नवगीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
बैठ मुंडेरे
कागा बोले
काँव, काँव का काँव.
लोकतंत्र की चौसर
शकुनी चलता
अपना दाँव.....
*
जनता
द्रुपद-सुता बेचारी.
कौरव-पांडव
खींचें साड़ी.
बिलख रही
कुररी की नाईं
कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल
हुई है
सूनी अमराई.
पनघट सिसके
कहीं न दिखतीं
ननदी-भौजाई.
राजनीति ने
रिश्ते निगले
सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
नहीं भूख को दाना.
नादाँ स्वामी,
सेवक दाना
सबल करे मनमाना.
सूरज
अन्धकार का कैदी
आसमान पर छाँव...
*
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 12 नवंबर 2009
नवगीत: आचार्य संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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5 टिप्पणियां:
vaakai SOORAJ andhkar ke ADHEEN ho gayaa hai, achchha GEET.
aapke dwara lagaatar SAHYOG karne ka AABHAR.
November 11, 2009 10:40 PM
सलिल जी!
बहुत ही श्रेष्ठ नवगीत है. यह कुररी क्या होतीहै? आपने लिखा है कि बिलख रही कुररी की नाईं...
अजित जी !
वन्दे मातरम.
कुरर अर्थात क्रौंच पक्षी, कुररी अर्थात मादा कुरर जिसकी विरहपूर्ण चीत्कार को सुनकर महर्षि वाल्मीकि के मुख से प्रथम कविता निःसृत हुई और वे आदिकवि कहलाये.
आचार्य जी, उम्दा!!
मैं बस यही कहूँगी बहुत ही अच्छी रचना है !!!
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