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शुक्रवार, 27 जून 2025

जून २७, दोहा, मुक्तक, लघुकथा, घनाक्षरी, वर्षा, भाभी, महामाया छंद, वृहदारण्यक उपनिषद,

सलिल सृजन जून २७
मुक्तक
गाहे-बगाहे निगाहें मिलाना
झुकाना-चुराना उठाना-गिराना
हँसना कहर ढा, गिराना बिजलियाँ
मुहब्बत का लिखना नया नित फ़साना
न पर्दे में रहना, न बाहर ही आना
न सूरत दिखाना, न सूरत छिपाना
है दिलकश ये मंज़र , चला दिल पे खंजर
दबा ओंठ दाँतों में चुप मुस्कुराना
मोती सी बूँदें केशों से झरतीं 
साँसों का संताप सब पल में हरतीं  
मरे प्यार में इनके जो ये उसी को 
करें प्यार उस पर जनम सात मरतीं  
२७.६.२०१५ 
०००
वृहदारण्यक उपनिषद
(शुक्ल यजुर्वेद, काण्वी शाखा)
*
शांतिपाठ
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ पूर्ण है वह; पूर्ण है यह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि निकालें, पूर्ण तब भी शेष रहता।।
प्रथम अध्याय
प्रथम ब्राह्मण : यज्ञाश्व
ॐ उषा सर यज्ञ-अश्व का, सूर्य नेत्र है, वायु प्राण है।
खुला हुआ मुख अग्नि देव है, संवत्सर यज्ञाश्व-आत्मा।।
पीठ द्युलोक; उदर नभ मंडल, पदस्थान भू; दिशा पार्श्व हैं।
दिशा अवांतर पसली उसकी, ऋतुएँ अंग; महीना संधि।।
दिवस-रात पद, नखत अस्थियाँ, मेघ मांस; बालू ऊवध्य है।
नाड़ी नदी; यकृत पर्वत है, ह्रदय औषधि, रोम वनस्पति।।
धड़ रवि उदयित, अधड़ अस्त रवि, तड़ित जम्हाई, सिर-गति गर्जन।
वर्षा मूत्र; वाक् हिनहिन ध्वनि, अश्व-रूप में यज्ञ सुकल्पित।१।
दिन प्रकटा बन महिमा सम्मुख, पूर्व समुद्र योनि है उसकी।
पीछे रात्रि प्रकट महिमावत, पश्चिम सिंधु योनि है उसकी।।
ये दोनों ही आगे-पीछे, महिमा संज्ञक ग्रह हैं हय के।
हय-सुर; बाजी गंधर्वों को, अर्वा-असुर; अश्व मनुजों को
वहन करे; है सिंधु बंधु अरु, सागर ही उद्गम है इसका।२।
ऊवध्य = अनपचा अन्न।
*
द्वितीय ब्राह्मण : प्रलय पश्चात् सृष्टि उत्पत्ति
पहले यहाँ नहीं था कुछ भी, मृत्यु-प्रलय से, सब आवृत्त था।
ढँका क्षुधा से, क्षुधा मृत्यु है, आत्मा होऊँ, ठान लिया यह।।
पूज-आचरण कर जल पाया, जान अर्क-अर्कत्व सुखी हो। १।
स्थूल भाग एकत्र जलार्की, पृथ्वी होकर आप थक गया।
थके-तपे तन प्रजापति के, से प्रकटा तेजाग्नि सारवत्।२।
तीन भाग हो, एक-एक दे, सूर्य-हवा को, प्राण त्रिभागी।
पूर्व शीश; दो विदिशा भुजवत, पश्चिम पूँछ; जाँघ विदिशाएँ।।
उत्तर-दक्षिण पार्श्व भाग हैं, पृष्ठ द्युलोक; उदर नभमंडल।
पृथ्वी ह्रदय; प्रजापति जल में, जो जाने; सर्वत्र प्रतिष्ठित।३।
काम्य अन्य तन हुआ; मृत्यु ने मनस त्रिवेद मिथुन को ध्याया।
उससे बीज हुआ संवत्सर, रहा गर्भ में प्रजापति के।
'भाण' वाक् कर मुख फैलाया, मारूँ; अन्न मिलेगा थोड़ा।।
सोचा, मन-वाणी से उसने, ऋक यजु साम छंद रच डाले।
यज्ञ प्रजा पशु की रचना की, जिसको रचा उसीको खाया।।
वह उपजाता-खाता सबको, यही अदिति का अदितित्व है।
जो जाने इस अदितित्व को, भोक्ता वह; सब भोग्य उसे हो।४-५।
करी कामना; यज्ञ करूँ; हो भ्रमित; किया तप मृत्यु देव ने।
थके-तपे उस मृत्युदेव का, निकला यश अरु वीर्य; प्राण यह।
निकले प्राण फूलता है तन, मन रहता तब भी शरीर में।६।
करी कामना 'मेध्य' देह हो, देहवान मैं इससे होऊँ।
मेध्य देह अश्व सम फूली, यही अश्वमेधत्व जानिए।।
जो जाने अवरोधरहित हो, करता चिंतन प्रजापति का।
देव प्रजापति इसी भाव से, पशुओं को सुर तक पहुँचाए।।
सूर्य तपे जो अश्वमेध वह, संवत्सर तन; अग्नि अर्क है।
उसके हैं ये लोक-आत्मा, अग्नि-सूर्य अर्काश्वमेध हैं।।
मत्युरूप वे एक देवता, जो जाने ले जीत मृत्यु को।
मृत्यु न मारे; आप आत्म हो, वह देवों में एक देव हो।७।
२७-६-२०२२
***
मुक्तक
अरविंद किरणों से प्रकाशित हँस रही है मंजरी।
सुवासित अरविंद को को कर खिल रही है मंजरी।।
पुलक मंजीरा बजाता झूम ध्रुव तारा सुना
राई कजरी मौन अपलक सुन रही है मंजरी
***
मात्रिक लौकिक जातीय
वार्णिक प्रतिष्ठा जातीय
महामाया छंद
सूत्र - य ला।
*
सुनो मैया
पड़ूँ पैंया
बजा वीणा
हरो पीड़ा
महामाया
करो छैंया
तुम्हीं दाता
जगत्त्राता
उबारो माँ
थमा बैंया
मनाऊँ मैं
कहो कैसे
नहीं जानूँ
उठा कैंया
तुम्हारा था
तुम्हारा हूँ
न डूबे माँ
बचा नैया
भुलाओ ना
बुलाओ माँ
तुम्हें ही मैं
भजूँ मैया
२७-६-२०२०
***
दोपदी
वक्त के बदलाव कहते हैं कि हम गंभीर हों।
सजे लब पे मुस्कुराहट पर वजह कोई तो हो।
***
स्मृति गीत:
*
भाभी श्री की पुण्य याद प्रेरक पूँजी, पाथेय मुझे है।
*
मीठी सी मुस्कान, नयन में नेह, वाक् में घुली शर्करा।
ममतामय स्पर्श शीश पर कर पल्लव का पा तन तरा।
भेद न कोई निज-पर में था, 'भैया! बहुत दिनों में आए।'
मिसरी जैसा उपालंभ जिससे असीम वात्सल्य था झरा।
भाभी श्री की मधुर-मृदुल छवि, कहूँ न पर संज्ञेय मुझे है।
*
दादा की ही चिंता हर पल, क्यों होते कमजोर जा रहे।
नयन कामना, वाक् भावना, हर्ष गीत बन होंठ गा रहे।
माथे पर सिंदूरी सूरज, उषा उजास अँजोरे चेहरा।
दादा अपलक पल भर हेरें, कहें न कुछ पर तृप्ति पा रहे।
इनमें वे या उनमें ये हैं, नहीं रहा अज्ञेय मुझे है।
२७-६-२०१९
***
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
27.6.2018
***
घनाक्षरी
लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को हमेशा गले, हँस के लगाइए|
लात मार दूर करें, दशमुख सा अनुज, शत्रुओं को न्योत घर, कभी भी न लाइए|
भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|
छल-छद्म, दाँव-पेंच, दन्द-फंद अपना के, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||
*
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|
पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|
चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह, कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|
गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||
(श्रृंगार तथा हास्य रस का मिश्रण)
*
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|
आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|
चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है|
गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं, जग है असार पर, सार बिन चले ना|
मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच, काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|
मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|
रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी, दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||
(श्लेष अलंकार वाली अंतिम पंक्ति में 'नार' शब्द के तीन अर्थ ज्ञान, पानी और स्त्री लिये गये हैं.)
*
बुन्देली
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुनगाइए|
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुननसराहिए|
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सोंनिबाहिए|
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारीजाइए||
छत्तीसगढ़ी
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीनाबहावथे|
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानीभावथे|
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरीइठलावथे|
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारीभावथे||
निमाड़ी
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट,उल्लूs की दुम हुयो|
मनखs को सुभाsव छे, नहीं सहे अभाव छे, हमेसs खांव-खांव छे, आपsसे तुम हुयो|
टीला पाणी झाड़s नद्दी, हाय खोद रएs पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पतानामालुम हुयो|
'सलिल' आँसू वादsला, धsरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा, दूरsमाsतम हुयो||
मालवी:
दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम|
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम||
कवित्त
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, बिजुरी गिरे धरा पे, फूल नभ सेझरे|
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो,नैना हैं भरे-भरे|
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया,दिल धीर न धरे|
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे नटरे||
राजस्थानी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?,होड़ तरां-तरां का||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़तरां-तरां का||
हिन्दी+उर्दू
दर्दे-दिल पीरो-गम, किसी को दिखाएँ मत, दिल में छिपाए रखें, हँस-मुस्कुराइए|
हुस्न के न ऐब देखें, देखें भी तो नहीं लेखें, दिल पे लुटा के दिल, वारी-वारी जाइए|
नाज़ो-अदा नाज़नीं के, देख परेशान न हों, आशिकी की रस्म है कि, सिरभी मुड़ाइए|
चलिए न ऐसी चाल, फालतू मचे बवाल, कोई न करें सवाल, नखरेउठाइए||
भोजपुरी
चमचम चमकल, चाँदनी सी झलकल, झपटल लपकल, नयन कटरिया|
तड़पल फड़कल, धक्-धक् धड़कल, दिल से जुड़ल दिल, गिरलबिजुरिया|
निरखल परखल, रुक-रुक चल-चल, सम्हल-सम्हल पग, धरलगुजरिया|
छिन-छिन पल-पल, पड़त नहीं रे कल, मचल-मचल चल, चपलसंवरिया||
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घनाक्षरी: वर्णिक छंद, चतुष्पदी, हर पद- ३१ वर्ण, सोलह चरण- हर पद के प्रथम ३ चरण ८ वर्ण, अंतिम ४ चरण ७ वर्ण.
***
मैथिली हाइकु
स्नेह करब
हमर मंत्र अछि
गले लगबै
***
लघुकथा
दुहरा चेहरा
*
- 'क्या कहूँ बहनजी, सच बोला नहीं जाता और झूठ कहना अच्छा नहीं लगता इसीलिये कहीं आना-जाना छोड़ दिया. आपके साथ तो हर २-४ दिन में गपशप होती रही है, और कुछ हो न हो मन का गुबार तो निकल जाता था. अब उस पर भी आपत्ति है.'
= 'आपत्ति? किसे?, आपको गलतफहमी हुई है. मेरे घर में किसी को आपत्ति नहीं है. आप जब चाहें पधारिये और निस्संकोच अपने मन की बात कर सकती हैं. ये रहें तो भी हम लोगों की बातों में न तो पड़ते हैं, न ध्यान देते हैं.'
- 'आपत्ति आपके नहीं मेरे घर में होती है. वह भी इनको या बेटे को नहीं बहूरानी को होती है.'
= 'क्यों उन्हें हमारे बीच में पड़ने की क्या जरूरत? वे तो आज तक कभी आई नहीं.'
-'आएगी भी नहीं. रोज बना-बनाया खाना चाहिए और सज-धज के निकल पड़ती है नेतागिरी के लिए. कहती है तुम जैसी स्त्रियाँ घर का सब काम सम्हालकर पुरुषों को सर पर चढ़ाती हैं. मुझे ही घर सम्हालना पड़ता है. सोचा था बहू आयेगी तो बुढ़ापा आराम से कटेगा लेकिन महारानी तो घर का काम करने को बेइज्जती समझती हैं. तुम्हारे चाचाजी बीमार रहते हैं, उनकी देख-भाल, समय पर दवाई और पथ्य, बेटे और पोते-पोती को ऑफिस और स्कूल जाने के पहले खाना और दोपहर का डब्बा देना. अब शरीर चलता नहीं. थक जाती हूँ.'
='आपकी उअमर नहीं है घर-भर का काम करने की. आप और चाचाजी आराम करें और घर की जिम्मेदारी बहु को सम्हालने दें. उन्हें जैसा ठीक लगे करें. आप टोंका-टाकी भर न करें. सबका काम करने का तरीका अलग-अलग होता है.'
-'तो रोकता कौन है? करें न अपने तरीके से. पिछले साल मैं भांजे की शादी में गयी थी तो तुम्हारे चाचाजी को समय पर खाना-चाय कुछ नहीं मिला. बाज़ार का खाकर तबियत बिगाड़ ली. मुश्किल से कुछ सम्हली है. मैंने कहा ध्यान रखना था तो बेटे से नमक-मिर्च लगाकर चुगली कर दी और सूटकेस उठाकर मायके जाने को तैयार ही गयी. बेटे ने कहा तो कुछ नहीं पर उसका उतरा हुआ मुँह देखकर मैं समझ गई, उस दिन से रसोई में घुसती ही नहीं. मुझे सुना कर अपनी सहेली से कह रही थी अब कुछ कहा तो बुड्ढे-बुढ़िया दोनों को थाने भिजवा दूँगी. दोनों टाइम नाश्ते-खाने के अलावा घर से कोई मतलब नहीं.'
पड़ोस में रहनेवाली मुँहबोली चाची को सहानुभूति जता, शांत किया और चाय-नाश्ता कराकर बिदा किया. घर में आयी तो चलभाष पर ऊँची आवाज में बात कर रही उनकी बहू की आवाज़ सुनायी पड़ी- ' माँ! तुम काम मत किया करो, भाभी से कराओ. उसका फर्ज है तुम्हारी सेवा करे....'
मैं विस्मित थी स्त्री हितों की दुहाई देनेवाली शख्सियत का दुहरा चेहरा देखकर.
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***
मुक्तक
*
प्राण, पूजा कर रहा निष्प्राण की
इबादत कर कामना है त्राण की
वंदना की, प्रार्थना की उम्र भर-
अर्चना लेकिन न की संप्राण की
.
साधना की साध्य लेकिन दूर था
भावना बिन रूप ज्यों बेनूर था
कामना की यह मिले तो वह करूँ
जाप सुनता प्रभु न लेकिन सूर था
.
नाम ले सौदा किया बेनाम से
पाठ-पूजन भी कराया दाम से
याद जब भी किया उसको तो 'सलिल'
हो सुबह या शाम केवल काम से
.
इबादत में तू शिकायत कर रहा
इनायत में वह किफायत कर रहा
छिपाता तू सच, न उससे कुछ छिपा-
तू खुदी से खुद अदावत कर रहा
.
तुझे शिकवा वह न तेरी सुन रहा
है शिकायत उसे तू कुछ गुन रहा
है छिपाता ख्वाब जो तू बुन रहा-
हाय! माटी में लगा तू घुन रहा
.
तोड़ मंदिर, मन में ले मन्दिर बना
चीख मत, चुप रह अजानें सुन-सुना
छोड़ दे मठ, भूल गुरु-घंटाल भी
ध्यान उसका कर, न तू मौके भुना
.
बन्दा परवर वह, न तू बन्दा मगर
लग गरीबों के गले, कस ले कमर
कर्मफल देता सभी को वह सदा-
काम कर ऐसा दुआ में हो असर
२७-६-२०१७
***
दोहा सलिला
*
जिसे बसाया छाँव में, छीन रहा वह ठाँव
आश्रय मिले न शहर में, शरण न देता गाँव
*
जो पैरों पर खड़े हैं, 'सलिल' उन्हीं की खैर
पैर फिसलते ही बनें, बंधु-मित्र भी गैर
*
सपने देखे तो नहीं, तुमने किया गुनाह
किये नहीं साकार सो, जीवन लगता भार
*
दाम लागने की कला, सीख किया व्यापार
नेह किया नीलाम जब, साँस हुई दुश्वार
*
माटी में मिल गए हैं, बड़े-बड़े रणवीर
किन्तु समझ पाए नहीं, वे माटी की पीर
*
नाम रख रहे आज वे, बुला-मनाकर पर्व
नाम रख रहे देख जन, अहं प्रदर्शन गर्व
*
हैं पत्थर के सनम भी, पानी-पानी आज
पानी शेष न आँख में, देख आ रही लाज
२७-६-२०१७
***
भारत के नेताओं को अयोग्य समझा था चर्चिल ने
स्व. खुशवंत सिंह
चाहता हूं कि मेरे पाठक विशेषकर युवा पीढ़ी विजेन्द्र गुप्ता द्वारा भेजे गए इस दिलचस्प लेख को मेरे साथ साझा करें, 'जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने 1947 में इंडियन इंडिपेन्डेंस बिल पेश किया और ब्रिटिश पार्लियामेंट में इस पर बहस हो रही थी तो इंग्लैंड के युद्ध कालीन प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल ने गुस्से से टिप्पणी की 'लुच्चे, बदमाशों और मुफ्तखोरों के हाथ में सत्ता चली जाएगी। सभी भारतीय नेता मामूली काबलियत वाले और तिनके की तरह होंगे। उनकी मीठी जुबान और दिल में बदमाशी होगी (मुंह में राम बगल में छुरी)। वह सत्ता के लिए आपस में लड़ेंगे और भारत राजनीतिक गुटबंदी में खो जाएगा। पानी की बोतल या रोटी का टुकड़ा तक टैक्स लगने से नहीं बचेगा। सिर्फ हवा मुफ्त मिलेगी और इन लाखों भूखे लोगों का खून एटली के सिर पर होगा।' हम निश्चय ही अतुलनीय राष्ट्र हैं। हमने बहुत मेहनत की है और निश्चित रूप से खुद को सही सिद्ध किया है।
आवारा कुत्तों की मुसीबत
मनुष्य द्वारा जानवरों या पक्षियों के साथ संबंध बनाने में सबसे अधिक नजदीकी कुत्तों के साथ देखी गई है। मैं इस बात का ताकीद अपने जर्मन शैपर्ड (एलसेशियन) के साथ अपने 14 साल के साथ को देखते हुए कह सकता हूं। मैं उसे सिमबा कहता था जिसका अर्थ सुवाहिली भाषा में शेर है। मुझे वह पिल्ले के रूप में मिला और जीवनभर मेरे साथ रहा। असली बात तो यह है कि मैंने ही उसकी मौत के वारंट पर हस्ताक्षर किए थे जब मुझे एहसास हुआ कि उसके 14 साल पूरे हो चुके हैं और वह बहुत बूढ़ा हो गया है और लगातार बीमार रहता है। मैंने एक पिक्चर भी देखी जिसमें श्रीनगर की गलियों में कुत्तों को मनुष्यों पर हमला करते हुए और खाते हुए दिखाया गया था। उनके साथ सबसे अच्छा क्या हो सकता है। मुझे कोई संदेह नहीं है कि सबसे अच्छा यही है कि उन्हें सही वक्त पर हमेशा के लिए सुला दिया जाए। मुझे यह काम अपने बहुत ही प्यारे सिमबा के लिए करना पड़ा। मैंने उसका इलाज कर रहे वेट से कहा कि उसे टॉनिक की ओवर डोज दी दी जाए। उसका अंत शांतिपूर्वक हुआ। हमारे बीच जरा भी दुर्भावना नहीं थी। दुनिया के एक बड़े हिस्से में मुनष्य कुत्ते के गोश्त पर जिंदा रहते हैं। आसाम से लेकर जापान तक के देशों में इसे अच्छा व्यंजन माना जाता है। मुझे जापान में गीशा हाउस की विदाई पार्टी में कुत्ते का गोश्त परोसा गया और मैंने इसका भरपूर स्वाद लिया जिसे कि गीश यह कहते हुए पेश कर रही थी 'अगर मैं बताऊंगी तो आप पसंद नहीं करोगे।' उसके बाद मैंने कभी भी गीश से नहीं पूछा कि जो कुछ भी मुझे दिया जा रहा था वह क्या था जो मुझे स्वादिष्ट लगा।
***
एक रचना:
*
चारु चन्द्र राकेश रत्न की
किरण पड़े जब 'सलिल' धार पर
श्री प्रकाश पा जलतरंग सी
अनजाने कुछ रच-कह देती
कलकल-कुहूकुहू की वीणा
विजय-कुम्भ रस-लय-भावों सँग
कमल कुसुम नीरजा शरण जा
नेह नर्मदा नैया खेती
आ अमिताभ सूर्य ऊषा ले
विहँस खलिश को गले लगाकर
कंठ धार लेता महेश बन
हो निर्भीक सुरेन्द्र जगजयी
सीताराम बने सब सुख-दुःख
धीरज धर घनश्याम बरसकर
पाप-ताप की नाव डुबा दें
महिमा गाकर सद्भावों की
दें संतोष अचल गौतम यदि
हो आनंद-सिंधु यह जीवन
कविता प्रणव नाद हो पाये
हो संजीव सृष्टि सब तब ही.
२७-६-२०१५

***

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

कहानी, भाभी, महादेवी वर्मा


कहानी 
भाभी
महादेवी वर्मा
*
        इतने वर्ष बीत जाने पर भी मेरी स्मृति, अतीत के दिन-प्रतिदिन गाढ़े होनेवाले धुंधलेपन में एक-एक रेखा खींचकर उस करुण, कोमल मुख को मेरे सामने अंकित ही नहीं सजीव भी कर देती है। छोटे गोल मुख की तुलना में कुछ अधिक चौड़ा लगनेवाला, पर दो काली रूखी लटों से सीमित ललाट, बचपन और प्रौढ़ता को एक साथ अपने भीतर बंद कर लेने का प्रयास-सा करती हुई, लंबी बरौनियोंवाली भारी पलकें और उनकी छाया में डबडबाती हुई-सी आँखें, उस छोटे मुख के लिए भी कुछ छोटी सीधी-सी नाक और मानो अपने ऊपर छपी हुई हँसी से विस्मित होकर कुछ खुले रहनेवाले ओठ समय के प्रवाह से फीके भर हो सके हैं, धुल नहीं सके।

        घर के सब उजले-मैले, सहज- कठिन कामों के कारण, मलिन रेखा-जाल से गुँथी और अपनी शेष लाली को कहीं छिपा रखने का प्रयत्न-सा करती हुई कहीं कोमल, कहीं कठोर हथेलियाँ, काली रेखाओं में जड़े कांतिहीन नखों से कुछ भारी जान पड़ने वाली पतली उँगलियाँ, हाथों का बोझ सँभालने में भी असमर्थ-सी दुर्बल, रूखी पर गौर बाँहें और मारवाड़ी लहँगे के भारी घेर से थकित से, एक सहज-सुकुमारता का आभास देते हुए, कुछ लंबी उँगलियों वाले दो छोटे-छोटे पैर, जिनकी एड़ियों में आँगन की मिट्टी की रेखा मटमैले महावर-सी लगती थी, भुलाए भी कैसे जा सकते हैं? उन हाथों ने बचपन में न जाने कितनी बार मेरे उलझे बाल सुलझा कर बड़ी कोमलता से बाँध दिए थे। वे पैर न जाने कितनी बार, अपनी सीखी हुई गंभीरता भूल कर मेरे लिए द्वार खोलने, आँगन में एक ओर से दूसरी ओर दौड़े थे, किस तरह मेरी अबोध अष्टवर्षीय बुद्धि ने उससे भाभी का संबंध जोड़ लिया था, यह अब बताना कठिन है। मेरी अनेक सह-पाठिनियों के बहुत अच्छी भाभियाँ थीं; कदाचित् उन्हीं की चर्चा सुन-सुन कर मेरे मन ने, जिसने अपनी तो क्या दूर के संबंध की भी कोई भाभी न देखी थी, एक ऐसे अभाव की सृष्टि कर ली, जिसको वह मारवाड़ी विधवा वधू दूर कर सकी।

        बचपन का वह मिशन स्कूल मुझे अब तक स्मरण है, जहाँ प्रार्थना और पाठ्यक्रम की एकरसता से मैं इतनी रुआँसी हो जाती थी कि प्रतिदिन घर लौटकर नींद से बेसुध होने तक सबेरे स्कूल न जाने का बहाना सोचने से ही अवकाश न मिलता था। उन दिनों मेरी ईर्ष्या का मुख्य विषय नौकरानी की लड़की थी, जिसे चौका बर्तन करके घर में रहने को तो मिल जाता था। जिस कठोर ईश्वर ने मेरे भाग्य में नित्य स्कूल जाना लिख दिया था, वह माँ के ठाकुर जी में से कोई है या मिशन की सिस्टर का ईसू, यह निश्चय न कर सकने के कारण मेरा मन विचित्र दुविधा में पड़ा रहता था। यदि वह माँ के ठाकुर जी में से है, तो आरती पूजा से जी चुराते ही क्रुद्ध होकर मेरे घर रहने का समय और कम कर देगा और यदि स्कूल में है, तो बहाना बनाकर न जाने से पढ़ाई के घंटे और बढ़ा देगा, इसी उधेड़-बुन में मेरा मन पूजा, आरती, प्रार्थना सब में भटकता ही रहता था। इस अंधकार में प्रकाश की एक रेखा भी थी। स्कूल निकट होने के कारण बूढ़ी कल्लू की माँ मुझे किताबों के साथ वहाँ पहुँचा भी आती थी और ले भी आती थी और इस आवागमन के बीच में, कभी सड़क पर लड़ते हुए कुत्ते, कभी उनके भटकते हुए पिल्ले, कभी किसी कोने में बैठ कर पंजों से मुँह धोती हुई बिल्ली, कभी किसी घर के बरामदे में लटकते हुए पिंजड़े में मनुष्य की स्वर-साधना करता हुआ गंगाराम, कभी बत्तख और तीतरों के झुंड, कभी तमाशा दिखलानेवालों के टोपी लगाए हुए बंदर, ओढ़नी ओढ़े हुए बंदरिया, नाचनेवाला रीछ आदि स्कूल की एकरसता दूर करते ही रहते थे।

        हमारे ऊँचे घर से कुछ ही हटकर, एक ओर रंगीन, सफेद, रेशमी और सूती कपड़ों से और दूसरी ओर चमचमाते हुए पीतल के बर्तनों से सजी हुई एक नीची-सी दूकान में जो वृद्ध सेठजी बैठे रहते थे, उन्हें तो मैंने कभी ठीक से देखा ही नहीं; परंतु उस घर के पीछे वाले द्वार पर पड़े हुए पुराने टाट के परदे के छेद से जो आँखें प्रायः मुझे आते-जाते देखती रहती थीं, उनके प्रति मेरा मन एक कुतूहल से भरने लगा। कभी-कभी मन में आता था कि परदे के भीतर झाँक कर देखूँ; पर कल्लू की माँ मेरे लिए उस जंतुविशेष से कम नहीं थी, जिसकी बात कह कह कर बच्चों  को डराया जाता है। उसका कहना न मानने से वह नहलाते समय मेरे हाल ही में छिदे कान की लौ दुखा सकती थी, चोटी बाँधते समय बालों को खूब खींच सकती थी, कपड़े पहनाते समय तंग गलेवाले फ्राक को आँखों पर अटका सकती थी, घर में और स्कूल में मेरी बहुत-सी झूठी सच्ची शिकायत कर सकती थी। सारांश यह कि उसके पास प्रतिशोध लेने के बहुत-से साधन थे परंतु कल्लू की माँ को चाहे उन आँखों की स्वामिनी से मेरा परिचय न भाता हो; पर उसकी कथा सुनाने में उसे अवश्य रस मिलता रहा। वह अनाथिनी भी है और अभागी भी। बूढ़े सेठ सबके मना करते-करते भी इसे अपने इकलौते लड़के से ब्याह लाये और उसी साल लड़का बिना बीमारी के ही मर गया। अब सेठजी का इसकी चंचलता के मारे नाक में दम है। न इसे कहीं जाने देते हैं, न किसी को अपने घर आने। केवल अमावस-पूनो एक ब्राह्मणी आती है, जिसे वे अपने-आप खड़े रहकर, सीधा दिलवाकर विदा कर देते हैं।वे बेचारे तो जाति-बिरादरी में भी इसके लिए बुरे बन गए हैं और इसकी निर्लज्जता देखो -ससुर दूकान में गए नहीं कि वह परदे से लगी नहीं।घर में कोई देखनेवाला है ही नहीं। एक ननद है, जो शहर ससुराल होने के कारण जब-तब आ जाती है और तब उसकी खूब ठुकाई होती है, इत्यादि-इत्यादि सूचनाएँ कल्लू की माँ की विशेष शब्दावली और विचित्र भाव-भंगियों के साथ मुझे स्कूल तक मिलती रहती थीं। परंतु उस समय वे सूचनाएँ मेरे निकट उतना ही महत्त्व रखती थीं, जितनी नानी से सुनी हुई बेला की कहानी।कथा में बेचैन कर देनेवाला सत्य इतना ही था कि कहानी की राजकुमारी की आँखें पुराने टाट के परदे से सुनने वाली बालिका को नित्य ताकती ही रहती थीं।  यह स्थिति तो कुछ सुखद नहीं कही जा सकती। यदि सुनी हुई कहानी के सब राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी, दैत्य, दानव आदि सुननेवालों को इस प्रकार देखने लगें, तो कहानी सुनने का सब सुख चला जावे, यह कल्लू की माँ की कहानी और परदे के छेद से देखनेवाली आँखों ने मुझे समझा दिया था।

        भूरे टाट में जड़ी-सी वे काली आँखें मेरी कल्पना का विषय ही बनी रहतीं, यदि एक दिन पानी बरसने से कल्लू की माँ रुक न गई होती, पानी थमते ही मैं स्कूल से अकेले ही चल न दी होती और गीली सड़क पर उस परदे के सामने ही मेरा पैर न फिसल गया होता। बच्चे गिरकर प्रायः चोट के कारण न रोकर, लज्जा से ही रोने लगते हैं। मेरे रोने का भी कदाचित् यही कारण रहा होगा, क्योंकि चोट तो मुझे याद नहीं आती। कह नहीं सकती कि परदे से निकलकर, कब उन आँखों की स्वामिनी ने मुझे आँगन में खींच लिया; परंतु सहसा विस्मय से मेरी रुलाई रुक गई। एक दुर्बल पर सुकुमार बालिका जैसी स्त्री अपने अंचल से मेरे हाथ और कपड़ों का कीचड़ मिला पानी पोंछ रही थी और भीतर दालान से वृद्ध सेठ का कुछ विस्मित स्वर कह रहा था - 'अरे! यह तो वर्मा साहब की बाई है।'

        उसी दिन से वह घर, जिसमें न एक भी झरोखा था न रोशनदान, न एक भी नौकर दिखाई देता था, न अतिथि और न एक भी पशु रहता था, न पक्षी, मेरे लिए एक आकर्षण बनने लगा। उस समाधि-जैसे घर में लोहे के प्राचीर से घिरे फूल के समान वह किशोरी बालिका बिना किसी संगी-साथी, बिना किसी प्रकार के आमोद-प्रमोद के, मानो निरंतर वृद्धा होने की साधना में लीन थी। वृद्ध एक ही समय भोजन करते थे और वह तो विधवा ठहरी। दूसरे समय भोजन करना ही यह प्रमाणित कर देने के लिए पर्याप्त था कि उनका मन विधवा के संयम प्रधान जीवन से ऊबकर किसी विपरीत दिशा में जा रहा है। प्रायः निराहार और निरंतर मिताहार से दुर्बल देह से वह कितना परिश्रम करती थी, यह मेरी बालक-बुद्धि से भी छिपा न रहता था। जिस प्रकार उसका, खँडहर जैसे घर और लंबे-चौड़े आँगन को बैठ-बैठकर बुहारना, आँगन के कुएँ से अपने और ससुर के स्नान के लिए ठहर-ठहर कर पानी खींचना और धोबी के अभाव में, मैले कपड़ों को काठ की मोगरी से पीटते हुए रुक-रुक कर साफ़ करना, मेरी हँसी का साधन बनता था, उसी प्रकार केवल जलती लकड़ियों से प्रकाशित, दिन में भी अँधेरी रसोई की कोठरी के घुटते हुए धुएँ में से रह-रह कर आता हुआ खाँसी का स्वर, कुछ गीली और कुछ सूखी राख से चाँदी - सोने के समान चमकाकर तथा कपड़े से पोंछकर ( मारवाड़ में काम में लाने के समय बर्तन पानी से धोए जाते हैं) रखते समय शिथिल उँगलियों से छूटते हुए बर्तनों की झनझनाहट मेरे मन में एक नया विषाद भर देती थी परंतु काम चाहे कैसा ही कठिन रहा हो, शरीर चाहे कितना ही क्लांत रहा हो, मैंने न कभी उसकी हँसी से आभासित मुख - मुद्रा में अंतर पड़ते देखा और न कभी काम रुकते देखा और इतने काम में भी उस अभागी का दिन द्रौपदी के चीर से होड़ लेता था। सबेरे स्नान, तुलसी पूजा आदि में कुछ समय बिताकर ही वह अपने अँधेरे रसोईघर में पहुँचती थी; परंतु दस बजते-बजते ससुर को खिला-पिला कर, उसी टाट के परदे से मुझे शाम को आने का निमंत्रण देने के लिए स्वतंत्र हो जाती थी। उसके बाद चौका बर्तन कूटना -‍ - पीसना भी समाप्त हो जाता; परंतु अब भी दिन का अधिक नहीं तो एक प्रहर शेष रह ही जाता था। दूकान की ओर जाने का निषेध होने के कारण वह अवकाश का समय उसी टाट के परदे के पास बिता देती थी, जहाँ से कुछ मकानों के पिछवाड़े और एक-दो आते-जाते व्यक्ति ही दिख सकते थे; परंतु इतना ही उसकी चंचलता का ढिंढोरा पीटने के लिए पर्याप्त था। 

        उस १९ वर्ष की युवती की दयनीयता आज समझ पाती हूँ, जिसके जीवन के सुनहरे स्वप्न गुड़ियों के घरौंदे के समान दुर्दिन की वर्षा में केवल बह ही नहीं गए, वरन् उसे इतना एकाकी छोड़ गए कि उन स्वप्नों की कथा कहना भी संभव न हो सका। ऐसी दशा में उसने आठ वर्ष की बालिका को ही अपने संगीहीन हृदय की सारी ममता सौंप दी; परंतु वह बालिका तो उसके संसार में प्रवेश करने में असमर्थ थी, इसी से उसने उसी के गुड़ियोंवाले संसार को अपनाया। वृद्ध भी अपनी बहू के लिए ऐसा निर्दोष साथी पाकर इतने प्रसन्न हुए कि स्वयं ही बड़े आदर-यत्न से मुझे बुलाने-पहुँचाने लगे  और माँ तो उस माता-पिताहीन विधवा बालिका की कथा सुनकर ही मुख फेरकर आँख पोंछने लगती थीं। इसी से धीरे-धीरे मेरी कुछ नाटी गुड़िया, उसका बेडौल सिरवाला पति, उसकी एक पैर से लंगड़ी सास, बैठने में असमर्थ ननद और हाथों के अतिरिक्त सब प्रकार से आकारहीन दोनों बच्चे, सब एक-एक कर भाभी की कोठरी में जा बैठे।  इतना ही नहीं, उनकी चक्की से लेकर गहनों तक सारी गृहस्थी और डोली से लेकर रेल तक सब सवारियाँ उसी खँडहर को बसाने लगीं। 

        भाभी को तो सफेद ओढ़नी और काला लहँगा या काली ओढ़नी और सफेद बूटीदार कत्थई लहँगा पहने हुए ही मैंने देखा था; पर उसकी ननद के लिए हर तीज-त्यौहार पर बड़े सुंदर रंगीन कपड़े बनते थे। कुछ भाभी की बटोरी हुई कतरन से और कुछ अपने घर से लाए हुए कपड़ों से गुड़ियों के लज्जा-निवारण का सुचारु प्रबंध किया जाता था। भाभी घाघरा, काँचली आदि अपने वस्त्र सीना जानती थी, अतः मेरी गुड़िया मारवाड़िन की तरह शृंगार करती थी; मैंने स्कूल में ढीला पाजामा और घर में कलीदार कुरता सीना सीखा था, अतः गुड्डा पूरा लाला जान पड़ता था; चौकोर कपड़े के टुकड़े के बीच छेद करके वही बच्चों के गले डाल दिया जाता था, अतः वे किसी आदिम युग की संतान से लगते थे ।         
        भाभी के लिए काला अक्षर भैंस बराबर था इसलिए उस पर मेरी विद्वत्ता की धाक भी सहज ही जम गई थी। प्रायः सभी पशुओं के अँगरेजी नाम बताकर और तस्वीरों वाली किताब से अँगरेजी की कविता बड़े राग से पढ़कर मैं उसे विस्मित कर चुकी थी, हिंदी की पुस्तक से 'माता का हृदय', 'भाई का प्रेम' आदि कहानियाँ सुनाकर उसकी आँखें गीली कर चुकी थी और अपने मामा को चिट्ठी लिखने की बात कहकर उसके मन में बीकानेर के निकट किसी गाँव में रहनेवाली बुआ की स्मृति जगा चुकी थी। वह प्रायः लंबी साँस लेकर कहती- पता नहीं जानती, नहीं तो तुमसे एक चिट्ठी लिखवा कर डाल देती। सब से कठिन दिन तब आते थे, जब वृद्ध सेठ की सौभाग्यवती पुत्री अपने नैहर आती थी। उसके चले जाने के बाद भाभी के दुर्बल गोरे हाथों पर जलने के लंबे, काले निशान और पैरों पर नीले दाग रह जाते थे; पर उनके संबंध में कुछ पूछते ही वह गुड़िया की किसी समस्या में मेरा मन अटका देती थी। उन्हीं दिनों स्कूल में कशीदा काढ़ना सीखकर मैंने अपनी धानी रंग की साड़ी में बड़े-बड़े नीले फूल काढ़े। भाभी को रंगीन कपड़े बहुत भाते थे, इसी से उसे देखकर वह ऐसी विस्मय-विमुग्ध रह गई, मानो कोई सुंदर चित्र देख रही हो। 

        मैंने क्यों माँ से हठ करके वैसा ही कपड़ा मँगवाया और क्यों किसी को बिना बताए हुए छिपा - छिपाकर ‘उस ओढ़नी पर नीले फूल काढ़ना आरंभ किया, यह आज भी समझ में नहीं आता। वह बेचारी बार-बार बुलवा भेजती, नए-नए गुड़ियों के कपड़े दिखाती, नए-नए घरौंदे बनाती; पर फिर भी मुझे अधिक समय तक ठहराने में असमर्थ होकर बड़ी निराश और करुण मुद्रा से द्वार तक पहुँचा जाती। उस दिन की बात तो मेरी स्मृति में गर्म लोहे से लिखी जान पड़ती है, जब उस ओढ़नी को चुपचाप छिपाकर मैं भाभी को आश्चर्य में डालने गई। शायद सावन की तीज थी, क्योंकि स्कूल के सीधे-सादे बिना चमक-दमक वाले कपड़ों के स्थान में मुझे गोटा लगी हुई लहरिए की साड़ी पहनने को मिली थी और सबेरे पढ़ने बैठने की बात न कहकर माँ ने हाथों में मेहँदी भी लगा दी थी। वह दालान में दरवाजे की ओर पीठ किए बैठी कुछ बीन रही थी, इसी से जब दबे पाँव जाकर मैंने उस ओढ़नी को खोलकर उसके सिर पर डाल दिया, तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। रंगों पर उसके प्राण जाते ही थे, उस पर मैंने गुड़ियों और खिलौनों से दूर अकेले बैठे-बैठे अपने नन्हे हाथों से उसके लिए उतनी लंबी-चौड़ी ओढ़नी काढ़ी थी।  आश्चर्य नहीं कि वह क्षण भर के लिए अपनी उस स्थिति को भूल गई, जिसमें ऐसे रंगीन वस्त्र वर्जित थे और नए खिलौने से प्रसन्न बालिका के समान, एक बेसुधपन में उसे ओढ़, मेरी ठुड्डी पकड़कर खिलखिला पड़ी और जब किसी का विस्मय-विजड़ित 'बींदनी' (बहू) सुनकर उसकी सुधि लौटी, तब हतबुद्धि-से ससुर मानो गिरने से बचने के लिए चौखट का सहारा ले रहे थे और क्रोध से जलते अंगारे- जैसी आँखोंवाली, खुली तलवार - सी कठोर ननद, देहली से आगे पैर बढ़ा चुकी थी।  अवश्य ही तीज रही होगी; क्योंकि वृद्ध स्वयं पुत्री को लेने गए थे। 

        इसके उपरांत जो हुआ वह तो स्मृति के लिए भी अधिक करुण है। क्रूरता का वैसा प्रदर्शन मैंने फिर कभी नहीं देखा। बचाने का कोई उपाय न देखकर ही कदाचित् मैंने जोर-जोर से रोना आरंभ किया; परंतु बच तो वह तब सकी, जब मन से ही नहीं, शरीर से भी बेसुध हो गई।  वृद्ध मुझे कैसे घर पहुँचा गए, घबराहट से मैं कितने दिन ज्वर में पड़ी रही, यह सब तो गहरे कुहरे में छिप गया है; परंतु बहुत दिनों के बाद जब मैंने फिर उसे देखा, तब उन बचपन भरी आँखों में विषाद का गाढ़ा रंग चढ़ चुका था और वे ओठ, जिन पर किसी दिन हँसी छपी सी जान पड़ती थी, ऐसे काँपते थे, मानो भीतर का क्रंदन रोकने के प्रयास से थक गए हों। उस एक घटना से बालिका प्रौढ़ हो गई थी और युवती वृद्धा। 
फिर तो हम लोग इन्दौर से चले ही आए और एक-एक करके अनेक वर्ष बीत जाने पर ही मैं इस योग्य बन सकी कि उसकी कुछ खोज-खबर ले सकूँ। पता लगा कि छोटी दूकान के स्थान में एक विशाल अट्टालिका वर्षों पहले खड़ी हो चुकी है।  पता चला कि वधू की रक्षा का भार संसार को सौंप कर वृद्ध कभी के विदा हो चुके हैं; परंतु कठोर संसार ने उसकी कैसी रक्षा की, यह आज तक अज्ञात है। इतने बड़े मानव-समुद्र में उस छोटे-से बुदबुद की क्या स्थिति है, यह मैं जानती हूँ; परंतु तब भी कभी-कभी मन चाहता है कि बचपन में जिसने अपने जीवन के सूनेपन को भूलकर, मेरी गुड़ियों की गृहस्थी बसाई थी, खिलौनों का संसार सजाया था, उसे एक बार पा सकती। 

        आज भी जब कोई रंगीन कपड़ों के प्रति विरक्ति के संबंध में कौतुक भरा प्रश्न कर बैठता है, तो वह अतीत फिर वर्तमान होने लगता है।  कोई किस प्रकार समझे कि रंगीन कपड़ों में जो मुख धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगता है, वह कितना करुण और कितना मुरझाया हुआ है। कभी-कभी तो वह मुख मेरे सामने आने वाले सभी करुण क्लांत मुखों में प्रतिबिंबित होकर मुझे उसके साथ एक अटूट बंधन में बाँध देता है।  प्रायः सोचती हूँ- जब वृद्ध ने कभी न खोलने के लिए आँखें मूँद ली होंगी तब वह, जिसे उन्होंने संसार की ओर देखने का अधिकार ही नहीं दिया था, कहाँ गई होगी और तब-तब न जाने किस अनिष्ट संभावना से न जाने किस अज्ञात प्रश्न के उत्तर में मेरे मन की सारी ममता आर्त्त क्रंदन कर उठती है- नहीं... नहीं ... .
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