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मंगलवार, 17 सितंबर 2024

साहित्य में पर्यावरण

भारतीय साहित्य में पर्यावरण
*
            प्रकृति ईश्वर का सर्वोत्तम उपहार और मनुष्य उसकी सर्वोत्तम रचना है। शास्त्रानुसार परमात्मा एकमात्र पुरुष और प्रकृति उसकी लीला सहचरी है। दोनों के मिल से ही जीव का जन्म होता है- 'जगन्माता च प्रकृति पुरुषश्च जगत्पिता'। मानव के तन का संगठन पाँच तत्वों से हुआ है और अंत में वह पंच तत्वों में ही विलीन भी हो जाता है। 

अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
माटी में माटी मिले, आत्म अगेह विदेह।।

            नागर सभ्यता के पूर्व मनुष्य ग्राम्य जीवन जीत हुआ प्रकृति के समीप था। एक ग्रामीण बाल सावन में होती घनघोर बारिश में चंदा पर खेती करने और सूरज पर खलिहान बनाने की कल्पना लोकगीत में करती है, आज से सदियों पूर्व उसे क्या पता था कि कभी मनुष्य उसकी कल्पना को साकार कर लेगा। लोक गीत की कुछ पंक्तियों का आनंद लें-

चंदा पे खेती करौं, सूरज पै करौं खरयान
जोबन के बदरा करौं, मोरे पिया बखर खों जांय
झमक झम लाग रही साहुन की

            इन लोक गीतों में भगवान भी प्रकृति का आश्रय लेते हैं। आदिवासियों के निंगा देव जो कालांतर में बड़ा देव, महादेव और शंकर हो गए, वनवासी बैरागी हैं। वे नाग गले में लपेटे हैं, वृषभ की सवारी करते हैं। 

            भवानी को प्रसन्न करने के लिए भगतें गाने का रिवाज बुंदेलखंड में चिर काल से है। भगतें गाते समय वाद्य यंत्रों का प्रयोग वर्जित होता है। एक भगत की कुछ पंक्तियाँ देखिए-

मोरी मैया पत रखियों बारे जन की
मैया के मठ में चम्पो घनेरों, वास भई फुलवन की
मैया के मठ में गौएँ घनेरी, वास भई लरकन की
मैया के मठ में बहुएँ भौत हैं, वास भई लरकन की
मैया के मठ में घाम लगी है हैं, वास भई घी-गुर की

            अयोध्या में राम लला और लखन लाल महलों में नहीं, वृक्ष की छाँव में थकान उतारते हैं-

नगर अजुध्या की गैल में इक महुआ इक आम
जे तरे बैठे दो जनें, इक लछमन दूजे राम

            गोकुल के कान्हा और राधा का प्रकृति के साथ पल-पल का साथ है। गौ चराने, गोवर्धन उठाने, रास रचाने, कालिया वधकर जल प्रदूषण मिटाने आदि सभी प्रसंग पर्यावरण चेतना से परिपूर्ण हैं। लोकगीतों में इस चेतन के दर्शन कीजिए-

गिरधारी तोर बारो गिर नै परै
एक हात हरि मुकुट सँवारे, एक हात पर्बत लंय ठाँड़े
एक हात हरि खौर सँवारे, एक हात पर्बत लंय ठाँड़े

            मानव प्रकृति की क्रोड़ में जन्मता, सहवास लेता, अन्न-जल का पान करता हुई अंत में उसे में विलीन हो जाता है। गो. तुलसी दास लिखते हैं-
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पञ्च रचित अति अधम सरीरा।। - राम चरित मानस

            चेतना, मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं। मानव का अस्तित्व पर्यावरण से है किंतु मानव द्वारा निरंतर किए जा रहे पर्यावरण के विनाश से हमें भविष्य की चिंता सताने लगी है। हमारे प्राचीन वेदों (ऋग्वेद सामवेद यजुर्वेद एवं अथर्ववेद) में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। वेदों में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। 'अथर्ववेद' के एक श्लोक 'पृथ्वी सूक्त' में वर्णित है कि 'पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ'। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के कई घटकों जैसे वृक्षों को पूज्य माना जाता है. पीपल के वृक्ष को पवित्र माना जाता है. वट के वृक्ष की भी पूजा होती है. जल, वायु, अग्नि को भी देव मानकर उनकी पूजा की जाती है। शकुंतला खरे द्वारा संपादित गारी संग्रह सुहानों लागे अँगना में संकलित 'बारहमासी' इस लोकगीत में मनुष्य और प्रकृति का नैकट्य देखिए- 

लगे अगहन पूस मास / पिया प्यारे की आस 
देख देख भई उदास / माघ मास जाड़ों में नींद नहीं आई / मैं कैसी करूँ भाई
आई फागुन की बहार / नहीं आए पिया भरतार 
सौत रंग खेलें रंग भार / चिंता भई, अकती बैसकहें आई /  मैं कैसी करूँ भाई
जेठ गर्मी न भाए / उतै अषढ़ा लग जाए
झेली गर्मी न जाए / सावन के झूले पै छा रही पुरवाई  /  मैं कैसी करूँ भाई
दिए भादों हमें भुलाए / क्वांर कुआंरा हमें न भाए
पिया कार्तिक गए न आए / कहें बाथम-मलखान खुशी लौंद में मनाई / मैं कैसी करूँ भाई  

            भोजपुरी गारी गीतों में पर्यावरण और प्रकृति का रसमय चित्रण अद्भुत है। हरेराम त्रिपाठी 'चेतन' द्वारा संपादित  लोकगंधी भोजपुरी के संस्कार गीत में विरहिणी बदल में छिपे चंदा को देखकर आह भरती  है-
 चंदा छीपी गइल / चंदा छीपी गइल / कारी बदरिया में 
रोवेला कवन / मरदा धुनेला कपार / चंदा छीपी गइल

            एक और चित्रण देखिए- 
राजा जी के बाग में / छयल जी के बाग में 
ए मोर लाल फुलवा/  एगो फुलेला गुलाब    

            लोक साहित्य में जीवन की हर परिस्थिति का चित्रण है। पर्यावरण को सजग दृष्टि से निहारते हुए छत्तीसगढ़ की युवतियों द्वारा धान कूटते समय गाया जानेवाला एक लोक गीत की कुछ पंक्तियाँ डॉ. अनीता शुक्ला की कृति 'छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन से प्रस्तुत है- 
अधरतिया ढेंकी बाजय भुकुड़ धुम्म / सूपा ऊपर नाचे लछममी  छुम्म-छुम्म
कोंढ़ा कनकी भूँसा चाँउर जममो ला निमारय  
कुकुरा बासत लीपय-पोतय घर-अँगना सँवारय 
बेर ऊवत तरिया जावय करय रपज असनान 
पीपर तेरी देवता पूजय, मन मा धरम के धियान 
गधरी ऊपर कलसा बोहय रेंगय झुम्मा-झुम्म
अधरतिया ढेंकी बाजय भुकुड़ धुम्म

            प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े पर्व त्योहारों में कजलिया, भजलिया या भोजली का अपना स्थान है। यह पर्व उत्पादक गाँवों और भोक्ता  नगरों के मध्य सामाजिक संवेदना सेतु का निर्माण करता है। खेद है कि शासन-प्रशासन इं लोक पर्वों की अनदेखी और उपेक्षा कर रहे हैं जिस कारण ये लुप्त होते जा रहे हैं। एक भोजली गीत का रस लें- 
रेवा मैया! हो रेवा मैया!! लहर तुरंगा हो लहर तुरंगा
तूँहरों लहर म भोजली, भींजे आठों अंगा / अ sss हो रेवा मैया 
आए ल पूरा बोहाय ल मलगी, बोहाय ल मलगी
हमरो भोजली दाई के सोने-सोने के कलगी / अ sss हो रेवा मैया 

            लोक चेतना में प्राण फूंकता है प्रकृति का संसर्ग। एक अवधी फाग में प्रकृति का मनोरम चित्रण देखिए आद्या प्रसाद सिंह 'प्रदीप की पुस्तक 'लोक स्वर' से-

अमवन मा भँवर भुलाने, खेत पियराने 
आजु वसंत नवेली नागरि जिय धीरे धीरे सयाने 
मादक मदिर सुगंध सुहावनि आवति अपने मनमाने 
फूल माल गरवा महँ डारति आरति भाउ लुभाने 
रसुक हृदय रस-रस होइ भीजत, रस में सब आजु भुलाने   
कोइलि केलि करत डरिया पइ, पपिहा पिउ रागि भुलाने
करवन तरु मँह मँह मँहकारति खोलत रस प्रीति पुराने           

            आदिकालीन कवि विद्यापति की रचित पदावली प्रकृति वर्णन की दृष्टि से अद्वितीय है-
मौली रसाल मुकुल भेल ताब समुखहिं कोकिल पंचम गाय।

            भक्तिकालीन कवियों में कबीर सूर तुलसी जायसी की रचनाओं में प्रकृति का कई स्थलों पर रहस्यात्मक- वर्णन हुआ है। तुलसी ने रामचरितमानस में सीता और लक्ष्मण को वृक्षारोपण करते हुए दिखाया है -

तुलसी तरुवर विविध सुहाए, कहुँ सीता कहुँ लखन लगाए

            रीतिकालीन कवियों में बिहारी, पद्माकर, देव, सेनापति ने प्रकृति में सौंदर्य को देखा-परखा है। बिहारी के एक दोहे का लालित्य देखिए-
चुवत स्वेद मकरंद कन, तरु तरु तरु विरमाय।
आवत दक्षिण देश ते, थक्यों बटोही बाय।।

            आधुनिक काल में प्रकृति के सौंदर्य का उपादान क्रूर दृष्टि का शिकार होना प्रारंभ हो जाता है मैथिलीशरण गुप्त कृत पंचवटी में चंद्र ज्योत्सना में रात्रि कालीन बेला की प्राकृतिक छटा का मोहक वर्णन है-
चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही है जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।।
पुलक प्रगट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हैं तृ भी एमएनएस पवन क्व झोंकों से।।

            छायावादी काव्य के चारों चितेरों प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी के काव्य में में प्रकृति का सूक्ष्म और उत्कट और पर्यावरण चेतना यत्र-तत्र पाई जाती है। महाकवि  ने प्रकृति को ही सौंदर्य और सौंदर्य को ही प्रकृति माना है। कामायनी का पहला पद पर्यावरण और मनुष्य की  सन्निकटता का उत्कृष्ट उदाहरण है-
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।।

            प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध कौसानी निवासी, प्रकृति का सुकुमार कवि कहे गए पंत कहते हैं-
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन

            निराला जी छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं। उनका बादल के समान गम्भीर और विद्रोही व्यक्तित्व उनके प्रकृति वर्णन में भली-भाँति निखरा है। निराला प्रारम्भ से ही प्रकृति वर्णन के गीत लिखते रहे और परवर्ती कल में भी यह धारा अबाध गति से प्रवाहित होती रही। फूलों पर आधारित उनकी कविता 'जूही की कली' एक प्रभावोत्पादक रचना है। इसमे जूही की कली नायिका और मलयानिल नायक के रूप में चित्रित है। इसमें वर्णित प्रकृति का नवीन रूपक आश्चर्यचकित करता है निद्रामग्न नायिका के रूप में जूही की कली का प्रकृति के माध्यम से मानवीकरण किया गया है -
विजन - वन - वल्लरी पर / सोती थी सुहाग -भरी -
स्नेह -स्वपन -मग्न -अमल -कोमल -तनु -तरुणी / जूही की कली।

            महादेवी जी ने जड़ प्रकृति को चेतन रूप में प्रस्तुत किया है। बसंत की रजनी का मन मुग्ध करता चित्रण देखिए-
धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत रजनी / तारकमय नव वेणी बंधन
शीश फूल शशि का कर नूतन / रश्मि वलय सित घन अवगुंठन
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे / चितवन से अपनी / पुलकती आ वसंत रजनी

            महादेवी जी नायक-नायिका के प्रथम मिलन का चित्रण भी प्रकृति से जोड़कर करती हैं-
निशा को धो देता राकेश / चाँदनी में जब अलकें खोल
कली से कहता था मधु मास / बता दो मधु-मदिरा का मोल

            प्रख्यात समीक्षक हजारी प्रसाद द्विवेदी 'कुटज' में लिखते हैं- 'यह धरती मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ इसलिए मैं इसका सदैव सम्मान करता हूँ और इसके प्रति नतमस्तक हूँ।' आधुनिक समय में पर्यावरण विषय को केन्द्र में रखकर अनेक रचनाएँ लिखी जा रही हैं। बुंदेली के वरिष्ठ कवि पूरन चंद श्रीवास्तव लिखते हैं-

बिसराम घरी भर कर लो जू / झपरे महुआ की छैयाँ
ढील ढाल हे धरौ धरी पर / पोंछों माथ पसीना
तपी दुपहरिया देह झाँवरी / कर्रो क्वांर महिना
भैंसें परीं डबरियन लोरें / नदी तीर गईं गइयाँ
बिसराम घरी भर कर लो जू / झपरे महुआ की छैयाँ

            काशीनाथ सिंह की कहानी 'जंगल जातकम्' पर्यावरण संरक्षण की अच्छी कोशिश है। 'चिपको आंदोलन' के समय लिखी गई इस कहानी में लेखक ने संवेदनात्मक धरातल पर जंगल का मानवीकरण कर बरगद, बांस, पीपल आदि वृक्षों की भूमिका को दिशा दी है।

            राजस्थानी कवि शिव मृदुल पर्यावरण चिंता को लेकर मुखर हैं-
रूख लगाया राख्या कोणी / मीठा फल भी चाख्या कोणी
सवारथ री लै हाथ कुल्हाड़ी / काटण हुआ उतावला
बोलो किणरा काम सरावां । किणनै बोलां बावला

            कुँवर कुसुमेश वृक्षों को भगवान का वरदान कहते हैं-
खुद पर न सही लेकिन पेड़ों पर भरोसा रख
नायाब जमीं पर ये भगवान का तोहफा रख
मन कि गरीबी में मुश्किल है बागवानी
गमले में मगर छोटा तुलसी का पौधा ही रख
            
            पर्यावरण चिंतन के क्रम में प्रस्तुत है एक स्वरचित पर्यावरण गीत- 
काटे वृक्ष, पहाडी खोदी, खो दी है हरियाली.
बदरी चली गयी बिन बरसे, जैसे गगरी खाली.
*
खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
*
किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता है, विकास क्यों क्रीड़ा?
*
कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
*
नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
*
पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
*
अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
*
पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
*
मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
***

बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

कला और साहित्य

कला और साहित्य 
*
किसी कथ्य  या वस्तु की सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति  विधि कला, प्रस्तुतिकर्ता कलाकार तथा प्रस्तुति कलकृति है।  
कला दो तरह की होती है - उपयोगी कला तथा ललित कला। उपयोगी कला में उपयोगिता का पक्ष प्रधान होता है और वह भौतिक आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होती है जैसे बढ़ई की कलाकारी से सुंदर फर्नीचर आदि बनना कलात्मक है लेकिन भौतिक रूप से उपयोगी है।

ललित कला में भाव पक्ष प्रधान होता है। भावनाओं को सुसंस्कृत, अहलादित उदात्त तथा परिमार्जित करने में ललित कला का प्रयोग होता है। ललित कला भी पाँच तरह की तरह होती है - संगीत, काव्य (साहित्य), चित्र, वास्तु और मूर्ति।

काव्य ललित कला के वर्ग में आता है। संस्कृत तथा अन्य पुरानी भाषाएँ पहले छंदों में बोली जाती थीं। अतः भावनात्मक, सौष्ठव एवं सारगर्भित भाषा, कला का भाव पक्ष रखती थी। काव्य में सौंदर्य वर्णन, शौर्य गाथाएँ, करुण वेदना, शांत संदेश, हास्य, करुण आदि भावों से ओत प्रोत पद्य, राजा प्रजा तथा दरबार में कहे जाते थे । ये सारे कथन राजा, प्रजा समाज तथा देश की भलाई के लिए होते थे। मनोभावों को उदात्त करके जो पद्य निकलते थे, एक उद्देश्य, समाज के हित और वीरों के शौर्य बढ़ाने के लिए किया जाता था। श्रृंगार द्वारा राजा की सौंदर्य के प्रति कोमलता तथा करुणा द्वारा प्रजा की वेदना व्यक्त की जाती थी। यह सब कलात्मक विवरण, मूलतः समाज के हित के लिए होता था। अतः जो छंद समाज के हित के लिए हो, समाज को साथ लेकर चले वह साहित्य कहलाता है। जैसे जैसे गद्य का विकास हुआ, विधाएँ भी बढ़ गईं और साहित्य का आयाम भी। अब साहित्य गद्य पद्य, दोनो को लेकर चलता है। साहित्य शब्द, सहित में "व्यत्र" प्रत्यय लगाकर बना है। सहित यानी साथ साथ और सह हित माने, हित सहित या हितकारी। शब्द के साथ साथ शब्दों के सही और अर्थपूर्ण भाषा को साहित्य कहते हैं। अगर निरर्थक शब्द हैं या कोई विशेष हितकारी संदेश नही देते तो वे साहित्य श्रेणी में नही आते। जब शब्द कोई सुरुचि पूर्ण अर्थ दें या जनमानस की भावनाओं को जगा दें तब वह भाषा कलात्मक हो जाती है और साहित्य के वर्ग में आती है। स्नेह, करुणा, शौर्य, हास्य, संयोग, वियोग , शांति घृणा, क्रोध, भक्ति आदि भाव हमारे मन में छिपे होते हैं। भावों को हितकारी बना के लोगों के बीच में रखकर उनकी भावनाओं को जगाना ही साहित्य है।

सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता - खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी, पढ़िए, पढ़ते पढ़ते दुश्मनों के विरुद्ध भावना बरबस जग उठती है। वहीं सूरदास का पद - मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो, में एक बच्चे के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ता है।

उदाहरण के लिए-

बच्चे की रोटी खाते खाते डाल में गिर गई और वह गर्म दाल से रोटी निकल कर खा लेता है।

यह बात आप को साधारण लगेगी, लेकिन इसको अगर इस तरह बोलें

जब गिरी रोटी दाल में, बचवा रोवन लाग

गरम दल में हाथ दिय, गया रोटी लेकर भाग।

इसमें आप को एक दृश्य दिखाई देगा कि गर्म दल में रोटी गिरने से बच्चा रोने लगा, फिर रोटी उठाई और दोबारा न गिर जाए, या सोच कर भागा।

दोनो में बातें एक हैं लेकिन कहने का अंदाज अलग है। एक साधारण है दूसरा कलात्मक है, पढ़ने पर एक दृश्य दिखाता है। हल्का मनोरंजन भी करता है अतः यह भाषा साहित्यिक हो गई।

शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

doha

दोहा सलिला 
*
कर अव्यक्त को व्यक्त हम, रचते नव 'साहित्य' 
भगवद-मूल्यों का भजन, बने भाव-आदित्य 
.
मन से मन सेतु बन, 'भाषा' गहती भाव
कहे कहानी ज़िंदगी, रचकर नये रचाव
.
भाव-सुमन शत गूँथते, पात्र शब्द कर डोर
पाठक पढ़-सुन रो-हँसे, मन में भाव अँजोर
.
किस सा कौन कहाँ-कहाँ, 'किस्सा'-किस्सागोई
कहती-सुनती पीढ़ियाँ, फसल मूल्य की बोई
.
कहने-सुनने योग्य ही, कहे 'कहानी' बात
गुनने लायक कुछ कहीं, कह होती विख्यात
.
कथ्य प्रधान 'कथा' कहें, ज्ञानी-पंडित नित्य
किन्तु आचरण में नहीं, दीखते हैं सदकृत्य
.
व्यथा-कथाओं ने किया, निश-दिन ही आगाह
सावधान रहना 'सलिल', मत हो लापरवाह
.
'गल्प' गप्प मन को रुचे, प्रचुर कल्पना रम्य
मन-रंजन कर सफल हो, मन से मन तक गम्य
.
जब हो देना-पावना, नातों की सौगात
ताने-बाने तब बनें, मानव के ज़ज़्बात 

***
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
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बुधवार, 4 अक्टूबर 2017

muktak

पञ्च मुक्तक
सम्मिलन साहित्यकारों का सुफलदायी रहे
सत्य-शिव-सुन्दर सुपथ हर कलम आगे बढ़ गहे
द्वन्द भाषा-बोलिओं में, सियासत का इष्ट है-
शारदा-सुत हिंद-हिंदी की सतत जय-जय कहे
*
नेह नर्मदा तीर पधारे शब्ददूत हिंदी माँ के
अतिथिदेव सम मन भाते हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
भाषा, पिंगल शास्त्र, व्याकरण हैं त्रिदेवियाँ सच मानो
कथ्य, भाव, रस देव तीन हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
*
अक्षर सुमन, शब्द-हारों से, पूजन भारत माँ का हो
गीतों के बन्दनवारों से, पूजन शारद माँ का हो
बम्बुलियाँ दस दिश में गूँजें, मातु नर्मदा की जय-जय
जस, आल्हा, राई, कजरी से, वंदन हिंदी माँ का हो
*
क्रांति का अभियान हिंदी विश्ववाणी बन सजे
हिंद-हिंदी पर हमें अभिमान, हिंदी जग पुजे
बोलियाँ-भाषाएँ सब हैं सहोदर, मिलकर गले -
दुन्दुभी दस दिशा में अब सतत हिन्दी की बजे
*
कोमल वाणी निकल ह्रदय से, पहुँच ह्रदय तक जाती है
पुलक अधर मुस्कान सजाती, सिसक नीर बरसाती है
वक्ष चीर दे चट्टानों का, जीत वज्र भी नहीं सके-
'सलिल' धार बन नेह-नर्मदा, जग की प्यास बुझाती है
*

शनिवार, 2 जुलाई 2016

geet

एक रचना 
*
येन-केन जीते चुनाव हम 
बनी हमारी अब सरकार 
कोई न रोके, कोई न टोके 
करना हमको बंटाढार 
*
हम भाषा के मालिक, कर सम्मेलन ताली बजवाएँ
टाँगें चित्र मगर रचनाकारों को बाहर करवाएँ 
है साहित्य न हमको प्यारा, भाषा के हम ठेकेदार 
भाषा करे विरोध न किंचित, छीने अंक बिना आधार 
अंग्रेजी के अंक थोपकर, हिंदी पर हम करें प्रहार 
भेज भाड़ में उन्हें, आज जो हैं हिंदी के रचनाकार 
लिखो प्रशंसा मात्र हमारी 
जो, हम उसके पैरोकार
कोई न रोके, कोई न टोके 
करना हमको बंटाढार 
*
जो आलोचक उनकी कलमें तोड़, नष्ट कर रचनाएँ 
हम प्रशासनिक अफसर से, साहित्य नया ही लिखवाएँ 
अब तक तुमने की मनमानी, आई हमारी बारी है 
तुमसे ज्यादा बदतर हों हम, की पूरी तैयारी है  
सचिवालय में भाषा गढ़ने, बैठा हर अधिकारी है 
छुटभैया नेता बन बैठा, भाषा का व्यापारी है 
हमें नहीं साहित्य चाहिए, 
नहीं असहमति है स्वीकार 
कोई न रोके, कोई न टोके 
करना हमको बंटाढार 
*

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

लेख:


साहित्य की चुनौतियां और हमारा दायित्व 

--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर 
९४२५८०६२५२
         साहित्य समय सापेक्ष होता है . साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है . आधुनिक तकनीक की भाषा में कहूं तो जिस तरह डैस्कटाप , लैपटाप , आईपैड , स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट  के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं . जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओ की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है .  कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता , कहानी , नाटक , वैचारिक लेख , व्यंग , गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं , मूल साफ्टवेयर संवेदना है , जो  इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है .  परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पड़ने  प्रभाव ही है , जो रचना के रूप में जन्म लेता है   . लेखन की  सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओ तथा संवेदना की संवाहक हैं .  साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है . बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं , रचनाकार का मन उन दृश्यो को अपने मन के कैमरे में कैद कर लेता है . फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव , कहानी की काल्पनिकता , नाटक की निपुणता , लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान  रचना लिखी जाती है . जब यह रचना पाठक पढ़ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के  अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं . 
        वर्तमान  में विश्व में  आतंकवाद  , देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद , सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में  तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा , समाज में नैतिक मूल्यो के हृास , सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियो और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर  प्रश्नचिन्ह लगाती  है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है . यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है . स्त्री भ्रूण हत्या , नारी के प्रति बढ़ते अपराध , चरित्र में गिरावट , चिंतनीय हैं .  हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओ का  औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नो के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें . समाज की परिस्थितियो की अवहेलना साहित्य कर ही नही सकता . क्योकि साहित्यकार का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे . समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये . राजनीतिज्ञो के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है . साहित्यकार  का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण  करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे .समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व साहित्य का ही है . इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही , राजनेताओ को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है .  
        प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु , ॠषि व  मनीषी करते थे .उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था . वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे .हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारको ने लिखे हैं जिनका साहित्यिक महत्व शाश्वत बना हुआ है . समय के साथ  बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा . उनकी साहित्यिक रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका . कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है .वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं , यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि साहित्य के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही . जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई .जब समाज अधोपतन का शिकार हो गया था विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये .  भक्तिरस की रचनायें हुई  . अकेली रामचरित मानस , भारत से दूर विदेशो में ले जाये गये मजदूरो को भी अपनी संस्कृति की जड़ो को पकड़े रखने का संसाधन बनी . 
        आज  रचनाकार राजाश्रय से मुक्त अधिक स्वतंत्र है , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार आज हमारे पास है .  आज लेखन , प्रकाशन , व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन कही अधिक सुगम हैं . लेखन की व अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है . माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है . पर आज नई पीढ़ी में  पठनीयता का तेजी हृास हुआ है . साहित्यिक किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है . आज साहित्य की चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये . पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की  जाये . आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है ,प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है . यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है , तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्य का हिस्सा बनाया जा सकता है ?  यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर किताबो की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं . जो भी हो हमारी पीढ़ी और हमारा समय उस परिवर्तन  का साक्षी  है जब समाज में  कुंठाये , रूढ़ियां , परिपाटियां टूट रही हैं . समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है , अतः हमारी लेखकीय पीढ़ी का साहित्यिक दायित्व अधिक है .निश्चित ही  आज हम जितनी गंभीरता से इसका निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा .  

--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर 
९४२५८०६२५२
ईमेल vivek1959@yahoo.co.in

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

lohadi par: manjul bhatnagar, sanjiv

अभिनव प्रयोग:
मंजुल भटनागर, संजीव, गीत, लोक, साहित्य, पद्य, लोहड़ी,
नमस्कार मित्रों
राय अब्दुल्ला खान भट्टी राजपूत की यह पंक्तियाँ जो हम सब बरसों से मकर संक्रांति के अवसर पर सुनते आयें हैं। ----
सुन्दर मुंदरिये - होय !

तेरा कौन विचारा - होय !
दुल्ला भट्टी वाला - होय !

दुल्ले धी व्याई - होय !
सेर शक्कर पाई - होय !

कुड़ी दा लाल पटाका - होय !
कुड़ी दा सल्लू पाटा - होय !

सल्लू कौन समेटे - होय !

चाचे चूरी कुट्टी - होय !
ओ जिमीदारां लुट्टी - होय !

जिमीदार सुधाए - होय !
गिन गिन पौले आए - होय !

इक पौला रै गया - होय !
सिपाई फड़ के लै गया - होय !

सिपाई ने मारी इट्ट - होय !
भांवे रो ते भांवे पिट्ट - होय !
(पौला=झूठा)
*
मंजुल जी! द्वारा पंक्तियों को पढ़कर उतरी पंक्तियाँ इस लोहड़ी पर उन्हें और आप सबको उपहारस्वरूप भेंट:
सुन्दरिये मुंदरिये, होय!
सब मिल कविता करिए, होय

कौन किसी का प्यारा, होय
स्वार्थ सभी का न्यारा, होय

जनता का रखवाला, होय
नेता तभी दुलारा, होय

झूठी लड़ें लड़ाई, होय
भीतर करें मिताई, होय

पाकी हैं नापाकी, होय
सेना अपनी बाँकी, होय

मत कर ताका-ताकी, होय
कर ले रोका-राकी, होय

झाड़ू माँगे माफ़ी, होय
पंजा है नाकाफी, होय

कमल करे चालाकी, होय
जनता सबकी काकी, होय

हिंदी मैया निरभै, होय
भारत माता की जै, होय
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navgeet: - sanjiv

अभिनव प्रयोग:
नवगीत 
संजीव 


जब लौं आग न बरिहै तब लौं, 
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें 
बन सूरज पगफेरा 

कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी  
कौनौ ल्याओ पानी 
रांध-बेल रोटी हम सेंकें 
खा रौ नेता ग्यानी 
झारू लगा आज लौं काए 
मिल खें नई खदेरा 
दोरें दिखो परोसी दौरे 
भुज भेंटें बम भोला 
बाटी भरता चटनी गटखें 
फिर बाजे रमतूला 
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा 
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२)
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

गुरुवार, 28 मई 2009

काव्य-किरण: सरला खरे

साहित्य-पीड़ा


आहत है साहित्य करुण,


करुणा का सागर है कवि।


पावन बूँदें गिर रहीं


तपती रेत पर ॥


*



देश के घर-घर में साहित्य


साहित्य के कर्णधार हैं,


नींव के पत्थर।


*


बैठाये मीडिया ने


मीनारों के कंगूरों पर


साहित्य के पावन स्वरुप का


उपहास करते वानर॥


*


कछुआ-चाल से


चलते हुए भी,


एक दिन साहित्य का


शिखर पर


आधिपत्य होगा।


विद्या का दूषण


कम होगा.


शासन प्रतिभा का होगा।


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