कुल पेज दृश्य

शनिवार, 21 नवंबर 2009

नवगीत: मैं अपना / जीवन लिखता संजीव 'सलिल'

मैं अपना / जीवन लिखता

संजीव 'सलिल'

मैं अपना
जीवन लिखता
तुम कहते
गीत-अगीत है...
*
उठता-गिरता,
फिर भी चलता.
सुबह ऊग
हर साँझा ढलता.
निशा, उषा,
संध्या मन मोहें.
दें प्राणों को
विरह-विकलता.
राग-विराग
ह्रदय में धारे,
साथी रहे
अतीत हैं...
*
पाना-खोना,
हँसाना-रोना.
फसल काटना,
बीजे बोना.
शुभ का श्रेय
स्वयं ले लेना-
दोष अशुभ का
प्रभु को देना.
जन-मानकर
सच झुठलाना,
दूषित सोच
कुरीत है...
*
देखे सपने,
भूले नपने.
जो थे अपने,
आये ठगने.
कुछ न ले रहे,
कुछ न दे रहे.
व्यर्थ उन्हें हम
गैर कह रहे.
रीत-नीत में
छुपी हुई क्यों
बोलो 'सलिल'
अनीत है?...
****

3 टिप्‍पणियां:

sada ने कहा…

--सदा

'दोष अशुभ का प्रभु को देना' - बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ. बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए आभार.

NIRMALA KAPILA ने कहा…

निर्मला कपिला--

नमन है आपको भी और आपके गीत को भी. बहुत सुन्दर गीत है. बधाई.

Kusum Thakur ने कहा…

अभिव्यक्ति की जितनी भी तारीफ़ करूँ कम है .