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शनिवार, 15 जून 2024

जून १५, पिता, दोहे, धारा छंद, नवगीत, बेला, ब्रह्म

 सलिल सृजन जून १५ 

*

दोहा सलिला-
ब्रम्ह अनादि-अनन्त है, रचता है सब सृष्टि
निराकार आकार रच, करे कृपा की वृष्टि
*
परम सत्य है ब्रम्ह ही, चित्र न उसका प्राप्त
परम सत्य है ब्रम्ह ही, वेद-वचन है आप्त
*
ब्रम्ह-सत्य जो जानता, ब्राम्हण वह इंसान
हर काया है ब्रम्ह का, अंश सके वह मान
*
भेद-भाव करता नहीं, माने ऊँच न नीच
है समान हर आत्म को, प्रेम भाव से सींच
*
काया-स्थित ब्रम्ह ही, 'कायस्थ' ले जो जान
छुआछूत को भूलकर, करता सबका मान
*
राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक
ईश्वर को प्यारा वही, जिसकी करनी नेक
*
निर्बल की रक्षा करे, क्षत्रिय तजकर स्वार्थ
तभी मुक्ति वह पा सके, करे नित्य परमार्थ
*
कर आदान-प्रदान जो, मेटे सकल अभाव
भाव ह्रदय में प्रेम का, होता वैश्य स्वभाव
*
पल-पल रस का पान कर, मनुज बने रस-खान
ईश तत्व से रास कर, करे 'सलिल' गुणगान
*
सेवा करता स्वार्थ बिन, सचमुच शूद्र महान
आत्मा सो परमात्मा, सेवे सकल जहान
*
चार वर्ण हैं धर्म के, हाथ-पैर लें जान
चारों का पालन करें, नर-नारी है आन
*
हर काया है शूद्र ही, करती सेवा नित्य
स्नेह-प्रेम ले-दे बने, वैश्य बात है सत्य
*
रक्षा करते निबल की, तब क्षत्रिय हों आप
ज्ञान-दान, कुछ सीख दे, ब्राम्हण हों जग व्याप
*
काया में रहकर करें, चारों कार्य सहर्ष
जो वे ही कायस्थ हैं, तजकर सकल अमर्ष
*
विधि-हरि-हर ही राम हैं, विधि-हरि-हर ही श्याम
जो न सत्य यह मानते, उनसे प्रभु हों वाम
***
नवगीत
एक-दूसरे को
*
एक दूसरे को छलते हम
बिना उगे ही
नित ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
मैंने तुम्हें कह दिया स्वामी,
किंतु न अंतर्मन अनुगामी।
तुम प्रयास कर खुद से हारे-
संग न 'शक्ति' रही परिणामी।
साथ न तुमसे मिला अगर तो
हुई नाक में
मेरी भी दम।
हैं अभिन्न, स्पर्धी बनकर
एक-दूसरे को
खलते हम।
*
मैं-तुम, तुम-मैं, तू-तू मैं-मैं,
हँसना भूले करते पैं-पैं।
नहीं सुहाता संग-साथ भी-
अलग-अलग करते हैं ढैं-ढैं।
अपने सपने चूर हो रहे
दिल दुखते हैं
नयन हुए नम।
फेर लिए मुंह अश्रु न पोंछें
एक-दूसरे बिन
ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
जब तक 'देवी' तुमने माना
तुम्हें 'देवता' मैंने जाना।
जब तुम 'दासी' कह इतराए
तुम्हें 'दास' मैंने पहचाना।
बाँट सकें जब-जब आपस में
थोड़ी खुशियाँ,
थोड़े से गम
तब-तब एक-दूजे के पूरक
धूप-छाँव संग-
संग सहते हम।
*
'मैं-तुम' जब 'तुम-मैं' हो जाते ,
'हम' होकर नवगीत गुञ्जाते ।
आपद-विपदा हँस सह जाते-
'हम' हो मरकर भी जी जाते।
स्वर्ग उतरता तब धरती पर
जब मैं-तुम
होते हैं हमदम।
दो से एक, अनेक हुए हैं
एक-दूसरे में
खो-पा हम।
१०-६-२०१६
TIET JABALPUR
***
नवगीत:
बेला
*
मगन मन महका
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
१२.६.२०१५
४०१ जीत होटल बिलासपुर
***
छंद सलिला:
धारा छंद
*
छंद लक्षण: जाति महायौगिक, प्रति पद २९ मात्रा, यति १५ - १४, विषम चरणांत गुरु लघु सम चरणांत गुरु।
लक्षण छंद:
दे आनंद, न जिसका अंत , छंदों की अमृत धारा
रचें-पढ़ें, सुन-गुन सानंद , सुख पाया जब उच्चारा
पंद्रह-चौदह कला रखें, रेवा-धारा सदृश बहे
गुरु-लघु विषम चरण अंत, गुरु सम चरण सुअंत रहे
उदाहरण:
१. पूज्य पिता को करूँ प्रणाम , भाग्य जगा आशीष मिला
तुम बिन सूने सुबहो-शाम , 'सलिल' न मन का कमल खिला
रहा शीश पर जब तक हाथ , ईश-कृपा ने सतत छुआ
छाँह गयी जब छूटा साथ , तत्क्षण ही कंगाल हुआ
२. सघन तिमिर हो शीघ्र निशांत , प्राची पर लालिमा खिले
सूरज लेकर आये उजास , श्वास-श्वास को आस मिले
हो प्रयास के अधरों हास , तन के लगे सुवास गले
पल में मिट जाए संत्रास , मन राधा को रास मिले
३. सतत प्रवाहित हो रस-धार, दस दिश प्यार अपार रहे
आओ! कर सोलह सिंगार , तुम पर जान निसार रहे
मिली जीत दिल हमको हार , हार ह्रदय तुम जीत गये
बाँटो तो बढ़ता है प्यार , जोड़-जोड़ हम रीत गये
१५-६-२०१४
__________
पितृ दिवस पर-
पिता सूर्य सम प्रकाशक :
*
पिता सूर्य सम प्रकाशक, जगा कहें कर कर्म
कर्म-धर्म से महत्तम, अन्य न कोई मर्म
*
गृहस्वामी मार्तण्ड हैं, पिता जानिए सत्य
सुखकर्ता भर्ता पिता, रवि श्रीमान अनित्य
*
भास्कर-शशि माता-पिता, तारे हैं संतान
भू अम्बर गृह मेघ सम, दिक् दीवार समान
*
आपद-विपदा तम हरें, पिता चक्षु दें खोल
हाथ थाम कंधे बिठा, दिखा रहे भूगोल
*
विवस्वान सम जनक भी, हैं प्रकाश का रूप
हैं विदेह मन-प्राण का, सम्बल देव अनूप
*
छाया थे पितु ताप में, और शीत में ताप
छाता बारिश में रहे, हारकर हर संताप
*
बीज नाम कुल तन दिया, तुमने मुझको तात
अन्धकार की कोख से, लाकर दिया प्रभात
*
गोदी आँचल लोरियाँ, उँगली कंधा बाँह
माँ-पापा जब तक रहे, रही शीश पर छाँह
*
शुभाशीष से भरा था, जब तक जीवन पात्र
जान न पाया रिक्तता, अब हूँ याचक मात्र
*
पितृ-चरण स्पर्श बिन, कैसे हो त्यौहार
चित्र देख मन विकल हो, करता हाहाकार
*
तन-मन की दृढ़ता अतुल, खुद से बेपरवाह
सबकी चिंता-पीर हर, ढाढ़स दिया अथाह
*
श्वास पिता की धरोहर, माँ की थाती आस
हास बंधु, तिय लास है, सुता-पुत्र मृदु हास
१५-६-२०१४
***



शुक्रवार, 9 जून 2023

शहतूत, अम्मी, आँसू, दोहा, शे'र, ब्रह्म, ब्रम्हांश, हिंदी ग़ज़ल, तेवरी, मुक्तिका,

तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
९-६-२०१७
***
मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
[संस्कारी जातीय छंद ]
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
नवगीत:
*
जिंदगी की पढ़ो पुस्तक
सीख कर
कुछ नव लिखो,
दूसरों जैसे
दिखों मत
अलग औरों से दिखो.
*
उषा की किरणें सुनहरी
'सलिल' लहरों संग खेलें
जाल सिकता पर बनायें
परे भँवरों को ढकेलो
बाट सीढ़ी घाट पर चल
नाव ले
आगे बढ़ो.
मत उतारों से डरो रे
चढ़ावों पर हँस चढ़ो
अलग औरों से दिखो.
*
दुपहरी सीकर नहाओ
परिश्रम का पथ वरो
तार दो औरों को पहले
स्वार्थ साधे बिन तरो
काम करना कुछ न ऐसा
बिना मारे
खुद मरो.
रखो ऊँचा सदा मस्तक
पीर निज गुपचुप पियो रे
सभी के बनकर जियो
अलग औरों से दिखो.
*
साँझ से ले लालिमा कुछ
अपने सपनों पर मलो
भास्कर की तरह हँस फिर
ऊगने खातिर ढलो
निशा को देकर निमन्त्रण
नींद पलकों
पर मलो.
चन्द्रमा दे रहा दस्तक
चन्द्रिका अँजुरी भरो रे
क्षितिज-भू दीपित करो
अलग औरों से दिखो.
***
नव गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद
मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम
हँस-मुस्का
प्रिय! सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी तो कहें:
बहुत रुके
'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' नाद
कलकल ध्वनि हम
नित गहिये हमको...
*
द्विपदियाँ (शे'र)
संजीव
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
***
दोहा का रंग आँसू के संग
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
बूँद-बूँद बहुमूल्य है, रखना 'सलिल' सम्हाल
टूटे दिल भी जोड़ दे, आँसू धार कमाल
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
9-6-2015
***
नवगीत:
जो नहीं हासिल...
संजीव 'सलिल'
*
जो नहीं हासिल
वही सब चाहिए...
*
जब किया कम काम
ज्यादा दाम पाया.
या हुए बदनाम
या यश-नाम पाया.
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया.
जो नहीं भाया
वही अब चाहिए...
*
चैन पाकर मन हुआ
बेचैन ज्यादा.
वजीरों पर हुआ हावी
चतुर प्यादा.
किया लेकिन निभाया
ही नहीं वादा.
पात्र जो जिसका
वही कब चाहिए...
*
सगे सत्ता के रहे हैं
भाट-चारण.
संकटों का, कंटकों का
कर निवारण.
दूर कर दे विफलता के
सफल कारण.
बंद मुट्ठी में
वही रब चाहिए...
*
कहीं पंडा, कहीं झंडा
कहीं डंडा.
जोश तो है गरम
लेकिन होश ठंडा.
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा.
पाठ-पूजा तज
वही पब चाहिए..
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा.
मलिनता ने धवलता को
'सलिल' रगडा.
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा.
दस्यु के मन में
छिपा नब चाहिए...
९-६-२०१२
***
स्वास्थ्य / आयुर्वेद
शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है | यह साधारणतया जापान ,नेपाल,पाकिस्तान,बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान ,श्रीलंका,वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है | भारत में यह पंजाब,कश्मीर,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं | १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी |
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है | इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है |आज हम आपको शहतूत के औषधीय गुणों से अवगत कराएंगे -
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है ।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है |
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है |
४- पांच - दस मिली शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन,अजीर्ण,कब्ज,कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है |
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं |
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है |
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है|
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है
***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
*********

गुरुवार, 9 जून 2022

मुक्तिका,अम्मी,तेवरी, नवगीत, शेर, हिंदी ग़ज़ल, ब्रह्म,शहतूत

तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
***
मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
[संस्कारी जातीय छंद ]
९-६-२०१६
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
***
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
नवगीत:
*
जिंदगी की पढ़ो पुस्तक
सीख कर
कुछ नव लिखो,
दूसरों जैसे
दिखों मत
अलग औरों से दिखो.
*
उषा की किरणें सुनहरी
'सलिल' लहरों संग खेलें
जाल सिकता पर बनायें
परे भँवरों को ढकेलो
बाट सीढ़ी घाट पर चल
नाव ले
आगे बढ़ो.
मत उतारों से डरो रे
चढ़ावों पर हँस चढ़ो
अलग औरों से दिखो.
*
दुपहरी सीकर नहाओ
परिश्रम का पथ वरो
तार दो औरों को पहले
स्वार्थ साधे बिन तरो
काम करना कुछ न ऐसा
बिना मारे
खुद मरो.
रखो ऊँचा सदा मस्तक
पीर निज गुपचुप पियो रे
सभी के बनकर जियो
अलग औरों से दिखो.
*
साँझ से ले लालिमा कुछ
अपने सपनों पर मलो
भास्कर की तरह हँस फिर
ऊगने खातिर ढलो
निशा को देकर निमन्त्रण
नींद पलकों
पर मलो.
चन्द्रमा दे रहा दस्तक
चन्द्रिका अँजुरी भरो रे
क्षितिज-भू दीपित करो
अलग औरों से दिखो.
***
द्विपदियाँ (शे'र)
आँसू
*
पावन गंगा से भी ज्यादा
आँसू जरा बहकर देखो।
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नहीं छोड़ा
दिल जलातो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
***
दोहा का रंग आँसू के संग
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*


भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, सम हैं शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
९-६-२०१५

***
स्वास्थ्य सलिला
शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है। यह साधारणतया जापान, नेपाल, पाकिस्तान, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है। भारत में यह पंजाब, कश्मीर, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं। १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी।
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है। इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है।
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है।
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है।
४- पाँच-दस मि.ली. शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन, अजीर्ण, कब्ज, कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है।
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं।
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है।
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है।
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है।
***
नवगीत:
जो नहीं हासिल...
*
जो नहीं हासिल
वही सब चाहिए...
*
जब किया कम काम
ज्यादा दाम पाया.
या हुए बदनाम
या यश-नाम पाया.
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया.
जो नहीं भाया
वही अब चाहिए...
*
चैन पाकर मन हुआ
बेचैन ज्यादा.
वजीरों पर हुआ हावी
चतुर प्यादा.
किया लेकिन निभाया
ही नहीं वादा.
पात्र जो जिसका
वही कब चाहिए...
*
सगे सत्ता के रहे हैं
भाट-चारण.
संकटों का, कंटकों का
कर निवारण.
दूर कर दे विफलता के
सफल कारण.
बंद मुट्ठी में
वही रब चाहिए...
*
कहीं पंडा, कहीं झंडा
कहीं डंडा.
जोश तो है गरम
लेकिन होश ठंडा.
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा.
पाठ-पूजा तज
वही पब चाहिए..
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा.
मलिनता ने धवलता को
'सलिल' रगडा.
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा.
दस्यु के मन में
छिपा नब चाहिए...
९-६-२०१२
***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
*********

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

कवितायेँ, ब्रह्म और आत्मा, ब्रह्मचर्य, कायस्थ, चित्रगुप्त, चमन श्रीवास्तव

कृति समालोचना -
"भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार" - मानवता का सिपहसालार 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
संयोजक : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, विश्व कायस्थ समाज 
पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभाकाम, पूर्व महामंत्री राकाम
चैयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर  
[कृति विवरण: भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार, लेखक - सर्वेश्वर चमन श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०२२, आकार - २४ से.मी. x १८.५ से.मी., पृष्ठ १५४, मूल्य - अमूल्य, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक लेमिनेटेड, संदर्भ प्रकाशन भोपाल]
*
मानव सभ्यता और संस्कृति में शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि का योगदान अभूतपूर्व है। सच कहें तो इनके बिना मानव जाति जीवित तो होती पर अन्य पशु-पक्षियों की तरह। ग़ालिब कहता है -'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना', मेरा मानना है कि आदमी को इंसान बनाने के महायात्रा में 'काया' में अवस्थित  निराकार 'चित'  जिसका चित्र गुप्त है, जो निराकार है, जो हर आकार में समाहित है, उस परमब्रह्म परमेश्वर, कर्मेश्वर, गुप्तेश्वर की ही प्रेरणा है जिसने खुदको उसका अंशज -वंशज माननेवाले ''कायस्थ'' विशेषण को अपनी पहचान बनानेवाले श्रेष्ठ मनुष्यों को उक्त षड उपहारों शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि से अलंकृत किया। 'शब्द ब्रह्म' सबका, सबके लिए है, इसलिए शब्द-साधना कर निपुणता अर्जित करनेवाले 'कायस्थ' अपना उपास्य शब्देश्वर सर्वेश्वर चित्रगुप्त तथा उनकी आदिभौतिक एवं आधिदैविक शक्तियों (नंदिनी और इरावती) को मानें, यह स्वाभाविक ही है। अपनी इष्ट देव मूर्तियों तथा अपने पूर्वजों को जानकर, उनकी विरासत को सम्हालकर, अपनी भावी पीढ़ी को प्रगतिपथ पर बढ़ने की प्रेरणा देने के पवित्र उद्देश्य से इस कृति का प्रयत्न लेखक चमन श्रीवास्तव ने पूरे मनोयोग से किया है। यह कोई साधारण पुस्तक नहीं है अपितु यह लेखा-जोखा है वेद पूर्व काल से अब तक आदमी के इंसान बनने की महायात्रा में औरों की अंगुली थामकर उन्हें आगे बढ़ानेवाली जातीय परंपरा का। 

संस्कृति सेतु कायस्थ   

पुस्तक में वर्णित श्री चित्रगुप्त जी निराकार परात्पर परमब्रह्म ही हैं। पुराणकार कहता है ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहीनाम्'' अर्थात उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सभी प्राणियों में आत्मा रूप में विराजमान हैं। लोकश्रुति है ''आत्मा सो परमात्मा'', उपनिषद ''अहं ब्रह्मास्मि'', ''शिवोsहं'' आदि  कहता है। हर काया में स्थित परब्रह्म चित्रगुप्त सृष्टि का सृजन कर सके  विस्तार हेतु साकार होते हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में सृष्टि रचना-पालन और विनाश की भूमिकाएँ निभाते हैं। अंग्रेजी में कहावत है 'चाइल्ड इस द फादर ऑफ़  मैन' अर्थात ; बच्चा तो है बाप बाप का'। निराकार परब्रह्म चित्रगुप्त जी स्वयं अपने ही अंश 'ब्रह्मा' के माध्यम से साकार देहज अवतार धारण कर देव कन्या 'नंदिनी' और नाग कन्या 'इरावती' से विवाहकर विश्व का प्रथा अंतर्सांस्कृतिक विवाह कर ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' तथा ''वसुधैव नीड़म्'' का जीवन सूत्र मनुष्य को देते हैं। काल क्रम में 'कश्यप' ऋषि, शारदा लिपि, कश्मीर प्रदेश और कैकेयी कायस्थों की कर्म कुशलता की कथा कहते हैं। आज से सहस्त्रब्दियों पूर्व कायस्थ भी कश्मीर से निष्क्रमित हुए थे। इतिहास खुद को दुहराता है, अब पंडितों का निष्क्रमण हम देख रहे हैं। चमन जी ने अतीत के म कुछ पन्नों को पलटा है, समूची महागाथा एक बार में, एक साथ कह पाना असंभव है। 

गत-आगत से आज का संवाद 

यह कृति गतागत का आज से संवाद का सुप्रयास है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं -''हम कौन थे?, क्या हो गए हैं?, और क्या होंगे अभी?, आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी''। लेखन 'कौन थे? और 'क्या हो गए हैं?' में मध्य संवाद सेतु के रूप में इस कृति का प्रकाश कर रहे हैं। वे इसके दूसरे भाग के प्रकाशन का संकेत कर बताते हैं कि 'और क्या होंगे अभी?' की बात अगली कृति में होगी। स्पष्ट है कि यह पुस्तक 'विगत' और 'आगत' के मध्य स्थित 'वर्तमान' की करवट है। किसी ऐसे समाज जो अपनी ही नहीं अपने देश और अपने साथियों के साथ सकल सभ्यता का निर्माता, विकासकर्ता और पारिभाषिक रहा हो, के लिए निरंतर आत्मावलोकन तथा आत्मालोचन करना अपरिहार्य हो जाता है। जिला १९७६ में प्रातस्मरणीय ब्योहार राजेंद्र सिंह जी (कक्का जी) के मार्गदर्शन में जिला कायस्थ सभा से आरंभ कर प्रातस्मरणीय डॉ. रतनचन्द्र वर्मा के नेतृत्व में अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, प्रातस्मरणीय दादा लोकेश्वर नाथ जी की प्रेरणा से राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, वर्ल्ड कायस्थ कॉन्फ्रेंस आदि में सक्रिय रहकर मैंने यह जाना है कि बुद्धिजीवियों को एकत्र कर एकमत कर पाना मेंढकों को तौलने से अधिक कठिन कार्य है। ऐसा होना स्वाभाविक है 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना' यह भी सत्य है कि कठिन होने से कार्य असंभव नहीं हो जाता, कठिन को संभव बनाने के लिए स्नेह, समानता, सद्भाव, संकल्प और साहचर्य आवश्यक होता है। 

सुनहरा अवसर 

विवेच्य कृति का संयोजन भारत के १५ करोड़ से अधिक कायस्थों से जुड़ने का सद्प्रयास सचमुच सुनहरा अवसर है जब हम मत-मतान्तरों के चक्रव्यूह में अभिमन्यु तरह बलि का बकरा न बनकर, चक्रव्यूह भेदनकर, एक साथ मिलकर 'योग: कर्मसु कौशलम्' के पथ पर चलें। याद रखें अकेली अँगुली झुक जाती पर सभी अँगुलियाँ एक साथ मिलकर मुट्ठी बन जाएँ तो युग बदल सकती हैं। 'साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला तक जाएगा, सब मिल बोझ उठाना' की भावना हममें से हर एक में हो तो दुनिया की कोई भी ताकत हमारी राह नहीं रोक सकती। 'कायस्थ एक नज़र में' के अंतरगत अपने प्रेरणा पुरुषों का उल्लेख, हममें सहभागिता का भाव जगाता है कि ये सब हम सबके हैं, हम सब इनके हैं।कायस्थ महापुरुषों के सूची वास्तव में इतनी लंबी है कि सहस्त्रों पृष्ठ भी कम पड़ जाएँ इसलिए बतौर बानगी कुछ नामों का उल्लेख कर दिया जाता है। यह गौरवमयी विरासत आदिकाल से अब तक अक्षुण्ण है।     

'चमन' आबाद तब होगा, 'विनय' का भाव जब जागे 

'कायस्थ शब्द की व्युत्पत्ति एवं चित्रगुप्त भगवान का परिवार परिचय' शीर्षक अध्याय  मत-मतांतर को महत्व न देकर, नई पीढ़ी के सम्मुख सिलसिलेवार जानकारियाँ प्रस्तुत करने का प्रयास है। 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, बहुविधि कहहिं-सुनहिं सब संता।'' चित्रगुप्त जी तो सकल सृष्टि जिसमें देव भी सम्मिलित हैं, के मूल हैं। उनकी कथाओं में विविधता होना स्वाभाविक है। प्रागट्य संबंधी अनेकता में एकता यह है कि वे कर्मेश्वर हैं, कर्म विधाता हैं, सबसे पहले पूज्य हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक असम से गुजरात तक कायस्थों की कर्मनैपुण्यता किस्सों में कही जाती है. विस्मय से सुनी जाती है पर इसके बाद भी शिखर पर कायस्थों की संख्या घटती जाती है इसका एक कारण यह है कि कायस्थ लोकतंत्र में 'लोक' की तरह एक जुट होकर 'तंत्र' को उपकरण बनाने की ओर अग्रसर नहीं हो सके। 

चमन आबाद तब होगा, विनय का भाव जब जागे
सभी आगे बढ़ेंगे तब, बढ़े एक-एक जब आगे
नहीं माँगा, न माँगेंगे कभी अनुदान हम साथी -
करें खुद को बुलंद इतना, ज़माना दान आ माँगे 

'कान्त सहाय' तभी होते जब होता भक्त 'सुबोध'  

'भगवान् चित्रगुप्त का स्तवन' शीर्षक अध्याय में विविध ग्रंथों से सकल प्राणियों के भाग्य विधाता चित्रगुप्त जी की वंदना के उद्धरण, प्रभु की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। वास्तव में गीता में 'कृष्ण जो अपने विषय में कहते हैं, वह सब चित्रगुप्त जी के लिए भी सत्य है। त्रेता में, कुरुक्षेत्र में कृष्ण 'कर्ता' थे, नियामक थे। जहाँ कृष्ण वहीं धर्म, जहाँ धर्म वहीं विजय। सभी युगों में, सभी स्थानों पर, सभी प्राणियों के लिए चित्रगुप्त जी एकमात्र करता है, नियामक हैं, भाग्य विधाता हैं इसलिए सकल दैवीय रूप चित्रगुप्त जी के हैं। सब साधनाएँ, सब वंदनाएँ, सब प्रार्थनाएँ चित्रगुप्त जी की ही हैं। विविध देव पर्वत हैं तो चित्रगुप्त जी हिमालय हैं। विविध देव नदियाँ हैं तो चित्रगुप्त जी महासागर हैं। वे सुरों-असुरों, यक्षों-गंधर्वों, भूत-प्रेतों, नर-वानरों, पशु-पक्षियों, जड़-चेतन, जन्मे-अजन्मे के कर्मदेवता हैं। इसीलिए वे सबके पूज्य और सब उनके अनुगामी हैं। किसी भी रूप की, किसी भी भाषा में, किसी भी भाव से, किसी भी छंद में स्तुति करें वह चित्रगुप्त जी की ही स्तुति हो जाती है, हम मानें या न मानें, कोई जाने या न जाने, इस सनातन सत्य पर आँच नहीं आती किन्तु चित्रगुप्त जी की कृपा के वही कर्मफल से मुक्त होता है जो अपना हर काम निष्काम भाव से उन्हें समर्पित कर करे। सबके कान्त (स्वामी)  चित्रगुप्त जी की कृपा पाने के लिए भक्त को सुबोध होना होता है।   

'कान्त सहाय' तभी होते जब, होता भक्त 'सुबोध' 
रावण सा विद्वान् मिट गया, हो स्वार्थी दुर्बोध 

सकल सृष्टि 'कायस्थ' है 

कायस्थों के इतिहास का सूक्ष्म उल्लेख 'कायस्थों के प्रकार' नामक अध्याय में है। हकीकत यह है कि सब कायाधारी कायस्थ हैं क्योंकि उनकी 'काया' में वह जो सबसे पहले पूज्य है, आत्मा रूप में स्थित है। यहाँ 'कायस्थ' शब्द से आशय मानव समाज से हैं जो इस तथ्य को जानता और मानता है। हैं तो शेष जन भी 'कायस्थ' किन्तु वे इस सत्य को या तो जानते नहीं या जानकर भी मानते नहीं। इसे इस तरह भी समझें कि कायस्थ ब्रह्म (सत्य) को जानकर पौरोहित्य, वैद्यक, शिक्षण कर्म करने के कारण ब्राह्मण, शासन-प्रशासन प्रमुख होने के नाते क्षत्रिय, विविध व्यवसाय करने में दक्ष होने के कारण वैश्य तथा सकल सृष्टि की सेवा कर दीनबंधु होने के नाते शूद्र हैं किन्तु उन्हें इन चरों में कोई समाज अपना 'अंश' या 'अंग' नहीं मान सकता क्योंकि वे 'अंश' नहीं 'पूर्ण' हैं। कायस्थ पंचम वर्ण नहीं अपितु चरों वर्णों का समन्वित समग्र विराट रूप हैं। कायस्थों के अंश ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य शूद्र ही नहीं बौद्ध, जैन, सिख, यवन आदि भी हैं इसीलिये दुनिया के किसी  पूजालय, पंथ, संप्रदाय, महापुरुष को कायस्थ नकारते नहीं, वे सबके सद्गुणों को स्वीकारते हैं और असदगुणों से दूर रहते हैं। 

सकल सृष्टि कायस्थ है, मान सके तो मान। 
भव बंधन तब ही कटे, जब हो सच्चा इंसान।।

कण कण प्रभु का लेख है, देख सके तो देख 

कायस्थों संबंधी शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि से पुरातत्व के ग्रंथ भरे पड़े हैं। उन अभिलेखों की एक झलक के माध्यम से नई पीढ़ी को गौरवमय अतीत से परिचित कराने का प्रशंसनीय प्रयास किया है चमन जी ने। समसामयिक व्यक्तित्वों के चित्र व जीवनियाँ नई पीढ़ी को अधिक विश्वसनीय तथा प्रामाणिक प्रतीत होती है क्योंकि अन्यत्र भी इसकी पुष्टि की जा सकती है। सारत:, ''भारत में १५ करोड़ से अधिक कायस्थों का महापरिवार'' ग्रंथ गागर में सागर' संहित करने का श्लाघ्य प्रयास है। ऐसे प्रयास हर जिले, हर शहर से हों तो अनगिन बिंदु मिलकर सिंधु बना सकेंगे। लंबे समय बाद कायस्थों की महत्ता प्रतपदित करने का यह गंभीर प्रयास सराहनीय है, प्रशंसनीय है। भाई चमन जी को इस सार्थक प्रस्तुति हेतु साधुवाद। 
***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com   
     



कवितायेँ 
१. ब्रह्म और आत्मा
*
ब्रह्म विराजित है कण-कण में
मिली चेतना
कर्म कर सके।

कर्म करे वह
जो सुकर्म हो,
जो ले जाए
निकट ब्रह्म के।

काम-क्रोध-मद-लोभ आदि हैं
पाप-कर्म हैं त्याज्य सभी वे।
*
ढँका अविद्या ने, माया ने
शिशु है सुखी; अधिक अन्यों से।
करें लालसा तो दुःख पाएँ
है संतोष, न सुख यह मानें।

होता है आनंद आत्म को
सुख पाती है देह हमारी।
सुख है क्षणिक, नष्ट हो जाता
है आनंद अनश्वर जानो।
*
चाह हमारी है क्या जानें?
परमात्मा या जग मायामय?
प्रिय संसार' न छोड़ रहे हम,
और न जग ही हमें छोड़ता।

जग-जंजाल हमें प्रिय लगता
जग को प्रिय लगते क्या हम भी?
सुख को ही सर्वस्व मानते
भले क्षणिक, हम छोड़ न पाते।

रसानंद मिलता कविता से
ब्रह्मानंद सहोदर है यह।
शब्द-शब्द में अर्थ छिपा है
अर्थ-अर्थ प्रगटे आत्मा से।

परापरा, वैखरी, ब्रह्म भी, बसे शब्द में;
आत्मार्पित कर सकें अगर तो
पर्दे के पीछे माशूका
मिल पाए अपने आशिक़ से।

हैं विभूति सब परमेश्वर की।
देख न सकते चक्षु हमारे
दिव्य रूप जो परम् ब्रह्म का।
दिव्य दृष्टि जब मिल पाए तब
झलक लखे कान्हा की मीरा।

सद्गुरु बिन भटका करती मति
जग में होकर दुखी-अधीरा।
सुख मरीचिका सम भटकाता
मृग आत्मा भटका करती है।
११-४-२०२२
***
ब्रह्मचर्य
*
ब्रह्मचर्य का अर्थ नहीं है
देह परे हो सभी सुखों से।
ब्रह्मचर्य- चर्या स्वाभाविक 
होती जो निष्काम भाव रख। 

प्रभु को अर्पित, प्रभु करता जब 
तब न तनिक दूरी रहती है।
तब न आत्म यह संश्लिष्ट हो 
कर्मों का कुछ फल गहती है।

खुद से खुद मिल जाता है जब 
तब न आवरण रहता कोई, 
धरती शैया, दिशा वसन हों,  
अंबर होता निर्मल लोई। 

देख दिगंबर लगे न लज्जा 
तनिक न शेष वासना रहती। 
मानवात्म तन की प्रतीति तज
अवचेतन में प्रिय संग रहती। 
१२-४-२०२२ 
***