नवगीत:
शीत से कँपती धरा
उड़ाएँ सच की पतंग
बाँध जोता और माँझा,
बाँध जोता और माँझा,
हवाओं से छेड़ जंग
उत्तरायण की अँगीठी में
उत्तरायण की अँगीठी में
बढ़े फिर ताप-
आस आँगन का बदल
आस आँगन का बदल
रवि-रश्मियाँ दें रंग
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप
*
मुँडेरे श्रम-काग बैठे
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप
*
मुँडेरे श्रम-काग बैठे
सफलता को टेर
न्याय-गृह में देर
न्याय-गृह में देर
कर पाये न अब अंधेर
लोक पर हावी नहीं हो
सेवकों का तंत्र-
रजक-लांछित सिया वन
रजक-लांछित सिया वन
जाए न अबकी बेर
झोपड़ी में तम न हो
ना रौशनी में भूप
*
पड़ोसी दिखला न पाए
झोपड़ी में तम न हो
ना रौशनी में भूप
*
पड़ोसी दिखला न पाए
अब कभी भी आँख
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण
दबाले निज काँख
क्रौंच को कोई न शर
अब कभी पाये वेध-
आसमां को नाप ले
आसमां को नाप ले
नव हौसलों का पांख
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप
*
२१.१. २०१२
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