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रविवार, 12 फ़रवरी 2012

सरस गीत: .....लिखना पाती कुसुम सिन्हा

सरस गीत:

 .....लिखना पाती                                                                                     

कुसुम सिन्हा

*
जब सावन घन बरस न पायें 
उमड़ें-घुमड़ें  औ'  थम जाएँ 

                 भूल न जाना लिखना पाती
 
 भरी दुपहरी  हरी नींद में 
जब औचक   ऑंखें खुल जाएँ 
औ प्रीतम का मीठा सपना 
अचक अचानक ही चुक जाएँ 

                 भूल न जाना लिखना पाती 

जब सखियाँ  मिल कजली गायें 
पेंगें  पर पेंगें  लहरायें 
 सुधि के बदल घिर घिर आयें 
औ आँखों में नींद न आये 

                भूल न जाना लिखना पाती 

 जब फूलों से भरी साख वह 
झुक झुक आलिंगन को आयें 
 आँखों के अम्बर में जब तब 
 आंसू के बदल   लहरायें 

                 भूल न जाना लिखना पाती

****************************************

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

रचना-प्रति रचना: ह्रदय कुसुम सिन्हा-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना:
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
कुसुम सिन्हा
*
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
                     पाकर चोट  न झरते आंसू 
                    नहीं ह्रदय से आह निकलती 
                   प्यार और विश्वास में छल पा

                  दिल का शीशा   चूर न होता
काश ह्रदय पत्थर का होता
                 ह्रदय बनाकर  यदि वो इश्वर
                कठिन प्यार की पीर न देता 
               तो फिर जीवन शायद  इतना 
              पीड़ा से बोझिल न होता
काश   ह्रदय   पत्थर का होता 
              निर्विकार सह   लेता सुख दुःख 
               हाश अश्रु   और  प्यार न होता 
               नहीं ह्रदय  टुटा करता    फिर 
              नहीं   कोई  मर मरकर जीता 
काश ह्रदय पत्थर का होता 
             पीड़ा का अभिशाप   दिया जो 
             मन तो फूलों सा न बनाता
             अंगारों सा मन होता तो 
            नहीं कोई मर मर कर जीता 
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
           विरहन   चकई  की चीखें सुन 
          चाँद कभी आंसू न बहाता
           शब्द  वाण फिर ह्रदय चीरकर 
           सारा लहू न  अश्रु   बनाता 
काश ह्रदय पत्थर का होता
*
माननीया कुसुम जी,
आपकी भाव भीनी रचना को पढ़कर कलम से उअतारी पंक्तियाँ आपको सादर समर्पित.
प्रति कविता:
अगर हृदय पत्थर का होता
संजीव 'सलिल'
*
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
खाकर चोट न किंचित रोता,
दुःख-विपदा में धैर्य न खोता.
आह न भरता, वाह न करता-
नहीं मलिनता ही वह धोता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
कुसुम-परस पा नहीं सिहरता,
उषा-किरण सँग नहीं निखरता.
नहीं समय का मोल जानता-
नहीं सँवरता, नहीं बिखरता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
कभी नींव में दब दम घुटता,
बन सीढ़ी वह कभी सिसकता.
दीवारों में पा तनहाई-
गुम्बद बन बिन साथ तरसता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
अपने में ही डूबा रहता,
पर पीड़ा से नहीं पिघलता.
दमन, अनय, अत्याचारों को-
देख न उसका लहू उबलता.
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
आँखों में ना होते सपने,
लक्ष्य न पथ तय करता अपने.
भोग-योग को नहीं जानता-
'सलिल' न जाता माला जपने..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*




मंगलवार, 10 जनवरी 2012

रचना-प्रति रचना: कुसुम सिन्हा-संजीव 'सलिल

मेरी एक कविता
सांसों में महकता था चन्दन
आँखों में सपने फुले थे  ल
लहराती आती थी बयार
बालों को छेड़कर जाती थी
                   जब तुम बसंत बन थे आये
 जब शाम  घनेरी जुल्फों  से
पेड़ों को ढकती आती थी
चिड़िया भी मीठे  कलरव से
मन के सितार पर गाती थी
                    जब तुम बसंत बन थे आये
खुशियों  के बदल भी जब तब
मन के आंगन   घिर आते थे
 मन नचा करता मोरों  सा
कोयल कु कु  कर जाती थी
                      जब तुम बसंत बन थे आये
 तुम क्या रूठे   की जीवन से
अब तो खुशियाँ ही  रूठ गईं
मेरे आंगन से खुशियों के
पंछी  आ आ कर लौट गए
                       जब तुम बसंत बन थे आये
साँझ ढले   अंधियारे   संग
यादें उनकी आ जाती हैं
रात रात भर रुला   मुझ्रे
बस सुबह हुए ही जाती हैं


आदरणीय कुसुम जी!
मर्मस्पर्शी रचना हेतु साधुवाद... प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिपक्ष प्रस्तुत करती पंक्तियाँ आपको समर्पित हैं.
प्रति गीत :
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
संजीव 'सलिल'
*
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
मेरा जीवन वन प्रांतर सा
उजड़ा उखड़ा नीरस सूना-सूना.
हो गया अचानक मधुर-सरस
आशा-उछाह लेकर दूना.
उमगा-उछला बन मृग-छौना
जब तुम बसंत बन थीं आयीं..
*
दिन में भी देखे थे सपने,
कुछ गैर बन गये थे अपने.
तब बेमानी से पाये थे
जग के मानक, अपने नपने.
बाँहों ने चाहा चाहों को
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुमसे पाया विश्वास नया.
अपनेपन का आभास नया.
नयनों में तुमने बसा लिया
जब बिम्ब मेरा सायास नया?
खुद को खोना भी हुआ सुखद
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
अधरों को प्यारे गीत लगे
भँवरा-कलिका मन मीत सगे.
बिन बादल इन्द्रधनुष देखा
निशि-वासर मधु से मिले पगे.
बरसों का साथ रहा पल सा
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जीवन रजनी-'मावस
नयनों में मन में है पावस.
हर श्वास चाहती है रुकना
ज्यों दीप चाहता है बुझना.
करता हूँ याद सदा वे पल
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
सुन रुदन रूह दुःख पायेगी.
यह सोच अश्रु निज पीता हूँ.
एकाकी क्रौंच हुआ हूँ मैं
व्याकुल अतीत में जीता हूँ.
रीता कर पाये कर फिर से
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जग-जीवन हुआ सजा
हर पल चाहूँ आ जाये कजा.
किससे पूछूँ क्यों मुझे तजा?
शायद मालिक की यही रजा.
मरने तक पल फिर-फिर जी लूँ
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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