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शुक्रवार, 4 मार्च 2016

lok kathayen

विशेष लेख-
लोककथा उद्भव और विकास 
लोक कथाएं क्या हैं?

लोककथाएँ मनुष्य जीवन के अनुभवों और विचारों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने के आख्यानात्मक संवाद, बोलचाल या कथ्य हैं, जो मौखिक या वाचिक परंपरा के माध्यम से विकसित हुए हैं। जैसे आदिवासियों की लोककथाएँ, प्रलय संबंधी लोक कथाएँ, खेती की लोक कथाएँ, पर्वों संबंधी लोक कथाएँ, व्यक्ति (देव,असुर,राजा, नायक) परक लोक कथाएँ।

कुछ लोककथाएँ चिरकाल तक कही-सुनी जाने के पश्चात पुस्तकाकार रूप में प्रचलित हुई। जैसे सिंहासन बत्तीसी, वेताल पच्चीसी, पंचतंत्र, दस्ताने अलिफ़ लैला, किस्सा हातिम ताई, अली बाबा चालीस चोर, सिंदबाद की कहानी आदि।

लोक कथाओं का उत्स ऋग्वेद में कथोपकथन के माध्यम से कहे गए "संवाद-सूक्त", ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषदों हैं किंतु इन सबसे पूर्व कोई कथा-कहानी थी ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पंचतंत्र की कई कथाएँ लोक-कथाओं के रूप में जनजीवन में प्रचलित हैं। जितनी कथाएँ लोकजीवन में मिलती हैं उतनी पुस्तकों भी नहीं मिलतीं। विष्णु शर्मा ने लोकजीवन में प्रचलित कुछ कथाओं को व्यवस्थित रूप से लिखकर पंचतंत्र रचा होगा। हितोपदेश, बृहदश्लोक संग्रह, बृहत्कथा मंजरी, कथा बेताल पंचविंशति आदि का मूल लोकजीवन है। अत्यधिक प्राचीन जातक कथाओं की संख्या ५५० के लगभग है किंतु लोककथाएँ असंख्य हैं। प्राकृत भाषा में अनेक कथाग्रंथ हैं। पैशाची में लिखित "बहुकहा" के बाद कथा सरित्सागर, बृहत्कथा आदि का विकास हुआ। उसकी कुछ कथाएँ संस्कृत में रूपांतरित हुई। अपभ्रंश के "पउम चरिअ" और "भवियत्त कहा"तथा लिखित रूप में वैदिक संवाद सूक्तों में कथाधारा निरंतर प्रवाहित है किंतु इन सबका योग भी लोकजीवन में प्रचलित कहानियों तक नहीं पहुँच सकता।

हिन्दी में लोककथाएँ-

मनुष्य चिरकाल से अमरत्व,सुख-समृद्धि तथा भोग है। सुख के दो प्रकार लौकिक व पारलौकिक हैं। भारतीय परंपरा लौकिक से पारलौकिक को श्रेष्ठ मानती है। "अंत भला तो सब भला" के अनुसार हमारी लोककथाएँ प्राय: सुखांत होती है। इस प्रभाव चलचित्रों (फिल्मों) तथा धारावाहिकों में भी देखा जा सकता है। इसलिए लोककथाओं के नायक व अन्य पात्र अनेक साहसिक एवं रोमांचकारी कारनामे कर सुख-सफलता पाते हैं। संस्कृत नाटकों का भी अंत संयोग में ही होता है। 

लोककथाओं का उद्देश्य-

लोककथाएँ मूलत: मांगल्य भाव तथा कल्याण कामना से कही-सुनीं गयीं। लोककथा कहनेवाले कथांत में मंगल वचन कहते हैं। जैसे - "जिस प्रकार उनके (कथानायक के) दिन फिरे वैसे ही सब श्रोताओं-भक्तों के दिन फिरें।" दैविक एवं प्राकृतिक प्रकोपों का भय दिखाकर श्रोताओं को धर्म तथा कर्तव्यपालन के पथ पर लाना भी लोककथाओं का लक्ष्य होता है। सारी सृष्टि उस समय एक धरातल पर उतर आती है जब सभी जीव-जंतुओं की भाषा एक हो जाती है। मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, धरती, आकाश, अग्नि, पानी, हवा, सूरज, चाँद, तारे आदि एक-दूसरे से बात करते हैं,एक दूसरे के दु:ख-सुख में सम्मिलित होते हैं।

लोकगीतों की भाँति लोककथाएँ अंचलों की बात तो जाने दीजिए ये कथाएँ देशों और महाद्वीपों की सीमाएँ भी नहीं मानतीं। ये मानव जीवन के सभी पहलुओं से जुड़ती हैं। इधर लोककथा संग्रहों में बहुत ही थोड़ी कथाएँ एकत्र की जा सकी हैं। अपनी विशेषताओं के कारण श्रुति एवं स्मृति के आधार पर लोक कथाएँ युगों से प्रचलित तथा परिवर्तित होती रही हैं। लोककथाएँ मुख्य रूप से तीन शैलियों में कही जाती हैं। 

लोककथाओं का वर्गीकरण- 

(अ) शैली के आधार पर:

क. गद्य शैली- पूरी कथा सरल एवं आंचलिक बोली में गद्य में हो,  
ख. गद्य-पद्य मय कथाएँ - ये चंपू शैली में होती हैं। इनमें प्राय: संवेदनापूर्ण घटनाएँ पद्य में कही जाती हैं। 
ग. पद्य शैली - इस शैली की लोक कात्यायन पद्य (काव्य) में कही जाती हैं।
घ. संवाद शैली - संवादों में पद्य-गद्य के स्थान पर भाषिक प्रवाह होता है जो श्रोताओं को मोहता है, पर गेयता कम होती है। जैसे- जात रहे डाँड़े डाँड़े, / एक ठे पावा कौड़ी / ऊ कौड़ी गंगा के दिहा / गंगा वेचारी बालू दिहिनि / ऊ बालू मइँ भुँजवा के दिहा
/ भुँजवा बेचारा दाना दिहेसि - इत्यादि

कहानी कहनेवाला व्यक्ति कथा के प्रमुख पात्र (नायक) को पहले वाक्य में ही प्रस्तुत कर देता है; जैसे - "एक रहे राजा" या "एक रहा दानव" आदि। इस विशेषता के कारण लोककथाओं का श्रोता विशेष उलझन में नहीं पड़ता। लोकजीवन में कथा कहने के साथ ही उसे सुनने की शैली भी निर्धारित कर दी गई है। सुननेवालों में से कोई व्यक्ति, जब तक हुंकारी नहीं भरता तब तक कथा कहने वाले को आनंद ही नहीं आता। हुंकारी सुनने से कहनेवाला अँधेरे में भी समझता रहता है कि श्रोता कहानी को ध्यानपूर्वक सुन रहा है।

(आ) कथ्य (अंतर्वस्तु) के आधार पर

च. उपदेशात्मक/शिक्षात्मक लोककथाएँ - ऐसी कथाएँ प्राय: परोक्ष रूप से शिक्षा देती हैं। इनके माध्यम से गृहकलह एवं सामाजिक बुराइयों से बचने की प्रेरणा मिलती हैं। कहीं कर्कशा नारियों के कारण परिवार को कष्ट भोगना पड़ा है, कहीं विमाता या सौतों के षड्यंत्र हैं, कहीं मायावी स्त्रियाँ पर पुरुषों पर डोरे डालती या जादू-टोना करती हैं जिससे कथा के नायक तथा उससे संबंध रखनेवालों को विभिन्न संकटों का शिकार होना पड़ता है कहीं पुत्र को पिता की आज्ञा न मानने पर कष्ट उठान पड़ता है। ऐसी कथाएँ अंत में सुखद संयोग पर समाप्त होती हैं। कथा समाप्त होने तक पात्रों और मुख्य रूप से नायकों को इतनी भयानक घटनाओं में फँसा देखा जाता है कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है। कुछ श्रोता कथा कहनेवाले तथा अन्य श्रोताओं की परवाह किये बिना खलनायक को कोसने लगते हैं।

(छ) सामाजिक लोककथाएँ - इनमें गृहकलह (सास-बहू एवं ननद-भावज, भाई-भाई के झगड़े), दुश्चरित्र और लंपट साधु-संतों के दुष्कर्म, अयोग्य राजा के कारण प्रजा को दुख, बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहुविवाह, विजातीय व प्रेम विवाह, दहेज, ऊँच-नीच, छूआ-छूत, जाति प्रथा, भ्रष्टाचार, पर्यावरण प्रदूषण, भ्रष्टाचार, देश-द्रोह आदि की निंदा व् दुष्परिणाम इन कथाओं में कहे जाते हैं। सामाजिक कहानियों के दो उपवर्ग नायक प्रधान और नायिका प्रधान हैं।  बहुधा अतिशयोक्ति परक कथ्य इनकी विशेषता है। जैसे सच्चरित्र नारी जब तप्त तैल के कड़ाहे में हाथ डालकर अपने सतीत्व की परीक्षा देतो कड़ाहे का तप्त तेल शीतल होता है, पतिव्रता स्त्री सूर्य के रथ को रोक देती है या यमराज से अपने पति के प्राण वापिस ले आती है, उसके भय से भयानक दैत्य दानव, डाइनें भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि पास नहीं फटकते। इसी तरह चरित्रवान् नायक भी असंभव विकट परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं। इनका उद्देश्य समाज को सदाचरण का संदेश देना होता है।

(ज) धार्मिक लोककथाएँ - इनमें जप तप, व्रत-उपवास एवं उनसे प्राप्त उपलब्धियाँ बताईं जाती हैं। सुख-समृद्धि हेतु कही गयी इन लोककथाओं से उपदेश ग्रहण कर संबद्ध पर्वों के अवसरों पर स्त्रियाँ व्रत-पूजन आदि करती हैं। पति, पुत्र, भाइयों की कुशलता तथा संपत्ति प्राप्ति इनका लक्ष्य होता है। ऐसी लोककथाओं के दो उप वर्ग व्यक्तिपरक (देवी-देवता : गणेश, चित्रगुप्त, ब्रम्हा, सरस्वती, विष्णु, लक्ष्मी, शिव, पार्वती, कृष्ण, राधा आदि सतियों : "बहुरा" (बेहुला), जिउतिया या जीवित्पुत्रिका आदि नदियों : नर्मदा, गंगा, यमुना आदि पर्वतों : हिमालय, सतपुड़ा, विंध्याचल, अमरकंटक आदि) तथा तिथि परक (करवा चौथ, अहोईअष्टमी, गनगौर आदि) हैं।

(झ) संबंधपरक प्रेमप्रधान लोककथाएँ - ऐसी लोककथाएँ सबंधों (पति-पत्नि, माँ-बेटे, पिता-पुत्र, भाई-बहिन, देश-नागरिक, मित्र आदि) में प्रेम, शुचिता, स्थायित्व तथा उत्सर्ग रची जाती हैं। इनमें वर्णित प्रेम कर्तव्य एवं निष्ठा पर आधारित होता हैं। कुछ कथाओं में जन्म-जन्मात्तर का प्रेम पल्लवित होत है। सदावृज-सारंगा की कथा पूर्व जन्मों के प्रेम पर ही आधारित हैं। शीत वसंत की कहानी में विमाता का दुर्व्यवहार तथा भाई-भाई का प्रेम चरम सीमा पर है। कई कथाओं में कुलीन एवं पतिपरायण स्त्रियाँ कुपात्र तथा घृणित रोगों से ग्रस्त पतियों को अपनी सेवा, श्रद्धा और भक्ति के बल पर बचा लेती हैं।  कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से अगहन शुक्ल प्रतिपदा तक(पिड़िया) का व्रत कुमारी बालिकाओं द्वारा भाइयों की कुशलता हेतु किया जाता है। गोधन व्रत कथा भी कहते हैं। जीवित्पुत्रिका (जिउतिया) व्रत पुत्र के जन्म व् दीर्घायु हेतु किया जाता है। किसी समय चील्ह तथा स्यारिन ने यह व्रत किया परंतु भूख की ज्वाला न सह सकने के कारण स्यारिन ने चुपके से खाद्य ग्रहण कर लियातो उसके सभी बच्चे मर गये जबकि व्रत पूर्ण करने वाली चील्ह के बच्चे दीर्घ जीवी हुए। इस पर्व के बाद पुत्र-प्राप्ति हो तो उसका नाम "जीउत" रखा जाता है। पौराणिक कतहनुसार जीमूतवाहन ने नार्गों की रक्षा के लिए अपनी देह का त्याग किया था। जिउतिया-कथा का उद्देश्य परोपकार व आत्मोत्सर्ग है। करवा चौथ कथा उस राजा-रानी की कहानी हैं जो दूसरों के बालकों से घृणा करते थे। इसीलिए उन्हें पुत्र नहीं हुआ। अंत में पश्चाताप तथा सूर्य की उपासना करने पर उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई।

(ट) मनोरंजन संबंधी लोककथाएँ - इनका मूल उद्देश्य श्रोताओं के दिल-बहलाव की सामग्री प्रस्तुत करना होता है। ये कथाएँ प्राय: छोटी हुआ करती हैं। पशु-पक्षियों (कुत्ता, बंदर, बिल्ली, गीदड़, नेवला, शेर, भालू, कौवा, चील, तोता, मैना आदि) पेड़-पौधों (नीम, बरगद, तुलसी, आँवला, सदासुहागन आदि) से संबंध रखनेवाली ये कहानियाँ बालकों का मनोरंजन करती हैं। इनमें वर्णित विषय गंभीर भी होते हैं किंतु प्राथमिकता हल्की-फुल्की बातों को दी जाती हैं। यथा- ढेले और पत्ते में मित्रता हुई। ढेले ने पत्ते से कहा, आँधी आने पर मैं तुम्हारे ऊपर बैठ जाऊँगा तो तुम उड़ोगे नहीं। पत्ते ने कहा पानी आने पर मैं तुम्हारे ऊपर हो जाऊँगा तो तुम गलोगे नहीं। संयोग की बात कि आँधी-पानी का आगमन साथ ही हुआ। पत्ता उड़ गया और ढेला गल गया। विभिन्न हास्य कथाएँ भी इसी प्रकार के अंतर्गत आती हैं।

(ठ) जातीय लोककथाएँ - ऐसी कथाएँ विविध जातियों, वर्णों, समूहों, वंशों (ब्राह्यणों, कायस्थों, वैश्यों, शूद्रों, आदिवासियों, अहीरों, धोबियों, नाइयों, मल्लाहों, चमारों, गोंडों, कोलों, भीलों, ढीमरों, किरातों, दुसाधों, रघुवंश, यादवकुल आदि) की उत्पत्ति, कुलदेवता के चयन, वरदान प्राप्ति से जुडी होती हैं।

(ड) अन्य लोककथाएँ - देशभक्ति, पर्यावरण संरक्षण, जीवन मूल्य, कृषि, नीति, इतिहास आदि विविध विषयों से सम्बंधित लोककथाएँ भी चिर काल से कही-सुनी जाती हैं। लोकगीत (कजरी, बम्बुलिया, फाग, रास, राई आदि) तथा लोक काव्य (आल्हा, बटोही आदि), नौटंकी लोक कथाओं के संरक्षण और प्रसार में सहायक हैं।
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सोमवार, 1 जून 2015

kruti charcha: sanjiv

कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
आचार्य संजीव
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[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
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विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों  की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.

आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय  छोड़कर अन्यत्र  जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा  के  कारण  तर्क-बुद्धि का  परम्पराओं  के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन  तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों  से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों  से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में  पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता,  संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.


मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शाकुंताका खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह  से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.

संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी  शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि  पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा  अगढ़ता  के समीप हैं. इस कारण इन्हें  बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.

भारत अनेकता में एकता  का देश  है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों  से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व  मनाये  जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी  सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४