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रविवार, 8 नवंबर 2009

नव गीत : संजीव 'सलिल'

नव गीत

संजीव 'सलिल'

शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश
करे मजूरी
भूखी सुखिया
फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जन गण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र
दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...

*

आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधे देखें,
बहरे सुन,
गूंगे बोलें,
हम चुप रह जाएँ.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...

*

1 टिप्पणी:

Divya Narmada ने कहा…

सुधा जी!

वन्दे मातरम.

आपकी अच्छी रचना को पढ़कर मन में उठे भाव आपको ही सादर समर्पित.

पतझर के रंग देखकर, आया मुझको याद.
आज ढला कल उगता, मत रो कर फरियाद..

देश-विदेश सभी जगह, पतझर दे सन्देश.
सुख-दुःख चुप रह झेल ले, हो उदास मत लेश..

सुधा-गरल दोनों 'सलिल'' प्रकृति के वरदान.
दे-ले जो वह सृष्टि में, पुजता ईश समान..

पतझर में पत्ते सभी, बदला करते रंग.
संसद को नेता करें, जैसे मिल बदरंग..

झर जाते देते नहीं, पत्ते रंग उधार.
रंग बदल बतला रहे, मुस्का गम में यार..

पतझर में होते नहीं, पत्ते तनिक उदास.
जल्दी ही उगें नए, करते 'सलिल' प्रयास.

झर-गिर फिर उठता मनुज, बढ़ता धर कर धीर.
पतझर से सीखे 'सलिल', चुप रह सहना पीर..