कुल पेज दृश्य

ashok jamnani लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ashok jamnani लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 27 जनवरी 2014

kriti charcha: khamma-ashok jamnani -sanjiv

कृति चर्चा: 
मरुभूमि के लोकजीवन की जीवंत गाथा "खम्मा"
चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: खम्मा, उपन्यास, अशोक जमनानी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, पृष्ठ १३७, मूल्य ३०० रु., श्री रंग प्रकाशन होशंगाबाद]  
*
                राजस्थान की मरुभूमि से सन्नाटे को चीरकर दिगंत तक लोकजीवन की अनुभूतियों को अपने हृदवेधी स्वरों से पहुँचाते माँगणियारों के संघर्ष, लुप्त होती विरासत को बचाये रखने की जिजीविषा, छले जाने के बाद भी न छलने का जीवट जैसे  जीवनमूल्यों पर केंद्रित "खम्मा" युवा तथा चर्चित उपन्यासकार अशोक जमनानी की पाँचवी कृति है. को अहम्, बूढ़ी डायरी, व्यासगादी तथा छपाक से हिंदी साहत्य जगत में परिचित ही नहीं प्रतिष्ठित भी हो चुके अशोक जमनानी खम्मा में माँगणियार बींझा के आत्म सम्मान, कलाप्रेम, अनगढ़ प्रतिभा, भटकाव, कलाकारों के पारस्परिक लगाव-सहयोग, तथाकथित सभ्य पर्यटकों द्वारा शोषण, पारिवारिक ताने-बाने और जमीन के प्रति समर्पण की सनातनता को शब्दांकित कर सके हैं. 

                "जो कलाकार की बनी लुगाई, उसने पूरी उम्र अकेले बिताई" जैसे संवाद के माध्यम से कथा-प्रवाह को संकेतित करता उपन्यासकार ढोला-मारू की धरती में अन्तर्व्याप्त कमायचे और खड़ताल के मंद्र सप्तकी स्वरों के साथ 'घणी खम्मा हुकुम' की परंपरा के आगे सर झुकाने से इंकार कर सर उठाकर जीने की ललक पालनेवाले कथानायक बींझा की तड़प का साक्षी बनता-बनाता है. 

अकथ कहानी प्रेम की, किणसूं कही न जाय 
गूंगा को सुपना भया, सुमर-सुमर पछताय 

                मोहब्बत की अकथ कहानी को शब्दों में पिरोते अशोक, राहुल सांकृत्यायन और विजय दान देथा के पाठकों गाम्भीर्य और गहनता की दुनिया से गति और विस्तार के आयाम में ले जाते हैं. उपन्यास के कथासूत्र में काव्य पंक्तियाँ गेंदे के हार में गुलाब पुष्पों की तरह गूँथी गयी हैं. 

                बेकलू (विकल रेत) की तरह अपने वज़ूद की वज़ह तलाशता बींझा अपने मित्र सूरज और अपनी  संघर्षरत सुरंगी का सहारा पाकर अपने मधुर गायन से पर्यटकों को रिझाकर आजीविका कमाने की राह पर चल पड़ता है. पर्यटकों के साथ धन के सामानांतर उन्मुक्त अमर्यादित जीवनमूल्यों के तूफ़ान (क्रिस्टीना के मोहपाश में) बींझा का फँसना, क्रिस्टीना का अपने पति-बच्चों के पास लौटना, भींजा की पत्नी सोरठ द्वारा कुछ न कहेजाने पर भी बींझा की भटकन को जान जाना और उसे अनदेखा करते हुए भी क्षमा न कर कहना " आपने इन दिनों मुझे मारा नहीं पर घाव देते रहे… अब मेरी रूह सूख गयी है…  आप कुछ भी कहो लेकिन मैं आपको माफ़ नहीं कर पा रही हूँ… क्यों माफ़ करूँ आपको?' यह स्वर नगरीय स्त्री विमर्श की मरीचिका से दूर ग्रामीण भारत के उस नारी का है जो अपने परिवार की धुरी है. इस सचेत नारी को पति द्वारा पीटेजाने पर भी उसके प्यार की अनुभूति होती है, उसे शिकायत तब होती है जब पति उसकी अनदेखी कर अन्य स्त्री के बाहुपाश में जाता है. तब भी वह अपने कर्तव्य की अनदेखी नहीं करती और गृहस्वामिनी बनी रहकर अंततः पति को अपने निकट आने के लिये विवश कर पाती है. 

                उपन्यास के घटनाक्रम में परिवेशानुसार राजस्थानी शब्दों, मुहावरों, उद्धरणों और काव्यांशों का बखूबी प्रयोग कथावस्तु को रोचकता ही नहीं पूर्णता भी प्रदान करता है किन्तु बींझा-सोरठ संवादों की शैली, लहजा और शब्द देशज न होकर शहरी होना खटकता है. सम्भवतः ऐसा पाठकों की सुविधा हेतु किया गया हो किन्तु इससे प्रसंगों की जीवंतता और स्वाभाविकता प्रभावित हुई है. 

                कथांत में सुखांती चलचित्र की तरह हुकुम का अपनी साली से विवाह, उनके बेटे सुरह का प्रेमिका प्राची की मृत्यु को भुलाकर प्रतीची से जुड़ना और बींझा को विदेश यात्रा  का सुयोग पा जाना 'शो मस्त गो ऑन' या 'जीवन चलने का नाम' की उक्ति अनुसार तो ठीक है किन्तु पारम्परिक भारतीय जीवन मूल्यों के विपरीत है. विवाहयोग्य पुत्र के विवाह के पूर्व हुकुम द्वारा साली से विवाह अस्वाभाविक प्रतीत होता है. 

                सारतः, कथावस्तु, शिल्प, भाषा, शैली, कहन और चरित्र-चित्रण के निकष पर अशोक जमनानी की यह कृति पाठक को बाँधती है. राजस्थानी परिवेश और संस्कृति से अनभिज्ञ पाठक के लिये यह कृति औत्सुक्य का द्वार खोलती है तो जानकार के लिये स्मृतियों का दरीचा.... यह उपन्यास पाठक में अशोक के अगले उपन्यास की प्रतीक्षा करने का भाव भी जगाता है. 
********
- salil.sanjiv@gmail.com / divyanarmada.blogspot.in / 94251 83244 -

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

chaintan: ashok jamnani


काहे री बानी तू कुम्हलानी


Ashok Jamnani
- अशोक जमनानी
पिछले दिनों कहानी-पाठ के लिए दिल्ली जाना हुआ तो वहाँ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि और सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय की कही बात ने देर तक सोचने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में हमारी तीन सौ चालीस बोलियां हमेशा के लिए विलुप्त हो गईं और केवल तीन सौ चालीस बोलियां विलुप्त नहीं हुईं असल में उनके साथ-साथ तीन सौ चालीस संस्कृतियां भी विलुप्त हो गईं।एक देश जो अपने वैविध्य के सौंदर्य से पूरी दुनियां को चमत्कृत करता रहा हो और जब वो किसी तथाकथित समृद्धि का कोई बाना पहने, उसके साथ ही वो अपनी वाणी को दारिद्र्य देकर स्वयं को सदा-सदा के लिए श्री विहीन भी कर ले तो उसकी समृद्धि का यह दुशाला देह पर नहीं बल्कि अर्थी पर पड़े दुशाले की तरह ही लगता है।

संस्कृति इस देश की देह में प्राण की तरह बसती है और भाषाओं एवं बोलियों का वैविध्य इस प्राण को केवल तत्त्व मात्र नहीं रहने देता वरन इस तत्त्व को सगुण भी बनाता है। इस तत्त्व की महिमा ऐसी कि महल से लेकर झोपड़ी तक और संसद से लेकर सड़क तक वाणी का साम्राज्य रहता है और सामर्थ्य ऐसी कि कोई कबीर निर्गुण बखानता है तो उसे भी बानी का बाना ओढ़ना ही पड़ता है।क्या छूटा है इन भाषाओं से, इन बोलियों से … कुछ भी तो नहीं। फिर ऐसा क्या हो गया कि प्राणों के प्राण सूखने लगे ! भारत की समृद्ध भाषाएँ और बोलियां असमय ही प्राण विहीन होने लगीं !! कोस-कोस में बदलता पानी और बीस कोस में बदलती बानी अब बदलते नहीं बल्कि सूखे कंकाल बने मरघट के घट जा बैठे हैं!!!फ़िर वही उदारीकरण का गिरेबान पकड़कर, दोष का ठीकरा उसके माथे फोड़कर चाहूं तो बात ख़त्म कर दूँ, पर करूंगा नहीं। सोचता हूँ अपने गिरेबान में भी झांककर देख लूँ।

मैं जहाँ रहता हूँ उस मोहल्ले का नाम है-इतवारा बाज़ार। कभी इतवार का साप्ताहिक हाट घर के बाहर तक लगता था। कस्बा ज़रा छोटा था पर संस्कृति की समृद्धि बहुत बड़ी थी। वैसे भी बुंदेलखण्ड, निमाड़ , मालवा और भोपाल रियासत की सीमाओं ने मेरे क़स्बे को केवल स्पर्श ही नहीं किया है बल्कि अपनी भाषा-बोली के अंश भी इस कस्बे की भाषा में घोल दिए। इसलिए यहाँ की भाषा का वैविध्य भी अद्भुत था। फ़िर देखते ही देखते कस्बा बड़ा हो गया। इतवारा बाज़ार एक दिन लगने वाला हाट नहीं रहा बल्कि पक्की दुकानों की कतार अब घर तक आती है और सजी हुई दुकानों में जो संवाद है उसमें न तो बुंदेलखण्ड, न निमाड़ , न मालवा और न ही भोपाल रियासत का सुर गमकता है। उसमें तो बस एक रस होती अंग्रेज़ी घुसी खड़ी बोली का वर्चस्व है। कभी मैं इसे सभ्य समाज की भाषा समझाता था पर अब लगता है कि ये बाज़ारू बाना देह के लिए तो ठीक है पर न तो ये दिल तक पहुँचता है और न शेष अंतः करण को स्पर्श कर पाता है। और बात अगर यहाँ तक भी नहीं पहुँचती है तो घूंघट के पट खोलने का तो स्वप्न भी कौन देखे ?

कभी घर के बाहर तक आते इतवारी हाट में देहाती भाषा में बोलते लोगों के साथ वैसी ही भाषा में संवाद करता था। फ़िर पता नहीं कब असभ्य हो गया और तथाकथित सभ्य भाषा बोलने लगा। शायद उन विलुप्त हो गईं तीन सौ चालीस बोलियों में मेरे कस्बे की बोली भी होगी क्योंकि अब वो सुनाई देना बंद हो गयी है और केवल बोली नहीं मिटी बल्कि हाट की संस्कृति जबसे बाज़ार के रंग में रंगी है तो कितनी भद्दी और कैसी कुरंगी हो गयी है। दिल्ली में प्रभाकर श्रोत्रिय को सुन रहा था तो याद करने की कोशिश कर रहा था कि अपनी बोली जब बिछड़ी थी तो वो बरस कौन-सा था।पर अब ऐसी गैर ज़रूरी बातें कहाँ याद रहती हैं।

एक कबीर थे उन्होंने नलिनी से पूछा था - काहे री नलिनी तू कुम्हलानी ? तेरे तो नीचे सरोवर का पानी था !सोचता हूँ लुप्त हो चुकी तीन सौ चालीस बोलियों में से किसी एक से तो पूछूं कि काहे री बानी तू कुम्हलानी ? तेरे साथ तो ये महान हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी थे। पर सच कहूं तो पूछने में ख़तरा भी बहुत है। कहीं इस कुम्हलायी बानी के निर्जीव होंठों पर मेरी अंग्रेजी निष्ठ हिंदी को निहारकर कोई व्यंग्य स्मित उभरी तो बताइये मैं कहाँ मुंह छुपाऊंगा ?????