शिव दिक्-अंबर ओढ़कर,
घूम रहे निर्द्वंद।
घेरे हैं ऋषि-पत्नियां,
मन में अंतर्द्वंद।।
*
काश पा सकें संग तो,
पूरी हो हर आस।
शिव मुस्काते मौन रह,
मोह बना संत्रास।।
*
ऋषिगण ईर्ष्या-वश जले,
मिटा आत्म-संतोष।
मोह-कामवश पत्नियां,
बनीं लोभ का कोष।।
*
क्रोध-द्वेष-कामाग्निवश
हुए सभी संत्रस्त।
गंवा शांति-विश्वास सब,
निष्प्रभ ज्यों रवि अस्त।।
*
देख, न शिव को देखते,
रहे लिंग ही देख।
शिव से अंग अलग करें,
काल रहा हंस देख।।
*
मारो-छोड़ो वृत्तियां,
करा रहीं संघर्ष।
तत्व-ज्ञान विस्मृत हुआ,
आध्यात्मिक अपकर्ष।।
*
विधि-हरि से की प्रार्थना,
'देव! मिटाओ क्लेश।
राह दिखाओ शांति हो,
माया रहे न लेश।।
*
आत्मबोध पा ध्यान में,
लौटे शिव के पास।
हारे हम, शक-सर्प ही,
स्वीकारें उपहार।।
*
अवढरदानी दिगंबर,
हंसे ठठाकर खूब।
तत्क्षण सब अवसाद खो,
गए हर्ष में डूब।।
*
शिव-अनुकंपा से मिला,
सत्य सनातन ज्ञान।
प्रवृति मार्ग साधन सहज,
निवृति साध्य संधान।।
*
श्रेष्ठ न लिंग, न योनि है
हीन, नहीं असमान।
नर-नारी पूरक, न कर
शक, दे-पा सम मान।।
*
रहे प्रतिष्ठा परस्पर,
वरें राह अद्वैत।
पूजक-पूजित परस्पर,
बनें भुलाकर द्वैत।।
*
जग-जीवन-आधार जो,
करें उसी की भक्ति।
योनि-रूप सह वेदिका,
लिंग पूज लें शक्ति।।
*
बिंदु-सिंधु का समन्वय,
कर प्रवृत्ति है धन्य।
वीतराग समभाव से,
देख अलिप्त अनन्य।।
*
ऋषभदेव शिव दिगंबर,
इंद्रियजित हो इष्ट।
पुजें वेदिका-खंभवत,
हर भरते हर कष्ट।।
*
२६.१.२०१८, जबलपुर
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 26 जनवरी 2018
शिव दोहावली
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