मुक्तक सलिला :
संजीव
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दर्द ही हमसे डरेगा, हम डरें क्यों?
दर्द ही हमसे डरेगा, हम डरें क्यों?
हरण चैनो-अमन का हम ही करें क्यों?
पीर-पाहुन चंद दिन का अतिथि स्वागत-
फूल-फल चुप छाँह दें, नाहक झरें क्यों?
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ढाई आखर लिखे तेरे नाम मीता
बाँचते हैं ह्रदय की शत बार गीता
मेघ हैं हम तृषा हरते सकल जग की-
भरे जब-जब कोष करते 'सलिल' रीता
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कौन हैं? आये कहाँ से?, कहाँ जाएं?
संग हो कब-कौन? किसको कहाँ पाएं?
प्रश्न हैं पाथेय, पग-पग साथ देंगे-
उत्तरों का पता बढ़कर पूछ आयें।।
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ज्ञान को अभिमान खुद पर, जानता है
नव सृजन की शक्ति कब पहचानता है
लीक से हटकर रचे कुछ कलम जब जब-
उठा पत्थर तीर सम संधानता है
*
Sanjiv verma 'Salil'
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2 टिप्पणियां:
Kusum Vir द्वारा yahoogroups.com
बहुत ख़ूब, आचार्य जी l
sn Sharma द्वारा yahoogroups.com
वाह आचार्य जी ,
सटीक उपमा । क्या कहने -
' पीर-पाहुन चंद दिन का अतिथि ' वाह !
सादर कमल
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