ ३ ]

द्वादश अनुवाक
विष्णु , बृहस्पति , वरुण, इन्द्र, व् अर्यमा शुभ हो हमें,
आध्यात्मिक , दैविक व् भौतिक, शक्तियां शुभ हों हमें .
हे वायु ! मम परमेश प्राणाधार, पुनि -पुनि नमन है,
प्रत्यक्ष ब्रह्म को ऋतं सत्यम अणु में सम्भव गमन है॥ [ १ ]

ब्रह्मानंद वल्ली / तैत्तिरीयोपनिषद / मृदुल कीर्ति

शान्ति पाठपरिपूर्ण प्रभु परमात्मन, गुरु शिष्य की एक साथ ही ,
दोनों की ही रक्षा करें , पालन करें ,एक साथ ही.
तुम दोनों की शिक्षा व् अध्ययन शुद्ध और विशेष हों,
सब द्वेष शेष हों, स्नेह सूत्र में, त्रिविध ताप निषेध हों.

प्रथम अनुवाक

ऋत ब्रह्म ज्ञानी प्राप्त कर लेता है उस परब्रह्म को,
सत्यस्वरूपी ज्ञान रूपी , अनादि ब्रह्म अगम्य को.
स्थित हृदय रूपी गुफा में, व्योम व्यापी तथापि है,
तत्वज्ञ से ज्ञातव्य महिमा, अन्य से न कदापि है॥ [ १ ]


अति -अति प्रथम परब्रह्म से , नभ तत्व अथ निःसृत हुआ,
उससे ही अग्नि, वायु, क्रमशः, जल पृथा आकृत हुआ.
फ़िर उससे औषधि, अन्न, मानव, अन्न रसमय मूल हैं,
पक्षी के सम मानव शरीरी, प्रत्यंग अंग समूल है॥ [ २ ]

द्वितीय अनुवाक

भू लोक वासी प्राणी सब, इस अन्न से ही निष्पन्न हैं
अन्न से ही जीते, अंत में, अन्न में ही निमग्न हैं.
सर्वोषधम , यह ब्रह्म रूपी, अन्न जो आद्यंत है,
अथ प्राणी अन्न को , अन्न प्राणि को , खाते अन्न अनंत हैं॥ [ १ ]


इस अन्नमय स्थूल देह से, सूक्ष्म देह तो भिन्न है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः अनुरूप भी है अभिन्न है.
यदि कल्पना खग रूप में तो , प्राण सिर पुच्छं धरा,
व्यान दांयाँ , अपान बायाँ , पंख नभ आत्मा करा॥ [ २ ]

तृतीय अनुवाक

विश्वानि मानव, देव, पशु के, प्राण ही आधार हैं,
यही प्राण जीवन, प्राण आयु, प्राण प्राणाधार हैं.
परब्रह्म रूप में , प्राण को ही , जानते जो उपासते,
तत्वज्ञ वे ही अमर प्राण के ब्रह्म रूप को जानते॥ [ १ ]


प्राणमय उस पुरूष से तो मनोमय अति भिन्न है,
मनोमय ही प्राणमय में व्याप्त है व् अभिन्न है.
खग कल्पना में यजुः सिर , ऋग, साम दोनों दो पंख हैं,
सम पूँछ मंत्र अथर्व के , आधार सौख्य असंख्य हैं॥ [ २ ]

चतुर्थ अनुवाक

मन सहित, वाणी, इन्द्रियाँ भी, जा नहीं सकतीं वहाँ,
परब्रह्म का ब्रह्मत्व स्थित वास्तविकता में जहों.
उस ब्रह्म का ज्ञाता , कदाचित न कभी भयभीत हो,
मन, देह दोनों की आत्मा , परमात्मा से प्रणीत हो॥ [ १ ]


मन प्राण में जो आत्मा, विज्ञानमय है, सदैव है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः यह आत्मा भी तथैव है
सत्याचरण , ऋत पंख दो , श्रद्धा है सिर खग रूप में,
मध्य भाग है आत्मा, आधार महः यह अनूप में॥ [ २ ]

पंचम अनुवाक

विज्ञान ही सब यज्ञों का, कर्मों का विस्तारक महे,
सब देवता, बहु रूप में, विज्ञान के साधक रहे.
जो प्रमाद पाप विहीन हो, विज्ञान का ज्ञाता बने,
वही दिव्यता भोगाधिकारी का अधिष्ठाता बने॥ [ १ ]


विज्ञानमय जीवात्मा, परमात्मा से तो भिन्न है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः अनुरूप है व् अभिन्न है.
खग रूप में आनंद सिर, पुच्छं प्रतिष्ठा ब्रह्म का,
और मोद दायाँ, प्रमोद बायाँ पंख, ब्रह्म अगम्य का॥ [ २ ]

षष्ठ अनुवाक

यदि ब्रह्म नास्ति, असत है,यह भाव जिसमें प्रधान हो,
अनुसार वृति व् आचरण के उसके कर्म विधान हों .
यदि ब्रह्म आस्ति, सत्य है , यह भाव आस्तिक है महे,
निश्चित किसी दिन ब्रह्म मिलते, ज्ञानी जन ऐसा कहें॥ [ १ ]


वह है आत्म भू आनंदमय , आनंद अंतर्रात्मा,
हैं ब्रह्म के वे तो स्वयं ही , शरीरान्तर्वर्ती आत्मा .
उनमें शरीरी व् शरीर का भेद लय,यह विशेष है,
अपने की अन्तर्यामी वे अथ तुलना क्रम भी शेष है॥ [ २ ]


अथ यहाँ से अनु प्रश्न , कतिपय ब्रह्म है अथवा नहीं,
परलोक में विज्ञाता ब्रह्म का जाता है अथवा नहीं.
अविज्ञाता को भी क्या, परलोक अथ प्राप्तव्य है ,
हैं तथ्य सत्य -असत्य कितने तथ्य यह ज्ञातव्य है॥ [ ३ ]


है ब्रह्म एक , अनेक रूपों में, प्रकट विस्तृत हुआ ,
संकल्प तप, इस रूप में, कर सृष्टि संवर्द्धित किया.
रचना अनंतर स्वयं सृष्टि , में ही बसता अगम्य है ,
जड़ , चेतना, आश्रय, अनाश्रय, ऋत, अनृत सब ब्रह्म है॥ [ ४ ]

सप्तम अनुवाक

जड़ चेतनात्मक यह जगत सब प्रगत पूर्व अव्यक्त था,
उस अव्यक्तावस्था में, यह सृष्टि जन्मी है यथा.
जड़ चेतनात्मक रूप में अथ ब्रह्म ने स्व को रचा,
इसलिए ही " सुकृत " नाम यथार्थ सार्थक है रुचा॥ [ १ ]


वह 'सुकृत' ब्रह्म यथार्थ रस आनंदमय रसरूप है,
इससे ही यह जीवात्मा , आनंद पाटा अनूप है.
यदि व्योम सम विस्तृत मुदितमय, ब्रह्म न होता यहाँ ,
तो कौन प्राणों की क्रिया को संचरित करता कहाँ॥ [ २ ]


जब -जब कभी जीवात्मा व्याकुल हो ब्रह्म अगम्य को,
अनुपम, अगोचर, और विदेही परम आश्रय ब्रह्म को,
तब-तब हो निर्भय , ब्रह्म स्थिति लाभ करता जीव है,
बहु शोक भय से हीन अभयम , पद को पाता जीव है॥ [ ३ ]


जीवात्मा यदि ब्रह्म से, किंचित भी रहता दूर है,
तो जन्म -मृत्यु रूपी भय उस जीव को भरपूर है.
एक मात्र अज्ञानी ही उस भय से न केवल ग्रसित है,
ज्ञानाभिमानी में भी भय तो जन्म-मृत्यु का निहित है॥ [ ४ ]

अष्टम अनुवाक

अथ जन्म-मृत्यु के मूल भय से पवन चलता सूर्य भी
होता उदित और अस्त , अग्नि व् इन्द्र संचालित सभी,
इसी भय से ही मृत्यु होती, प्रवृत अपने कर्म में,
अथ ब्रह्म संचालक नियम का, रखता सब स्व धर्म में॥ [ १ ]


यदि कोई असाधारण युवक और आचरण भी श्रेष्ठ हो,
वेदज्ञ शासन में कुशल , धन धान्य श्री भी यथेष्ट हो.
दृढ़ इन्द्रियों और अंग सब बलवान ओजस्वी रहे.
आनंद की मीमांसा में, तो श्रेष्ठतम उसको कहें॥ [ २ ]


जो भी मनुज के लोक संबन्धी शतं आनंद हैं,
समकक्ष उसके तो एक मनु गन्धर्वों का आनंद है.
मनुलोक और गन्धर्व लोकों के तो सुख वेदज्ञ को,
हैं सहज प्राप्त स्वभाव से, संभाव्य सब श्रुति विज्ञ को॥ [ ३ ]


जो भी मनुज गन्धर्वों के सब एक सौ आनंद हैं ,
वह देव गन्धर्वों के केवल एक सुख मानिंद हैं .
निःस्पृह विमल सुख राशि मिलती सात्विक श्रुति विज्ञ को,
हो सहज ही संभाव्य अथ प्राप्तव्य है वेदज्ञ को॥ [ ४ ]


जो भी शतं सुख देव गन्धर्वों के कतिपय कथित हैं ,
वे चिरस्थायी पितृ लोक के पितरों के सुख विदित हैं ,
समकक्ष सौ सुख भी विरक्त को, करते न आसक्त हैं,
वे विज्ञ को आनंद , वे सब स्वतः प्राप्त हैं , व्यक्त हैं॥ [ ५ ]


अथ चिरस्थायी लोक पितरों के, जो भी आनंद हैं,
वह आजानज नाम सुख का, देवों का आनंद है .
उस लोक तक के भोगों की इच्छा नहीं , जिसकी कभी,
आनंद सिद्ध स्वभाव श्रोत्रिय , विज्ञ ऋत् निस्पृह सभी॥ [ ६ ]


जो नाम आजानज विदित वे देवों के आनंद हैं,
सम कर्म नामक देवों के वे तो शतं मानिंद हैं.
ऐसे शतं आनंद निधि की कामना से रहित जो,
वेदज्ञ श्रोत्रिय को वही आनंद मिलता , विरत जो॥ [ ७ ]


जो कर्म देवानां देवों के शतं आनंद हैं ,
समकक्ष सौ सुख राशि की तुलना में एक आनंद है.
अमरों की भी सुखराशी की नहीं चाहना वेदज्ञ को,
सब सहज ही प्राप्तव्य उनको, चाहते जो अज्ञ को॥ [ ८ ]


जो देवताओं के शतं आनंद हैं वर्णित यथा,
समकक्ष सौ आनंद की , सुखराशि इन्द्र का सुख तथा.
किंचित कदाचित भी न विचलित , कर सके वेदज्ञ को,
मिलता स्वतः ही सहज सुख , जो जानते सर्वज्ञ को॥ [ ९ ]


यह जो शतं आनंद इन्द्र के उससे भी अतिशय महे,
आनंद बढ़ कर सौ गुना, यह सुख बृहस्पति का अहे.
पर जो बृहस्पति तक के भोगों में भी निःस्पृह विरल है,
उस वेद वेत्ता को स्वतः ही प्राप्त सुख सब सरल हैं॥ [ १० ]


ये जो बृहस्पति के शतं आनंद हैं अतिशय महे,
उससे भी बढ़ कर प्रजापति के , सुख विरल अद्भुत अहे.
पर जो प्रजापति तक के भोगों , में भी निःस्पृह विरल हो,
उस परम श्रोत्रिय को स्वतः सुख प्राप्त है और सरल हो॥ [ ११ ]


यह जो प्रजापति के शतं सुख राशि हैं आनंद हैं,
वह ब्रह्मा के तो एक सुख समकक्ष का आनंद है.
ऐसे परम आनंद से वेदज्ञ जो भी विरत है ,
निष्कामी को आनंद ऐसा , सहज मिलता सतत है॥ [ १२ ]


परमात्मा जो है मनुष्यों में वही आदित्य में,
एकमेव अन्तर्यामी ब्रह्म ही बसता नित्य अनित्य में.
वह अन्न, प्राण मनोमय, विज्ञानमय , आनंद को,
तत्वज्ञ क्रमशः प्राप्त हो, अथ ब्रह्म सच्चिदानंद को॥ [ १३ ]

नवम अनुवाक

मन सहित वाणी इन्द्रियां भी लौटती जाकर जहों,
उस ब्रह्म के आनंद ज्ञाता को भला भय हो कहों.
वह सर्वथा निर्भय सभी, संताप से भी मुक्त हो,
उसको अभय अनुदान हो, यदि ब्रह्म से संयुक्त हो॥ [ १ ]


तत्वज्ञ सात्विक वृतियों से ही दुःख सुख सम्यक करे,
अथ पाप पुण्यों का आचरण, सीमा से हो जाता परे .
उसे लोभ, भय जीवन मरण संताप, मोह भी शेष है,
तत्वज्ञ इस विधि आत्मा की, रक्षा करता विशेष है॥ [ २ ]

भृगु वल्ली / तैत्तिरीयोपनिषद / मृदुल कीर्ति

प्रथम अनुवाक

की वरुण पुत्र भृगु ने उत्कट चाहना ब्रह्मत्व की,
वरुण बोले तात ! इन्द्रियां द्वार हैं गंतव्य की.
जिसके सहारे जीते प्राणी, सृजित करते प्रयाण हैं
जिज्ञासु बन वही ब्रह्म टाप से जानो, ब्रह्म ही प्राण हैं॥ [ १ ]

द्वितीय अनुवाक

है अन्न जीवन प्राण , प्राणी का प्रयाण भी अन्न से,
हो पुनि प्रवेश भी अन्न में, पुनि पायें जीवन अन्न से.
इति अन्न ब्रह्म है तथ्य यह , भृगु ने पिटा से अथ कहा,
बोले पिता कि ब्रह्म को , पुनि तप से जानो जो महा॥ [ १ ]

तृतीय अनुवाक

इस प्राण से भी प्राणी सब उत्पन्न और जीवंत हैं,
और प्राण में ही प्रविष्ट पुनि -पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
इति प्राण को ही ब्रह्म जान कर भृगु वरुण से पूछते,
कहा भृगु ने, विज्ञ तप से ही ब्रह्म होता, ऋत मते॥ [ १ ]

चतुर्थ अनुवाक

इस मन से ही तो प्राणी सब उत्पन्न और जीवंत हैं.
मन में ही होता प्रवेश पुनि -पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
इति मन को तत्व से ब्र्श्म जाना, भृगु वरुण से पूछते,
कहा भृगु ने ब्रह्म तप से विज्ञ होगा ऋत मते॥ [ १ ]

पंचम अनुवाक

विज्ञानं से ही प्राणी सब जीवंत और उत्पन्न हैं,
विज्ञान में ही प्रवेश पुनि-पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
अथ मान कर, विज्ञान ब्रह्म है, भृगु वरुण से पूछते ,
तब कहा भृगु ने ब्रह्म केवल विज्ञ तप से हो ऋत मते॥ [ १ ]

षष्ठ अनुवाक

आनंद रूप है ब्रह्म जिससे ही प्राणी सब उत्पन्न हैं ,
आनंद में ही प्रवेश पुनि-पुनि , फ़िर प्रयाण व् अंत है.
अथ वरुण से उपदिष्ट भृगु से , विदित विद्या ही ब्रह्म है,
जो प्राण, अन्न, समस्त लोकों का ज्ञाता, पाता अगम्य है॥ [ १ ]

सप्तम अनुवाक

यही प्राण अन्न है, अन्न प्राण है, जिससे शक्ति है जीवनी,
नहीं अन्न की निंदा करें , यही अन्न है संजीवनी.
इस अन्न में ही अन्न स्थित, अन्न प्राणाधार हैं,
ब्रह्म वर्चस प्रजा पशु व् कीर्ति का, तो अन्न ही आधार है॥ [ १ ]

अष्टम अनुवाक

ज्योति व् जल में भी प्रतिष्ठित , अन्न का ही रूप है,
जल में तेज है, तेज में जल, आनन्योश्राय स्वरुप है.
न हो अन्न की अवहेलना , सम्मान हो व्रत साधना,
संतान, पशु, धन, धान्य कीर्ति से बहु प्रतिष्ठित वह बना॥ [ १ ]

नवम अनुवाक

आकाश में पृथ्वी प्रतिष्ठित और धरा है व्योम में,
अथ अन्न में ही अन्न स्थित, प्रकृति सार्वभौम में.
हो अन्न का विस्तार जिस मानव का व्रत संकल्प हो,
वह ब्रह्म वर्चस , प्रजा , पशुओं से युक्त काया कल्प हो॥ [ १ ]

दशम अनुवाक

हैं अतिथि देवो भव की वृतियां , संचरित जिस प्राणी में,
पाता स्वयम समृद्धि होता , स्वागतम जिस वाणी में .
जो मध्य निम्न का भव हो तो तथैव उसको भी मिले,
जो अतिथि सेवा का मार्ग जाने , ऋद्धि श्री वृद्धि मिले॥ [ १ ]


अपां प्राण में प्राप्ति रक्षा , वाणी में कल्याण की,
पैरों में गति, हाथों में कर्म की शक्ति , ब्रह्म महान की.
बिजली में बल , वृष्टि में तृप्ति , नक्षत्र नभ में प्रकाश हैं,
शक्ति विभूति प्रजा वीर्य में, ब्रह्म तेज विकास है॥ [ २ ]


जिस रूप में करता उपासक ब्रह्म की अभ्यर्थना ,
उस रूप में ही ब्रह्म अथ स्वीकार करता प्रार्थना .
जो भाव रूप हो प्रार्थना का स्वयम भी तद्रूप हो,
हो ब्रह्म जिनका लक्ष्य केवल , वे भी भक्त अनूप हों॥ [ ३ ]


परमात्मा जो है मनुष्यों में वही आदित्य में,
है ब्रह्म अन्तर्यामी एक ही, बसता नित्य अनित्य में.
क्रम अन्न , प्राण, मनोमय, विज्ञानं माया आनंद को,
जो जानता इच्छित गमन ,करे साम गायन छंद को॥ [ ४ ]


आश्चर्य ! ब्रह्म ही अन्न ,भोक्ता, अन्न संयोजक महे,
उस अन्नमय अन्न स्वरुप को व्यक्त क्या कैसे कहें?
अति आदि देवों से प्रथम और है सुधा का केन्द्र भी,
आद्यंत है वह अन्नमय, रवि ज्योति पुंज रवींद्र भी॥ [ ५ ]

कृष्णा यजुर्वेदीय तैत्तरीयोपनिषद समाप्त

शान्ति पाठ
मम हेतु शुभ हो इन्द्र मित्र, वरुण , बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो,प्राण वायु देव तुम तुमको नमः
प्रभो ग्रहण , भाषण, आचरण हो,सत्य का हमसे सदा.
ऋतू रूप ऋतू के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा.

ऐतरेय उपनिषद- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति

 
ऐतरेय उपनिषद- काव्यानुवाद   : मृदुल कीर्ति  
ॐ श्री परमात्मने नमः

शांति पाठ

हे सच्चिदानंद प्रभो ! मन वचन मेरे विशुद्ध हों,
शुचि वेद विषयक ज्ञान से, मन वाणी मेरे प्रबुद्ध हों।
दिन रात वेदों का अध्ययन , वाणी में ऋत सैट अमिय हो,
रक्षित हों श्री आचार्य मम , हे ब्रह्म हम सब अभय हों॥

प्रथम अध्याय
 
 
ब्रह्माण्ड के अस्तित्व पूर्व तो एक मात्र ही ब्रह्म था,
पर ब्रह्म प्रभु के अन्यथा, कोई चेष्टा रत न गम्य था।
तब सृष्टि रचना का, आदि सृष्टि में, ब्रह्म ने निश्चय किया ,
अथ इस विचार के साथ ही, कर्म फल निर्णय किया॥ [ १ ]


द्यु-मृत्यु लोक व् अन्तरिक्ष व् लोक भूतल के सभी,
महः जनः तपः ऋत लोक अम्भः सूर्य चंद्र मरीचि भी ,
लोक त्रिलोकी चतुर्दश, लोक सातों, गरिमा की,
रचनाएं सब परमेश की और महत उसकी महिमा की॥ [ २ ]


सब लोकों की रचना अनंतर, ब्रह्म ने चिंतन किया,
लोक पालों की सर्जना व् महत्त्व का भी मन किया.
अतः ब्रह्म ने स्वयम जल से ब्रह्मा की उत्पत्ति की ,
अथ हिरण्यगर्भा रूप ब्रह्मा मूर्तिमान की कृति की॥ [ ३ ]


संकल्प तप से अंडे के सम, हिरण्यगर्भ शरीर से,
प्रथम मुख फ़िर वाक् अग्नि, नासिका से समीर से।
अथ क्रमिक रोम, त्वचा, हृदय, मन, चन्द्रमा, श्रुति व् दिशा,
नाभि अपान व् वीर्य, मृत्यु, क्रमिक सृष्टि की है दशा॥ [ ४ ]

प्रथम अध्याय / द्वितीय खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
सृष्टा सृजित सब देवता, जब जग जलधि में आ गए,
उन्हें भूख प्यास से युक्त ब्रह्म ने, जब किया अकुला गए.
तब देवताओं ने कहा, मम हेतु प्रभु स्थान दो,
स्थित हों जिस पर, अन्न भक्षण कर सकें, वह विधान दो॥ [ १ ]


गौ गात लाये ब्रह्म तब, उन देवताओं के लिए,
मम हेतु नहीं पर्याप्त भगवन, दूसरा कुछ दीजिये
परब्रह्म ने तब गात अश्व का, देवताओं हित रचा,
यह भी नहीं पर्याप्त प्रभुवर और न हमको रुचा॥ [ २ ]


तब देवताओं को, ब्रह्म ने, मानव शरीर की सृष्टि की,
यह सुकृति देवों को रूचि, प्रभु ने कृपा की दृष्टि की.
तुम अपने योग्य के आश्रयों में, देवताओं प्रविष्ट हो,
मानव शरीर ही श्रेष्ठ रचना, सकल रचना विशिट हो॥ [ ३ ]


बन अग्नि मुख में वाक्, वायु प्राण बन कर नासिका,
रवि नेत्र बन और दिशा श्रोतम, रूप औषधि रोम का.
बन म्रत्यु देव अपान वायु, नाभि में स्थित हुए,
और चंद्र मन बन हृदय में, जल वीर्य बन स्थित हुए॥ [ ४ ]


भूख और पिपासा ने ब्रह्म से, की याचना कुछ दीजिये,
तब ब्रह्म ने देवांश में से ही, अंश दोनों को दिए.
अथ देवताओं द्वारा हवि जो, इन्द्रिओं से ग्रहण हो,
वह ही परोक्ष में भूख प्यास का अंश देवों से ग्रहण हो॥ [ ५ ]

प्रथम अध्याय / तृतीय खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति

सब लोक पालों व् लोक रचना के बाद सोचा ब्रह्म ने,
अथ इनके पोषण हेतु अन्न की, सृष्टि की थी ब्रह्म ने,
निर्वाह को दिया अन्न ब्रह्म ने और जग पोषित किया,
इस रूप में अपनी कृपा को, जगत में प्रेषित किया॥ [ १ ]


सब लोक पालों व् लोक रचना के बाद सोचा ब्रह्म ने,
अथ इनके पोषण हेतु अन्न की, सृष्टि की थी ब्रह्म ने,
निर्वाह को दिया अन्न ब्रह्म ने और जग पोषित किया,
इस रूप में अपनी कृपा को, जगत में प्रेषित किया॥ [ २ ]


फ़िर सृजित अन्न ने भागने की चेष्टा, चेष्टा की विमुख हो,
मात्र वाणी से अन्न ग्रहण करना चाहते थे, आमुख हो.
पर अन्न का करके ही वर्णन, तप्त हो यदि वाणी से,
दृष्टव्य न ऐसा कहीं, अप्राप्य इस विधि प्राणी से॥ [ ३ ]


घ्राण इन्द्रिय के द्वारा भी, जीवात्मा ने अन्न को,
ग्रहण करना चाहा था, नहीं पा सका पर अन्न को.
जीवात्मा यदि सूंघ कर ही तृप्त हो सकती कभी,
तो सूंघ कर ही अन्न को धारण यहॉं करते सभी॥ [ ४ ]


इन चक्षुओं के द्वारा भी तो, अन्न धारण चाह थी,
चक्षुओं के द्वार पर धारण की न कोई राह थी.
जीवात्मा यदि ऐसा कर सकता तो दर्शन मात्र से,
तो देख कर ही तृप्त होता, अन्न केवल नेत्र से॥ [ ५ ]


यदि तृप्त हो सकता मनुष्य जो, नाम सुनने मात्र से,
नाम केवल अन्न का, सुनता वह अपने श्रोत्र से.
और सुनकर तृप्त हो जाता न जो संभाव्य है,
यह नहीं व्यवहृत प्रथा और न ही यह दृष्टव्य है॥ [ ६ ]


तब उस सृजित जीवात्मा ने अन्न को स्पर्श से,
चाहा त्वरित ही ग्रहण करना मात्र ही संपर्क से,
पर यदि संभाव्य होता ग्रहण करना विधि यथा
तो अन्न को स्पर्श से ही ग्रहण की होती प्रथा॥ [ ७ ]


जीवात्मा की अन्न को, मन से ग्रहण की चाह थी,
पर मात्र मनसा भाव से, पा सकने की न राह थी.
मनसा चिंतन मात्र से यदि ग्रहण कर सकता कोई,
पर तृप्त चिंतन से ही केवल हो नहीं सकता कोई॥ [ ८ ]


उस अन्न के द्वारा उपस्थ के, ग्रहण करने की चाह थी,
पर उपस्थ के द्वारा भी नहीं ग्रहण करने की राह थी.
यदि उपस्थ के द्वारा यह ग्रहणीय हो सकता कभी,
पर अन्न त्याग से तृप्त होता, हो नहीं देखा कभी॥ [ ९ ]


वायु अपान के द्वारा अंत में, जीव ने उस अन्न को,
मुख माध्यम से ग्रहण कर, किया ग्राह्य, अन्न विभिन्न को.
खाद्यान्न से जीवन की रक्षा करने वाले स्वरुप में,
अथ वायु जीवन प्राण का, है प्राण वायु के रूप में॥ [ १० ]


सृष्टा ने सोचा मेरे बिन, क्या हो व्यवस्था प्रक्रिय?
वाणी द्वारा वाक्, प्राण से, सूंघने की यदि क्रिया,
दृष्टि नेत्र से, श्रवण श्रोत्र से, त्वचा से स्पर्श का,
मनन मन से, कौन मैं क्या मार्ग मेरे प्रवेश का? [ ११ ]


बेध कर मूर्धा को, परब्रह्म स्वयं मानव देह में
होते प्रतिष्ठित , विदृती नाम प्रसिद्धि मानव गेह में.
परमेश की उपलब्धि के, स्थान स्वप्न भी तीन है,
ब्रह्माण्ड हृदयाकाश नभ, वही जन्म मृत्यु विहीन है॥ [ १२ ]


देखा जगत , भौतिक रचित, मानव चकित है मौन है,
अद्भुत जगत का रचयिता, यह दूसरा यहाँ कौन है?
प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम को मन में, सर्व व्यापी को किया,
अहो ! ब्रह्म का साक्षात दर्शन शुभ्र, शुभ मैनें किया॥ [ १३ ]


अथ देह में उत्पन्न यद्यपि, देही को प्रत्यक्ष है,
इव देवता है परोक्ष प्रिय, इस हेतु ही अप्रत्यक्ष है.
नाम तो है 'इदंद्र' 'इन्द्र' परोक्ष भाव पुकारते,
अथ ब्रह्म को साक्षात करके स्वयं में ही निहारते॥ [ १४ ]

द्वितीय अध्याय
द्वितीय अध्याय / प्रथम खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
अति-अति प्रथम यह जीव गर्भ में, वीर्य का ही रूप है,
धारक पिता के स्वरुप गर्भ में, वीर्य का भी स्वरुप है,
यह पुरूष तन में जो वीर्य है, यह सकल अंगों का सार है,
आत्म संचय फ़िर नारी सिंचन, प्रथम जन्म आधार है॥ [ १ ]


वह गर्भ नारी के स्वयम अपने , अंगों के ही समान हैं,
अतः धारक नारी को किसी पीडा का नहीं भान है.
पति अंश को गर्भस्थ अंगीकार करती नारी है,
ऐसी व्यवस्था पर व्यवस्थित सृष्टि रचना सारी है॥ [ २ ]


करे गर्भ धारण प्रसव के ही पूर्व तक नारी तथा,
जन्मांतरण शिशु के पिता , करें संस्कार की है प्रथा
गर्भान्तरण नारी का पोषण श्रेष्ठ और विशेष हो ,
अथ जीव का जन्मांतरण ही द्वितीय जन्म प्रवेश हो॥ [ ३ ]


यह पुत्र है प्रतिनिधि पिता का, पुण्य कर्मों को करे,
जिसके ही लौकिक दिव्य कर्मों से पिता और कुल भी तरें
पिता के कर्तव्य पूर्ण व् आयु भी जब शेष हो
उपरांत जो भी पुनर्जन्म हो,तृतीय जन्म प्रवेश हो॥ [ ४ ]


ऋषि वाम देव को गर्भ में ही तत्व ज्ञान का ज्ञान था,
जन्म मृत्यु शरीर के ही विकार हैं यह भान था.
अब तत्व ज्ञान से मैं शरीरों की अहंता से मुक्त हूँ ,
अब जन्म मृत्यु शरीर हीन हूँ , बाज सम उन्मुक्त हूँ॥ [ ५ ]



मर्मज्ञ जीवन मरण के , ऋषि वामदेव प्रणम्य है,
उपरांत नष्ट शरीर के,गति उर्ध्व पाई धन्य है.
कामनाओं को प्राप्त करके , आप्त काम हो तर गए,
वे जन्म मृत्यु विहीन बन , ऋषि परम धाम को ही गए॥ [ ६ ]

तृतीय अध्याय
तृतीय अध्याय / प्रथम खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
हम लोगों का आराध्य जो है, आत्मा वह कौन है?
मुखरित हो वाणी तत्व जिससे, तत्व एसा कौन है?
सूंघते जिससे सुगंधें , सुनता व् देखे कौन है,?
अस्वादु- स्वादु वास्तु को करता विभाजित कौन है?॥ [ १ ]


यह जो हृदय है यही मन भी प्रज्ञा, आज्ञा, ज्ञान भी,
देखने की शक्ति बुद्धि व् धैर्य मत विज्ञान भी,
शुभ स्मरण संकल्प शक्ति , मनन प्राण व् कामना,
सब शक्तियां उसमें समाहित,ब्रह्म मय परमात्मा॥ [ २ ]


यही ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, यही देवता जलवायु भू,
आकाश अग्नि, पंचभूत, नियंता इनका है स्वयं भू,
ब्रह्माण्ड जड़ जंगम व् चेतन कीट पशु प्राणी सभी,
प्रज्ञा स्वरूपी ब्रह्म से ही निष्पन्न है सृष्टि सभी॥ [ ३ ]


जिस प्राणी को परब्रह्म के प्रज्ञान रूप का ज्ञान हो,
उसके लिए सब दिव्य भोग हों, अमरता का विधान हो.
इस लोक से ऊपर हो अति -अति परम धाम में धाम हो,
फ़िर जन्म -मृत्यु विहीन जड़ता हीन शुद्ध अनाम हो॥ [ ४ ]