नव गीत :
संजीव 'सलिल'
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
कल से कल के
बीच आज है.
शीश चढा, पग
गिरा ताज है.
कल का गढ़
है आज खंडहर.
जड़ जीवन ज्यों
भूतों का घर.
हो चेतन
घुँघरू खनकाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जनगण-हित से
बड़ा अहम् था.
पल में माटी
हुआ वहम था.
रहे न राजा,
नौकर-चाकर.
शेष न जादू
या जादूगर.
पत्थर छप रह
कथा सुनाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जन-रंजन
जब साध्य नहीं था.
तन-रंजन
आराध्य यहीं था.
शासक-शासित में
यदि अंतर.
काल नाश का
पढता मंतर.
सबक भूत का
हम पढ़ पाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
गुरुवार, 19 नवंबर 2009
नव गीत : चलो भूत से मिलकर आएँ... -संजीव 'सलिल'
चिप्पियाँ Labels:
-acharya sanjiv 'salil',
Contemporary Hindi Poetry,
geet,
navgeet,
samyik hindi kavita
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
इतिहास पढने और समझने के लिए बड़े ही प्रभावी ढंग से उकसाया है आपने... आपकी तो हर रचना कमाल है तभी आचार्य हैं हम जैसे शिष्यों के..
समय मिले तो इस शिष्य की रचनाएँ पढ़ राह दिखाएँ... www.swarnimpal.blogspot.com पर
जय हिंद...
dr. ashok priyaranjan …
अच्छा लिखा है आपने । सहज विचार, संवेदनशीलता और रचना शिल्प की कलात्मकता प्रभावित करती है ।
मैने भी अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-घरेलू हिंसा से लहूलुहान महिलाओं का तन और मन-समय हो तो पढ़ें और कमेंट भी दें ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
कविताओं पर भी आपकी राय अपेक्षित है। कविता का ब्लाग है-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
लाजवाब!
आपकी रचना पर यही कहूँगा की लोग भूत से डरते हैं पर आपकी रचना भूत से प्रेम करना सिखाती है, सच यही भूत है.
एक टिप्पणी भेजें