कुल पेज दृश्य

hindi lyric लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
hindi lyric लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

geet; andhera dhara par -sanjiv


गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए… 
संजीव 
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.
जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

शनिवार, 1 जून 2013

hindi lyric: acharya sanjiv verma 'salil'


गीत :

फोड़ रहा है काल फटाके...
संजीव
*
झाँक झरोखे से वह ताके, 
या नव चित्र अबोले आँके...
* http://img207.imageshack.us/img207/8596/17410865db63b8a8c81dc79.jpg
सांध्य-सुंदरी दुल्हन नवेली,
ठुमक-ठुमक पग धरे अकेली।
निशा-नाथ को निकट देखकर-
झट भागी खो धीर सहेली।
तारागण बाराती नाचे 
पियें सुधा रस मिलकर बाँके...
*https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnRGnzIqnpTJPGXAVXCfM6PMb-PEz56Uuqzehl-yiXlCq8RzlCNHTai9k7_4-WF39kmgPbINsRwRhnv49PHgoGuJQNH9CusFOVtyqKSGG30SFbLR75TMrfYRNomz6hJ99YmSBI_nYxhMmO/s1600/seven_sisters800a.jpg
झींगुर बजा रहे शहनाई,
तबला ठोंकें दादुर भाई।
ध्रुव तारे को दिखा रही है-
उत्तर में पुरवैया दाई।
दें-लें सात वचन, मत नाके-  
कहाँ पादुका ऊषा ताके...
*http://statics.erasmusu.com/originals/sun-rise-41493966de312ae88e43953358215e95.jpg
धरा धरा ने अब तक धीरज,
रश्मि बहू ले आया सूरज।
अगवानी करती गौरैया-
सलिल-धार उपहारे नीरज।
चित्र गुप्त, चुप सुनो ठहाके-
फोड़ रहा है काल फटाके...
Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com/blogspot.in

शुक्रवार, 31 मई 2013

hindi lyric: rachna aur rachiyata acharya sanjiv verma 'salil'

रचना और रचयिता: संजीव 'सलिल'

रचना और रचयिता:




संजीव 'सलिल'
*
किस रचना में नही रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*




*

बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*





*

कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण  है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*




*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...


 
************************

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

गीत : ... सच है संजीव 'सलिल'

गीत :
... सच है
संजीव 'सलिल'
*
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
ढाई आखर की पोथी से हमने संग-संग पाठ पढ़े हैं.
शंकाओं के चक्रव्यूह भेदे, विश्वासी किले गढ़े है..
मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला पावना-देना सच है..

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता.
जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..
अर्पण और समर्पण का पल द्वैत मिटा अद्वैत वर कहे-
काया-माया छाया लगती मृग-मरीचिका लेकिन सच है  

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*


गीत सलिला: राकेश खंडेलवाल

गीत सलिला:
राकेश खंडेलवाल

 
 
कुछ प्रश्नों  का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है 
ऐसा ही यह प्रश्न तुम्हारा तुमसे कितना प्यार मुझे है 
संभव कहाँ शब्द में बांधू  गहराई मैं मीत प्यार की 
प्याले में कर सकूं कैद मैं गति गंगा की तीव्र धार की 
आदि अंत से परे रहा जो अविरल है अविराम निरंतर 
मुट्ठी में क्या सिमटेगी  विस्तृतता तुमसे मेरे प्यार  की 
असफल सभी चेष्टा मेरी कितना भी चाहा हो वर्णित 
लेकिन हुआ नहीं परिभाषित तुमसे कितना प्यार मुझे है 
अर्थ प्यार का शब्द तुम्हें भी ज्ञात नहीं बतला सकते हैं
मन के बंधन जो गहरे हैं, होंठ कभी क्या गा सकते हैं
ढाई  अक्षर कहाँ कबीरा, बतलासकी दीवानी मीरा 
यह अंतस की बोल प्रकाशन पूरा कैसे पा सकते हैं 
श्रमिक-स्वेद कण के नाते को  रेख सिंदूरी से सुहाग का 
जितना होता प्यार जान लो तुमसे उतना प्यार मुझे है 
ग्रंथों ने अनगिनत कथाएं रचीं और हर बार बखानी 
नल दमयंती, लैला मजनू, बाजीराव और मस्तानी 
लेकिन अक्षम रहा बताये प्यार पैठता कितना गहरे
जितना भी डूबे उतना ही गहरा हो जाता है पानी
शायद एक तुम्हों हो जो यह सत्य मुझे बतला सकता है
तुम ही तो अनुभूत कर रहे तुमसे कितना प्यार मुझे है।

***
Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

गीत : आशियाना ... संजीव 'सलिल'

गीत :
आशियाना ...
संजीव 'सलिल'
*
धरा की शैया सुखद है,
नील नभ का आशियाना ...
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना ...
*
जोड़ता तू फिर रहा है,
मोह-मद में घिर रहा है।
पुत्र है परब्रम्ह का पर
वासना में तिर रहा है।
पंक में पंकज सदृश रह-
सीख पगले मुस्कुराना ...
*
उग रहा है सूर्य नित प्रति,
चाँद संध्या खिल रहा है।
पालता है जो किसी को,
वह किसी से पल रहा है।
मिले उतना ही लिखा है-
जहाँ जिसका आब-दाना ...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या??,
कौन जाता संग किसके?
संग सब आनंद में हों,
दर्द-विपदा देख खिसकें।
भावना भरमा रहीं मन,
कामना कर क्यों ठगाना?...
*
रहे जिसमें ढाई आखर,
खुशनुमा है वही बाखर।
सुन खन-खन सतत जो-
कौन है उससे बड़ा खर?
छोड़ पद-मद की सियासत
ओढ़ भगवा-पीत बाना ...
*
कब भरी है बोल गागर?,
रीतता क्या कभी सागर??
पाई जैसी त्याग वैसी
'सलिल' निर्मल श्वास चादर।
हंस उड़ चल बस वही तू
जहाँ है अंतिम ठिकाना ...
***** 

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

नवगीत: समय पर अहसान अपना... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

समय पर अहसान अपना...

संजीव 'सलिल'
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

सामयिक गीत: पंच फैसला... संजीव 'सलिल'

सामयिक गीत:
पंच फैसला...
संजीव 'सलिल'
*
पंच फैसला सर-आँखों,
पर यहीं गड़ेगा लट्ठा...
*
नाना-नानी, पिता और माँ सबकी थी ठकुराई.
मिली बपौती में कुर्सी, क्यों तुम्हें जलन है भाई?
रोजगार है पुश्तों का, नेता बन भाषण देना-
फर्ज़ तुम्हारा हाथ जोड़, सर झुका करो पहुनाई.
सबको अवसर? सब समान??
सुन-कह लो, करो न ठट्ठा...
*
लोकतंत्र है लोभतन्त्र, दल दाम लगाना जाने,
भौंक तन्त्र को ठोंकतन्त्र ने दिया कुचल मनमाने.
भोंक पीठ में छुरा, भाइयों! शोक तन्त्र मुस्काये-
मृतकों के घर जा पैसे दे, वादे करें लुभाने..
संसद गर्दभ ढोएगी
सारे पापों का गट्ठा...  
*
उठा पनौती करी मौज, हो गए कहीं जो बच्चे.
हम देते नकार रिश्तों को, हैं निर्मोही सच्चे.
देश खेत है राम लला का, चिड़ियाँ राम लला की-
पंडा झंडा कोई हो, हम खेल न खेले कच्चे..
कहीं नहीं चाणक्य जड़ों में
डाल सके जो मट्ठा...
*
नेता जी-शास्त्री जी कैसे मरे? न पता लगाया..
अन्ना हों या बाबा, दिन में तारे दिखा भगाया.
घपले-घोटालों से फुर्सत, कभी तनिक पाई तो-
बंदर घुडकी दे-सुन कर फ़ौजी का सर कटवाया.
नैतिक जिम्मेदारी ले वह
जो उल्लू का पट्ठा...
*
नागनाथ गर हटा, बनेगा साँपनाथ ही नेता.
फैलाया दूजा तब हमने, पहला जाल समेटा.
केर-बेर का संग बना मोर्चा झपटेंगे सत्ता-
मौनी बाबा कोई न कोई मिल जाएगा बेटा.
जोकर लिए हाथ में हम
तुम सत्ता चलो या अट्ठा...
***

बुधवार, 9 जनवरी 2013

गीत: चलो हम सूरज उगायें -संजीव 'सलिल'

गीत:

चलो हम सूरज उगायें
*
संजीव 'सलिल'
*
चलो! हम सूरज उगाएं...
*
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....

विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलाएं...

आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
*
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सत सुनेंगे।
नाद अनहद गूंजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...

*********************

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

चित्र पर कविता मुक्तिका संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता



गीत
संजीव 'सलिल'
*
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रजनी की कालिमा परखकर,
ऊषा की लालिमा निरख कर,
तारों शशि रवि से बातें कर-
कहदो हासिल तुम्हें हुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
राजहंस, वक, सारस, तोते
क्या कह जाते?, कब चुप होते?
नहीं जोड़ते, विहँस छोड़ते-
लड़ने खोजें कभी खुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
मेघ जल-कलश खाली करता,
भरे किस तरह फ़िक्र न करता.
धरती कब धरती कुछ बोलो-
माँ खाती खुद मालपुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रमता जोगी, बहता पानी.
पवन विचरता कर मनमानी.
लगन अगन बन बाधाओं का
दहन करे अनछुआ-छुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
चित्र गुप्त ढाई आखर का,
आदि-अंत बिन अजरामर का.
तन पिंजरे से मुक्ति चाहता
रुके 'सलिल' मन-प्राण सुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*


गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

गीत: क्षितिज-स्लेट पर... संजीव 'सलिल'

गीत 
क्षितिज-स्लेट पर...
संजीव 'सलिल'
*
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रजनी की कालिमा परखकर,
ऊषा की लालिमा निरख कर,
तारों शशि रवि से बातें कर-
कहदो हासिल तुम्हें हुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
राजहंस, वक, सारस, तोते
क्या कह जाते?, कब चुप होते?
नहीं जोड़ते, विहँस छोड़ते-
लड़ने खोजें कभी खुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
मेघ जल-कलश खाली करता,
भरे किस तरह फ़िक्र न करता.
धरती कब धरती कुछ बोलो-
माँ खाती खुद मालपुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रमता जोगी, बहता पानी.
पवन विचरता कर मनमानी.
लगन अगन बन बाधाओं का
दहन करे अनछुआ-छुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
चित्र गुप्त ढाई आखर का,
आदि-अंत बिन अजरामर का.
तन पिंजरे से मुक्ति चाहता
रुके 'सलिल' मन-प्राण सुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*

शनिवार, 3 नवंबर 2012

गीत: उत्तर, खोज रहे... संजीव 'सलिल'

गीत:
उत्तर, खोज रहे...
संजीव 'सलिल'

*
उत्तर, खोज रहे प्रश्नों को, हाथ न आते।
मृग मरीचिकावत दिखते, पल में खो जाते।
*
कैसा विभ्रम राजनीति, पद-नीति हो गयी।
लोकतन्त्र में लोभतन्त्र, विष-बेल बो गयी।।
नेता-अफसर-व्यापारी, जन-हित मिल खाते...
*
नाग-साँप-बिच्छू, विषधर उम्मीदवार हैं।
भ्रष्टों से डर मतदाता करता गुहार है।।
दलदल-मरुथल शिखरों को बौना बतलाते...
*
एक हाथ से दे, दूजे से ले लेता है।
संविधान बिन पेंदी नैया खे लेता है।।
अँधा न्याय, प्रशासन बहरा मिल भरमाते...
*
लोकनीति हो दलविमुक्त, संसद जागृत हो।
अंध विरोध न साध्य, समन्वय शुचि अमृत हो।।
'सलिल' खिलें सद्भाव-सुमन शत सुरभि लुटाते... 
*
जो मन भाये- चुनें,  नहीं उम्मीदवार हो।
ना प्रचार ना चंदा, ना बैठक उधार हो।।
प्रशासनिक ढाँचे रक्षा का खर्च बचाते...
*
जन प्रतिनिधि निस्वार्थ रहें, सरकार बनायें।
सत्ता और समर्थक, मिलकर सदन चलायें।।
देश पड़ोसी देख एकता शीश झुकाते...
*
रोग हुई दलनीति, उखाड़ो इसको जड़ से।
लोकनीति हो सबल, मुक्त रिश्वत-झंखड़ से।।
दर्पण देख न 'सलिल', किसी से आँख चुराते...
*

गीत: सागर में गिरकर... सीमा अग्रवाल

गीत:

सागर में गिरकर...



सीमा अग्रवाल 
*
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है 
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है 

अस्तित्व स्वयं का तज बोलो 
किसने अब तक पाया है सुख 
गिरवी स्वप्नों की रजनी का 
चमकीला हो कैसे आमुख 

खोती प्रभास दीपक की लौ, जब सविता में घुल जाती है 
लहरें बन ..........

हो विलय ताम्र कंचन के संग 
खो जाता कंचन हो जाता 

कर सुद्रढ़ सुकोमल स्वर्ण गात 
निजता पर प्रमुख बना जाता

तज स्वत्व हेम हित ताम्र ज्योति बन हेम स्वयं मुसकाती है 
लहरें बन ..........

खो कर भी निज सत्ता खुद का 
अभिज्ञान सतत रखना संचित 

माधुर्यहीन,हो क्यों नदीश में 
सलिला सम रहना किंचित 

तांबा सोने में मुस्काता ,तरणी क्षारित कहलाती हैं 
लहरें बन व्याकुल ............

गीत: समाधित रहो .... संजीव 'सलिल'

गीत:
समाधित रहो ....







संजीव 'सलिल'
+
चाँद ने जब किया चाँदनी दे नमन,
कब कहा है उसी का क्षितिज भू गगन।
दे रहा झूमकर सृष्टि को रूप नव-
कह रहा देव की भेंट ले अंजुमन।।

जो जताते हैं हक वे न सच जानते,
जानते भी अगर तो नहीं मानते।
'स्व' करें 'सर्व' को चाह जिनमें पली-
रार सच से सदा वे रहे ठानते।।

दिन दिनेशी कहें, जल मगर सर्वहित,
मौन राकेश दे, शांति सबको अमित।
राहु-केतु ग्रसें, पंथ फिर भी न तज-
बाँटता रौशनी, दीप होता अजित।।

जोड़ता जो रहा, रीतता वह रहा,
भोगता सुर-असुर, छीजता ही रहा।
बाँट-पाता मनुज, ज़िन्दगी की ख़ुशी-
प्यास ले तृप्ति दे, नर्मदा सा बहा।।

कौन क्या कह रहा?, कौन क्या गह रहा?
किसकी चादर मलिन, कौन स्वच्छ तह रहा?
तुम न देखो इसे, तुम न लेखो इसे-
नित नया बन रहा, नित पुरा ढह रहा।।

नित निनादित रहो, नित प्रवाहित रहो।
सर्व-सुख में 'सलिल', चुप समाहित रहो।
शब्द-रस-भावमय छन्द अर्पित करो-
शारदी-साधना में समाधित रहो।।

***

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

गीत: गीत तेरे होंठ पर गीतकार

गीत:
गीत तेरे होंठ पर
गीतकार 
  *
गीत तेरे होंठ पर खुद ही मचलने लग पड़ें आ
इसलिये हर भाष्य को व्यवहार मैं देने लगा हूँ
देव पूजा की सलौनी छाँह के नग्मे सजाकर
काँपती खुशबू किसी के नर्म ख्यालों से चुराकर
मैं हूँ कॄत संकल्प छूने को नई संभावनायें
शब्द का शॄंगार करता जा रहा हूँ गुनगुनाकर
अब नयन के अक्षरों में ढल सके भाषा हॄदय की
इसलिये स्वर को नया आकार मैं देने लगा हूँ
रूप हो जो आ नयन में खुद-ब-खुद ही झिलमिलाये
प्रीत हो, मन के समंदर ज्वार आ प्रतिपल उठाये
बात जो संप्रेषणा का कोई भी माध्यम न माँगे
और आशा रात को जो दीप बन कर जगमगाये
भावना के निर्झरों पर बाँध कोई लग न पाये
इसलिये हर भाव को इज़हार मैं देने लगा हूँ
मंदिरों की आरती को कंठ में अपने बसाकर
ज्योति के दीपक सरीखा मैं हॄदय अपना जला कर
मन्नतों की चादरों में आस्था अपनी लपेटे
घूमता हूँ ज़िन्दगी के बाग में कलियाँ खिलाकर
मंज़िलों की राह में भटके नहीं कोई मुसाफ़िर
इसलियी हर राह को विस्तार मैं देने लगा हूँ
geetkar@yahoo.com 

बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

विशेष गीत : हम अभियंता अभियंता संजीव 'सलिल'

विशेष गीत :
हम अभियंता 

अभियंता संजीव 'सलिल'
*
हम अभियंता!, हम अभियंता !!
मानवता के भाग्य-नियंता.....
*
माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं।
वामन से संकल्पित पग धर-
हिमगिरि को बौना करते हैं।
नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं।
असफलता का फ्रेम बनाकर
चित्र सफलता का मढ़ते हैं।
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता?
हम अभियंता!, हम अभियंता !!
मानवता के भाग्य-नियंता.....
*
अनिल, अनल, भू, 'सलिल', गगन हम
पंचतत्व औजार हमारे।
विश्व, राष्ट्र, मानव उन्नति हित
तन-मन-समय-शक्ति-धन वारे।
वर्तमान, गत-आगत नत हैं
तकनीकों ने रूप सँवारे।
निराकार साकार हो रहे
अपने सपने सतत निखारे।
साथ हमारे रहना चाहे
भू पर उतर स्वयं भगवंता।
हम अभियंता!, हम अभियंता !!
मानवता के भाग्य-नियंता.....
*
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते
ऊसर में फसलें लहराते।
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते।
प्रकृति-पुत्र हैं, नियति नटी की
आँखों से हम आँख मिलाते।
हरि सम हर हर आपद-विपदा
गरल पचा अमृत बरसाते।
'सलिल'-स्नेह नर्मदा निनादित
ऊर्जा-पुंज अनादि अनंता। 
हम अभियंता!, हम अभियंता !!
मानवता के भाग्य-नियंता.....
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in.divyanarmada
94251 83244 / 0761 - 2411131 

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

चित्र पर कविता: १२ दोहा गीत :.प्रकृति संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता: १२  
प्रकृति 

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की कड़ी १. संवाद, २. स्वल्पाहार,
३. दिल-दौलत, ४. प्रकृति, ५ ममता,  ६.  पद-चिन्ह, ७. जागरण, ८. परिश्रम, ९. स्मरण, १०. उमंग तथा ११ सद्भाव  के पश्चात् प्रस्तुत है चित्र १२. प्रकृति. ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.

Beautiful sunset - Images and gifs for social networks

दोहा गीत :.प्रकृति
संजीव 'सलिल'
[छंद: दोहा, द्विपदी मात्रिक छंद, पद:२, चरण:४( २ सम-२ विषम), कलाएं: ४८(सम चरण में ११-११, विषम चरण में १३-१३)]
सघन तिमिर की कोख से, प्रगटे सदा उजास.
पौ फटते विहँसे उषा, दे सौगात हुलास..
*
रक्त-पीत नीलाभ नभ, किरण सुनहरी आभ.
धरती की दहलीज़ पर, लिखतीं चुप शुभ-लाभ..

पवन सुनाता जागरण-गीत, बिखेरे हास.
गिरि शिखरों ने विनत हो, कहा: न झेलो त्रास..
पौ फटते विहँसे उषा, दे सौगात हुलास..
*
हरियाली की क्रोड़ में, पंछी बैठे मौन.
स्वागत करते पर्ण पर, नहीं पूछते कौन?

सब समान हैं आम हो, या आगंतुक खास.
दूरी जिनके दिलों में, पलती- रहें उदास.
पौ फटते विहँसे उषा, दे सौगात हुलास..
*
कलकल कलरव कर रही, रह किलकिल से दूर.
'सलिल'-धार में देख निज, चेहरा लगा सिन्दूर..

प्राची ने निज भाल पर, रवि टाँका ले आस.
जग-जीवन को जगाकर, दे सौगात हुलास..
*******

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

गीत शब्द तेरे, शब्द मेरे ... ललित वालिया 'आतिश'


मेरी पसंद: गीत 


 

शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
 
ललित वालिया  'आतिश'
 *
शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
परिस्तानी बगुले से,
लेखनी पे नाच-नाच;
पांख-पांख नभ कुलांच ...
मेरी दहलीज़, कभी ...
तेरी खुली खिडकियों पे 
ठहर-ठहर जाते हैं 
लहर-लहर जाते हैं ...
शहर कहीं  जागता है, शहर कहीं  सोता है
और कहीं हिचकियों का जुगल बंद होता है ||
 
'भैरवी' से स्वर उचार ...
बगुले से शब्द-पंख 
पन्नों पे थिरकते से
सिमट सिमट जाते हैं
कल्पनाओं से मेरी...
लिपट लिपट जाते हैं |
गो'धूली बेला  में ...
शब्द सिमट जाते हैं ...
सिंदूरी थाल कहीं झील-झील  डुबकते  हैं ..
और कहीं मोम-दीप बूँद-बूँद सुबकते हैं ||
 
होठों के बीच दबा 
लेखनी की नोक तले 
मीठा सा अहसास 
शब्द यही तेरा है | 
अंगुली के पोरों पे
आन जो बिरजा है,
बगुले सा 'मधुमास' ...
आभास तेरा है | 
मीत कहो, प्रीत कहो, शब्द प्राण छलते हैं
लौ  कहीं  मचलती है, दीप कहीं जलते हैं ||
 
~

रविवार, 5 अगस्त 2012

गीत: गीत के नीलाभ नभ पर... --संजीव 'सलिल'

कालजयी गीतकार राकेश जी को समर्पित:

एक गीत:
गीत के नीलाभ नभ पर...
संजीव 'सलिल'




*
गीत के नीलाभ नभ पर, चमकते राकेश की छवि
'सलिल' में बिम्बित तनिक हो, रचे सिकता स्वर्ण जैसी...
*




भावनाओं की लहरियाँ, कामनाओं की शिला पर,
सिर पटककर तोड़तीं दम, पुनर्जन्मित हो विहँसतीं.
नित नयी संभावनाओं के झंकोरे, ओषजन बन-
श्वास को नव आस देते, कोशिशें फिर-फिर किलकतीं..
स्वेद धाराएँ प्रवाहित हो अबाधित, आशु कवि सी
प्रीत के पीताभ पट पर,  खंचित अर्पण-पर्ण जैसी...
गीत के नीलाभ नभ पर, चमकते राकेश की छवि
'सलिल' में बिम्बित तनिक हो, रचे सिकता स्वर्ण जैसी...
*




क्षर करे आराधना, अक्षर निहारे मौन रहकर,
सत्य-शिव-सुंदर सुपासित, हो सुवासित आत्म गहकर.
लौह तन को वासना का, जंग कर कमजोर देता-
त्याग-संयम से बने स्पात, तप-आघात सहकर..
अग्नि-कण अगणित बनाते अमावस भी पूर्णिमा सी
नीत के अरुणाभ घट पर, निखरते  ऋतु-वर्ण जैसी..
गीत के नीलाभ नभ पर, चमकते राकेश की छवि
'सलिल' में बिम्बित तनिक हो, रचे सिकता स्वर्ण जैसी...
*




Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in




शुक्रवार, 4 मई 2012

गीत: तू नहीं और सही... --संजीव 'सलिल'









व्यंग्य गीत:
तू नहीं और सही...
संजीव 'सलिल'
*
तू नहीं और सही,  
और नहीं और सही...
*
ताकती टुकुर-टुकुर 
चिड़िया फिरंगन बैठी।
खेल कुर्सी का रचा 
देख रही है ऐंठी।

कौन किसका है यहाँ?
कौन बताये किसको?
एक आता  है तुरत 
दूसरा कहता खिसको।

हाय सरदार असरदार है 
बिलकुल भी नहीं...
*
माया ममता या जया,
हाथ न आनेवाली।
उमा आये भी तो जल्दी ही 
ही है जाने वाली।

देख सुषमा को न मोहित हो 
उगलती ज्वाला।
याद नानी न दिला दे 
तो बताना लाला।

राबडी दूध छटी का 
दे दिला याद रही...
*
जया-रेखा भी अखाड़े में 
उतर आयी हैं।
सिलसिला यादों का ले 
दुनिया तमाशाई है।

खाता स्विस बैंक का 
मांगें न क्यों नक्सलवादी?
देश की देश के वासी 
ही करें बर्बादी। 

चेतो सम्हलो ये  'सलिल' ने 
है खरी बात कही...

*************