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शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

जगदीश किंजल्क

जगदीश किंजल्क

जन्म- २५ नवंबर १९४८ टीकमगढ़, मध्य प्रदेश। निधन- २४ जनवरी २०२३ भोपाल। 
आत्मज- अंबिका प्रसाद वर्मा 'दिव्य', (१६ मार्च १९०७- ५ सितंबर ) राष्ट्रपति पुरस्कृत शिक्षक, कवि, उपन्यासकार, नाटककार, चित्रकार, क्रांतिकारी, समाज सेवी, ६० पुस्तकें, महाकाव्य गाँधी पारायण । उन्होंने शिक्षा विभाग में रहते हुये अपनी बेहतरीन शिक्षा पद्धति , बेहतरीन व्यवस्था और बेहतरीन कार्य शैली के लिये तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम डॉ .राजेन्द्र प्रसाद जी से आज की तिथि पांच सितम्बर को ही राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया था । उन्होंने पांच सितम्बर को ही सेवा काल से अवकाश ग्रहण किया था और स्मरणीय है कि पांच सितम्बर शिक्षक दिवस पर ही वे संसार को अलविदा कह गये ।
शिक्षा- एम. ए. (अंग्रेजी, हिंदी), बी.एड., डिप्लोमा पत्रकारिता।
संप्रति- कार्यक्रम अधिकारी आकाशवाणी टीकमगढ़, जबलपुर, सागर, भोपाल।
परिचर्चा सम्राट, कहानीकार, व्यंग्यकार, धर्मयुग से लंबा जुड़ाव।
संपादक- दिव्यालोक।
संयोजक- अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार।
शिक्षक मॉडल स्कूल भोपाल।
पुस्तकें- ९ सुकूने-जिगर, हम तो परनिंदा करिवे, जिंदगी कुछ पृष्ठों की आदि।
विशेष- एक हजार से अधिक परिचर्चाएँ।
उपलब्धि- जिंदगी कुछ पृष्ठों की पर द्वितीय पुरस्कार मध्य प्रदेश युवक कल्याण संचालनालय भोपाल द्वारा।
संचालनालय पंचायत एवं समाज सेवा भोपाल द्वारा अखिल भारतीय लोक कथा प्रतियोगिता १९७६-७७ में दो बार पुरस्कृत। 
संस्कृति-साहित्य-कला विद्यापीठ मथुरा द्वारा साहित्यलंकार १९७७। 
प्रेमचंद जन्म शताब्दी समारोह समिति जबलपुर द्वारा १९८२- उत्कृष्ट लेखक सम्मान। 
प्रगतिशील लेखक संघ टीकमगढ़ द्वारा बसंत पंचमी पर अभिनंदन। 
केशव जयंती समिति ओरछा द्वारा अभिनंदन १९८९। 
अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा साहित्य श्री १९९२। 
मध्य प्रदेश कला संगम पन्ना द्वारा अभिनंदन १९९३।
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My View : God is life and Life is God...!
----------------- Jagdish Kinjalk -----------
First priority of Man is to love his Life. Other priorities may be his Wife, Children,Health, Wealth etc.Question is - Why a man loves his life so much..? Where as he has no control on his Life. Life is given by the God. God has scheduled every moment of man's Life.
I think, Life is the man's Identity, that is why he loves it in priority. Much has been written by the Authors on Life. This is not the end of writing. Much more will be written on life in future. Still, no fully accepted definition is on the platform.
The biggest creation of God is Man. Second biggest creation is Life. Both are essential parts of each other. Some times I think - God is Life and Life is God. If you think some thing otherwise, please express your view also. Life may be explained in many ways. As many men so many definitions of Life may be.
Can you come forward with a new view about Life..?
@ Jagdish Kinjalk @
Email-- jagdishkinjalk@gmail.com
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My View : Never smile in front of weeping eyes...!
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We have no control on tears. They may come out any where, any time on any occasion. Tears and Smile, both are powerful expressions of human being. Both these expressions may give opposite, and inhuman results, if they are expressed in different situations. We are not supposed to smile on the occasion of sorrow, likewise weep on the occasion of happiness.
Some times we commit mistakes, without caring for other's emotions. Our smallest mistakes may deeply heart other's feelings. To hurt the feelings of others, is an act of inhumanity. We should be very much causes and should escape ourselves from this penetrating act. Here I remember a line of a poem of famous Poetess Smt. Vijai lakshmi Vibha. She writes...
" Jinki aankhon mai ask dikh jayan,
Unke aage na muskara dena... "
It means, " Never smile in front of persons, whose eyes may have tears..." This is a small saying with big message, and big humanity. Can we keep this thing in our minds always..to save the humanity...? Pl. go deep and deep to understand the feeling , which is hidden in this line...!
@ Jagdish Kinjalk @
My View : The Speed of Bad Name is much more than Good Name..!
---------------------------- Jagdish Kinjalk ----------------------------
We know well that Bad Name and Good Name, both are Names, but Bad Name runs very faster than Good Name. Not only this, the stability of Bad Name , is also much more than Good Name.
A Man has two choices only. Either he can earn Good Name or Bad Name. There is no mid way. I have heard some Politicians saying, " Name is Name, weather it is Good or Bad, Both give Publicity ...."
I think, No Name is also a silent Name. It has also potentiality . Let us do our work silently. Let the Name do it's work. Silent Name will walk slowly and will reach to it's destination in his own Time.
We should not run behind the Name . We should do our work silently and honestly. One day the Name itself decide the future of the Worker.
Let us leave this responsibility on the Name.We should do our work silently and honestly.
@ Jagdish Kinjalk @

भोपाल : मंगलवार, जनवरी 24, 2023, 
मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने वरिष्ठ लेखक और आकाशवाणी के सेवानिवृत्त अधिकारी श्री जगदीश किंजल्क के निधन पर दुख व्यक्त किया है। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि श्री किंजल्क एक आदर्श शिक्षक, लेखक और एक अच्छे मनुष्य के रूप में सदैव याद किए जाएंगे। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि स्व. किंजल्क जीवनभर साहित्य सृजन से जुड़े रहे, लेखन उन्हें विरासत में मिला था। किंजल्क जी ने परिचर्चा लेखन जैसी विधा को हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रतिष्ठा दिलवाई।

मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि स्व. श्री किंजल्क नए लेखकों को प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने साहित्य कर्मियों को पुरस्कार प्रदान करने का सेवा कार्य किया। उनकी सेवाओं को याद रखा जाएगा। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने ईश्वर से दिवंगत आत्मा की शांति और उनके परिजन को यह दुख सहन करने की शक्ति देने की प्रार्थना की है।

उल्लेखनीय है कि स्व. श्री किंजल्क ने भोपाल के एक निजी अस्पताल में अंतिम साँस ली। वे कुछ दिन से अस्वस्थ चल रहे थे। उनका अंतिम संस्कार बुधवार को भोपाल में होगा। स्व. श्री किंजल्क आकाशवाणी से लंबे समय तक जुड़े रहे। उन्होंने आकाशवाणी छतरपुर, भोपाल, जबलपुर, सागर, शिवपुरी को सेवाएँ दी। वे राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित हुए थे। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में परिचर्चा की विधा इजाद की। पत्रिका धर्मयुग से लंबे समय तक जुड़े रहे। देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे। स्व. श्री जगदीश किंजल्क ने मॉडल स्कूल भोपाल में शिक्षक के तौर पर भी सेवाएँ दी।

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परिचर्चा - सम्राट को श्रद्धांजलि
गंभीर सिंह पलानी 
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हिंदी में परिचर्चा विधा को ऊँचाईयों पर ले जाने वाले श्री जगदीश किंजल्क का दिनाँक २४ जनवरी २०२३ को भोपाल में निधन हो गया. आज भोपाल में साईंनाथ नगर स्थित उनके आवास पर उन की तेरहवीं का आयोजन किया गया है. इस अवसर पर मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ.
मैं उन के नाम से पहली बार तब परिचित हुआ जब मैं कक्षा ७-८ में पढ़ता था. प्रतिष्ठित पत्रिका 'धर्मयुग' में उनके द्वारा आयोजित परिचर्चायें प्रायः पढ़ने को मिलती. यह १९६७-६८ के दिनों की बात है . ज्यों - ज्यों मैं बड़ा होता गया और अन्य पत्रिकाओं के संपर्क में आया, उनमें भी किंजल्क जी द्वारा आयोजित सैंकड़ों परिचर्चायें पढ़ीं. कुछ लोगों ने तो उन्हें 'परिचर्चा सम्राट ' की उपाधि भी दे दी थी .
वर्ष १९९७ से उन्होंने प्रतिवर्ष अपने पिता सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार व नाटककार श्री अंबिका प्रसाद 'दिव्य ' की स्मृति में अंबिका प्रसाद 'दिव्य ' साहित्य सम्मान की घोषणा करना भी शुरु किया था. इस सम्मान से सम्मानित सारे लेखकों के नाम तो अभी मुझे याद नहीं आ रहे पर जो याद आ रहे हैं, वे हैं : मीरा कांत, सुधा ओम ढींगरा, उर्मिला शिरीष, शरद सिंह, बल्ली सिंह चीमा, पवन चौधरी 'मनमौजी ', शैलेय, शम्भू दत्त सती आदि.( जो - जो नाम मुझे याद आते जायेंगे, इस पोस्ट में बाद में जोड़ता जाऊँगा.)
वर्ष २००१ या २००२ में किंजल्क जी से मेरी पहली मुलाकात बड़े ही नाटकीय ढंग से नैनीताल बैंक, भीमताल (नैनीताल ) के बाहर एक रविवार को हुई जिसे एक दुर्लभ संयोग ही कहा जायेगा. उन दिनों मैं उक्त बैंक शाखा में प्रबंधक के पद पर कार्यरत था और वे आकाशवाणी : सागर में कार्यरत थे. हमारे बैंक के चेयरमैन श्री वी. के. वर्मा उन्हें अपने साथ भीमताल घुमाने लाये थे.
प्रख्यात व्यंग्य लेखक श्री अरविन्द तिवारी का एक उपन्यास है, 'हैड ऑफिस के गिरगिट.' उन दिनों वर्मा जी से मेरे संबंध अच्छे नहीं चल रहे थे चूँकि ऐसे गिरगिट मेरे खिलाफ भी सक्रिय थे और उन्होंने मेरे विरुद्ध वर्मा जी के कान भर रखे थे.
बैंक के बाहर जब कार रुकी तो श्री वर्मा ने किंजल्क जी से मेरा परिचय यह बतलाते हुए कराया,"ये जगदीश किंजल्क जी हैं, मेरे होने वाले समधी. आकाशवाणी : सागर में प्रोग्राम एग्जिक्यूटिव हैं. "
विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित किंजल्क जी का फोटो तो मैं पहचानता ही था. परिचर्चा में शामिल होने वाली उनकी पत्नी श्रीमती राजो किंजल्क के नाम से भी मैं परिचित था ही . मेरे मुँह से एकाएक निकल पड़ा, " किंजल्क जी, कैसे हैं आप? राजो किंजल्क जी कैसी हैं? मेरी जानकारी में तो आप आकाशवाणी : छतरपुर में कार्यरत थे. सागर कब पहुँच गये….. मैं गंभीर सिंह पालनी हूँ."
" अर् रे 'मेंढक' कहानी वाले गंभीर सिंह पालनी हैं आप? आपसे एकाएक इस तरह मुलाक़ात होगी – यह तो मैंने कभी सोचा न था."-- किंजल्क जी के मुँह से यह सब सुनकर वर्मा जी हतप्रभ रह गये.
उनके होने वाले समधी किंजल्क जी उनके बैंक में कार्यरत गंभीर सिंह पालनी को लेखक के रूप में पहचानते हैं – यह जानना उन्हें आश्चर्य में डाल गया था.
उस दिन भीमताल से लौटते हुए वर्मा जी मेरा कहानी - संग्रह 'मेंढक ' भी अपने साथ ले गये. उस दिन के बाद वर्मा जी की नजर में मेरा कद बढ़ गया था. मैं उन की 'गुड बुक्स ' में शामिल हो गया था. इसका दूरगामी परिणाम यह भी हुआ कि वर्मा जी के बैंक से चले जाने के बाद नये चेयरमैन मिस्टर ए. के. गर्ग के आने के कुछ दिनों बाद गिरगिट मेरे ट्रांसफर का ऑर्डर भीमताल से दिल्ली के लिये करवाने में कामयाब हो गये तो वर्मा जी ने नये चेयरमैन को फोन कर के मेरा ट्रांसफर रातों-रात कैंसिल करवा दिया. ( उन दिनों मेरे बच्चे बहुत छोटे थे और मैं दिल्ली नहीं जाना चाहता था.)
वर्मा जी को जब मैंने इस विषय में फोन पर धन्यवाद देना चाहा तो बोले, " यह काम कुछ खास भी तो नहीं था. यह समझ लो कि 'मेंढक ' कहानी की रायल्टी तुम्हें मिल गयी." यही नहीं, उसके बाद यह भी हुआ कि जब गर्ग साहब से मैंने कहा कि मेरी इच्छा है कि मेरी बेटी कक्षा छः से नैनीताल के प्रसिद्ध सेंट मैरीज कान्वेंट में पढ़े तो उन्होंने मेरी इस इच्छा का मान रखते हुए मेरा ट्रांसफर नैनीताल कर दिया जिसका दूरगामी परिणाम यह रहा कि वहाँ के शैक्षिक माहौल में उसकी नींव मज़बूत हो जाने के कारण आजकल वह ब्रिटेन में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है.
किंजल्क जी की भीमताल यात्रा का प्रसंग तो बीच में ही छूट गया. उन दोनों के भीमताल से जाने के कुछ दिनों बाद हतप्रभ होने की बारी मेरी थी. 'मेंढक' के लिये मुझे 'अंबिका प्रसाद दिव्य सम्मान ' दिये जाने की घोषणा की जा चुकी थी. यह सम्मान मुझे आदरणीय श्री अमृत लाल बेगड़ जी ,प्रभाकर श्रोत्रिय जी , कांति कुमार जैन जी व किंजल्क जी के कर कमलों द्वारा प्रदान किया गया.
इस प्रकार अनायास हुई यह मुलाकात मेरे जीवन में नये चटक रंग लाई. बाद में हम लोग पारिवारिक मित्र भी हो गये थे.हाँ, यह बताना तो मैं भूल ही गया कि नैनीताल में वर्मा जी के बेटे के साथ हुए उनकी बेटी अनन्या के विवाह में मैं कन्या पक्ष की ओर से घराती के रूप में शामिल हुआ था. बैंक - स्टाफ के बीच होने वाली चर्चा का एक विषय यह भी रहा कि पालनी की जेब में इस शादी के दोनों पक्षों की तरफ के निमंत्रण कार्ड हैं.

किंजल्क जी से मेरी आखिरी मुलाक़ात भोपाल स्थित उनके आवास पर सवा तीन वर्ष पूर्व हुई थी जब मैं टैगोर विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक आयोजन 'विश्वरंग' में भाग लेने भोपाल गया था. उनका मुस्कराता हुआ चेहरा आज भी मेरी स्मृति में है. उन्हें सादर नमन.
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सौरभ भारत- बचपन में जब पहली बार कोई कहानी लिखी थी तो मौका मिलते ही, Jagdish Kinjalk दादाजी को सुनाई। कहानी तो कुछ खास याद नही पर दादाजी ने जो कहा वो याद रहा हमेशा, कहानी सुनने और सुनाने वाले दोनो को मजा आना चाहिए! तभी कहानी दिल को छूती है। उसके बाद अनेको मौकों पर दादा जी जाने अंजाने मुझे प्रेरणा देते रहे! कभी दाऊजी ( अंबिका प्रसाद दिव्य जी ) की कहानियों और किस्से सुना कर और कभी यूंही किवदंतियों के सहारे। हमेशा चेहरे पे मुस्कान और हमेशा कुछ न कुछ नया परिपेक्ष्य देते हुए, दादाजी ने हमेशा मुझे लिखने और लिखते रहने के लिए प्रोत्साहित किया। जिस तरह से आपने दाऊजी को जिंदा रखा, आपको भी हमेशा जिंदा रखेंगे, यादों में!
ओम शांति !
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प्रीत व्यास- विदा परिचर्चा सम्राट
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अभी अभी रजनी सक्सेना दी की पोस्ट से पता चला कि छतरपुर (म. प्र.) शहर की एक और विभूति प्रस्थान कर गई. जगदीश किंजल्क अंकल नहीं रहे. सालों पुराना नाता. उनके पिता अम्बिकाप्रसाद 'दिव्य' जी मेरे दादाजी श्री विंध्य कोकिल भैयालाल जी व्यास के साथ रह चुके थे और इसी नाते उन्हें अंकल कहा करती थी.
दिव्य जी के स्वर्गवास के बाद जगदीश अंकल ने उनके साहित्यिक पक्ष को जीवित रखने के लिए बहुत काम किया और इस बात पर हमेशां दादाजी कहते कि ये योग्य उत्तराधिकारी है, इसने अपना साहित्यिक विरसा संभाला. उन्होंने ना सिर्फ दिव्य जी के अप्रकाशित लेखन को प्रकाशित करवाया बल्कि उनके नाम से एक पुरस्कार भी आरंभ किया.
वे आकाशवाणी छतरपुर में कार्यक्रम अधिकारी थे और मैं भी तब अपनी पढाई के साथ-साथ कैजुअल एनाउंसर के तौर पर जाया करती थी. उन्होंने उस समय कम प्रचलित विधा "परिचर्चा" को अपनाया और बहुत काम किया. ये वो समय था जब धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि हर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका में उनकीपरिचर्चाएं छपा करती थीं और जब सौ छप चुकीं तो वे परिचर्चा सम्राट कहे जाने लगे.
जब भी हम उनके घर जाते वे अपनी परिचर्चाओं की कटिंग्स की व्यवस्थित फ़ाइल्स दिखाया करते.उनकी बीसियों परिचर्चाओं में मैंने भी कुछ अपनी बाल- बुद्धि अनुरुप लिखा था. उनकी पत्नी राजो, बहन विभा सभी साहित्य से संगीत से जुड़े हुए.
अपने शहर के हर परिचित की विदा अंदर से मुझे थोड़ा सा खाली कर जाती है. नमन. श्रद्धांजलि.
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गिरीश पंकजJagdish Kinjalk

24 जनवरी 2023 
नहीं रहे परिचर्चा सम्राट !
जगदीश किंजल्क जी के निधन की खबर से मन विचलित हो गया । मेरा उनसे बहुत पुराना परिचय था। तब वे छतरपुर आकाशवाणी में काम करते थे। सन १९९० से पहले की बात है। तब एक साहित्यिक सम्मेलन में जगदीश जी अपने पिता अम्बिकाप्रसाद 'दिव्य' जी के साथ रायपुर पधारे थे। तब मैंने उनके पिताजी का एक साक्षात्कार भी लिया था, जो नवभारत में प्रकाशित हुआ था। तब मैं नवभारत का साहित्यिक पर देखा करता था जो मध्य प्रदेश ,महाराष्ट्र तक जाया करता था । किंजल्क जी से लगातार संवाद कायम रहा। यह वह दौर था जब धर्मयुग जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में उनके द्वारा ली गई परिचर्चाएँ खूब छपा करती थी। लोग उन्हें परिचर्चा सम्राट के रूप में जानते थे। एक-दो परिचर्चा ओं में उन्होंने मेरे विचार भी लिए थे। अपने पिताजी के नाम से उन्होंने दिव्य सम्मान भी शुरू किया था, जो वर्षों तक चला । एक बार अतिथि के रूप में उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया था। किसी कारणवश मैं उसमें शामिल नहीं हो सका था। किंजल्क जी का परिवार साहित्यिक था। सबका अपना अपना नाम था ।जगदीश जी से भोपाल में भी मेरी मुलाकाते समय-समय पर भी होती रहीं। आज उनके निधन की खबर सुनकर पीड़ा पहुंची। उन्हें शत-शत नमन
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हिंदी का भाषिक वैविध्य

भाषा भिन्नता
A. बोली

भारत और विदेशों में लगभग 500 मिलियन लोग हिंदी बोलते हैं, और इस भाषा को समझने वाले लोगों की कुल संख्या 800 मिलियन हो सकती है। 1997 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि सभी भारतीयों में से 66% हिंदी बोल सकते हैं और 77% भारतीय हिंदी को “पूरे देश की एक भाषा” मानते हैं। भारत में 180 मिलियन से ज़्यादा लोग हिंदी को अपनी मातृभाषा मानते हैं। अन्य 300 मिलियन लोग इसे दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
1. क्षेत्रीय भिन्नता
खड़ीबोली

खड़ी बोली (खड़ी बोली या खड़ी बोली भी) पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली हिंदी भाषा की एक बोली है। यह हिंदी भाषा का एक रूप है जिसका प्रयोग भारतीय राज्य द्वारा किया जाता है। खड़ी बोली के शुरुआती उदाहरण कबीर और अमीर खुसरो की कुछ पंक्तियों में देखे जा सकते हैं। खड़ी बोली के अधिक विकसित रूप 18वीं सदी की शुरुआत में रचित कुछ औसत दर्जे के साहित्य में देखे जा सकते हैं। उदाहरण हैं गंगाभट्ट द्वारा रचित छंद छंद वर्णन की महिमा, रामप्रसाद निरंजनी द्वारा रचित योगवशिष्ठ, जटमल द्वारा रचित गोराबादल की कथा, अनामिका द्वारा रचित मंडोवर का वर्णन, दौलतराम द्वारा रचित रविशेनाचार्य के जैन पद्मपुराण का अनुवाद (दिनांक 1824)। 1857 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। कॉलेज के अध्यक्ष जॉन गिल क्राइस्ट ने हिंदी और उर्दू में किताबें लिखने के लिए प्रोफेसरों को नियुक्त किया। इनमें से कुछ किताबें थीं लल्लूलाल की प्रेमसागर, सदल मिश्र की नासिकेतोपाख्यान, दिल्ली के सदासुखलाल की सुखसागर और मुंशी इंशाल्लाह खान की रानी केतकी की कहानी। इन पुस्तकों की भाषा खड़ीबोली कही जा सकती है।

खड़ी बोली अपने शुरुआती दिनों में एक ग्रामीण भाषा थी। लेकिन 18वीं सदी के बाद लोगों ने इसे हिंदी के साहित्यिक रूप के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इसकी शब्दावली में फ़ारसी और अरबी शब्दों की मात्रा बहुत ज़्यादा है, लेकिन यह काफ़ी हद तक संस्कृतनिष्ठ भी है। अपने मूल रूप में यह रामपुर, मुरादाबाद, मेरठ, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून, अंबाला, पटियाला और दिल्ली में बोली जाती है। आधुनिक हिंदी साहित्य का लगभग सारा महत्वपूर्ण हिस्सा खड़ी बोली में ही लिखा गया है।
ब्रज

ब्रज, हालांकि कभी भी स्पष्ट रूप से परिभाषित राजनीतिक क्षेत्र नहीं रहा, लेकिन इसे कृष्ण की भूमि माना जाता है और यह संस्कृत शब्द व्रज से लिया गया है। इस प्रकार, ब्रजभाषा ब्रज की भाषा है और यह भक्ति आंदोलन या नव-वैष्णव धर्मों की पसंदीदा भाषा थी, जिसके केंद्रीय देवता कृष्ण थे। इसलिए, इस भाषा में अधिकांश साहित्य मध्यकाल में रचित कृष्ण से संबंधित है।

ब्रजभाषा या ब्रजावली को असमिया भाषा में श्रीमंत शंकरदेव ने 15वीं और 16वीं शताब्दी में असम में अपनी रचनाओं के लिए अपनाया था।

ब्रजभाषा हिंदी भाषा की एक बोली है, जो उत्तर प्रदेश में बोली जाती है।

ब्रजभाषा मथुरा, वृंदावन, आगरा, अलीगढ़, बरेली, बुलंदशहर और धौलपुर में बोली जाती है। इसकी आवाज़ बहुत मधुर है। मध्यकाल में हिंदी साहित्य का अधिकांश भाग ब्रज में विकसित हुआ। हालाँकि, आज इसकी जगह खड़ी बोली ने ले ली है।
बुन्देली

बुंदेली हिंदी की एक बोली है जो मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र और उत्तर प्रदेश के झांसी में बोली जाती है।

मध्यकाल में इस भाषा में कुछ साहित्य उपलब्ध था, लेकिन अधिकांश वक्ताओं ने साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रज को प्राथमिकता दी।
बघेली

बघेली मध्य भारत के बघेलखंड क्षेत्र की एक बोली है।
छत्तीसगढ़ी (लहरिया या खलवाही)

छत्तीसगढ़ी भारत की एक भाषा है। इसके लगभग 11.5 मिलियन वक्ता हैं, जो भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश, उड़ीसा और बिहार के आस-पास के क्षेत्रों में केंद्रित हैं। छत्तीसगढ़ी का सबसे करीबी संबंध बघेली और अवधी (अवधी) से है, और इन भाषाओं को इंडो-आर्यन भाषाओं के पूर्वी मध्य क्षेत्र में वर्गीकृत किया गया है, जो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की भारतीय शाखा है। संस्कृत और हिंदी की तरह छत्तीसगढ़ी भी देवनागरी लिपि का उपयोग करके लिखी जाती है। भारत सरकार के अनुसार, छत्तीसगढ़ी हिंदी की एक पूर्वी बोली है, हालाँकि भाषाविदों द्वारा इसे हिंदी से इतना अलग माना जाता है कि यह एक अलग भाषा बन सकती है। छत्तीसगढ़ी: बैगानी, भुलिया, बिंझवारी, कलंगा, कवर्दी, खैरागढ़ी, सादरी कोरवा और सरगुजिया।

छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों, जिनकी उत्पत्ति 1920 के दशक में हुई, ने छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक और भाषाई पहचान की पुष्टि की और भारत के भीतर अधिक स्वायत्तता की मांग की, जो 2000 में सामने आई जब मध्य प्रदेश राज्य के 16 जिले छत्तीसगढ़ के नए राज्य बन गए।
हरियाणवी (बंगारू या जाटू)

हरियाणवी या जाटू या बंगारू हिंदी भाषा की एक बोली है, जो हरियाणा में बोली जाती है।

यह हरियाणा और दिल्ली में जाटों द्वारा बोली जाती है। इसे प्रारंभिक खड़ी बोली का एक रूप माना जा सकता है। इसका स्वर कुछ कठोर है। साहित्य लगभग शून्य है, लेकिन बहुत सारे लोकगीत उपलब्ध हैं।

पूर्वी-मध्य क्षेत्र की कुछ भाषाएँ, जिनमें धनवार और राजस्थानी भाषाएँ, जिनमें मारवाड़ी भी शामिल है, को भी व्यापक रूप से हिंदी की बोलियाँ माना जाता है। पंजाबी और मैथिली, भोजपुरी और मगधी सहित बिहारी भाषाओं की स्थिति पर काफ़ी विवाद रहा है।
अतिरिक्त

हिंदी की मुख्य बोलियाँ: पश्चिमी हिंदी (खड़ीबोली, बागरू, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली) और पूर्वी हिंदी (अवधी, बाघेली, छत्तीसगढ़ी)।
हिंदी की प्रमुख बोलियाँ
क. राजस्थानीइंडो-ईरानी भाषा परिवार बोलियाँ (राजस्थानी की बोलियाँ की बोलियाँ:) मेवाती - अहीरवाटी, जयपुरी - हाड़ौती, मारवाड़ी - मेवाड़ी, मालवी, भीली इंडो-आर्यन भाषा (प्राचीन वैदिक) प्राचीन आर्य भाषा की प्रातिछाया शाखा शोरसेनी (प्राकृत) नागर अपभ्रंश राजस्थानी

b. बिहारीइंडो-ईरानी भाषा परिवार इंडो-आर्यन भाषा (प्राचीन वैदिक) प्राच्य भाषा समूह मगधी प्राकृत मगधी अपभ्रंश पश्चिमी मगधी (बिहारी) मेथिल बोली मगही बोली भोजपुरी बोली

2. सामाजिक भिन्नता
बी. डिग्लोसिक

डिग्लोसिया का अर्थ द्विभाषिकता का एक रूप है जिसमें दो भाषाओं या बोलियों का प्रयोग अलग-अलग उद्देश्यों या विभिन्न सामाजिक स्थितियों के लिए आदतन किया जाता है।
सी. आर्गोट

आर्गट किसी खास पेशे या सामाजिक समूह, खास तौर पर अंडरवर्ल्ड समूह, जैसे कि चोरों का शब्दजाल है। दूसरे शब्दों में, आर्गट मुख्य रूप से विभिन्न समूहों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक अपशब्द है, जिसमें चोर और अन्य अपराधी शामिल हैं, लेकिन केवल इन्हीं तक सीमित नहीं हैं, ताकि बाहरी लोग उनकी बातचीत को न समझ सकें।

स्लैंग एक प्रकार की बोलचाल की भाषा है, जिसे अश्लील, चंचल और अनौपचारिक माना जाता है, जो नए शब्दों के आने से उत्पन्न होती है और लोगों के विशेष समूहों द्वारा उपयोग की जाती है। स्लैंग किसी विशेष सामाजिक समूह की भाषा में शब्दों का गैर-मानक उपयोग है, और कभी-कभी किसी अन्य भाषा के महत्वपूर्ण शब्दों के नए शब्दों का निर्माण होता है। स्लैंग एक प्रकार का सामाजिक शब्द है जिसका उद्देश्य कुछ लोगों को बातचीत से बाहर करना है। स्लैंग शुरू में एन्क्रिप्शन के रूप में कार्य करता है, ताकि गैर-आरंभिक बातचीत को न समझ सकें। स्लैंग एक ही समूह के सदस्यों को पहचानने और उस समूह को बड़े पैमाने पर समाज से अलग करने के तरीके के रूप में कार्य करता है। स्लैंग शब्द अक्सर एक निश्चित उपसंस्कृति के लिए विशिष्ट होते हैं, जैसे कि ड्रग उपयोगकर्ता, स्केटबोर्डर और संगीतकार। स्लैंग का अर्थ आम तौर पर चंचल, अनौपचारिक भाषण होता है। स्लैंग शब्दजाल से अलग है, जो किसी विशेष पेशे की तकनीकी शब्दावली है, क्योंकि शब्दजाल का उपयोग (सिद्धांत रूप में) गैर-समूह के सदस्यों को बातचीत से बाहर करने के लिए नहीं किया जाता है, बल्कि किसी दिए गए क्षेत्र की तकनीकी विशिष्टताओं से संबंधित होता है जिसके लिए विशेष शब्दावली की आवश्यकता होती है।
डी. रजिस्टर/शैलीगत/कोड

रजिस्टर को किसी विशेष व्यवसाय या सामाजिक समूह की भाषा की विविधता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जैसे कानून या किसानों की भाषा। दूसरे शब्दों में, रजिस्टर भाषा की एक विविधता है जिसे उन उद्देश्यों के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है जिनके लिए इसका उपयोग किया जाता है। रजिस्टर भी प्रवचन के क्षेत्र, प्रवचन के तरीके और प्रवचन की शैली के अनुसार भिन्न होते हैं। रजिस्टर में भी भिन्नताएँ होती हैं। यह उच्चारण, शब्दावली और वाक्यविन्यास में अंतर है जो विशेष परिस्थितियों में प्रवचन के क्षेत्र, प्रवचन के तरीके और प्रवचन की शैली में अंतर के कारण पाया जाता है।
हिंदी का मानकीकरण

भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने हिंदी के मानकीकरण पर काम किया और निम्नलिखित परिवर्तन हुए:हिंदी व्याकरण का मानकीकरण: 1954 में भारत सरकार ने हिंदी का व्याकरण तैयार करने के लिए एक समिति गठित की। समिति की रिपोर्ट बाद में 1958 में "आधुनिक हिंदी का एक बुनियादी व्याकरण" के रूप में जारी की गई।
हिंदी वर्तनी का मानकीकरण
केंद्रीय हिंदी निदेशालय, शिक्षा एवं संस्कृति मंत्रालय द्वारा देवनागरी लिपि का मानकीकरण, ताकि लेखन में एकरूपता लाई जा सके तथा इसके कुछ अक्षरों के स्वरूप में सुधार किया जा सके।
देवनागरी वर्णमाला लिखने की वैज्ञानिक पद्धति।
अन्य भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए विशेषक चिह्नों का समावेश।
क्षेत्रीय भिन्नता:

हिंदी में हज़ारों किलोमीटर के भौगोलिक क्षेत्र में फैली बोलियों का समूह शामिल है। इन बोलियों के आपसी संबंधों का इतिहास वैदिक काल से पहले का है। आर्य भाषा भारत में एक समान भाषा के रूप में नहीं आई, बल्कि विभिन्न समूहों द्वारा बोली जाने वाली बोलियों के समूह या समूहों के रूप में आई। ग्रियर्सन ने इंडो-आर्यन भाषाओं को इस प्रकार वर्गीकृत किया: (i) बाहरी भाषाएँ - लंहडा (पश्चिमी पंजाबी) सिंधी, मराठी, उड़िया, बिहारी, बांग्ला, असमिया। (ii) मध्य भाषाएँ – पूर्वी हिंदी (iii) आंतरिक भाषाएँ - पश्चिमी हिंदी, गुजराती, भीली, खानदेशी, राजस्थानी, पहाड़ी समूह।


सर ग्रियर्सन और अन्य विद्वानों ने मैथिली, मगही और भोजपुरी को एक ही भाषा - बिहारी - के रूप में वर्गीकृत किया था और उन्हें हिंदी के दायरे से बाहर रखा था। लेकिन बाद में कई विद्वानों ने इस दृष्टिकोण से मतभेद किया और आज हिंदी में पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी बोलियाँ शामिल हैं। जनगणना रिपोर्ट में इन सभी भाषाओं और बोलियों को हिंदी के दायरे में शामिल किया गया है। हिंदी बोलियों के मुख्य पाँच समूह हैं - (1) पश्चिमी हिन्दी - खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, हरियाणवी, कन्नौजी, निमाड़ी (2) पूर्वी हिन्दी -अवथी,बघेली,छत्तीसगढ़ी (3) राजस्थानी - मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी (4)बिहारी - मगही, मैथिली, भोजपुरी (5) पहाड़ी - कुमाउनी, गढ़वाली

खड़ीबोली:
खड़ीबोली भारत की संविधान द्वारा स्वीकृत आधिकारिक भाषा है। इसे हिंदुस्तानी, नागर, कौरवी, सरहिंदी भी कहा जाता है और यह दिल्ली, आगरा, मेरठ, बुलंदशहर, गाजियाबाद आदि के आसपास बोली जाती है।

ब्रज:
समृद्ध साहित्यिक विरासत के साथ, ब्रज उत्तर प्रदेश में आगरा, मथुरा, अलीगढ, बुलन्दशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूँ और बरेली, राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, करौली, जयपुर और मध्य प्रदेश में ग्वालियर जिलों में बोली जाती है। ब्रज की प्रमुख उपबोलियाँ कठेरिया, गंवारी, जोदोवारी, डांगी, ढोलपुरी, मथुरी, भरतपुरी, सिकरवारी हैं।

हरियाणवी:
इसे बांगरू भी कहा जाता है. यह करनाल, रोहतक, पानीपत, कुरूक्षेत्र, जंड, हिसार जिलों में बोली जाती है। हरियाणवी लोक साहित्य में समृद्ध है। हरियाणवी की उपबोलियाँ जाटू, देसवाली, मेवाती, अहिरवाटी आदि हैं।
कन्नौजी:

कन्‍नौजी उत्तर प्रदेश के कन्‍नौज, फरुखाबाद, हरदोई, शाहजहाँपुर, पीलीभीत, इटावा जिलों और कानपुर के पश्चिमी भागों में बोली जाती है। इसकी उपभाषा तिरहरि है।

बुंदेली:
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, होशंगाबाद, दतिया, ग्वालियर, सागर, दमोह, नरसिंगपुर, छिंदवाड़ा, सिवनी, भोपाल, बालाघाट, दुर्ग में बुंदेली बोली जाती है। उत्तर प्रदेश में यह झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बांदा, आगरा, इटावा, मैनपुरी में बोली जाती है। महाराष्ट्र में, यह नागपुर और बघंता और बुलदाना के कुछ हिस्सों में बोली जाती है। बुंदेली की बोलियाँ खटोला, लोधंती, पंवारी, बनाफरी, कुंडारी, तिरहरी, भदावरी, लोधी, कुंभारी हैं।

निमाड़ी: निमाड़ी मध्य प्रदेश के दो जिलों खंडवा निमाड़ और खरगोन निमाड़ में बोली जाती है।

अवधी: अवधी उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक रूप से समृद्ध "अवध" क्षेत्र की बोली है। अवधी बोली से आच्छादित जिले हैं-लखीमपुर खिमी, गोंडा, बहराईच, लखनऊ, उन्नाव, बस्ती, रायबरेली, सीतापुर, हरदोई, फैजाबाद, सुत्तनपुर, प्रतापगढ, बाराबंकी, फ़तेहपुर, इलाहबाद, मिर्ज़ापुर और जौनपुर। अवधी की प्रमुख उपबोलियाँ गहोरा, गंगापारी, गोंदनी, जबलपुरी, मरारी, मरली, मिर्ज़ापुरी, ओझी, पोवारी, थारू अवधी हैं।

बाघेली: बाघेली बोली का केंद्र मध्य प्रदेश का रीवा जिला है। बालाघाट, दमोह, जबलपुर, मंडला अन्य जिले हैं जहां यह बोली जाती है। गोंडवी बघेली की उपभाषा है। अन्य उपबोलियाँ कुंभारी, जुरारी आदि हैं।

छत्तीसगढ़ी: छत्तीसगढ़ के सरगुजा, रायगढ़, बिलासपुर, रायपुर, दुर्ग और बस्तर में छत्तीसगढ़ी बोली जाती है। छत्तीसगढ़ी की उपबोलियाँ नागपुरिया, सरगुजिया, सदरी कोरवा, बैगानी, बिंझवारी, कलंगा और भुलिया हैं।

राजस्थानी: राजस्थानी में मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती और मालवी जैसी कई बोलियाँ शामिल हैं।

मारवाड़ी: मारवाड़ी मारवाड़, पूर्वी सिंध, मेवाड़, जैसलमेर, बीकानेर, उत्तर पश्चिमी जयपुर में बोली जाती है। मारवाड़ी की उपबोलियाँ ढुंढारी, गोरावाटी, मेवाड़ी, गोदावरी, सिरोही, देवरावाटी, थली, बीकानेरी, शेखावाटी और बागड़ी हैं।

जयपुरी: जयपुरी जयपुर, किशनगढ़, इंदौर, अलवर, अजमेर और मेरवाड़ के उत्तर-पूर्वी हिस्सों की बोली है। जयपुरी की उपबोलियाँ कटहैरा, चौरासी, नागरचाल, तोरावती, किशनगढ़ी, अजमेरी, हरइती हैं।

मेवाती: मेवाती अलवर, भरतपुर, गुड़गांव में बोली जाती है, अहिरवाटी, राती नेहरा और कटहेरी मेवाती की उपबोलियाँ हैं।

मालवी: मालवी मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में बोली जाती है। इसकी उपबोली सोंडवारी है।

बिहारी: बिहारी में भोजपुरी, मगही और मैथिली शामिल हैं।

मगही: मगही गया, पटना, मंगेर और हजारीबाग जिलों की बोली है, साथ ही पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के पश्चिम में दक्षिण बिहार के कुछ बसे हुए समुदायों की भी बोली है। मानक मगही गया, पटना, पलामू, दक्षिण-पश्चिम मुंगेर, हजारीबाग, मानभूम और सिंहभूम में बोली जाती है। मगही की अन्य उप-बोलियाँ कुरमाली, सादरी कोल, कुरुमाली और खोंटई हैं।

मैथिली: मैथिली गंगा के उत्तर के क्षेत्रों और मुंगेर, भागलपुर, दरभंगा, संथाल परगना और पूर्णिया जिलों में बोली जाती है। मैथिली की उपबोलियाँ तिरहुतिया, गौवारी, चिक्का-चिक्की बोली और जलाहा बोली हैं।

भोजपुरी: यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, जौनपुर, वाराणसी, गाजीपुर, बलिया और फैजाबाद के शहरों के पूर्व से लेकर भोजपुर, आरा, बक्सर और पश्चिमी बिहार के अन्य जिलों तक बोली जाती है। मानक भोजपुरी साहाबाद जिले में बोली जाती है। अन्य उप-बोलियाँ गोरखपुरी, सरवरिया, पूरबी, थारू, नागपुरिया, काशिका आदि हैं।

पहाड़ी: इसमें मध्य और पश्चिमी पहाड़ी शामिल हैं।

पश्चिमी पहाड़ी: इसमें शिमला, कुल्लू, मंडी और चंबा की पहाड़ियों में बोली जाने वाली बोलियाँ शामिल हैं। उपबोलियाँ हैं- जौनसारी, सिरमौरी, बघाटी, किऊंटीहाली, कुलुई, मांडीआली, गद्दी/भरमौरी, चुराही, भद्रवाही, सदोची, सिराजी आदि।

मध्य पहाड़ी: इसमें गढ़वाली और कुमाऊँनी बोलियाँ शामिल हैं।

गढ़वाली: गढ़वाली उत्तराखंड के टिहरी, उत्तरकाशी और चमोली जिलों में बोली जाती है। गढ़वाली की उपबोलियाँ हैं - राती या रथवाली, लोहब्या, बधानी, दसौलिया, मंझ-कुमैयां, नागपुरिया, सलानी, तेहरी या गंगापारिया। मानक गढ़वाली को श्रीनगरिया कहा जाता है।

कुमाऊँनी: कुमाऊँनी पिथौरागढ, नैनीताल और अल्मोडा जिलों की बोली है। कुमाऊँनी की उपबोलियाँ खसपर्जिया, फल्दाकोटिआ, पछाईं, भाबरी, कुमइयाँ, चौगड़खिया, गंगोला, दानपुरिया, सोरियाली, अस्कोटि, सिराली और जोहारी हैं।
हिंदी प्रवासी:

भारत के अलावा, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और अल्जीरिया के कुछ हिस्सों में भी हिंदी बोली और समझी जाती है। प्रवासी भारतीय हिंदी को अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका और खाड़ी देशों में ले गए हैं। हिंदी को मुख्य रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के प्रवासी मजदूरों द्वारा फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद जैसे देशों में ले जाया गया है। फिजी की भाषा कैबिटी के साथ मिश्रित हिंदी का एक पिगिनाइज्ड रूप फिजी में बोला जाता है और इसे फिजीबत/फिजी हिंदी के रूप में जाना जाता है। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी को नैताली कहा जाता है। विदेशों में कई विश्वविद्यालयों में भी हिंदी पढ़ाई जाती है।

‘कैम्ब्रिज इनसाइक्लोपीडिया ऑफ लैंग्वेज’ में हिंदी को जनसंख्या के हिसाब से तीसरे स्थान पर तथा मातृभाषा भाषी समूह के हिसाब से चौथे स्थान पर रखा गया है। घ) पीढ़ी: i) पुरानी पीढ़ी ii) युवा पीढ़ी शब्दावली के चयन के स्तर पर, भाषाई कारक के रूप में आयु का कुछ प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, पुरानी पीढ़ी ने
आंतरिक कोड-मिश्रण (हिंदी की विभिन्न बोलियों, जैसे ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि) का सहारा लिया। 1) हमारे लिगे पनवा (पान)ले आना। 2) रोटी जल गयी। युवा पीढ़ी बाह्य कोड मिश्रण/कोड स्विचिंग को प्राथमिकता देती है। 1) मेरी भाभी आज सुबह की फ्लाइट से आई। 2) आंटी, मैं किस टाइम पर हूँ लेकिन पीढ़ियों के बीच कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं देखा जा सकता है।

सामाजिक भिन्नता – ख) लिंग

पिछले कुछ दशकों में महिलाओं की भाषा पर किए गए काम से पता चला है कि महिलाओं की भाषा पुरुषों की भाषा की तुलना में मानक प्रतिष्ठा के अधिक करीब है, इसका कारण समाज में उनकी अधीनस्थ स्थिति के कारण महिलाओं की भाषाई असुरक्षा है। आमतौर पर पुरुषों की बोली ही आदर्श होती है और महिलाओं की बोली को इसके आधार पर आंका जाता है। हिंदी के मामले में भी यही सच है। आमतौर पर महिलाओं की बोली में एक ऐसा भाव होता है जो अधिक विनम्र होता है। मैं खाना खाकर बाहर जाउंगा (पुरुषों की बोली) देखें, शायद मुझे बाहर जाना होगा (महिलाओं का भाषण) महिलाओं द्वारा लगभग विशेष रूप से उपयोग किए जाने वाले कुछ कठबोली अभिव्यक्तियाँ हैं - मुंहजला हुआ चेहरा मुंहजला हुआ चेहरा मुहजाली (दुर्भाग्यशाली) मुहजला (दुर्भाग्यशाली) कुलबोर्नी (परिवार को कलंकित करने वाला)

(ग) शिक्षा:

शिक्षा सहित विभिन्न कारकों के आधार पर समाज स्तरीकृत है। किसी व्यक्ति की शैक्षिक पृष्ठभूमि एक महत्वपूर्ण भाषाई चर का कारण बनती है। जब इन सामाजिक कारकों को ध्यान में रखा जाता है, तो हिंदी में द्विभाषी स्थिति स्पष्ट होती है। स्वतंत्रता के बाद आधिकारिक प्रवचन का वाहन बनी संस्कृतनिष्ठ 'उच्च हिंदी' ने सामान्य बातचीत और आधिकारिक संवाद के बीच अंतर पैदा कर दिया। समाज के शिक्षित वर्ग के पास औपचारिक अवसरों पर इस्तेमाल की जाने वाली मानक भाषा तक पहुंच थी। यह भाषा शक्ति और ऊर्ध्वगति का प्रतीक बन गई। औपचारिक स्थिति में भाषा बोलते समय शिक्षित वक्ताओं की भाषा में कोई क्षेत्रीय लक्षण नहीं होते हैं। इस प्रकार भाषण किसी व्यक्ति की शैक्षिक पृष्ठभूमि का संकेत दे सकता है। इन कारकों के कारण, एक वक्ता भाषा के संदर्भ में विभिन्न क्षेत्रों में एक ही सामाजिक समूह के लोगों से अधिक परिचित हो सकता है, बजाय एक ही भौगोलिक क्षेत्र में एक अलग सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि के वक्ताओं के।
सामाजिक विभिन्नता – क) जाति
1) उपजाति भिन्नता

विभिन्न जातियों और उपजाति समूहों की भाषा में अंतर होता है। ये किसी भाषा में गैर-क्षेत्रीय अंतर होते हैं और इन्हें सामाजिक बोलियाँ या समाजभाषाएँ कहा जाता है। जाति एक सामाजिक कारक है जो एक मानक और एक गैर-मानक बोली के बीच अंतर करने में भूमिका निभाता है। उच्चारण और बोली किसी व्यक्ति के जाति समूह के संकेतक के रूप में कार्य करते हैं। सामाजिक सीढ़ी के शीर्ष पर स्थित जाति समूह के सदस्य, यानी ब्राह्मण आमतौर पर मानक किस्म की भाषा बोलते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि इस जाति समूह के सदस्यों के पास बेहतर संगठित भाषण तक पहुँच है। उदाहरण के लिए मैथिली अपने शुद्धतम रूप में दरभंगा और भागलपुर जिलों के उत्तर और पश्चिमी पूर्णिया के ब्राह्मणों द्वारा बोली जाती है।

कुछ जातियाँ और उपजातियाँ व्यापार और उद्योग विशिष्ट हैं और उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले रजिस्टर भी उनके पेशे के लिए विशिष्ट हैं, उदाहरण के लिए, अग्रवाल, बरनवाल, भाटिया, खत्री, ओसवाल, धुनिया, जुलाहा, कहार, लोहार, नाई, मोची, पासी, सोनार, तेली, ठठेरा, हलवाई, कलवार, खटीक, तम्बोली, नानबाई, भिस्ती आदि।

1958 में, गम्परज़ ने बताया था कि दिल्ली से अस्सी मील उत्तर में खालापुर गाँव में भाषाई भिन्नता किस तरह सामाजिक भिन्नता से जुड़ी हुई है। गाँव की सामाजिक संरचना जाति-समूह की सदस्यता से चिह्नित थी, उदाहरण के लिए भंगियों की बोली में ध्वन्यात्मक विपरीतता नहीं थी जो अन्य जातियों की बोली में है। कुछ जातियों द्वारा अन्य जातियों की नकल करने के प्रयास के परिणामस्वरूप अतिसुधार हुआ। गम्परज़ के अध्ययन से भाषाई भिन्नता और जाति-समूह की सदस्यता के बीच सीधा संबंध दिखाई देता है। हालाँकि, आधुनिक भारतीय समाज कहीं अधिक जटिल और पेचीदा है। जाति और भाषाई भिन्नता के संबंध को स्थापित करना भी अधिक जटिल हो गया है।
(ii) उप-जनजाति भिन्नता:

आदिवासी भाषाओं में 'आदिवासी' शब्द का भाषाई अर्थ भाषाई संपर्क, संपर्क, अभिसरण और द्विभाषीवाद को ध्यान में रखता है। आदिवासी द्विभाषीवाद मुख्यधारा में आदिवासी आत्मसात की प्रक्रिया का एक हिस्सा है, उदाहरण के लिए, देश के मध्य क्षेत्रों के आदिवासी क्षेत्र गैर-आदिवासी क्षेत्रों के साथ जुड़े हुए हैं। इस क्षेत्र में आदिवासी भाषाएँ मुख्य रूप से आदिवासी पहचान के वाहक के रूप में काम करती हैं। यह क्षेत्र भाषाई संपर्क और अभिसरण द्वारा चिह्नित है। परिणामस्वरूप, इन राज्यों, यानी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि में आदिवासी भाषाओं से गैर-आदिवासी बोलियों (मुख्य रूप से हिंदी की बोलियाँ) की ओर जाने की प्रवृत्ति है।

इन राज्यों में आदिवासी भाषा बोलने वालों में द्विभाषीवाद की प्रवृत्ति बहुत ज़्यादा है। आदिवासी द्विभाषीवाद की एक मुख्य विशेषता इसकी अस्थिरता है, जो अन्य समुदायों के संपर्क और उसके परिणामस्वरूप होने वाली संस्कृति-परिग्रहण प्रक्रिया के कारण है। परिणामस्वरूप, आदिवासी लोगों की घटती संख्या आदिवासी भाषा को अपनी मातृभाषा के रूप में वापस ले रही है। इस प्रकार इस क्षेत्र में भाषा परिवर्तन की घटना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। 1981 की जनगणना के अनुसार, सभी आदिवासियों में से केवल 37% ही आदिवासी मातृभाषा बोलते हैं। इन राज्यों में कुछ आदिवासी समुदाय जो द्विभाषी हैं और हिंदी की एक बोली बोलते हैं, वे हैं बैगा (मध्य प्रदेश), भारिया (मध्य प्रदेश), बथुडी (बिहार), भोक्सा (उत्तर प्रदेश), बिंझवार (महाराष्ट्र), धानका (राजस्थान), धनवार (मध्य प्रदेश) गोंड खटोला, गोंड (मध्य प्रदेश) कमार (छत्तीसगढ़), कावर (छत्तीसगढ़), कोल (महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश), कोरवा (छत्तीसगढ़) मझवार (छत्तीसगढ़), मवासी (मध्य प्रदेश), पनिका (मध्य प्रदेश) सहरिया (मध्य प्रदेश), सौर (मध्य प्रदेश) लमनी बंजारी (राजस्थान) खोट्टा, सदन, गवारी पंचपरगनियां (बिहार)।

डिग्लोसिया: हिंदी में डिग्लोसिया की क्लासिक स्थिति है, यानी दो अलग-अलग किस्मों की उपस्थिति जिसमें से एक का उपयोग केवल औपचारिक और सार्वजनिक अवसरों पर किया जाता है जबकि दूसरे का उपयोग सामान्य रोजमर्रा की परिस्थितियों में किया जाता है। भारतीय समाज बहुभाषी और स्तरीकृत है। हिंदी की स्थिति अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की तुलना में अधिक जटिल है क्योंकि मूल शैली के अलावा, हिंदी में दो आरोपित शैलियाँ हैं। मूल शैली दिन-प्रतिदिन के जीवन में उपयोग की जाने वाली भाषा है और आरोपित शैलियाँ हैं, कृत्रिम रूप से संस्कृतकृत (या उच्च हिंदी) भाषा, और 'उर्दू', हिंदुस्तानी का एक अलग संस्करण जिसमें बड़ी संख्या में व्याख्या किए गए शब्द हैं।

उत्तर भारत में विकसित हुई रोज़मर्रा की ज़िंदगी की भाषा हिंदी एक विषमभाषा, संकर भाषा है जिसने अपनी कई बोलियों के संसाधनों को आत्मसात कर लिया है। हिंदी/हिंदुस्तानी और उर्दू के बीच की खाई उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में वापस चली गई जब औपनिवेशिक हस्तक्षेप से दो भाषाओं का विचार बनाया गया, एक फ़ारसी-अरबी भंडार से रहित और दूसरी उससे भरी हुई। बाद में भाषा और लिपि को धार्मिक पहचान के प्रतीक के रूप में देखा जाने लगा। इस प्रकार सांप्रदायिक राजनीति से प्रेरित होकर दो भिन्नताओं वाली एक स्थानीय भाषा अस्तित्व में आई, जो दो संसाधनों से पोषण प्राप्त करती थी।

स्वतंत्रता के बाद, संविधान सभा में संचार और आधिकारिक संवाद की एक आम भाषा के सवाल पर बहस हुई और संविधान सभा की भाषा उप समिति ने सिफारिश की कि हिंदी संघ की पहली आधिकारिक भाषा होगी। लेकिन हिंदी के विचारकों ने लोगों की स्थानीय भाषा 'हिंदुस्तानी' की जगह एक "राष्ट्रभाषा हिंदी" को लाने की कोशिश की, जिसकी विशेषता संस्कृत से भरी शैली थी। यह संस्कृतनिष्ठ उच्च हिंदी आधिकारिक संवाद और लिखित साहित्य का माध्यम बन गई, लेकिन समुदाय के किसी भी वर्ग द्वारा सामान्य बातचीत के लिए इसका उपयोग नहीं किया जाता है। आधिकारिक हिंदी ने शक्ति और ऊर्ध्वगामी गतिशीलता का प्रतीक बनकर उच्च और लोकप्रिय संवाद के बीच अंतर पैदा किया।

लोगों की स्थानीय भाषा की विशेषता बहुभाषी स्रोतों से उधार ली गई भाषा, लचीलापन और विशाल भौगोलिक क्षेत्र है। इस स्थानीय भाषा की विभिन्न बोलियाँ जटिल तरीके से परस्पर जुड़ी हुई हैं और एक-दूसरे को ओवरलैप कर रही हैं। हिंदी के मौखिक भंडार में हिंदी की विभिन्न बोलियाँ (जैसे अवधी, ब्रज, बुंदेली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, कन्नौजी आदि) के साथ-साथ दो आरोपित शैलियाँ भी शामिल हैं। ये बोलियाँ और रजिस्टर इतने जटिल तरीके से आपस में जुड़े हुए हैं कि कोड-स्विचिंग स्वतः ही हो जाती है। विभिन्न सामाजिक स्तरों पर इन शैलियों और बोलियों के बीच जटिल संबंध अलग-अलग तरीकों से प्रकट होते हैं। औपचारिक स्थितियों में और सामाजिक दबावों के कारण स्थानीय हिंदुस्तानी और संस्कृतनिष्ठ हिंदी के बीच कोड-स्विचिंग होती है। एक अलग स्तर पर सामाजिक दबावों के कारण हिंदुस्तानी और विभिन्न बोलियों के बीच आंतरिक कोड-स्विचिंग होती है। हिंदी में मौजूद इस जटिल द्विभाषिक स्थिति को समझने के लिए, विभिन्न संदर्भों और स्थितियों में हिंदी में मौखिक प्रदर्शन-सूची, कोड मैट्रिक्स और कोड-स्विचिंग के बीच संबंधों को समझना महत्वपूर्ण है।

कई मायनों में, लिखित विविधता द्विभाषिक स्थिति से अपेक्षाकृत मुक्त है, हालांकि हिंदी का संस्कृतकृत रूप हिंदी भाषी राज्यों में आधिकारिक संचार और शिक्षण का माध्यम है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में खड़ीबोली ने साहित्यिक लेखन के माध्यम के रूप में अपना स्थान बना लिया, तब से यह गद्य और पद्य लेखन का माध्यम बन गई है।
अर्गोट - कठबोली:

स्लैंग के रूप अनौपचारिक होते हैं और आम तौर पर मानक भाषा से अलग होते हैं। मानक भाषा कुछ वास्तविकताओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं करती है जिसे स्लैंग के रूपों द्वारा प्रभावी ढंग से व्यक्त किया जाता है। हिंदी में महिलाओं, किशोरों, ग्रामीण लोगों, मजदूर वर्ग आदि जैसे परिभाषित सामाजिक समूहों द्वारा स्लैंग के विभिन्न रूपों का उपयोग किया जाता है। हालाँकि, इसका उपयोग समाज के सभी क्षेत्रों में अलग-अलग डिग्री में किया जाता है। इस तरह स्लैंग एक तरह का समाज-विभाजन बनाता है। स्लैंग के रूपों में से एक एंटीलैंग्वेज है, जो एक गुप्त भाषा है जिसे किसी विशेष समूह के सदस्य समझते हैं। स्लैंग का इस्तेमाल विशुद्ध रूप से हास्य प्रभाव के लिए भी किया जा सकता है। हिंदी में स्लैंग शब्दों के कुछ उदाहरण हैं - हरामी (हरामी) साला (पत्नी का भाई) सरूर (पत्नी का पिता) ससुरी (पत्नी की माँ) साली (पत्नी की बहन) महिलाओं द्वारा लगभग विशेष रूप से उपयोग किए जाने वाले कुछ स्लैंग रूप हैं - मुहजाली (जला हुआ चेहरा) करमजली (दुर्भाग्यशाली) मुंहजला हुआ चेहरा मुहजौन्सा (जला हुआ चेहरा)


स्लैंग में नए भाषाई रूपों का निर्माण शामिल हो सकता है। ओगिल्वी एंड मदर लिमिटेड ने एक स्लैंग डिक्शनरी बनाई है जिसमें अधिकतम स्लैंग शब्द हिंदी में हैं। हाल ही में मीडिया क्रांति, बाजार-संचालित समाज और हिंदी में इसके परिणामस्वरूप उछाल ने हिंदी के एक ऐसे संस्करण को जन्म दिया है जो स्लैंग से भरपूर है और जिसे उपहासपूर्वक हिंग्लिश कहा जाता है। प्रचलन में कुछ स्लैंग अभिव्यक्तियाँ हैं - वट लगा दिया (मुसीबत में डालना) मामू बना दिया (मूर्ख बना दिया) मस्त (ठंडा) बाँस लग गया (कुछ बहुत ग़लत हो गया) चटू (उबाऊ व्यक्ति) चमिया (स्मार्ट लड़की) जिनचैट (चमकदार) लाल परी (देशी शराब) मीठा (समलैंगिक) तश्नी (शैली) रावण (कॉलेज प्रिंसिपल) खल्लास (दूर करना) मस्ती (घबरा जाना) अँधेरी रात (तीर जैसे रंग वाला व्यक्ति)

तकनीकी कोड:

भारत में सदियों से विभिन्न विषयों में शब्दावली का एक संग्रह विकसित हुआ है। बाद में जब संस्कृत से आधुनिक भारतीय भाषाएँ (हिंदी सहित) विकसित हुईं, तो भाषाओं की बहुलता के बीच एक अखिल भारतीय शब्दावली चल पड़ी। हालाँकि, उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, राजनीति, शिक्षा आदि की दुनिया में दूरगामी परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के मद्देनजर, भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली विकसित करने के प्रयास करने की आवश्यकता महसूस हुई। 1950 में भारत सरकार ने वैज्ञानिक शब्दावली बोर्ड की स्थापना की। 1961 में, इस बोर्ड को वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग में बदल दिया गया। आयोग को सौंपे गए कार्यों में हिंदी और अन्य भाषाओं में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली का विकास करना शामिल था। आयोग के दिशा-निर्देशों के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय शब्दों को वैसे ही बनाए रखना था, जैसे, टेलीफोन, ब्रेल, रॉयल्टी, परमिट आदि। वैचारिक शब्दों का अनुवाद किया जाना था। हिंदी में समानार्थी रूपों के चयन में अर्थ की शुद्धता और सरलता को ध्यान में रखना था। सभी भारतीय भाषाओं में अधिकतम संभव पहचान हासिल करना था।

क्रय एवं विक्रय की स्थिति: हिन्दी में व्यापार/वाणिज्य/खरीद-बिक्री की स्थिति से संबंधित सामान्यतः प्रयुक्त कुछ शब्द इस प्रकार हैं: क्रेया - विक्रया/खरीद - फरोख्ता (खरीदना और बेचना) महँगाई/ माल ताँगी (कीमत-वृद्धि/विक्रेता का बाज़ार) माल बहुतायत/मंडी (उपभोक्ता बाजार) मांग (मांग) मांग पूर्ति (आपूर्ति) वितरण (वितरण) वितरक (वितरक) वितरण केंद्र (आपूर्ति डिपो/स्टोर) रसद (आपूर्ति) व्यापार थोक व्यापारी खुदरा व्यापारी (खुदरा विक्रेता) विनिमय व्यापार (वस्तु विनिमय व्यापार) आयात-निर्यात (आयात-निर्यात) खरीददार बिकवाल/क्रेला- विक्रेता सौदा (क्रेता-विक्रेता) सौदेबाजी/तोलमोल/भावताव (सौदेबाज़ी) बयाना (अग्रिम) दलाल/दल्ला/बिचौलिया (दलाल/एजेंट) ठेका (अनुबंध) दलाली (कमीशन) आधत (भंडारण) माल मंगाना (ऑर्डर देने के लिए) फेरीवाला पंसारी/परचूनिया (किराना विक्रेता) कई अंग्रेजी शब्द, जैसे, सेल्समैन, सेल्सगर्ल, शोरूम, डिपार्टमेंटल स्टोर, जनरल स्टोर आदि भी आमतौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं।

डी. रजिस्टर/शैली/कोड:

हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली विकसित करने के ठोस प्रयास के परिणामस्वरूप, विभिन्न विषयों से संबंधित बुनियादी अखिल भारतीय शब्दावली विकसित हुई। न्यायपालिका: न्यायपालिका के क्षेत्र में कुछ हिंदी शब्द हैं: न्यायपालिका (न्यायपालिका) न्यायालय न्याय-व्यवस्था (न्यायिक व्यवस्था) आपराधिक न्यायालय (आपराधिक न्यायालय) सेना-न्यायालय (कोर्ट मार्शल) उच्च न्यायालय (उच्च न्यायालय) उच्चतम न्यायालय (उच्चतम न्यायालय) न्यायाधीश (न्यायाधीश) न्यायमूर्ति (न्याय) मुख्य न्यायमूर्ति (मुख्य न्यायाधीश)

चिकित्सा: चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयुक्त कुछ शब्द निम्नलिखित हैं: आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञान) संक्रामक रोग (संक्रमण रोग) महामारी (महामारी) संक्रमण रोग निदान (चिकित्सा जांच) ज्वार-मापी (थर्मामीटर) प्राकृतिक चिकित्सा चिकित्साविशेषज्ञ (चिकित्सा विशेषज्ञ) आपातकालीन चिकित्सा तत्काल चिकित्सा (प्राथमिक चिकित्सा) स्त्री रोग चिकित्सा (स्त्री रोग) शिशु चिकित्सा (बाल चिकित्सा) शल्य चिकित्सा अस्थि चिकित्सा (हड्डी रोग) चिकित्सालय (अस्पताल) औषधालय (औषधालय) चिकित्सक (डॉक्टर) वकील (वकील) महाधिवक्ता (महाधिवक्ता) नोटरी पब्लिक मुक़दमा (अदालती मामला) अभियुक्त (आरोपी) महाभियोग (महाभियोग) आरोप-पत्र (आरोप-पत्र) प्रतिवाद (रक्षा) अपील याचिका (याचिका) समन (बुलावा) जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) साक्षी नैय्यायिक निपटान ख़ारिज (बर्खास्तगी) भारतीय विधि (भारतीय कानून) दण्ड संहिता (दण्ड संहिता) विधि विशेषज्ञ (कानून विशेषज्ञ)

शैक्षिक: शिक्षा के क्षेत्र में आमतौर पर प्रयुक्त शब्दावली है – जिक्शांत – समारोह (सम्मेलन) शिक्षा-विभाग (शिक्षा विभाग) छात्रावास (छात्रावास) शिक्षण प्रशिक्षण प्रशिक्षु (प्रशिक्षुता) शैक्षानिक (शिक्षा से संबंधित) प्रशिक्षित (प्रशिक्षित) अध्येता (छात्र) पथ्यक्रम (पाठ्यक्रम) पाठ्यपुस्तक (पाठ्यपुस्तक) पथ्यविषय (विषय) शिक्षाकीय प्रवचन (व्याख्यान) अध्ययन-सत्र (अवधि) परीक्षा मौखिक परीक्षा (मौखिक परीक्षा) प्रश्नपत्र परीक्षक परिक्षार्थी (उम्मीदवार) निरीक्षक पूर्णांक (पूर्ण अंक) परीक्षा - फल (परिणाम) उत्तिर्ण (पास) शिक्षा उपाधि (डिग्री) स्नातक उपाधि (स्नातक उपाधि) निश्नात (मास्टर्स) प्रमाण पत्र (प्रमाणपत्र) कुलपति (विश्वविद्यालय का कुलाधिपति) उप-कुलपति (कुलपति) प्रधान-अध्यापक सहपाठी (सहपाठी) कर्मचारी कानून और व्यवस्था कार्मिक विभाग (कार्मिक अनुभाग) कार्यभार ग्रहण (प्रभार की धारणा) कार्य समिति कार्यालय केन्द्र (केंद्र) गोपनीय (गोपनीय) घोषणा पत्र (घोषणा पत्र) तदर्थ (तदर्थ) तारक्की/पोडोनाटी (पदोन्नति) तबादला (स्थानांतरण) नागरिक अधिकार नामांकन (नामांकन) नियमावली (मैनुअल) नियुक्ति नीलाम्बित (निलंबित)
प्रशासनिक: प्रशासन के क्षेत्र में कुछ शब्द हैं - प्रशासनिक विभाग (प्रशासनिक विभाग) कार्यवाई (क्रिया) अंतरिम आदेश (अंतरिम आदेश) अंतर्देशीय (अंतर्देशीय) अखिल भारतीय सेवा (अखिल भारतीय सेवा) अग्रिम (अग्रिम) अतिरिक्त प्रभार (अतिरिक्त प्रभार) अधिकारी (नौकरशाह/अधिकारी) अधिकारी तंत्र (नौकरशाही) अधिनियम अधीनस्थ (अधीनस्थ) अधिसूचना (अधिसूचना) अध्यक्ष (अध्यक्ष) अनुदान अनुबंध राजपत्र (राजपत्र) अस्थायी नियुक्ति (अस्थायी नियुक्ति) आधिकारिक पत्राचार (आधिकारिक पत्राचार) वरिष्ठता क्रम (वरिष्ठता क्रम) आम चुनाव (आम चुनाव) आयोग आरक्षण
धार्मिक: धर्म के क्षेत्र में प्रयुक्त कुछ शब्द हैं – धर्मग्रन्थ (धार्मिक ग्रंथ) धर्म-परिवर्तन (धार्मिक परिवर्तन) धर्म-प्रचार (धर्म का प्रचार) धर्म-उपदेशक (धार्मिक उपदेशक) धर्म-प्रवर्तक (पैगंबर) पुरोहित-कर्म/यजमानी (पुजारी) उपासना स्थल (पूजा स्थल) वेदी उपवास भक्ति आस्तिक (आस्तिक) नास्तिक आध्यात्मिक साहित्यिक: साहित्य के क्षेत्र में कुछ सामान्यतः प्रयुक्त शब्द हैं – साहित्य व्याकरण व्यंगकार (व्यंग्यकार) गद्यकार (गद्य-लेखक) निबंधकार (निबंधकार) कथाकार (काल्पनिक लेखक) उपन्यासकार (उपन्यासकार) जीवनी लेखक कवि गीतकार (गीतकार) नाटककार (नाटककार) राष्ट्र कवि साहित्यिक कृति (साहित्यिक कृति) लोक कथा संसारन (संस्मरण) आत्मकथा (आत्मकथा) छंदबद्ध काव्य (पद्य) चंद्रमुक्त पद्य (मुक्त छंद) गीत (गीत) चंदा (मीटर) काव्यशास्त्र
वैज्ञानिक: विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रयुक्त कुछ तकनीकी शब्द हैं – विज्ञान अनुसंधान आविष्कार प्रयोगशाला (प्रयोगशाला) प्रयोग (टेस्ट) प्रमाणु (परमाणु) रसायन आंवला (अम्ल) रसायनशास्त्र क्षार (अलचली) खनिज (खनिज) उर्जा (ऊर्जा) स्थिर ऊर्जा (स्थैतिक ऊर्जा) तापमान (तापमान) तपंका (डिग्री) हिमंका (फ्रेज़िंग पॉइंट) गलानांका (गलनांक) वातानुकुलित (वातानुकूलित) ऊतक (ऊतक) नाभिकीय (परमाणु) कोशिका (कोशिका) हारमोन (हारमोन) प्रकाश परिवर्तन (प्रतिबिंब) संपुंजन (फोकस) ध्वनि विस्तार (ध्वनि प्रवर्धन) ध्वनिरोधक (ध्वनिरोधक) वायुमापी (वायुमापी) वर्षामापी (वर्षा दृष्टि) श्वनामापी (सोनोमीटर) प्रकाशमापी (प्रकाशमापी) गुरुत्वाकर्षण भारहीनता (भारहीनता) चुम्बतिया बल (चुम्बकीय शक्ति) अंतरिक्ष विज्ञान (अंतरिक्ष विज्ञान)


विश्वव्यापी उपयोग में आने वाले शब्द, जैसे रेडियो, रडार, पेट्रोल आदि, उचित नामों पर आधारित शब्द, जैसे फारेनहाइट पैमाना, वोल्टमीटर, एम्पीयर आदि, तत्वों और यौगिकों के नाम, जैसे ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, क्लोरीन, हाइड्रोजन, ओजोन आदि, वनस्पति विज्ञान, प्राणि विज्ञान आदि जैसे विज्ञानों में द्विपद नामकरण, भार, माप और भौतिक राशियों की इकाइयाँ, जैसे कैलोरी, एम्पीयर आदि, और अंक, प्रतीक, चिह्न और सूत्र, जैसे साइन, कॉस, टैन, लॉग आदि, उनके वर्तमान अंग्रेजी रूपों में उपयोग किए जाते हैं।

नवंबर २९, अपन्हुति, विनोक्ति, प्रतिवस्तूपमा, सहोक्ति, अलंकार, नाक, सोनेट, नवगीत

सलिल सृजन नवंबर २९
*
सॉनेट
कविता
(इटैलियन शैली)
*
कविता खबर नहीं जो बासी हो जाए,
अगर सनातन सत्य कह रही है कविता,
अजर अमर हो जैसे सरिता या सविता,
अश्व समय का चारा समझ न खा पाए।
नहीं सियासत-सत्ता के मन को भाए,
शुभ कर राह दिखाए जैसे हो वनिता,
मारे-खाए चोट, न हारे, है विजिता,
कलकल करे, कूककर नित झूमे भाए।
कविता चेरी नहीं न स्वामिनी, सखी कहो,
दहो विरह में नहीं, साथ रह रहो सुखी,
सत्य-स्वप्न के ताने-बाने 'सलिल' बुनो।
बैठ नर्मदा-तीर रस-लहर सम प्रवहो,
सुधियों की चादर पर बैठो, उठा-तहो,
कौन आत्म-परमात्म मूँदकर नयन गुनो।
***
सॉनेट
कविता
(इंग्लिश शैली)
*
है अखबार नहीं; जो कविता हो बासी,
कहे समय का सत्य सनातन यदि कविता,
कालजयी; गाए संसारी-सन्यासी,
मल दलदल कर कमल उगाए हो शुचिता।
पुरा भूलकर कविता कहती रचो नया,
बहती धारा रहे निर्मला, याद रखो,
आगत देखो; विगत न जाने कहाँ गया,
मिले पराजय; बिसरा जय का स्वाद चखो।
कविता सविता सदृश तिमिर हर लेती है,
कविता शशि जैसे अमृत रस बरसाती,
कविता बढ़ा मनोबल जय वर देती है,
कविता गुरु गंभीर राह भी दिखलाती।
कविता करना नहीं, उसे जीना सीखो।
कविता कार कवि 'सलिल' कबीरा सम दीखो।
२९.११.२०२३
***
बुंदेली सॉनेट
सारद माँ
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे।।
मूढ़ मगज कछु सीख नें पाओ।
तन्नक सीख सिखा दे रे।।
माई! बिराजीं जा परबत पै।
मैं कैसउ चढ़ पाऊँ ना।।
माई! बिराजीं स्याम सिला मा।
मैं मूरत गढ़ पाऊँ ना।।
मैया आखर मा पधराई।
मैं पोथी पढ़ पाऊँ ना।
मन मंदिर मा पधराओ
तुम बिन आगे बढ़ पाऊँ ना।।
तन-मन तुमरो, तुम पे वारो।
सारद माँ! कर किरपा तारो।।
संजीव
२९-११-२०२२
जबलपुर
●●●
सॉनेट
आभार
आभार शारद की कृपा
सम्मान की वर्षा हुई
रखना बनाए माँ दया
व्यापे नहीं श्लाघा मुई
नतशिर करूँ वंदन उन्हें
जिनको गुणों की है परख
मुझ निर्गुणी में गुणों को
जो देख पाए हैं निरख
माँ! हर सकल अभिमान ले
कुछ रच सकूँ मति दान दे
जो हर हृदय को हर्ष दे
ऐसा कवित दे, गान दे
हो सफल किंचित साधना
माँ कर कृपा; कर थामना
२८-१२-२०२२
६-३१, मुड़वारा कटनी
ए१\२१ महाकौशल एक्सप्रेस
•••
मित्रों को समर्पित दोहे
विश्वंभर जब गौर हों, तब हो जगत अशोक।
ले कपूर कर आरती, ओमप्रकाश विलोक।।
राम किशोर अनूप हैं, प्रबल भारती धार।
नमन शारदा-रमा को, रम्य बसंत बहार।।
पुष्पा मीरा मन मधुर ,मिलन दीपिका संग।
करे भारती आरती, पवन सुमन शुभरंग।।
मीनाक्षी रजनीश ने, वरा सुनीता पंथ।
श्यामा गीत सुना कहें, छाया रहे बसंत।।
सलिल सुधा वसुधा विजय, संजीवित हो सृष्टि।
आत्माराम बता रहे, रहे विनीता दृष्टि।।
२७-११-२०२२, दिल्ली
•••
मुक्तिका
नमन
नमन हमने किया तुमको
नमन तुमने किया हमको
न मन का मन हुआ लेकिन
सुमिर मन ने लिया मन को
अमन चाहा चमन ने जब
वतनमय कर लिया तन को
स्वजन ने बन सुजन पल-पल
निहारा था सिर्फ धन को
२६-११-२०२२, दिल्ली
●●●
सॉनेट
सफर
*
भोर भई उठ सफर शुरू कर
अंधकार हर दे उजियारा
भर उड़ान हिलमिल कलरव कर
नील गगन ने तुझे पुकारा
गहन श्वास ले छोड़ निरंतर
बन संकल्पी, बुझे न पावक
हो कृतज्ञ हँस धरा-नमन कर;
भरे कुलाचें कोशिश शावक
सलिल स्नान कर, ईश गान कर
कदम बढ़ा, कर जो करना है
स्वेद-परिश्रम करे दोपहर
साँझ लौटकर घर चलना है
रात कहे ले मूँद आँख तू
प्रभु सुमिरन कर खत्म सफर कर
२६-११-२०२२, दिल्ली
•••
मुक्तक
पंछियों से चहचहाना सीख ले
निर्झरों से गुनगुनाना सीख ले
भुनभुना मर हारकर नाहक 'सलिल'
प्यार कर दिल जीत जाना सीख ले
मुक्तिका
शांत जी के लिए
शांत सुशांत प्रशांत नमन है
शोभित तुमसे काव्य चमन है
नूर नूर का कलम बिखेरे
कीर्ति छुए नित नीलगगन है
हिंदी सुत हो प्यारे न्यारे
शांत जहाँ है; वहीं अमन है
बुंदेली की थाम पताका
कविताई ज्यों किया हवन है
मऊरानीपुर का गौरव हो
ठेठ लखनवी काव्य जतन है
हिंदीभाषी हिंदीगौरव
हिंदी ने पा लिया रतन है
२५-११-२०२२
•••
मुक्तिका
*
मुख सुहाना सामने जब आ गया
दिल न काबू में रहा, झट आ गया
*
देख शशि का बिंब, लहरों में सलिल
घाट को भी मुस्कुराना आ गया
*
चाँदनी सिकता पे पसरी इस तरह
हवाओं को गीत गाना आ गया
*
अल्हड़ी खिलखिल हँसी बेसाख्ता
सुनी सन्नाटे को गाना आ गया
*
दिलवरों का दिल न काबू में रहा
दिलरुबा को दिल दुखाना आ गया
*
चाँद को तज चाँदनी संजीव से
हँस मिली मौसम सुहाना आ गया
***
प्रिय सुरेश तन्मय जी के लिए
तेरा तुझको अर्पण
*
मन ही तन की शक्ति है, तन मन का आधार
तन्मय तन मय कम हुआ, मन उसका विस्तार
*
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
तन्मय मनमय श्वास हर, हुई गीत की मीत
*
सुर सुरेश का है मधुर, श्वास-श्वास रस-खान
तन-मन मिल दें पराजय, कोविद को हठ ठान
*
व्याधि-रोग भी शक्ति के, रूप न करिए भीति
मातु शीतला सदृश ही, कोविद पूजें रीति
*
पूजा विधि औषधि नहीं, औषधि मान प्रसाद
पथ्य सहित विश्राम कर, गहें रहें आबाद
*
बाल न बाँका हो सके, सखे! रखें विश्वास
स्वास्थ्य लाभ कर आइए, सलिल न पाए त्रास
२९-११-२०२०
***
मुक्तक
*
हमारा टर्न तो हरदम नवीन हो जाता
तुम्हारा टर्न गया वक्त जो नहीं आता
न फिक्र और की करना हमें सुहाता है
हमारा टर्म द्रौपदी का चीर हो जाता
२८-११-२०१९
***
दोहा सलिला
दिया बाल मत सोचना, हुआ तिमिर का अंत.
तली बैठ मौका तके, तम न भूलिए कंत.
.
नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान.
.
नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
.
दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
.
चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, बीन-बीन ले हक.
समता कर सकता न नर, तज कोशिश नाहक.
.
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
.
यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.
२८-११-२०१७
***
षट्पदी
लिखते-पढ़ते थक गया, बैठ गया हो मौन
पूछ रहा चलभाष से, बोलो मैं हूँ कौन?
बोलो मैं हूँ कौन मिला तब मुझको उत्तर
खुद को जान न पाए क्यों अब तक घनचक्कर?
तुम तुम हो, तुम नहीं अन्य जैसे हो दिखते
बेहतर होता भटक न यदि चुप कविता लिखते।
अलंकार सलिला: ३०
अपन्हुति अलंकार
*
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
कर निषेध उपमेय का, हो उपमान सप्रीत।।
'अपन्हुति' का अर्थ है वारण या निषेध करना, छिपाना, प्रगट न होने देना आदि. इसलिए इस अलंकार में प्रायः निषेध देखा जाता है। प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत या उपमान का आरोप या स्थापना किया जाए तो 'अपन्हुति अलंकार' होता है। जहाँ उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये वहाँ 'अपन्हुति अलंकार' होता है।
प्रस्तुत या उपमेय का, लें निषेध यदि देख।
अलंकार तब अपन्हुति, पल में करिए लेख।।
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
आरोपित हो अप्रस्तुत, 'सलिल' मानिये रीत।।
१. हेम सुधा यह किन्तु है सुधा रूप सत्संग।
यहाँ सुधा पर सुधा का आरोप करना के लिए उसमें अमृत के गुण का निषेध किया गया है। अतः, अपन्हुति अलंकार है।
२.सत्य कहहूँ हौं दीनदयाला, बन्धु न होय मोर यह काला।
यहाँ प्रस्तुत उपमेय 'बन्धु' का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान 'काल' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति अलंकार है।
३. फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें लखातीं।
रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके।।
प्रकृत उपमेय 'वारि बूँदे' का निषेधकर 'आँसुओं' की स्थापना किये जाने के कारण यहाँ ही अपन्हुति है।
४.अंग-अंग जारति अरि, तीछन ज्वाला-जाल।
सिन्धु उठी बडवाग्नि यह, नहीं इंदु भव-भाल।।
अत्यंत तीक्ष्ण ज्वालाओं के जाल में अंग-प्रत्यंग जलने का कारण सिन्धु की बडवाग्नि नहीं, शिव के शीश पर चन्द्र का स्थापित होना है. प्रस्तुत उपमेय 'बडवाग्नि' का प्रतिषेध कर अन्य उपमान 'शिव'-शीश' की स्थापना के कारण अपन्हुति है.
५.छग जल युक्त भजन मंडल को, अलकें श्यामन थीं घेरे।
ओस भरे पंकज ऊपर थे, मधुकर माला के डेरे।।
यहाँ भक्ति-भाव में लीन भक्तजनों के सजल नयनों को घेरे काली अलकों के स्थापित उपमेय का निषेध कर प्रातःकाल तुहिन कणों से सज्जित कमल पुष्पों को घेरे भँवरों के अप्रस्तुत उपमान को स्थापित किया गया है. अतः अपन्हुति अलंकार है.
६.हैं नहीं कुल-श्रेष्ठ, अंधे ही यहाँ हैं।
भक्तवत्सल साँवरे, बोलो कहाँ हैं? -सलिल
यहाँ द्रौपदी द्वारा प्रस्तुत उपमेय कुल-श्रेष्ठ का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान अंधे की स्थापना की गयी है. अतः, अपन्हुति है.
७.संसद से जन-प्रतिनिधि गायब
बैठे कुछ मक्कार हैं। -सलिल
यहाँ उपमेय 'जनप्रतिनिधि' का निषेध कर उपमान 'मक्कार' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति है.
८. अरी सखी! यह मुख नहीं, यह है अमल मयंक।
९. किरण नहीं, पावक के कण ये जगतीतल पर गिरते हैं।
१०. सुधा सुधा प्यारे! नहीं, सुधा अहै सतसंग।
११. यह न चाँदनी, चाँदनी शिला 'मरमरी श्वेत।
१२. चंद चंद आली! नहीं, राधा मुख है चंद।
१३. अरध रात वह आवै मौन
सुंदरता बरनै कहि कौन?
देखत ही मन होय अनंद
क्यों सखि! पियमुख? ना सखि चंद।
अपन्हुति अलंकार के प्रकार:
'यहाँ' नहीं 'वह' अपन्हुति', अलंकार लें जान।
छः प्रकार रोचक 'सलिल', रसानंद की खान।।
प्रस्तुत या उपमेय का निषेध कर अप्रस्तुत की स्थापना करने पर अपन्हुति अलंकार जन्मता है. इसके छः भेद हैं.
१. शुद्धापन्हुति:
जहाँ पर प्रकृत उपमेय को छिपाकर या उसका प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत का निषेधात्मक शब्दों में आरोप किया जाता है.
१. ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भलो,
हरि सों हमारे ह्यां न फूले वन कुञ्ज हैं।
किंसुक गुलाब कचनार औ' अनारन की
डारन पै डोलत अन्गारन के पुंज हैं।।
२. ये न मग हैं तव चरण की रेखियाँ हैं।
बलि दिशा की ओर देखा-देखियाँ हैं।।
विश्व पर पद से लिखे कृति-लेख हैं ये।
धरा-तीर्थों की दिशा की मेख हैं ये।।
३. ये न न्यायाधीश हैं,
धृतराष्ट्र हैं ये।
न्याय ये देते नहीं हैं,
तोलते हैं।।
४. नहीं जनसेवक
महज सत्ता-पिपासु,
आज नेता बन
लूटते देश को हैं।
५. अब कहाँ कविता?
महज तुकबन्दियाँ हैं,
भावना बिन रचित
शाब्दिक-मंडियाँ हैं।
२. हेत्वापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत का आरोप करते समय हेतु या कारण स्पष्ट किया जाए वहाँ हेत्वापन्हुति अलंकार होता है.
१. रात माँझ रवि होत नहिं, ससि नहिं तीव्र सुलाग।
उठी लखन अवलोकिये, वारिधि सों बड़बाग।।
२. ये नहिं फूल गुलाब के, दाहत हियो अपार।
बिनु घनश्याम अराम में, लगी दुसह दवार।।
३. अंक नहीं है पयोधि के पंक को औ' वसि बंक कलंक न जागै।
छाहौं नहीं छिति की परसै अरु धूमौ नहीं बड़वागि को पागै।।
मैं मन वीचि कियो निह्चै रघुनाथ सुनो सुनतै भ्रम भागै।
ईठिन या के डिठौना दिया जेहि काहू वियोगी की डीठि न लागै।।
४. पहले आँखों में थे, मानस में कूद-मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वहीं उड़े थे, बड़े-बड़े ये अश्रु कब थे.
५. गुरु नहीं, शिक्षक महज सेवक
साध्य विद्या नहीं निज देयक।
३. पर्यस्तापन्हुति:
जहाँ उपमेय या वास्तविक धर्मी में धर्म का निषेध कर अन्य में उसका आरोप जाता है वहाँ पर्यस्तापन्हुति अलंकार होता है।
१. आपने कर्म करि हौं हि निबहौंगो तौ तो हौं ही करतार करतार तुम काहे के?
२. मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती वह मेरी मधुशाला है।।
३ . जहाँ दुःख-दर्द
जनता के सुने जाएँ
न वह संसद।
जहाँ स्वार्थों का
सौदा हो रहा
है देश की संसद।।
४. चमक न बाकी चन्द्र में
चमके चेहरा खूब।
५. डिग्रियाँ पाई,
न लेकिन ज्ञान पाया।
लगी जब ठोकर
तभी कुछ जान पाया।।
४. भ्रान्त्य अपन्हुति:
जहाँ किसी कारणवश भ्रम हो जाने पर सच्ची बात कहकर भ्रम का निवारण किया जाता है और उसमें कोई चमत्कार रहता है, वहाँ भ्रान्त्यापन्हुति अलंकार होता है।
१. खायो कै अमल कै हिये में छायो निरवेद जड़ता को मंत्र पढि नायो शीश काहू अरि।
कै लग्यो है प्रेत कै लग्यो है कहूँ नेह हेत सूखि रह्यो बदन नयन रहे आँसू भरि।।
बावरी की ऐसी दशा रावरी दिखाई देति रघुनाथ इ भयो जब मन में रो गयो डरि।
सखिन के टरै गरो भरे हाथ बाँसुरी देहरे कही-सुनी आजु बाँसुरी बजाई हरि।।
२. आली लाली लखि डरपि, जनु टेरहु नंदलाल।
फूले सघन पलास ये, नहिं दावानल ज्वाल।।
३. डहकु न है उजियरिया, निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लाग, मोहिं बिनु राम।।
४. सर्प जान सब डर भगे, डरें न व्यर्थ सुजान।
रस्सी है यह सर्प सी, किन्तु नहीं है जान।।
५. बिन बदरा बरसात?
न, सिर धो आयी गोरी।
टप-टप बूँदें टपकाती
फिरती है भोरी।।
५. छेकापन्हुति:
जहाँ गुप्त बात प्रगट होने की आशंका से चतुराईपूर्वक मिथ्या समाधान से निषेध कर उसे छिपाया जाता है वहाँ छेकापन्हुति अलंकार होता है।
१. अंग रंग साँवरो सुगंधन सो ल्प्तानो पीट पट पोषित पराग रूचि वरकी।
करे मधुपान मंद मंजुल करत गान रघुनाथ मिल्यो आन गली कुञ्ज घर की।।
देखत बिकानी छबि मो पै न बखानी जाति कहति ही सखी सों त्यों बोली और उरकी।
भली भईं तोही मिले कमलनयन परत नहीं सखी मैं तो कही बात मधुकर की।।
२. अर्धनिशा वह आयो भौन।
सुन्दरता वरनै कहि कौन?
निरखत ही मन भयो अनंद।
क्यों सखी साजन?
नहिं सखि चंद।।
३. श्यामल तन पीरो वसन मिलो सघन बन भोर।
देखो नंदकिशोर अलि? ना सखि अलि चितचोर।।
४. चाहें सत्ता?,
नहीं-नहीं,
जनसेवा है लक्ष्य।
५. करें चिकित्सा डॉक्टर
बिना रोग पहचान।
धोखा करें मरीज से?
नहीं, करें अनुमान।
६. कैतवापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रत्यक्ष निषेध न कर चतुराई से किसी व्याज (बहाने) से उसका निषेध किया जाता है वहाँ कैतवापन्हुति अलंकार होता है। कैटव में बहाने से, मिस, व्याज, कारण आदि शब्दों द्वारा उपमेय का निषेध कर उपमान का होना कहा जाता है।।
१. लालिमा श्री तरवारि के तेज में सारदा लौं सुखमा की निसेनी।
नूपुर नील मनीन जड़े जमुना जगै जौहर में सुखदेनी।।
यौं लछिराम छटा नखनौल तरंगिनी गंग प्रभा फल पैनी।
मैथिली के चरणाम्बुज व्याज लसै मिथिला मग मंजु त्रिवेनी।
२. मुख के मिस देखो उग्यो यह निकलंक मयंक।
३. नूतन पवन के मिस प्रकृति ने सांस ली जी खोल के।
यह नूतन पवन नहीं है,प्रकृति की सांस है।
४. निपट नीरव ही मिस ओस के
रजनि थी अश्रु गिरा रही
ओस नहीं, आँसू हैं।
५. जनसेवा के वास्ते
जनप्रतिनिधि वे बन गये,
हैं न प्रतिनिधि नेता हैं।
***
अलंकार सलिला ३५
विनोक्ति अलंकार
*
बिना वस्तु उपमेय को, जहाँ दिखाएँ हीन.
है 'विनोक्ति' मानें 'सलिल', सारे काव्य प्रवीण..
जहाँ उपमेय या प्रस्तुत को किसी वस्तु के बिना हीन या रम्य वर्णित किया जाता है वहाँ विनोक्ति अलंकार होता है.
१. देखि जिन्हें हँसि धावत हैं लरिकापन धूर के बीच बकैयां.
लै जिन्हें संग चरावत हैं रघुनाथ सयाने भए चहुँ बैयां.
कीन्हें बली बहुभाँतिन ते जिनको नित दूध पियाय कै मैया.
पैयाँ परों इतनी कहियो ते दुखी हैं गोपाल तुम्हें बिन गैयां.
२. है कै महाराज हय हाथी पै चढे तो कहा जो पै बाहुबल निज प्रजनि रखायो ना.
पढि-पढि पंडित प्रवीणहु भयो तो कहा विनय-विवेक युक्त जो पै ज्ञान गायो ना.
अम्बुज कहत धन धनिक भये तो कहा दान करि हाथ निज जाको यश छायो ना.
गरजि-गरजि घन घोरनि कियो तो कहा चातक के चोंच में जो रंच नीर नायो ना.
३. घन आये घनघोर पर, 'सलिल' न लाये नीर.
जनप्रतिनिधि हरते नहीं, ज्यों जनगण की पीर..
४. चंद्रमुखी है / किन्तु चाँदनी शुभ्र / नदारद है.
५. लछमीपति हैं नाम के / दान-धर्म जानें नहीं / नहीं किसी के काम के
६. समुद भरा जल से मगर, बुझा न सकता प्यास
मीठापन जल में नहीं, 'सलिल' न करना आस
७. जनसेवा की भावना, बिना सियासत कर रहे
मिटी न मन से वासना, जनप्रतिनिधि कैसे कहें?
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अलंकार सलिला: ३४
प्रतिवस्तूपमा अलंकार
*
एक धर्म का शब्द दो, करते अगर बखान.
'प्रतिवस्तुपमा' हो 'सलिल', अलंकार रस-खान..
'प्रतिवस्तुपमा' में कहें, एक धर्म दो शब्द.
चमत्कार लख काव्य का, होते रसिक निशब्द..
जहाँ उपमेय और उपमान वाक्यों का विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म कहा जाता है, वहाँ
प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है.
जब उपमेय और उपमान वाक्यों का एक ही साधारण धर्म भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा
जाय अथवा जब दो वाक्यों में वस्तु-प्रति वस्तु भाव हो तो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता
है.
प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्य होते हैं- १) उपमेय वाक्य, २) उपमान वाक्य. इन दोनों वाक्यों का
एक ही साधारण धर्म होता है. यह साधारण धर्म दोनों वाक्यों में कहा जाता है पर अलग-
अलग शब्दों से अर्थात उपमेय वाक्य में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उपमान वाक्य
में उस शब्द का प्रयोग न कर किसी समानार्थी शब्द द्वारा समान साधारण धर्म की
अभिव्यक्ति की जाती है.
प्रतिवस्तूपमा अलंकार का प्रयोग करने के लिए प्रबल कल्पना शक्ति, सटीक बिम्ब-विधान
चयन-क्षमता तथा प्रचुर शब्द-ज्ञान की पूँजी कवि के पास होना अनिवार्य है किन्तु प्रयोग में
यह अलंकार कठिन नहीं है.
उदाहरण:
१. पिसुन बचन सज्जन चितै, सकै न फेरि न फारि.
कहा करै लगि तोय मैं, तुपक तीर तरवारि..
२. मानस में ही हंस किशोरी सुख पाती है.
चारु चाँदनी सदा चकोरी को भाती है.
सिंह-सुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी?
क्या पर नर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी?
यहाँ प्रथम व चतुर्थ पंक्ति में उपमेय वाक्य और द्वितीय-तृतीय पंक्ति में उपमान वाक्य है.
३. मुख सोहत मुस्कान सों, लसत जुन्हैया चंद.
यहाँ 'मुख मुस्कान से सोहता है' यह उपमेय वाक्य है और 'चन्द्र जुन्हाई(चाँदनी) से लसता
(अच्छा लगता) है' यह उपमान वाक्य है. दोनों का साधारण धर्म है 'शोभा देता है'. यह
साधारण धर्म प्रथम वाक्य में 'सोहत' शब्द से तथा द्वितीय वाक्य में 'लसत' शब्द से कहा
गया है.
४. सोहत भानु-प्रताप सों, लसत सूर धनु-बान.
यहाँ प्रथम वाक्य उपमान वाक्य है जबकि द्वितीय वाक्य उपमेय वाक्य है.
५. तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा, चोरहिं चाँदनि रात न भावा.
यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न ' शब्दों से और उपमान वाक्य
में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है.
पाठकगण कारण सहित बताएँ कि निम्न में प्रतिवस्तूपमा अलंकार है या नहीं?
६. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.
७. हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.
८. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना ताजे कलंक.
९. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.
त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..
१०. तेज चाल थी चोर की, गति न पुलिस की तेज
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अलंकार सलिला: ३३
सहोक्ति अलंकार
*
कई क्रिया-व्यापार में, धर्म जहाँ हो एक।
मिले सहोक्ति वहीं 'सलिल', समझें सहित विवेक।।
एक धर्म, बहु क्रिया ही, है सहोक्ति- यह मान।
ले सहवाची शब्द से, अलंकार पहचान।।
सहोक्ति अपेक्षाकृत अल्प चर्चित अलंकार है। जब कार्य-कारण रहित सहवाची शब्दों द्वारा अनेक व्यापारों
अथवा स्थानों में एक धर्म का वर्णन किया जाता है तो वहाँ सहोक्ति अलंकार होता है।
जब दो विजातीय बातों को एक साथ या उसके किसी पर्याय शब्द द्वारा एक ही क्रिया या धर्म से अन्वित
किया जाए तो वहाँ सहोक्ति अलंकर होता है। इसके वाचक शब्द साथ अथवा पर्यायवाची संग, सहित, समेत, सह, संलग्न आदि होते हैं।
१. नाक पिनाकहिं संग सिधायी।
धनुष के साथ नाक (प्रतिष्ठा) भी चली गयी। यहाँ नाक तथा धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही शब्द
'साथ' से अन्वित कर उनका एक साथ जाना कहा गया है।
२. भृगुनाथ के गर्व के साथ अहो!, रघुनाथ ने संभु-सरासन तोरयो।
यहाँ परशुरराम का गर्व और शिव का धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही क्रिया 'तोरयो' से अन्वित
किया गया है।
३. दक्खिन को सूबा पाइ, दिल्ली के आमिर तजैं, उत्तर की आस, जीव-आस एक संग ही।।
यहाँ उत्तर दिशा में लौट आने की आशा तथा जीवन के आशा इन दो विजातीय बैटन को एक ही शब्द 'तजना' से अन्वित किया गया है।
४. राजाओं का गर्व राम ने तोड़ दिया हर-धनु के साथ।
५. शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी।
६. देह और जीवन की आशा साथ-साथ होती है क्षीण।
७. तिमिर के संग शोक-समूह । प्रबल था पल-ही-पल हो रहा।
८. ब्रज धरा जान की निशि साथ ही। विकलता परिवर्धित हो चली।
९. संका मिथिलेस की, सिया के उर हूल सबै, तोरि डारे रामचंद्र, साथ हर-धनु के।
१०. गहि करतल मुनि पुलक सहित कौतुकहिं उठाय लियौ।
नृप गन मुखन समेत नमित करि सजि सुख सबहिं दियौ।।
आकर्ष्यो सियमन समेत, अति हर्ष्यो जनक हियौ।
भंज्यो भृगुपति गरब सहित, तिहुँलोक बिसोक कियौ।।
११. छुटत मुठिन सँग ही छुटी, लोक-लाज कुल-चाल।
लगे दुहन एक बेर ही, चल चित नैन गुलाल।।
१२. निज पलक मेरी विकलता साथ ही, अवनि से उर से, मृगेक्षिणी ने उठा।
१३. एक पल निज शस्य श्यामल दृष्टि से, स्निग्ध कर दी दृष्टि मेरी दीप से।।
१४. तेरा-मेरा साथ रहे, हाथ में साथ रहे।
१५. ईद-दिवाली / नीरस-बतरस / साथ न होती।
१६. एक साथ कैसे निभे, केर-बेर का संग?
भारत कहता शांति हो, पाक कहे हो जंग।।
उक्त सभी उदाहरणों में अन्तर्निहित क्रिया से सम्बंधित कार्य या कारण के वर्णन बिना ही एक धर्म (साधारण धर्म) का वर्णन सहवाची शब्दों के माध्यम से किया गया है.
२८-११-२०१५
***
मुहावरेदार षट्पदी
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ राह निकालें
नाक नकेल भी डाल सखा जू, न कटे जंजाल तो बाँह चढ़ा लें
***
नवगीत:
*
कौन बताये
नाम खेल का?
.
तोल-तोल के बोल रहे हैं
इक-दूजे को तोल रहे हैं
कौन बताये पर्दे पीछे
किसके कितने मोल रहे हैं?
साध रहे संतुलन
मेल का
.
तुम इतने लो, हम इतने लें
जनता भौचक कब कितने ले?
जैसी की तैसी है हालत
आश्वासन चाहे जितने ले
मेल नीर के
साथ तेल का?
.
केर-बेर का साथ निराला
स्वार्थ साधने बदलें पाला
सत्ता खातिर खेल खेलते
सिद्धांतों पर डाला ताला
मौसम आया
धकापेल का
२८-११-२०१४
***
नवगीत:
कब रूठें
कब हाथ मिलायें?
नहीं, देव भी
कुछ कह पायें
.
ये जनगण-मन के नायक हैं
वे बमबारी के गायक हैं
इनकी चाह विकास कराना
उनकी राह विनाश बुलाना
लोकतंत्र ने
तोपतंत्र को
कब चाहा है
गले लगायें?
.
सारे कुनबाई बैठे हैं
ये अकड़े हैं, वे ऐंठे हैं
उनका जन आधार बड़ा पर
ये जन मन मंदिर पैठे हैं
आपस में
सहयोग बढ़ायें
इनको-उनको
सब समझायें
. . .
(सार्क सम्मेलन काठमांडू, २६.१.२०१४ )