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रविवार, 7 जनवरी 2018

२०१८ की लघुकथाएँ: ५
गिरगिटान
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अंतरजाल व मुख पुस्तक (इंटरनेट व फेसबुक) पर प्रकाशित रचनाओं की प्रशंसा तथा अच्छाइयाँ बताते-बताते उसने छंद सीखने की इच्छा जाहिर करते हुए मानक जानना चाहे। फिर अपनी बचकानी दोषों से लबालब रचनाएँ भेज कर परामर्श चाहा। रचनाओं में संशोधन के बाद उनका कायाकल्प हो जाने की बात कहते हुए उसने सिलसिला जरी रखा। उसके पाठक इन रचनाओं को उसकी लिखी मानकर उसे सराहते, संस्थाएँ पुरस्कृत करतीं जबकि रचनाएँ वस्तुत: उसके अकेले के द्वारा लिखी हुई नहीं थीं। 
एक कार्यक्रम के मध्य अचानक वह सामने पद गई किंतु अनदेखा कर जाने को हुई, तभी उसकी सखी ने आगंतुक को प्रणाम करते हुए कहा 'रुको! क्या इन्हें पहचान नहीं पा रही हो? मैं भी पहले कभी नहीं मिली पर चेहरे से अनुमान कर रही हूँ ये वही हैं जिनसे तुम पिछले दो साल से रचनाएँ सीखती और सुधरवाती रही हो। तुम तो दिन-रात इनकी प्रशंसा करतीं थीं।   
उसके चहरे का रंग उड़ता सा लगा किंतु खुद को सम्हाल कर तुरंत बोली- 'कभी मिली नहीं थी न, इसलिए नहीं पहचान सकी' और अनमनेपन से हाथ जोड़कर चल दी। उसकी सहेली चरण स्पर्श कर आगंतुक को आसंदी तक ले गई। उन्होंने मुड़कर देखा तो वह एक शायर से कुछ पूछती दिखी, पीछे झाड़ियों में रंग बदल रही थी गिरगिटान। 
*** ६-१-२०१८ ***
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