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सोमवार, 24 जून 2013

muktak: AGNI - sanjiv

मुक्तक : अग्नि
संजीव
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अग्नि न मन की बुझने देना, रखो जला,
अग्नि न तन की जलने देना, बुरी बला।
अग्नि पका पक्का करती मृतिका-घट को-
अग्नि शांत तो सूरज देखो, सांझ ढला।।
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अग्नि काम आती है खाद्य पकाने में,
अग्नि साथ देती जग को तज जाने में।
अग्नि काम बन सुर-असुरों को हेय करे-
अग्नि न हिचके तिल-तिल दिल दहकाने में।।
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अग्नि न करती अंतर गैरों-अपनों में,
अग्नि न खोती चैन निरर्थक सपनों में।
अग्नि सलिल शीतल को पल में वाष्प करे-
अग्नि न होती क़ैद जगत के नपनों में।।
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अग्नि न दैत्य, न दैव, सलिल को मीत लगे,
अग्नि न माया जाल, सनातन गीत सगे।
अग्नि दीप्ति से दीपित होते सचर-अचर-
अग्नि आत्म-परमात्म पुरातन प्रीत पगे।।
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