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बुधवार, 4 नवंबर 2009

लघुकथा एकलव्य आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा

एकलव्य

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'

- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'

- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'

-हाँ बेटा.'

- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'


*****

22 टिप्‍पणियां:

nandan ने कहा…

नंदन ने कहा…
सूक्षम लघु-कहानी।

November 4, 2009 6:41 AM

madhu, mumbaee ने कहा…

मधु, मुंबई ने कहा…

सलिलजी,

बहुत खूब। उस बच्‍चे की ये मनोकामना पूरी हो जाये तो हम सभी सुखी हो जायें।

November 4, 2009 7:19 AM

nitesh ने कहा…

nitesh ने कहा…

सटीक

November 4, 2009 7:45 AM

Alok Kataria ने कहा…

बेनामी ने कहा…

ULTIMATE

November 4, 2009 7:48 AM

रितु रंजन ने कहा…

रितु रंजन ने कहा…

चार पंक्तियों की बडी कहानी।

November 4, 2009 7:54 AM

संगीता पुरी ने कहा…

संगीता पुरी ने कहा…

गजब की रचना !!

November 4, 2009 10:13 AM

nidhi agrval ने कहा…

निधि अग्रवाल ने कहा…

बहुत प्रभावित हुई इस लघुकथा से।

November 4, 2009 12:51 PM

अभिषेक सागर ने कहा…

अभिषेक सागर ने कहा…

बहुत अच्छी लघुकथा, बधाई।

November 4, 2009 12:56 PM

vishwash ने कहा…

vishwash ने कहा…

सत्य प्रस्तुत करती गजब कहानी।

November 4, 2009 1:14 PM

अवनीश तिवारी ने कहा…

अवनीश एस तिवारी ने कहा…

नेताओं के साथ आज के उन संतों का नाम लेकर आपने लघु कथा को दीर्घ कथा बना दिया है |

बधाई |

November 4, 2009 1:55 PM

महावीर, UK ने कहा…

महावीर ने कहा…
लघुकथा में थोड़े से शब्दों में ही एक पूरी कथा कह दी है आपने. बड़ी सटीक प्रभावशाली है.

November 5, 2009 12:47 AM

Divya Narmada ने कहा…

एकलव्य के सभी पाठकों को बहुत-बहुत धन्यवाद. आपका उत्साहवर्धन ही लेखन का पुरस्कार है.

Shanno Aggarwal ने कहा…

वाह! बच्चे ने बहुत अच्छी बात कही.

बेनामी ने कहा…

vartmaan me aise hi eklavyo ki aavashyakta hai,laghukatha me vartmaan vyavstha par karara prahar kiya hai,dekhat me chhote lage ghaav kare gambheer....wali katha hai,"Salil" mamaji ko meri srijan-kaamnaye...bhanja-rajeev.

Sudha Om Dhingra, usa ने कहा…

on November 11, 2009 at 12:44 am

दोनों लघुकथाएँ –बढ़िया.

बधाई.

समीर लाल ’उड़न तश्तरी’, canada ने कहा…

on November 11, 2009 at 1:12 am

विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना-वाकई आजकल ऐसे ही हाथों में है.

दोनों लधुकथाएँ-असरदार!!

nirmla.kapila ने कहा…

November 11, 2009 at 10:40 am

आचार्य जी की रचनाओं पर टिप्पणी दूँ ?
सूरज को दीप दिखाऊँ? ऐसा कैसे हो सकता है फिर भी कहे जा रही हूँ:
लाजवाब। बोधगम्य बधाई कुछ दिन की अनुपस्थिती के लिये क्षमा चाहती हूँ

pran sharma on ने कहा…

November 11, 2009 at 3:51 pm

Aacharya salil jee kee dono laghukathayen sraahniy hain.

manhanvillage ने कहा…

November 11, 2009 at 9:01 pm

बहुत खूब श्रीमान जी

महावीर शर्मा ने कहा…

हावीर on November 12, 2009 at 9:32 pm

आचार्य ‘सलिल’ जी के लेखन की एक अपनी प्रभावशाली शैली है जिसमें थोड़े से ही शब्दों में गहरी बात कह जाते हैं जो अंतिम वाक्य या शब्दों में एक दम समझ आता है. साथ ही आरम्भ से लेकर अंत तक रोचकता बनी रहती है. दोनों लघुकथाओं में आगे पढ़ने की उत्सुकता बनी रहती है. कथा के अंत में जो मोड़ आता है, वो लाजवाब हैं.

Devi nangrani, UK ने कहा…

Devi nangrani on November 12, 2009 at 10:39 pm

‘आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह आपने नहीं बताया था.
गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर

antim charan bejod hai!!!!!!!!!!!
laghukatha ki laghuta mein samaya arth bahut hi gahara aur arthpoorn laga. daad ke saath

sanjiv .salil' ने कहा…

sanjiv.salil' on November 13, 2009 at 7:51 pm

उत्साहवर्धन हेतु आप सभी का हार्दिक धन्यवाद.