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शनिवार, 21 जून 2025

जून २१, लघुकथा, सदोका, महाकाव्य, योग दिवस, दाँत, कुरुक्षेत्र, व्यूह

गरुण व्यूह 
सलिल सृजन जून २१
विश्व योग दिवस
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महाभारत में व्यूह रचना 
कुरुक्षेत्र में रचे गए कुछ प्रमुख व्यूह: चक्रव्यूह, गरुड़ व्यूह, क्रौंच व्यूह, मकर व्यूह, कच्छप व्यूह, अर्धचंद्राकार व्यूह, वज्र व्यूह, सर्वतोभद्र व्यूह, श्रीन्गातका व्यूह आदि थे।  
गरुड़ व्यूह
महाभारत युद्ध में कौरव सेना की ओर से सेनापति भीष्म पितामह ने गरुड़ व्यूह की रचना    की थी। वे स्वयं इसके अग्र स्थान पर थे। गरुड़ व्यूह भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के     आकार में रचा गया था। इसी आकार में कौरवों की सेना ने पांडवों पर आक्रमण किया था।   जिस तरह गरुण अपनी चोंच से प्रहार करता है वैसे ही सर्वाधिक घटक प्रहार भीष्म कर     रहे थे। गरुण के पंखों की तरह दायें-बायें पक्ष से शेष योद्धा भीष्म को मदद कर रहे थे

अर्ध चंद्र व्यूह 
    अर्धचंद्र व्यूह
    कौरव सेना के गरुड़ व्यूह के जवाब में पांडव पक्ष से अर्जुन ने अर्धचंद्र व्यूह की रचना की     थी। अर्धचंद्र अर्थात आधे चंद्र के आकार के इस व्यूह में सबसे आगे सर्वाधिक पराक्रमी        योद्धा अर्जुन ने आक्रमण की बागडोर थाम रखी थी। मध्य भाग में पांडव पक्ष के सेनापति     युधिष्ठिर थे जो कि कमजोर योद्धा थे किंतु ज्येष्ठ पांडव और सेनापति होने के नाते उनकी        सुरक्षा सर्वोपरि थी। शत्रु युधिष्ठिर पर हमला करने के पूर्व अर्जुन से लड़ना पड़ता और          दाहिने-बायें लड़ रहे योद्धा युधिष्ठिर की रक्षा हेतु बीच में आ जाते। अर्धचंद्र व्यूह से ही            पांडवों ने कौरवों के गरुड़ व्यूह को कड़ी चुनौती दी थी। कौरव पक्ष किसी भी तरह            युधिष्ठिर को बंदी बनाकर पांडवों को पराजित करना चाहता ठा किंतु पांडवों ने शत्रु की         यह चाल नाकाम कार दी थी।

क्रौंच व्यूह 

क्रौंच व्यूह
महाभारत युद्ध में क्रौंच व्यूह की रचना पांडवों और कौरवों, दोनों के द्वारा अलग-अलग समय पर की गई थी। क्रौंच एक पक्षी का नाम है। यह सारस की प्रजाति का होता है। इसी क्रौंच पक्षी के आकार में सेना सज गई थी और पांडवों ने कौरव सेना पर आक्रमण किया था। इस क्रौंच व्यूह में सिर, आँख, गर्दन, पंख आदि अंगों पर अलग-अलग महारथी अपनी-अपनी सेना के साथ तैनात थे। सभी महारथियों ने क्रौंच व्यूह में अपने-अपने क्षेत्र की सुरक्षा करते हुए सामने वाली सेना पर आक्रमण किया। यह व्यूह बहुत ताकतवर और सुरक्षा की दृष्टि से श्रेष्ठ था। इसी वजह से दोनों ही पक्षों ने इस व्यूह की रचना की थी।
चक्र व्यूह
चक्र व्यूह की संरचना चक्र के आकार में की जाती थी। इस व्यूह को भेदने का पूरा रहस्य सिर्फ अर्जुन को मालूम था, लेकिन उस समय अर्जुन कौरवों के महारथी सुशर्मा से युद्ध कर रहा था। इस वजह से चक्र व्यूह को भेदने के लिए अभिमन्यु सहित सभी पांडव महारथी तैनात हो गए। चक्र व्यूह के द्वार पर जयद्रथ तैनात था, जिसने अभिमन्यु के अतिरिक्त किसी और पांडव को चक्र व्यूह में प्रवेश नहीं करने दिया। चक्र व्यूह में योद्धाओं की ७ परतें (पंक्तियाँ) थीं। अभिमन्यु चक्र व्यूह की सभी परतों को भेदते हुए मध्य भाग में पहुँच गया। वहाँ कौरवों के सात महारथियों ने एक साथ मिलकर अभिमन्यु की हत्या कर दी थी। जबकि उस युद्ध के नियमों के अनुसार एक योद्धा के साथ एक से अधिक योद्धा नहीं लड़ सकते थे। अभिमन्यु वध से क्रुद्ध अर्जुन ने अगले दिन सूर्यास्त होने के पूर्व जयद्रथ के वध का प्राण किया था।


मंडल व्यूह
कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह ने कुरुक्षेत्र में सातवें दिन बहुत कठिन व्यूह रचा था, जिसका नाम है मंडल व्यूह। इस व्यूह की गणना सबसे कठिन व्यूहों में की जाती है। यह व्यूह रचना एक वृत्त या चक्र के आकार की होती है, जिसमें सैनिक एक घेरे में खड़े होते हैं। इस व्यूह में कौरव सेना ने पूरी शक्ति के साथ पांडवों पर आक्रमण किया था। मंडल व्यूह अलग-अलग मंडलों के समूह के समान दिखाई देता था। चारों ओर से सुरक्षित इस व्यूह को भेद पाना अत्यंत कठिन होता है। इसके जवाब में पांडवों की ओर से वज्र व्यूह रचा गया था। वज्र व्यूह के आक्रमण से कौरव सेना का मंडल व्यूह को भेद दिया था।

वज्रव्यूह
कुरुक्षेत्र में युद्ध के पहले दिन पांडवों की ओर से धनुर्धर अर्जुन ने वज्र व्यूह की रचना की थी। वज्र व्यूह की रचना देवराज इंद्र के वज्र के आकार के समान की गई थी। वज्र के आकार का व्यूह होने की वजह से इसे वज्र व्यूह कहा गया। पांडवों की पूरी सेना वज्र के आकार में सज गई थी। इस व्यूह में अर्जुन और भीम सेना को आगे रखते थे। वज्र के अग्र भाग में अर्जुन स्वयं की रक्षा से निश्चिंत होकर दोनों पक्षों की सेनाओं को न केवल देख सकता था अपितु जब जिस दिशा में चाहे धनुष से संधान कर शत्रु पर आक्रमण और जरूरत पड़ने पर अपने पक्ष की रक्षा कर सकता था।


ओर्मी व्यूह
मंडल व्यूह की असफलता के बाद कौरव सेना ने ओर्मी व्यूह की रचना की थी। इस व्यूह में पूरी सेना समुद्र के समान सज गई थी। जिस प्रकार समुद्र में लहरें दिखाई देती हैं, ठीक उसी आकार में कौरव सेना ने पांडवों पर आक्रमण किया था। इसके जवाब में पांडवों ने श्रीन्गातका व्यूह की रचना की थी। इस व्यूह का आकार किसी भव्य भवन के समान दिखाई देता था।

चक्रशकट व्यूह
अभिमन्यु की हत्या के बाद अगले दिन कौरव सेना ने जयद्रथ को बचाने के लिए चक्रशकट व्यूह की रचना की थी। इस व्यूह के मध्य भाग में जयद्रथ को रखा गया, ताकि अर्जुन उसे मार न सके और स्वयं अग्नि को समर्पित हो जाए। अर्जुन के न होने से कौरव आसानी से युद्ध जीत सकते थे। इसी वजह से कौरव सेना ने चक्रशकट व्यूह की रचना कर जयद्रथ को बचाने का प्रयास किया। इस व्यूह का आकार भी चक्र के समान की दिखाई देता है और इसमें अलग-अलग परतों में सेना सजी रहती है। सभी परतों पर अलग-अलग कौरव महारथी तैनात किए गए थे, लेकिन अर्जुन ने इस व्यूह को भेद दिया और जयद्रथ को मार दिया था।
सर्वतोभद्र व्यूह:
यह एक व्यापक व्यूह था जिसका उपयोग कौरवों द्वारा किया गया था.
श्रीन्गातका व्यूह:
यह एक भवन के समान दिखने वाला व्यूह था जिसका उपयोग अर्जुन ने किया था.
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लघुकथा
दूसरा चेहरा
साहित्य सेवा को अपना जूनून बताकर उन्होंने संपर्क किया।उनके शहर जाना हुआ तो बहुत आग्रह के साथ अपने आवास पर आमंत्रित किया, सास, पति, पुत्र आदि से परिचय कराकर स्वादिष्ट भोजन कराया, आते-जाते समय चरण स्पर्श किए।
मेरे शहर में उनका आगमन हुआ तो उन्हें गृह आमंत्रित कर मैंने अपने परिवारजनों से मिलवाया, उनके स्वागत में गोष्ठी आदि का आयोजन किया। वे जिस विधा में लेखन कर रही थीं, उसकी कुछ अनुपलब्ध पुस्तकें भेंट कीं, कुछ योजनाएँ बनाई गईं, उनकी संस्था की अपने शहर में ईकाई आरंभ कराई।
सार यह कि बहुत आत्मीय, मधुर और पारिवारिक संबंध हो गए।
कुछ वर्ष बाद उनका पुनरागमन हुआ। अब तक वे अपनी विधा की प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हो गयी थीं, अपना प्रकाशन गृह आरंभ कर चुकी थीं। प्रकाशन गृह संबंधी कई समस्याओं की चर्चा उन्होंने की। एक महिला रचनाकार के बारे में बताया जिसने उनके अनुसार, उन्हें विश्वास में लेकर अपनी पुस्तक छपाकर भुगतान ही नहीं किया।
मैंने उन्हें सहयोग करने की भावना से अपनी एक पुस्तक की पी डी एफ और नगर के मुद्रक ने जो राशि बताई थी, वह अग्रिम देते हुए उनके प्रकाशन की सफलता हेतु शुभकामना दी।
इसके बाद माह पर माह बीतते रहे पर पुस्तक की प्रगति नहीं हो पाई। इस मध्य बेटे का विवाह तय हुआ तो सोचा कि नव दंपत्ति से नव प्रकाशित पुस्तक का विमोचन कराऊँ। उन्होंने अन्य कार्यों में व्यस्त होने का कारण बताकर पुस्तक उपलब्ध कराने में असमर्थता व्यक्त कर दी। लंबी चर्चा के बाद कहा कि दस प्रतियाँ भिजवा देती हूँ। मैंने यह सोचकर संतोष किया कि शेष २९० प्रतियाँ कुछ विलंब से ही सही, मिलेंगी तो।
बेटे का विवाह हुए डेढ़ साल बीत चुका है, अब तक पुस्तक की शेष प्रतियाँ अप्राप्त हैं। अब वे निरंतर प्रकाशकीय गतिविधियाँ बढ़ाती जा रही हैं पर मेरी पुस्तक का भेजने या का अवकाश नहीं है उनके पास।
मैं स्तब्ध हूँ यह देखकर कि एक सुसंस्कारी महिला के सुपरिचित चेहरे पर हावी हो गया है व्यावसायिक प्रकाशक का दूसरा चेहरा।
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द्विपदी
मौन दर-दीवार हैं; चौपाल चुप
दोस्त भी मिलते हैं अंतरजाल पर।
शब्द सलिला सूखती जा रही है
जमाना अब इमोजी का आ आ गया।
सदोका सलिला ५
योग-वियोग
जग की रीत-नीत
जीवन का संगीत।
योग-संयोग
ऐसे होते प्रतीत
जैसे प्रीत-संगीत।२६।
रिश्ते-नाते
सत्य ही बताते
कोई नहीं किसी का।
कोई न गैर
वही अपना सगा
जो मनाता है खैर।२७।
वादा निभाना
आदमी की निशानी
दुनिया आनी-जानी।
वादा भुलाना
सुरासुरी चलन
स्वार्थ-भोग अगन।२८।
देर सबेर
मिलता कर्म-फल
मत होना विकल।
धीरज धर
तलाश अवसर
वर देगा ईश्वर।२९।
मन उन्मन
हरि का सुमिरन
लगी रहे लगन।
दूर हो भ्रांति
जब न हो संक्रांति
तभी मिलेगी शांति।
२१-६-२०२२
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दोहा सलिला
*
दोहा सलिला-स्नान दे, ग्रहण दोष से मुक्ति।
ग्रहण करें रस भाव लय, गति-यति कल संयुक्ति।।
*
ग्रहण करे सुख-दुख धरा, दे-पा सह समभाव।
ग्रहण न लगता इसलिए, हर ग्रह रखे लगाव।।
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ग्रहण न रवि-शशि कुछ करें, देते जग उजियार।
राहु-केतु निज स्वार्थ हित, फैलाते अँधियार।।
*
राहु-केतु पथ रोकते,बनें आप दीवार।
नहीं अधिग्रहण कर सकें, हटें विवश लाचार।।
*
अब तक ग्रहण किया सलिल, जो तूने दे बाँट
दुष्प्रभाव हर ग्रहण का, दूर करो झट छाँट।।
*
संग्रहणी का योग ही, सबसे सरल इलाज।
सद्गृहणी संयोग से, मिले राज बिन राज।।
*
योग-भोग सम भोग ही, तन-मन का संभोग।
मिलन आत्म-परमात्म का, दूर करे हर रोग।।
*
जोड़-घटाना व्यर्थ है, गुणा-भाग फलहीन।
योग मात्र संतोष है, पाकर रहें न दीन।।
*
२२-६-२०२०
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विमर्श
हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा
*
संस्कृत वांग्मय में काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंध। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या करता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।
महाकाव्य के तत्व -
महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।
१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सरगारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्रे: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपतुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।
२. नायक - महाकव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (सीता, कैकेयी, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकव्य रचा जाए। प्राय: एक नायक रखा जाता है किन्तु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकाव्य लिखा जाए तो गोखले, तिकल। लाजपत राय, रविंद्र नाथ, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकाव्य को कालजयी बनाता है।
३. रस - रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। महाकव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व् परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।
अन्य नियम - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरुप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु पथिक जी ने कारण पर लिखित महाकव्य का शीर्षक 'सूतपुत्र' रखकर इस परंपरा को तोडा है।
महाकाव्य : कल से आज
विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अन्तर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।
इस विरासत पर हिंदी साहित्य की महाकाव्य परंपरा में प्रथम दो हैं चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की रामचद्रिका में पांडित्य जनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत भी महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने प्रिय प्रवास और द्वारिका मिश्र ने कृष्णायन की रचना की। कामायनी - जयशंकर प्रसाद, वैदेही वनवास हरिऔध, सिद्धार्थ तथा वर्धमान अनूप शर्मा, दैत्यवंश हरदयाल सिंह, हल्दी घाटी श्याम नारायण पांडेय, कुरुक्षेत्र दिनकर, आर्यावर्त मोहनलाल महतो, नूरजहां गुरभक्त सिंह, गाँधी परायण अम्बिका प्रसाद दिव्य, उत्तर भगवत तथा उत्तर रामायण डॉ. किशोर काबरा, कैकेयी डॉ.इंदु सक्सेना देवयानी वासुदेव प्रसाद खरे, महीजा तथा रत्नजा डॉ. सुशीला कपूर, महाभारती डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, दधीचि आचार्य भगवत दुबे, वीरांगना दुर्गावती गोविन्द प्रसाद तिवारी, क्षत्राणी दुर्गावती केशव सिंह दिखित 'विमल', कुंवर सिंह चंद्र शेखर मिश्र, वीरवर तात्या टोपे वीरेंद्र अंशुमाली, सृष्टि डॉ. श्याम गुप्त, विरागी अनुरागी डॉ. रमेश चंद्र खरे, राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस रामेश्वर नाथ मिश्र अनुरोध, सूतपुत्र महामात्य तथा कालजयी दयाराम गुप्त 'पथिक', आहुति बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।
समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है।
२१-६-२०१९
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विमर्श:
योग दिवस...
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- योग क्या?
= जोड़ना, संचय करना.
- संचय क्या और क्यों करना?
= सृष्टि का निर्माण और विलय का कारक है 'ऊर्जा', अत: संचय ऊर्जा का... लक्ष्य ऊर्जा को रूपांतरित कर परम ऊर्जा तक आरोहण कर पाना.
- ऊर्जा संचय और योग में क्या संबंध है?
= योग शारीरिक, मानसिक और आत्मिक ऊर्जा को चैतन्य कर, उनकी वृद्धि करता है .फलत: नकारात्मकता का ह्रास होकर सकारात्मकता की वृद्धि होती है. व्यक्ति का स्वास्थ्य और चिंतन दोनों का परिष्कार होता है.
- योग धनाढ्यों और ढोंगियों का पाखंड है.
= योग के क्षेत्र में कुछ धनाढ्य और ढोंगी हैं. धनाढ्य होना अपराध नहीं है, ढोंगी होना और ठगना अपराध है. पहचानना और बचना अपनी जागरूकता और विवेक से ही संभव है, गेहूं के बोर में कुछ कंकर होने से पूरा गेहूं नहीं फेंका जा सकता. इसी तरह कुछ पाखंडियों के कारण पूरा योग त्याज्य नहीं हो सकता.
- दैनिक जीवन की व्यस्तता और समयाभाव के कारण योग करने नहीं जाया जा सकता.
= योग करने के लिए कहीं जाना नहीं है, न अलग से समय चाहिए. एक बार सीखने के बाद अभ्यास अपना काम करते हुए भी किया जा सकता है. कार्यालय, कारखाना, खेत, रसोई हर जगह योग किया जा सकता है, वह भी अपना काम करते-करते.
- योग कैसे कार्य करता है?
= योग मुद्राएँ शरीर की शिराओं में रक्त प्रवाह की गति को सुधरती हैं. मन को प्रसन्न करती है. फलत: थकान और ऊब समाप्त होती है. प्रसन्न मन काम करने पर परिणाम की मात्रा और गुण दोनों में वृद्धि होती है. इससे मिली प्रशंसा और सफलता अधिक अच्छा करने की प्रेरणा देती है.
- योग खर्ची ला है.
= नहीं योग बिन किसी अतिरिक्त व्यय के किया जा सकता है. योग रोग घटाकर बचत कराता है.
- कैसे?
= योग से सही आसन सीख कर कार्य करते समय शरीर को सही स्थिति में रखें तो थकान कम होगी, श्वास-प्रश्वास नियमित हो तो रक्त प्रवाह की गति और उनमें ओषजन की मात्रा बढ़ेगी.फलत: ऊर्जा, उत्साह, प्रसन्नता और सामर्थ्य में वृद्धि होगी.
- योग सिखाने वाले बाबा ढोंगी और विलासी होते हैं.
= निस्संदेह कुछ बाबा ऐसे हो सकते हैं. उन्हें छोड़कर सच्च्ररित्र प्रशिक्षक को चुना जा सकता है. दूरदर्शन, अंतरजाल आदि की मदद से बिना खर्च भी सीखा जा सकता है.
- योग और भोग में क्या अंतर है?
= योग और भोग एक सिक्के के दो पहलू हैं. 'दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा', जीने के लिए अन्न, वस्त्र, मकान का भोग करना ही होगा. बेहतर जीवन स्तर और आपदा-प्रबंधन हेतु संचय भी करना होगा. राग और विराग का संतुलन और समन्वय ही 'सम्भोग' है. इसे केवल दैहिक क्रिया मानना भूल है. 'सम्भोग' की प्राप्ति में योग सहायक होता है. 'सम्भोग' से 'समाधि' अर्थात आत्म और परमात्म के ऐक्य की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है. अत्यधिक योग और अत्यधिक भोग दोनों अतृप्ति, अरुचि और अंत में विनाश के कारण बनते हैं. 'योग; 'भोग' का प्रेरक और 'भोग' 'योग' का पूरक है.
- योग कौन कर सकता है?
= योग हर जीवित प्राणी कर सकता है. पशु-पक्षी स्वचेतना से प्रकृति अनुसार आचरण करते हैं जो योग है. मनुष्य में बुद्धितत्व की प्रधानता उसे सर्वार्थ से दूर कर स्वार्थ के निकट कर देती है. योग उसे आत्म तत्व के निकट ले जाकर ब्रम्हांश होने की प्रतीति कराता है. कंकर-कंकर में शंकर होने की अनुभूति होते ही वह सृष्टि के कण-कण से आत्मीयता अनुभव करता है. योग मौन से संवाद की कला है. बिन बोले सुनना-कहना और ग्रहण करना और बाँट देना ही सच्चा योग है.
- योग दिवस क्यों?
योग दिवस केवल स्मरण करने के लिए कि अगले योग दिवस तक योगरत रहकर अपने और सबके जीवन को बेहतर और प्रसन्नता पूर्ण बनाएँ.
२१.६.२०१८
***
नवगीत
राम रे!
*
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भोर-साँझ लौ गोड़ तोड़ रए
कामचोर बे कैते।
पसरे रैत ब्यास गादी पै
भगतन संग लपेटे।
काम पुजारी गीता बाँचें
गोपी नचें निढाल-
आँधर ठोंके ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भट्टी देह, न देत दबाई
पैलउ माँगें पैसा।
अस्पताल मा घुसे कसाई
थाने अरना भैंसा।
करिया कोट कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल-
बेचें न्याय दलाल
राम रे !
लूट बजा रए गाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
झिमिर-झिमिर-झम बूँदें टपकें
रिस रओ छप्पर-छानी।
दागी कर दई रौताइन की
किन नें धुतिया धानी?
अँचरा ढाँके, सिसके-कलपे
ठोंके आपन भाल
राम रे !
जीना भओ मुहाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
२१-६-२०१६
***
दोहा का रंग दांत के संग:
संजीव
*
दाँतों काटी रोटियाँ, रहें हमेशा याद
माँ-हाथों के कौर सा, पाया कहीं न स्वाद
*
दाँत निपोरो तो मिटे, मन का 'सलिल' तनाव
दाँत दिखाओ चमकते, अच्छा पड़े प्रभाव
*
पाँत दाँत की दमकती, जैसे मुक्ता-माल
अधर-कमल के मध्य में, शोभित लगे कमाल
*
दाँत तले उँगली दबा, लगते खूब जनाब
कभी शांत नटखट कभी, जैसे कली गुलाब
*
दाँतों से नख कुतरते, देते नहीं जवाब
नज़र झुकी बिजली गिरी, पलकें हुईं नकाब
*
दाँत बज रहे- काँपता, बदन चढ़ा ज्वर तेज
है मलेरिया बुला लें, दवा किसी को भेज
*
दाँत न टूटे दूध के,चले निभाने प्रीत
दिल के बिल को देखकर, बिसर गया लव-गीत
*
दाँतों में पल्लू दबा, चला नज़र के तीर
लूट लिया दिल ध्वस्त कर, अंतर की प्राचीर
*
दाँत तोड़कर शत्रु के, सैन्य बचाती देश
जान हथेली पर लिये, कसर न छोड़ें लेश
*
दाँतों लोहे के चने, चबा रहे रह शांत
धीरज को करिये नमन, 'सलिल' न होते भ्रांत
*
दहशतगर्दों के करें, मिलकर खट्टे दाँत
'सलिल' रहम मत खाइये, खींच लीजिए आँत
*
दाँत मिलें तो चनों का, होता रहा अभाव
चने मिले बेदाँत को, कैसे करें निभाव?
*
दाँत खोखले हो गये, समझें खिसकी नींव
सजग रहें खुद सदय हों, पल-पल करुणासींव
*
और दिखाने के 'सलिल', खाने के कुछ और
दाँतों की महिमा अमित, करिए इन पर गौर
*
हैं कठोर बाँटें नहीं, अलग-अलग रह पीर
दाँत टूटते जीभ झुक, बच जाती धर धीर
*
दाँत दीन चुप पीसते, चक्की बिना पगार
जी भर रस ले जीभ चुप, पेट गहे आहार
*
खट्टा मीठा चिरपरा, चाबे निस्पृह संत
आह-वाह रसना करे, नहीं स्वार्थ का अंत
*
जिव्हा बहिन रक्षित-सुखी, गाती मधुरिम छंद
बंधु दाँत रक्षा करे, मिले अमित आनंद
*
योग कर रहा शांत रह, दाँत न करता बैर
जिए ऐक्य-सद्भाव से, हँसी-खुशी निर्वैर
*
दाँत स्वच्छता-दूत है, नित्य हो रहा साफ़
जो घिसता उसको करे, तत्क्षण ही यह माफ़
*
क्षुधा मिटाता उदर की, चबा-चबा दे भोज्य
बचा मसूढ़ों को रहा, दाँत नमन के योग्य
*
उगे टूट गिर फिर बढ़े, दाँत न माने हार
कर्मवीर है सूर्य सा, करे नहीं तकरार
*दाँत पीस मत कीजिए, भोजन लगे न अंग। भोज्य चबाएँ दाँत से, मधु-रस सा सत्संग।।
२१-६-२०१५
***
गीत :
उड़ने दो…
*
पर मत कतरो
उड़ने दो मन-पाखी को।
कहो कबीरा
सीख-सिखाओ साखी को...
*
पढ़ो पोथियाँ,
याद रखो ढाई आखर।
मन न मलिन हो,
स्वच्छ रहे तन की बाखर।
जैसी-तैसी
छोड़ो साँसों की चादर।
ढोंग मिटाओ,
नमन करो सच को सादर।
'सलिल' न तजना
रामनाम बैसाखी को...
*
रमो राम में,
राम-राम सब से कर लो।
राम-नाम की
ज्योति जला मन में धर लो।
श्वास सुमरनी
आस अंगुलिया संग चले।
मन का मनका,
फेर न जब तक सांझ ढले।
माया बहिना
मोह न, बांधे राखी को…
२१-६-२०१३
***

शुक्रवार, 20 जून 2025

जून २०, सदोका, पद्मावती, कमलावती, छंद, व्यंग्य, लघु कथा, शिवलिंग, शालिग्राम, पिता,

सलिल सृजन जून २०
पूर्णिका
आँख खोल दे गुलबकावली
सुरभि घोल दे गुलबकावली
.
शुभ्र ज्योत्स्ना थकन मिटाए
बोल बोल दो गुलबकावली
.
अर्क सुँघा कर दे तनाव कम
बिना मोल ही गुलबकावली
कमसिन कोमल कली हरे मन
डोल-डोलकर गुलबकावली
.
माई की बगिया में खेले
सलिल संग नित गुलबकावली
२०.६.२०२५
०००
पूर्णिका
.
आजीवन सुनता रहा जो मन का संगीत
श्वास-श्वास उसकी अमर तज तन का संगीत
.
करता रहा प्रयास नित लेकर प्रभु का नाम
सफल-विफल सम भाव हो जीवन का संगीत
.
स्वार्थ साध्य जिसको सलिल वह न कभी संतुष्ट
हो न सका रसखान रच, वह  धुन का संगीत
आम आदमी बन जियो छोड़ो पद मद मोह
कलकल-कलरव में मिले, मधुवन का संगीत
.
कर स्वदेश से प्रीति मन, निज माटी अनमोल
रवि-शशि किरण हृदय बसा, रच जन का संगीत
२०.६.२०२५
०००
सदोका सलिला
ई​ कविता में
करते काव्य स्नान ​
कवि​-कवयित्रियाँ।
सार्थक​ होता
जन्म निरख कर
दिव्य भाव छवियाँ।१।
ममता मिले
मन-कुसुम खिले,
सदोका-बगिया में।
क्षण में दिखी
छवि सस्मित मिली
कवि की डलिया में।२।
​न​ नौ नगद ​
न​ तेरह उधार,
लोन ले, हो फरार।
मस्तियाँ कर
किसी से मत डर
जिंदगी है बहार।३।
धूप बिखरी
कनकाभित छवि
वसुंधरा निखरी।
पंछी चहके
हुलस, न बहके
सुनयना सँवरी।४।
• ​
श्लोक गुंजित
मन भाव विभोर,
पुजा माखनचोर।
उठा हर्षित
सक्रिय हो नीरव
क्यों हो रहा शोर?५।
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।६।
गुलाबी हाथ
मृणाल अंगुलियाँ
कमल सा चेहरा।
गुलाब थामे
चम्पा सा बदन
सुंदरी या बगिया?७।
लिए उच्चार
पाँच, सात औ' सात
दो मर्तबा सदोका।
रूप सौंदर्य
क्षणिक, सदा रहे
प्रभाव सद्गुणों का।८।
सूरज बाँका
दीवाना है उषा का
मुट्ठी भर गुलाल
कपोलों पर
लगाया, मुस्कुराया
शोख उषा शर्माई।९।
आवारा मेघ
कर रहा था पीछा
देख अकेला दौड़ा
हाथ न आई
दामिनी ने गिराई
जमकर बिजली।१०।
हवलदार
पवन ने जैसे ही
फटकार लगाई।
बादल हुआ
झट नौ दो ग्यारह
धूप खिलखिलाई।११।
महकी कली
गुनगुनाते गीत
मँडराए भँवरे।
सगे किसके
आशिक हरजाई
बेईमान ठहरे।१२।
घर ना घाट
सन्यासी सा पलाश
ध्यानमग्न, एकाकी।
ध्यान भग्न
करना चाहे संध्या
दिखला अदा बाँकी।१३।
सतत बही
जो जलधार वह
सदा निर्मल रही।
ठहर गया
जो वह मैला हुआ
रहो चलते सदा।१४।
पंकज खिला
करता नहीं गिला
जन्म पंक में मिला।
पुरुषार्थ से
विश्व-वंद्य हुआ
देवों के सिर चढ़ा।१५।
खिलखिलाई
इठलाई शर्माई
सद्यस्नाता नवोढ़ा।
चिलमन भी
रूप देख बौराया
दर्पण आहें भरे।१६।
लहराती है
नागिन जैसी लट,
भाल-गाल चूमती।
बेला की गंध
मदिर सूँघ-सूँघ
बेड़नी सी नाचती।१७।
क्षितिज पर
मेघ घुमड़ आए
वसुंधरा हर्षाई।
पवन झूम
बिजली संग नाचा,
प्रणय पत्र बाँचा।१८।
लोकतंत्र में
नेता करे सो न्याय
अफसर का राज।
गौरैयों ने
राम का राज्य चाहा
बाजों को चुन लिया।१९।
घर को लगी
घर के चिराग से
दिन दहाड़े आग।
मंत्री का पूत
किसानों को कुचले
और छाती फुलाए। २०।
मेघ गरजे
रिमझिम बरसे
आसमान भी तर।
धरती भीगी
हवा में हवा हुआ
दुपट्टा, गाल लाल ।२१।
निर्मल नीर
गगन से भू पर
आकर मैला हुआ।
ज्यों कलियों का
दामन भँवरों ने
छूकर पंकिल किया।२२।
चुभ रही थी
गर्मी में तीखी धूप
जीव-जंतु परेशां।
धरा झुलसी
धन्य धरा धीरज
बारिश आने तक।२३।
करते पहुनाई
ढोल बजा दादुर
पत्ते बजाते ताली।
सौंधी महक
माटी ने फैला दी
झूम उठीं शाखाएँ।२४।
मेघ ठाकुर
आसमानी ड्योढी में
जमाए महफिल।
दिखाए नृत्य
कमर लचकाती
बिजली बलखाती।२५।
•••
ॐ सरस्वत्यै नम: ॐ
शारद वंदना
लाक्षणिक जातीय पद्मावती/कमलावती छंद
*
शारद छवि प्यारी, सबसे न्यारी, वेद-पुराण सुयश गाएँ।
कर लिए सुमिरनी, नाद जननि जी, जप ऋषि सुर नर तर जाएँ।।
माँ मोरवाहिनी!, राग-रागिनी नाद अनाहद गुंजाएँ।
सुर सरगमदात्री, छंद विधात्री, चरण - शरण दे मुसकाएँ।।
हे अक्षरमाता! शब्द प्रदाता! पटल लेखनी लिपि वासी।
अंजन जल स्याही, वाक् प्रवाही, रस-धुन-लय चारण दासी।।
हो ॐ व्योम माँ, श्वास-सोम माँ, जिह्वा पर आसीन रहें।
नित नेह नर्मदा, कहे शुभ सदा, सलिल लहर सम सदा बहें।।
कवि काव्य कामिनी, छंद दामिनी, भजन-कीर्तन यश गाए।
कर दया निहारो, माँ उपकारो, कवि कुल सारा तर जाए।।
*
२०-६-२०२०
***
विमर्श
निर्बल नागरिकों के अधिकारों का हनन
*
लोकतंत्र में निर्बल नागरिकों की जीवन रक्षा का भर जिन पर है वे उसका जीना मुश्किल कर दें और जब कोई असामाजिक तत्व ऐसी स्थिति में उग्र हो जाए तो पूरे देश में हड़ताल कर असंख्य बेगुनाहों को मरने के लिए विवश कर दिया जाए।
शर्म आनी चाहिए कि बिना इलाज मरे मरीजों के कत्ल का मुकदमा आई एम् ए के
पदाधिकारियों पर क्यों नहीं चलाती सरकार?
आम मरीजोंजीवन रक्षा के लिए कोर्ट में जनहित याचिका क्यों नहीं लाई जाती ?
मरीजों के मरने के बाद भी जो अस्पताल इलाज के नाम पर लाखों का बिल बनाते हैं,
और लाश तक रोक लेते हैं उनके खिलाफ क्यों नहीं लाते पिटीशन?
दुर्घटना के बाद घायलों को बिना इलाज भगा देनेवाले डाक्टरों के खिलाफ क्यों नहीं
होती पिटीशन?
राजस्थान में डॉक्टर ने मरीज को अस्पताल में सबके साबके मारा, उसके खिलाफ
आई एम् ए ने क्या किया?
यही बदतमीजी वकील भी कर रहे हैं। एक वकील दूसरे वकील को मारे और पूरे देश में हड़ताल कर दो। न्याय की आस में घर, जमीन बेच चुके मुवक्किदिलाने ल की न्याय की चिंता नहीं है किसी वकील को।
आम आदमी को ब्लैक मेल कर रहे पत्रकारों के साथ पूरा मीडिया जुट जाता है।
कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं हम। निर्बल और गरीब की जान बचानेवाला, न्याय
दिलाने वाला, उसकी आवाज उठाने वाला, उसके जीवन भर की कमाई देने का सपना दिखानेवाला सब संगठन बनाकर खड़े हैं। उन्हें समर्थन को संरक्षण चाहिए, और ये सब असहायकी जान लेते रहें उनके खिलाफ कुछ नहीं हो रहा।
शर्मनाक।
***
***
नवाविष्कृत सवैया
गण सूत्र: स म त न भ स म ग ।वर्णिक यति: ७-७-७ ।
*
अँखुआए बीजों को, स्नेह सलिल से सींचो, हरियाली आयेगी।
अँकुराए पत्तों को, पाल धरणि धानी हो, खुशहाली पायेगी।
शुचिता के पौधों को, पाल कर बढ़ाओ तो, रँग होली लाएगी।
ममता के वृक्षों को, ढाल बन बचाओ तो, नव पीढ़ी गायेगी।
*
***
हिंदी का दैदीप्यमान सूर्य सलिल
आभा सक्सेना 'दूनवी'
संजीव वर्मा सलिल एक ऐसा नाम जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है |उनकी प्रशंसा करना मतलब सूर्य को दीपक दिखाने जैसा होगा |उनसे मेरा परिचय मुख पोथी पर सन 2014 - 2015 में हुआ |उसके बाद तो उनसे दूरभाष पर वार्तालाप का सिलसिला चल रहा है| सलिल जी स्वयं में ही एक पूरा छंद काव्य हैं| उन्होने किस विधा में नहीं लिखा हर विधा के वे ज्ञानी पंडित हैं उन के व्यक्तित्व में उनकी कवियित्री बुआ महादेवी वर्मा जी की साफ झलक दिखाई देती है |
सन 2014, उस समय मैं नवगीत लिखने का प्रयास कर रही थी उस समय मुझे उन्हों ने ही नवगीत विधा की बारीकियाँ सिखाईं
मेरा नव गीत उनके कुछ सुझावों के बाद -----------
नव गीत
कुछ तो
मुझसे बातें कर लो
अलस्सुबह जा
सांझ ढले
घर को आते हो
क्या जाने
किन हालातों से
टकराते हो
प्रियतम मेरे!
सारे दिन मैं
करूँ प्रतीक्षा-
मुझ को
निज बाँहों में भर लो
थका-चुका सा
तुम्हें देख
कैसे मुँह खोलूँ
बैठ तुम्हारे निकट
पीर क्या
हिचक टटोलूँ
श्लथ बाँहों में
गिर सोते
शिशु से भाते हो
मन इनकी
सब पीड़ा हर लो
.....आभा
आज कल वे सवैया छंद पर कार्य कर रहे हैं उनका कहना है कि
“सवैया आधुनिक हिंदी की शब्दावली के लिए पूरी तरह उपयुक्त छंद' है।
यह भ्रांति है कि सरस सवैये केवल लोकभाषाओं लिखे जा सकते हैं।
सत्य यह है कि सवैया वाचिक परंपरा से विकसित छंद है। लोक गायक प्रायः अशिक्षित या अल्प शिक्षित थे। उन्होंने लोक भाषा में सवैया रचे और उन्हें पढ़कर उन्हीं की शब्दावली हमें सहज लगती है। मैं सवैया कोष पर काम कर रहा हूँ। 160 प्रकार के सवैये बना चुका हूँ। सब आधुनिक हिंदी में हैं जिनमें वर्णिक व मात्रिक गणना व यति समान हैं। के सवैये बना चुका हूँ। सब आधुनिक हिंदी में हैं जिनमें वर्णिक व मात्रिक गणना व यति समान हैं”|
एक कथ्य चार छंद:
*
जनक छंद
फूल खिल रहे भले ही
गर्मी से पंजा लड़ा
पत्ते मुरझा रहे हैं
*
माहिया
चाहे खिल फूल रहे
गर्मी से हारे
पत्ते कुम्हलाय हरे.
*
दोहा
फूल भले ही खिल रहे, गर्मी में भी मौन.
पत्ते मुरझा रहे हैं, राहत दे कब-कौन.
*
सोरठा
गर्मी में रह मौन, फूल भले ही खिल रहे,
राहत दे कब-कौन, पत्ते मुरझा रहे हैं.
रोला
गर्मी में रह मौन, फूल खिल रहे भले ही.
राहत कैसे मिलेगी, पत्ते मुरझा रहे हैं.
*
सलिल जी बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं | उनको देख कर लगता है कि उनका साहित्य के प्रति विशेष रूप से लगाव है इसी लिए उन्होने अपना जीवन साहित्य के प्रति समर्पित कर दिया है |
दोहा लिखना भी मैंने उन से ही सीखा |
एक दोहा लिखा और लिख कर उन्होने मेरे नाम ही कर दिया |
आभामय दोहे नवल, आ भा करते बात। आभा पा आभित सलिल, पंक्ति पंक्ति जज़्बात ।।
इसे कहते हैं बड़प्पन |उनकी प्रतिभा दूर दूर तक देदीप्यमान है और रहेगी |
बेहद आभार आपका
अतः ऐसे व्यक्तित्व को मेरा कोटिशः नमन भविष्य में उनकी साहित्यिक प्रगति और अच्छे स्वास्थ्य एवं शतायु की कामना करते हुए .....
आभा सक्सेना दूनवी
देहरादून
***
व्यंग्य रचना:
अभिनंदन
लो
*
युग-कवयित्री!
अभिनंदन
लो....
*
सब जग अपना, कुछ न पराया
शुभ सिद्धांत तुम्हें यह भाया.
गैर नहीं कुछ भी है जग में-
'विश्व एक' अपना सरमाया.
जहाँ मिले झट झपट वहीं से
अपने माथे यश-चंदन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
मेरा-तेरा मिथ्या माया
दास कबीरा ने बतलाया.
भुला परायेपन को तुमने
गैर लिखे को कंठ बसाया.
पर उपकारी अन्य न तुमसा
जहाँ रुचे कविता कुंदन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
हिमगिरी-जय सा किया यत्न है
तुम सी प्रतिभा काव्य रत्न है.
चोरी-डाका-लूट कहे जग
निशा तस्करी मुदित-मग्न है.
अग्र वाल पर रचना मेरी
तेरी हुई, महान लग्न है.
तुमने कवि को धन्य किया है
खुद का खुद कर मूल्यांकन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
कवि का क्या? 'बेचैन' बहुत वह
तुमने चैन गले में धारी.
'कुँवर' पंक्ति में खड़ा रहे पर
हो न सके सत्ता अधिकारी.
करी कृपा उसकी रचना ले
नभ-वाणी पर पढ़कर धन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
तुम जग-जननी, कविता तनया
जब जी चाहा कर ली मृगया.
किसकी है औकात रोक ले-
हो स्वतंत्र तुम सचमुच अभया.
दुस्साहस प्रति जग नतमस्तक
'छद्म-रत्न' हो, अलंकरण लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
२०-६-२०१८
टीप: श्रेष्ठ कवि की रचना को अपनी बताकर २३-५-२०१८ को प्रात: ६.४० बजे काव्य धारा कार्यक्रम में आकाशवाणी पर प्रस्तुत कर धनार्जन का अद्भुत पराक्रम करने के उपलक्ष्य में यह रचना समर्पित उसे ही जो इसका सुपात्र है)
***
लघु कथा
राष्ट्रीय एकता
*
'माँ! दो भारतीयों के तीन मत क्यों होते हैं?'
''क्यों क्या हुआ?''
'संसद और विधायिकाओं में जितने जन प्रतिनिधि होते हैं उनसे अधिक मत व्यक्त किये जाते हैं.'
''बेटा! वे अलग-अलग दलों के होते हैं न.''
'अच्छा, फिर दूरदर्शनी परिचर्चाओं में किसी बात पर सहमति क्यों नहीं बनती?'
''वहाँ बैठे वक्ता अलग-अलग विचारधाराओं के होते हैं न?''
'वे किसी और बात पर नहीं तो असहमत होने के लिये ही सहमत हो जाएँ।
''ऐसा नहीं है कि भारतीय कभी सहमत ही नहीं होते।''
'मुझे तो भारतीय कभी सहमत होते नहीं दीखते। भाषा, भूषा, धर्म, प्रांत, दल, नीति, कर, शिक्षा यहाँ तक कि पानी पर भी विवाद करते हैं।'
''लेकिन जन प्रतिनिधियों की भत्ता वृद्धि, अधिकारियों-कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने, व्यापारियों के कर घटाने, विद्यार्थियों के कक्षा से भागने, पंडितों के चढोत्री माँगने, समाचारों को सनसनीखेज बनाकर दिखाने, नृत्य के नाम पर काम से काम कपड़ों में फूहड़ उछल-कूद दिखाने और कमजोरों के शोषण पर कोई मतभेद देखा तुमने? भारतीय पक्के राष्ट्रवादी और आस्तिक हैं, अन्नदेवता के सच्चे पुजारी, छप्पन भोग की परंपरा का पूरी ईमानदारी से पालन करते हैं। मद्रास का इडली-डोसा, पंजाब का छोला-भटूरा, गुजरात का पोहा, बंगाल का रसगुल्ला और मध्यप्रदेश की जलेबी खिलाकर देखो, पूरा देश एक नज़र आयेगा।''
और बेटा निरुत्तर हो गया...
*
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
एक रचना
*
प्रभु जी! हम जनता, तुम नेता
हम हारे, तुम भए विजेता।।
प्रभु जी! सत्ता तुमरी चेरी
हमें यातना-पीर घनेरी ।।
प्रभु जी! तुम घपला-घोटाला
हमखों मुस्किल भयो निवाला।।
प्रभु जी! तुम छत्तीसी छाती
तुम दुलहा, हम महज घराती।।
प्रभु जी! तुम जुमला हम ताली
भरी तिजोरी, जेबें खाली।।
प्रभु जी! हाथी, हँसिया, पंजा
कंघी बाँटें, कर खें गंजा।।
प्रभु जी! भोग और हम अनशन
लेंय खनाखन, देंय दनादन।।
प्रभु जी! मधुवन, हम तरु सूखा
तुम हलुआ, हम रोटा रूखा।।
प्रभु जी! वक्ता, हम हैं श्रोता
कटे सुपारी, काट सरोता।।
(रैदास से क्षमा प्रार्थना सहित)
२०-११-२०१५
चित्रकूट एक्सप्रेस, उन्नाव-कानपूर
***
शिवलिंग और शालिग्राम
*
हिन्दू धर्म के तीन प्रमुख देवता हैं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश को क्रमश: शंख, शिवलिंगऔर शालिग्राम रूप में सर्वोत्तम माना है। शंख सूर्य व चंद्र के समान देवस्वरूप है जिसके मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा तथा अग्र में गंगा और सरस्वती नदियों का वास है।
वैदिक धर्म में मूर्ति की पूजा नहीं होती। शिवलिंग और शालिग्राम की भगवान का विग्रह रूप मानकर पूजा की जानी चाहिए।
शालिग्राम का मंदिर : नेपाल में स्थित मुक्तिनाथ में स्थित शालिग्राम का प्रसिद्ध मंदिर वैष्‍णव संप्रदाय के प्रमुख मंदिरों में से एक है। काठमांडु से पोखरा, जोमसोम होकर जाना होता है। दुर्लभ शालिग्राम नेपाल के मुक्तिनाथ, काली गण्डकी नदी के तट पर पाया जाता है। काले और भूरे शालिग्राम के अलावा सफेद, नीले और ज्योतियुक्त शालिग्राम का पाया मिलना दुर्लभ है। पूर्ण शालिग्राम में भगवाण विष्णु के चक्र की आकृति अंकित होती है।
शालिग्राम के प्रकार : विष्णु के अवतारों के अनुसार शालिग्राम पाया जाता है। गोल शालिग्राम विष्णु का गोपाल रूप है। मछली के आकार काशालिग्राम मत्स्य अवतार का प्रतीक है। यदि शालिग्राम कछुए के आकार का है तो यह भगवान के कच्छप/कूर्म अवतार का प्रतीक है। शालिग्राम पर उभरने वाले चक्र और रेखाएं भी विष्णु के अन्य अवतारों और श्रीकृष्ण के कुल के लोगों को इंगित करती हैं। ३३ प्रकार के शालिग्राम में से २४ विष्णु के २४ अवतारों से संबंधित हैं। ये २४ शालिग्राम वर्ष की २४ एकादशी व्रत से संबंधित हैं।
शालिग्राम की पूजा :
* घर में सिर्फ एक ही शालिग्राम की पूजा करना चाहिए।
* विष्णु की मूर्ति से कहीं ज्यादा उत्तम है शालिग्राम की पूजा करना।
* शालिग्राम पर चंदन लगाकर उसके ऊपर तुलसी का एक पत्ता रखा जाता है।
* प्रतिदिन शालिग्राम को पंचामृत से स्नान कराया जाता है।
* जिस घर में शालिग्राम का पूजन होता है उस घर में लक्ष्मी का सदैव वास रहता है।
* शालिग्राम पूजन करने से अगले-पिछले सभी जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
* शालिग्राम सात्विकता के प्रतीक हैं। उनके पूजन में आचार-विचार की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
शिवलिंग : शिवलिंग को भगवान शिव का प्रतीक माना जाता है तो जलाधारी को माता पार्वती का प्रतीक। निराकार रूप में भगवान शिव को शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है।
ॐ नम: शिवाय । यह भगवान का पंचाक्षरी मंत्र है। इसका जप करते हुए शिवलिंग का पूजन या अभिषेक किया जाता है। इसके अलावा महामृत्युंजय मंत्र और शिवस्त्रोत का पाठ किया जाता है। शिवलिंग की पूजा का विधान बहुत ही विस्तृत है इसे किसी पुजारी के माध्यम से ही सम्पन्न किया जाता है।
शिवलिंग पूजा के नियम :
* शिवलिंग को पंचांमृत से स्नानादि कराकर उन पर भस्म से तीन आड़ी लकीरों वाला तिलक लगाएं।
*शिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए, लेकिन जलाधारी पर हल्दी चढ़ाई जा सकती है।
*शिवलिंग पर दूध, जल, काले तिल चढ़ाने के बाद बेलपत्र चढ़ाएं।
* केवड़ा तथा चम्पा के फूल न चढाएं। गुलाब और गेंदा किसी पुजारी से पूछकर ही चढ़ाएं।
* कनेर, धतूरे, आक, चमेली, जूही के फूल चढ़ा सकते हैं।
* शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ प्रसाद ग्रहण नहीं किया जाता, सामने रखा गया प्रसाद अवश्य ले सकते हैं।
* शिवलिंग नहीं शिवमंदिर की आधी परिक्रमा ही की जाती है।
* शिवलिंग के पूजन से पहले पार्वती का पूजन करना जरूरी है
शिवलिंग का अर्थ : शिवलिंग को नाद और बिंदु का प्रतीक माना जाता है। पुराणों में इसे ज्योर्तिबिंद कहा गया है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे- प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, ऊर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्मांडीय स्तंभ लिंग आदि।
शिव का अर्थ 'परम कल्याणकारी शुभ' और 'लिंग' का अर्थ है- 'सृजन ज्योति'। वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है। यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है। 1- मन, 2- बुद्धि, 3- पांच ज्ञानेन्द्रियां, 4- पांच कर्मेन्द्रियां और पांच वायु। भ्रकुटी के बीच स्थित हमारी आत्मा या कहें कि हम स्वयं भी इसी तरह है। बिंदु रूप।
ब्राह्मांड का प्रतीक : शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
अरुणाचल है प्रमुख शिवलिंगी स्थान : भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर हुए विवाद को सुलझाने के लिए एक दिव्य लिंग (ज्योति) प्रकट किया था। इस लिंग का आदि और अंत ढूंढते हुए ब्रह्मा और विष्णु को शिव के परब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हुआ। इसी समय से शिव के परब्रह्म मानते हुए उनके प्रतीक रूप में लिंग की पूजा आरंभ हुई। यह घटना अरुणाचल में घटित हुई थी।
आकाशीय पिंड : ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत के कुछ सहस्राब्‍दी पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को यह रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहां-जहां ये पिंड गिरे, वहां-वहां इन पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए। इस तरह धरती पर हजारों शिव मंदिरों का निर्माण हो गया। उनमें से प्रमुख थे 108 ज्योतिर्लिंग।
संग-ए-असवद : शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। कहते हैं कि मक्का का संग-ए-असवद भी आकाश से गिरा था।
***
स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
संजीव 'सलिल'
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.हर
दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड़, डाँट, झिड़की, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
२०-६-२०१०

गुरुवार, 19 जून 2025

फुलबगिया संकलन

आमंत्रण 
विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर (भारत)
अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय काव्य संकलन 'फुलबगिया'
संपर्क- ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
विश्व की सभी भाषाओं/बोलिओं की रचनाओं का स्वागत है। 
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर (भारत) द्वारा विश्व कीर्तिमान स्थापित करते काव्य संकलनों 'दोहा दोहा नर्मदा', 'दोहा सलिला निर्मला', 'दोहा दिव्य दिनेश', 'हिंदी सॉनेट सलिला' (३२ सॉनेटकार, ३२१ सॉनेट) तथा 'चंद्र विजय अभियान' (५ देश, ५१ भाषा-बोलियाँ, २१३ रचनाकार) की शृंखला में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय काव्य संकलन 'फुलबगिया' प्रकाशनाधीन है। गत ९ माहों में वाट्स ऐप पर अभियान समूह में हर सप्ताह एक पुष्प पर काव्य रचना में अब तक जासौन , मोगरा, गेंदा, सदासुहागन, गुलाब, कमल, चंपा, चमेली, हरसिंगार, कनेर, कचनार, कपास, अमलतास, रजनीगंधा, डहेलिया, पलाश, रातरानी, शमी, सूरजमुखी, ब्रह्म कमल, बोगन बेलिया, गुलमोहर, शिरीष, मधुकामिनी अपराजिता, कदंब, बैजंती, सेवंती, मधु मालती, लिलि, कुमुदिनी, दूध मोगरा, कौरव पांडव, नाग केसर, धतूरा, लेवेंडर, गंधराज, टेनो क्लॉक  आदि पुष्पों पर काव्य रचना की जा चुकी है। यह क्रम निरंतर जारी है। आप अपनी पसंद के फूल/फूलों को केंद्र में रखकर पद्य रचना भेजें। पुष्प के रूप-रंग, उपादेयता, वानस्पतिक महत्व, आयुर्वेदिक उपयोग अथवा उसे रूपक या उपमा के रूप में प्रयोग कर अथवा शिव-काम प्रसंग, पार्वती अपर्णा प्रसंग, कैकेयी-दशरथ प्रसंग, राम-सीता फुलवारी प्रसंग, कृष्ण-राधा कुंज वन प्रसंग, मेघदूत प्रसंग, दुष्यंत-शकुंतला प्रसंग, रानी दुर्गावती-दलपतिशाह प्रसंग, विवाह संस्कार में जयमाल आदि में बाग-पुष्प,मिलन-विरह शृंगार आदि को लेकर भी काव्य रचना की जा सकती है।

'फुलबगिया' संग्रह में रचनाकार व फूल का चित्र, संक्षिप्त परिचय, आपकी सामग्री पर संपादकीय टिप्पणी तथा गीत-लेख आदि होंगे। हर सहभागी को ३००/- प्रति पृष्ठ सहभागिता निधि तथा १००/- पैकिंग व डाक व्यय अग्रिम ९४२५१८३२४४ पर जमा करना होगा। न्यूनतम ४ पृष्ठ लेना अनिवार्य है। हर सहभागी को २ प्रति निशुल्क तथा अतिरिक्त प्रतियाँ ४०% रियायती दर पर मिलेंगी। सहभागियों को विश्ववाणी हिंदी संस्थान की ईकाई  में प्राथमिकता दी जाएगी। 

निम्न बिंदुओं पर लेखन कर जुड़िए फुलबगिया में-   
० फूलों पर केंद्रित फिल्मी गीत
० लोकगीतों में फुलबगिया- ऐसे लोकगीत भेजिए जो फूलों पर केंद्रित हों।
० लोक कलाओं में फुलबगिया- विविध शैलियों में फूलों के चित्रांकन संबंधी वैशिष्ट्य पर जानकारी आमंत्रित है। 
० नवग्रह और फूलबगिया- ज्योतिष शास्त्र में फूलों के महत्व संबंधी जानकारी भेजिए। 
० वास्तु और फुलबगिया- वास्तुशास्त्र में फूलों के महत्व, स्थान आदि संबंधी जानकारी। 
० पर्व कथाओं में फुलबगिया- धार्मिक पर्वों, प्रसंगों में फूलों से संबंधित जानकारी। 
० पूजा और फूलबगिया- देवी-देवताओं के पूजन में फूल, त्तसंबंधी पौराणिक कथाओं आदि संबंधी जानकारी। 
० पर्यावरण/मौसम और फुलबगिया- ऋतु परिवर्तन के सूचक फूल। 
० दाम्पत्य जीवन और फुलबगिया। 
० ................ भाषा/बोली  के साहित्य में फुलबगिया। 
००० 
सहभागी सूची- श्री/श्रीमती/सुश्री
अ. पद्य 
०१. अपर्णा खरे भोपाल ४ पृष्ठ, ०२. अरविंद श्रीवास्तव, झाँसी ४ पृष्ठ, ०३. अवधेश सक्सेना नोएडा ४ पृष्ठ, ०४. अविनाश ब्यौहार जबलपुर ४ पृष्ठ, ०५. अशोक रक्ताले, उज्जैन ४ पृष्ठ, ०६. कालीदास ताम्रकार, जबलपुर ४ पृष्ठ, ०७. खंजन सिन्हा, भोपाल ४ पृष्ठ, ०८. गीता फौजदार 'गीतश्री', आगरा १० पृष्ठ, ०९. चारु श्रोत्रिय, जावरा, रतलाम ४ पृष्ठ, १०. छाया सक्सेना जबलपुर ४ पृष्ठ, ११. देवकी नंदन 'शांत' लखनऊ १२. नीलिमा रंजन भोपाल ६ पृष्ठ , १३. पुष्पा वर्मा हैदराबाद ६ पृष्ठ, १४. भावना पुरोहित हैदराबाद ८ पृष्ठ, १५. ममता सिन्हा, जशपुर ४ पृष्ठ, १६. मीना भट्ट जबलपुर ८ पृष्ठ, १७. मुकुल तिवारी, जबलपुर ८ पृष्ठ, १८. रेखा श्रीवास्तव अमेठी ४ पृष्ठ , १९. वर्तिका वर्मा भोपाल, ४ पृष्ठ २०. वसुधा वर्मा, मुंबई  ८ पृष्ठ, २१. शिप्रा सेन, जबलपुर ८ पृष्ठ, २२. शोभा सिंह जबलपुर ४ पृष्ठ , २३. संगीता भारद्वाज भोपाल ४ पृष्ठ, २४. संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर २० पृष्ठ, २५. सरला वर्मा 'शील', भोपाल ८ पृष्ठ, २६ .सुरेंद्र सिंह पंवार जबलपुर ४ पृष्ठ । 
आ. गद्य 

***
समर्पण 











शारद वंदन
.
शारद! शत वंदन स्वीकारो
फुलबगिया पथ हेरे मैया!
दर्शन दे उजियारो...
.
वल्कल-पर्ण वसन धारो माँ!
सुमन सुमन से सिंगारो माँ!
सफल सुफल फल भोग लगाओ-
कंद-मूल ले उपकारो माँ!
ले मकरंद मधुप आए हैं
ग्रहण करो उद्धारो
शारद! शत वंदन स्वीकारो...
.
अली-कली जस गाते माता!
रवि-शशि दीप जलाते माता!
तितली नर्तित करें अर्चना-
जुगनू जगमग भाते माता!
तारक गण आरती उतारें
दे वरदान निहारो
शारद! शत वंदन स्वीकारो...
.
कमल वदन मृगनैनी मैया!
दिव्य छटा पिकबैनी मैया!
करतल हैं गुलाब से कोमल-
भव्य नव्य शुचि सैनी मैया!
चरण चमेली हरसिंगारी
चंदन भाल सँवारो
शारद! शत वंदन स्वीकारो
.
बेला वेणी सोहे जननी!
बाला महुआ मोहे जननी!
सूर्यमुखी माथे की बिंदी-
गुड़हल करधन बाँधे जननी!
कर भुजबंध पलाशी कलियाँ
चंपा बाला धारो 
शारद! शत वंदन स्वीकारो
.
माया मोह वासना घेरे
क्रोध लोभ लेते पग फेरे
काम न आते रिश्ते-नाते
लूटें, आँख तरेरे
अँगुरी थामो मातु दुलारो
शारद! शत वंदन स्वीकारो
२३.५.२०२५
०००

स्मरण 



गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर  
फूले फूले डोले डोले बोहे किबा मृदु बाय (बयार )
फूले फूले डोले डोले बोहे किबा मृदु बाय (
तोटीनी हिल्लोल तुले, कोल्लोले चौलिया जाए
पी कोकिबा कुंजे कुंजे
पी कोकिबा कुंजे कुंजे कुहू कुहू कुहू गाये
की जानी किशेर लागि, प्राण कोरे,हाए हाए
फूले फूले डोले डोले बोहे कीबा मृदु बाये

विरासत
श्रीनाथ सिंह -
फूलों से नित हँसना सीखो, भौंरों से नित गाना
तरु की झुकी डालियों से नित, सीखो शीश झुकाना!
सीख हवा के झोकों से लो, हिलना, जगत हिलाना
दूध और पानी से सीखो, मिलना और मिलाना !
सूरज की किरणों से सीखो, जगना और जगाना
लता और पेड़ों से सीखो, सबको गले लगाना !

सहभागी सूची- श्री/श्रीमती/सुश्री

अपर्णा खरे, भोपाल   ०१.   ४  पृष्ठ
ब्रज निवास, एच/१८८, अरविंद विहार, बाग मुगलिया, भोपाल। चलभाष- ९८१०४ ९२५३३ 

श्रीमती अपर्णा खरे मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की समर्पित-सक्रिय शिक्षिका तथा स्वेच्छा से समर्पित समाज सेविका हैं। २ जुलाई १९६१, भोपाल मध्य प्रदेश में जन्मी, स्व. अरुणा वर्मा तथा स्व. डॉ. श्यामाचरण वर्मा की सुता अपर्णा जी को साहित्य प्रेम विरासत में मिला है। शब्द ब्रह्म आराधना के पथ पर सतत आगे बढ़ रही अपर्णा जी की ईश्वरोपासना बाल-गोपालों के लिए कुछ उपयोगी कार्य करना रहा है। इसलिए कोरोना काल में  बच्चों के लिए 'अपर्णा के खिलौने' चैनल स्थापित कर आपने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। मैत्रेयी मिशन दिल्ली और जीवन दीप्ति सोसाइटी भोपाल के साथ कदम दर कदम बढ़ते हुए अपर्णा जी ने प्रकृति और पर्यावरण परक लेखन कर समाज को जागरूक करने का सफल प्रयास किया है। अपर्णा जी के गीतों में छाँदस मिठास के साथ आनुप्रसिक सौंदर्य के दर्शन होते हैं। कथ्य की मौलिकता उनकी विशेषता है। वे सहज प्रवाहमयी भाषा में अपने अंतर्मन के भावों को शब्द रूप देती हैं। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान में अरुणा जी का यह प्रथम जुड़ाव मणि-कांचन संयोग की तरह है। विश्वास है कि अपर्णा जी से हिंदी साहित्य को महत्वपूर्ण कृतियाँ प्राप्त होंगी।    


जेठ मास 

कुछ तुम गुलमोहर बन जाओ 
और हम अमलतास 
जेठ की इस गर्मी में 
तभी तो जिएँगे बिंदास  

जब जब लू चलेगी 
संग-संग लहराएँगे
जब जब धूल उड़ेगी 
संग-संग मुस्कुराऐंगे
क्या हुआ जो दूर दूर है हम 
हवाएँ लाएँगी हमको पास
जेठ की इस गर्मी में
तभी तो जिएँगे बिंदास 

कोई राही कभी पल भर
ठिठक जाए हमारी छाँव में 
मूँदेगा जो वो पलकें 
होगा अपने ही गाँव में
बरसा देंगे रस फूलों का
देंगे शीतलता का आभास 
तभी होगे तुम गुलमोहर 
और हम अमलतास  
२७.५.२०१४ 
***
ब्रह्म कमल 

इस धरा पर ब्रह्म रूप 
पुष्प पल्लवित हुए 
देख जनमानस सभी 
चकित और हर्षित हुए 

मानव मन है चकित 
इसकी हर बात पर 
बीज कहीं है नहीं 
पात से अंकुरित हुए 

जल में निकलते जलज 
पर इनकी है बात निराली 
ये हैं ब्रह्म कमल 
धरा पर अवतरित हुए 

दिन में खिलते नहीं 
इनको है रात प्यारी 
ज्यों ज्यों छाये अँधियारा 
कली से पुष्पित हुए 

रूप अद्भुत अवर्णनीय 
रंग श्वेत अतुलनीय 
भीनी-भीनी है सुगंध 
दर्शन पा धन्य हुए 

एक पतली नाल पर 
कल तक था जो नत 
अब उठाए है मस्तक 
ब्रम्ह स्वयं प्रगट हुए 
तभी तो देख उसे 
मानव मन हर्षित हुए
***
कदंब

कदंब तू कितना बड़भागी 
कान्हा तुझ संग खेले 
बैठ तुझ पर तान छेड़े
डाल पर तेरी झूले
छाँव में गोपियों का डेरा 
गोप लगाएँ फेरे 
गौ माता बैठी सुस्ताती 
घास खाते बछेड़े 
यमुना तेरे चरण पखारे 
अमृत जल सींचे
मैया यशोदा ढूँढे कान्हा 
तेरी छाँव के नीचे 
कदंब तू कितना बड़भागी
हर बालमन चाहे 
डाल पर तेरी झूलना 
तेरे पत्तों में छुपना 
फल तेरे खाना 
छाँव में तेरी खेलना 
बैठ तेरी डाल पर 
बाँसुरी मधुर बजाना 
हाँ कदंब तू कितना बड़भागी
माँ के आँचल से पूछो 
जमुना जल से पूछो 
बंसी की धुन से पूछो
***
कनेर
पूजा को हो रही देर, 
मालन! ले आ कनेर 

पीला कनेर मैं शिव को करूँ अर्पित 
हाथ जोड़ करूँ, खुद को समर्पित 
सुन लो भक्तों की टेर, 
मालन! ले आ कनेर 

लाल कनेर मैं अंबे को चढ़ाऊँ
माँ के दरबार नित शीश झुकाऊँ 
सुन लो भक्तों की टेर, 
मालन! ले आ कनेर 

श्वेत कनेर माँ सरस्वती को भाए 
जन मानस माँ की वंदना गाए 
सुन लो भक्तों की टेर, 
मालन! ले आ कनेर

पेड़ कनेर का बड़ा गुणकारी 
दे औषध और उर्जा सकारी 
लक्ष्मी लगाएँ रोज फ़ेर, 
मालन! ले आ कनेर
१.१२.२०२४ 
***
अमलतास
झुमके से झूमते 
हवाओं में डोलते 
हम बहुत खास हैं 
हम अमलतास हैं 

आभा है पीली 
छटा चमकीली 
सुबह की उजास हैं  
हम अमलतास हैं  

राहों में दोनों ओर 
इस छोर से उस छोर 
हम ही हम बिंदास हैं 
हम अमलतास हैं 
***
पलाश १  
पलाश ने जाते जाते 
रंगों की पोटली 
दे दी गुलमोहर को 
देखते ही देखते वो 
जैसे गुलनार हो गया|
 
विरासत रंगों की 
संजो के अपने आंचल में 
सौगात दी अमलतास को 
तो देखते ही देखते वो 
जैसे पुखराज हो गया|

महुए ने ओढ़ ली 
नव पल्लव की चादर 
नीम पर छा गई 
सफेद फूलों की बहार  
हर ओर कोई त्यौहार हो गया|

बोगन बेलिया भी 
कहाँ पीछे रहता 
रंग बिरंगे फूलों से 
धरती का आंचल भी जैसे 
इन्द्रधनुषी सिंगार हो गया |

बैसाख और जेठ के 
तपते भभकते दिनों को 
हँसकर स्वीकारा प्रकृति ने 
तभी सावन से ही पहले 
हरा-भरा सारा संसार हो गया ||
***
पलाश २  

उगते सूरज की लालिमा 
पंखुड़ियों ने मेरी सहेज ली 
जीवन की कड़वी स्याही 
नीचे उसी के दाब ली 

मस्तक बुलंद है मेरा मान लो 
तीन पात है तो क्या, ठान लो 
आकाश छूने की चाह है मन में 
जड़ों से जुड़ा हूँ फिर भी जान लो 

गिर कर भी ज़मी पर बेकार नहीं 
रंगों का सच्चा हूँ व्यापार नहीं 
पगड़ी चूनर को मेरा रंग भाए है 
बिन मेरे होली किसी को भाए नहीं 
१३.१.२०२५ 
***

जकरान्दा 

चलो! हम जकरान्दा हो जाएँ  
हल्के बैंगनी और 
भीनी खुशबू वाले 
और पेड़ों पर छा जाएँ 
चलो हम जकरान्दा हो जाएँ 

दोनों ओर पथ पर 
इस ओर से उस ओर तक 
हाथों में हाथ डालकर 
प्रकृति रूप हो जाएँ  
चलो! हम जकरान्दा हो जाएँ 

फूलों की तरह झड़कर 
धरती पर बिछ कर 
अपने ही रंग में 
धरती को रंग जाएँ 
चलो! हम जकरान्दा हो जाएँ 
*** 



०२. अरविंद श्रीवास्तव, झाँसी ४ पृष्ठ

***
०३. अवधेश सक्सेना नोएडा          ४ पृष्ठ 
६५ , इंदिरा नगर, शिवपुरी, मध्य प्रदेश, व्हाट्सएप नम्बर : ९८२७३२९१०२ 
ईमेल : awadheshsaxena29@gmail.com 

रम्य प्राकृतिक सौन्दर्य और ऐतिहासिक इतिवृत्त हेतु प्रसिद्ध शिवपुरी में २९ जून १९५९ को श्रीमती प्रेमवती देवी एवं मुरारी लाल सक्सेना को कुलदीपक की प्राप्ति हुई। शिव और राम की अनन्यता जगजाहिर है। बालक का 'अवधेश' नामकरण कर माता-पिता ने शैव-वैष्णव एकत्व के प्रति निष्ठा दर्शाई। चित्रगुप्त वंशी कायस्थ कुल की विरासत शब्द ब्रह्म की अर्चना के रूप में जीवन संगिनी होने पर सोने में सुहाग की कहावत चरितार्थ हो गई। सिविल इंजी. में डिप्लोमा (हॉनर्स) व बी.ई.,एम. ए. समाजशास्त्र, एलएल. बी., पी.जी.डी.आर.डी. की शिक्षा के बाद जल संसाधन विभाग में अभियांत्रिकी सेवा के समांतर  संगीत,साहित्य, योग, आयुर्वेद, प्राकृतिक स्वास्थ्य 
तथा साहित्य सृजन, पठन व प्रकाशन द्वारा अवधेश ने समाज का ऋण चुकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 

अधुनातन तकनीक अपनाते हुए किन्डल ई बुक्स, अमेजन, फ्लिपकर्त शॉप क्लूज आदि पर मैं ही तो हूँ ईश, एक दीपक जलाएँ, जगमगाता देश, पानी रोकने के आसान तरीके, जल सहेजें, जल ग्रहण क्षेत्र मार्गदर्शिका, हरियाली के अंग, चित्रांजलि, अभियंता विश्व,  चित्रांश चेतना,इंजिनियरिंग प्रोजेक्ट मैनेजमेंट, निरोगी रहने के उपाय, अकेले सफ़र में व मिल गई मंज़िल मुझे ( ग़ज़ल संग्रह) तथा  म.प्र. उर्दू अकादमी द्वारा उर्दू में प्रकाशित हज़ारों सवाल अवधेश की ग़ज़लें  का प्रकाशन अवधेश ने कराया है। अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत अवधेश की कई कृतियाँ प्रकाशनाधीन हैं , उनके जीवन का ध्येय है –
जीवन का हर पल जियो, लेकर प्रभु का नाम ।
निज हित त्यागो हँस करो, पर हित के ही काम ।।
*
सदाबहार/बारहमासी/सदा सुहागन  

मेडागास्कर मूल वाला, फैला कोने-कोने में।
खिले फूल जो बारहमासी, नहीं लगे कुछ बोने में।

लाल गुलाबी श्वेत बैंगनी, पाँच पंखुड़ी सुंदर हैं।
पंच तत्व की देह हमारी, रस भंडारे भीतर हैं।

मधु नाशी पत्ती का रस है, रक्त चाप रखती हद में।
दमा दूर होता पुष्पों से, रोग कई आते जद में।

कम पानी कम मिट्टी में भी, देख भाल बिन उग जाते। 
छोटे-छोटे पुष्प अनगिनत, सबके मन को हैं भाते।

छोटे क़द के पौधे इसके, हरी भरी रखते क्यारी।
हरि-हर की पूजा में चढ़ते,  पुष्प यही सदा बहारी।
***

०४. अविनाश ब्यौहार जबलपुर ४ पृष्ठ
८६ रायल एस्टेट, कटंगी रोड, माढ़ोताल,जबलपुर, म.प्र.।
चलभाष-  ९८२६७ ९५३७२   
 
किसी बीज के प्रस्फुटित-पल्लवित-पुष्पित होने हेतु उर्वर भूमि, हवा और पानी आवश्यक है। ये तीनों सुलभ हों और बीज वट वृक्ष बन जाए यह स्वाभाविक है किंतु न्यायालयीन नीरस वातावरण, आशु लिपिक का मशीनी कार्य और नगरीय आपाधापी के चक्रव्यूह में घिरे रहकर भी नवगीत, दोहा, सवैया, क्षणिका, हास्य-व्यंग्य लेखन आदि विविध विधाओं में अपनी लेखन से अपनी स्वतंत्र पहचान बनाना असाधारण प्रयासों से ही संभव हो पाता है। सनातन सलिल नर्मदा तट पर संस्कारधानी जबलपुर में समर्पण भाव से सतत शब्द ब्रह्म आराधना कर रहे श्रीमती मीरा ब्यौहार - श्री लक्ष्मण ब्यौहार के पुत्र अविनाश ब्यौहार (जन्म २८ अक्टूबर १९६६) जीवट के धनी और धुन के पक्के हैं। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में महाधिवक्ता कार्यालय में व्यक्तिगत सहायक के पद पर पदस्थ अविनाश की ६ कृतियाँ (४ नवगीत संग्रह- मौसम अंगार है, पोखर ठोके दावा, कोयल करे मुनादी,   तथा  ओस नहाई भोर, गजल संग्रह हिंदी ग़ज़ल तथा हास्य-व्यंग्य काव्य संग्रह अंधे पीसे कुत्ते खांय) प्रकाशित और प्रशंसित हुई हैं। 

ग्रामीण किसानी पृष्ठ भूमि और नगरीय निवास ने अविनाश को प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाया है। कचनार, गेंद, महुआ, शिरीष, आम, ढाक आदि पत्रों के साथ ग़ज़ल एवं नवगीत रचकर अविनाश ने अपनी समिधा से फुलबगिया की सौंदर्य वृद्धि की है। कम से कम शब्दों में आनुभूतिक सघनता अभिव्यक्त कर पाना अविनाश की विशेषता है।   
*
हिंदी ग़ज़ल 

फूल रहे कचनार यहांँ हैं।
फूलों के बाजार यहांँ हैं।।

जिन-जिन को दुत्कारा होगा -
लोग सभी स्वीकार यहांँ हैं।

दुनिया को हम क्या बोलें अब-
आ बैठे लाचार यहांँ हैं।

कातिक में ही फूला करते -
मानो हरसिंगार यहांँ हैं।

नमक हलाली करनी होगी -
उनके कुछ उपकार यहांँ हैं।
***
नवगीत 

कई-कई रंगों में 
गेंदे के फूल।

गेंदे का फूल
कहीं बड़ा 
कहीं छोटा है।
कहते गुजराती में 
इसको -
"गलगोटा" है।।

पड़ती है भारी इक
छोटी सी भूल।

है शादी में 
उत्सव में 
गेंदे की माला।
काल कोठरी में 
जैसे 
भर गया उजाला।।

खुशी से लबालब हैं
बाग के बबूल।
***
नवगीत 

गर्मी देखो तभी लगेगा 
सूरज आग बबूला है।

धूप हो रही ऐसे 
जैसे लावा झरता है।
स्वरूप हरियाली का 
इन्हीं दिनों से डरता है।।

पतझर का मौसम है आया 
शिरीष लेकिन फूला है।

मानसून आने में 
अगरचे देरी हो रही।
मीठी-मीठी घने झुरमुट में 
बेरी हो रही।।

जेठ मास के बाद पड़ेगा 
ज्यों सावन का झूला है।
***
नवगीत 

गा रहे
महुआ और आम
मिलकर फाग।

सुहावना मौसम 
करती बयार है।
मधुऋतु है तो 
आती बहार है।।

ढाक का
मानो जंगल 
धधक रही आग।

होली तो 
रंगों का
पर्व हुआ है।
फूलों सा
किसने क्यों 
मुझे छुआ है।।

पिंजरे में 
तोता है 
मँगरे पर काग।

उसकी अठखेलियांँ
आतीं हैं याद।
बहुत कुछ समय ने 
किया है ईजाद।।

रसोईघर में 
माँ जी 
पका रहीं साग।
***

०५. अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’, उज्जैन ४ पृष्ठ
४०/५४, राजस्व कॉलोनी, एम. एल. नेहरू पोस्ट-ऑफिस के पास, उज्जैन ४५६०१०  (म.प्र.)
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अभियंता अशोक रक्ताले 'फणीन्द्र' का जन्म ८ अगस्त १९६० को अवन्तिकापुरी (वर्तमान उज्जैन) में हुआ। यह नगर चराचर के क्रम देवता भगवान चित्रगुप्त जी, महाकालेश्वर, भगवान श्री कृष्ण की शिक्षास्थली, महाराज विक्रमादित्य, महाकवि कालिदास आदि की क्रीड़ास्थली है। अशोक ने विद्युत यांत्रिकी में पत्रोपाधि, स्नातक (भौमिकी) की शिक्षा पाई। अभियांत्रिकीय कार्यों के संपादन के साथ-साथ आपने शब्द ब्रह्म की उपासना हेतु खुद को समर्पित किया। दोहा संग्रह- मन पर फागुन रंग , कुण्डलिया संग्रह- जीवनराग तथा घनाक्षरी  संग्रह- घनाक्षरी दण्डक के सृजन-प्रकाशन के साथ आपने कल्लोलिनी साहित्यिक पत्रिका एवं  ‘ग़ज़लांजलि’ वार्षिक अंक का संप[दन किया। म. प्र. पॉवर ट्रांसमिशन क. लि., उज्जैन से सेवानिवृत्त अशोक की रचनाएँ समसामयिक युगबोध से संपन्न हैं। 

गुलदाउदी, पारिजात, मधु कामिनी तथा मधु मालती पर गीतांजलि फुलबागिया को समर्पित कर रहे हैं अशोक। इन गीतों के माध्यम से पर्यावरण चेतना जागृत करने, वानस्पतिक औषधियों के प्रयोग बढ़ाने, गृह वाटिका लगाने, पंछियों का संरक्षण करने जैसे सर्वोपयोगी संदेश सफलता पूर्वक दे सके हैं अशोक जी। उनकी रचनाएँ जन सामान्य के लिए उपयोगी हैं। 
*

रोप गुलदाउदी के 

रोप गुलदाउदी के लगे तो हुआ
शुष्क आँगन का हर एक कोना हरा 

एक से दो हुए दो से फिर क्या कहूँ  
सैकड़ों रोप आँगन सजाने लगे
नित्य पानी उन्हें मैं पिलाने लगा 
पर्ण वे भी हरे नित बढ़ाने लगे 
खेल चलता रहा ये मई जून तक 
चाहिए छाँव का था उन्हें आसरा 

बारिशों में उन्हें किमचियाँ बाँधकर
खूब बढ़ने का अवसर दुबारा दिया 
शीत आते दिखीं फिर कली ही कली 
वर्मिकम्पोस्ट का तब सहारा दिया
चाहिए फूल बेहतर तो छिडको दवा 
था कृषक का किसी ये सही मशवरा  

देखते-देखते फूल खिलने लगे 
फिर खिले तो खिले ही रहे माह भर 
फूल गुच्छों में ऐसे खिले ढेर थे 
देखते थे उन्हें सब के सब आह भर 
रंग भी थे कई फूल भी थे कई 
देख उनको हुआ मेरा मन बावरा 
*** 
वृक्ष पारिजात का 

बीज बन गया किशोर 
वृक्ष पारिजात का 
फूल भर गये तो माह 
लग रहा शुबात का 

रात की महक तमाम 
गाँव को लुभा रही 
खोजते सभी सुगंध 
ये कहाँ से आ रही 
केशरी हुई ज़मीन 
दृश्य नित्य प्रात का 

कूट पत्तियाँ प्रयोग 
कर रहे बुखार में 
लाभ दर्द चर्म रोग 
और भी विकार में 
हरसिंगार एक नाम 
और है सुजात का 

शूल बिन हज़ार बार 
नोचती हैं डालियाँ
मखमली सुगढ़ सुपर्ण 
धारदार जालियाँ
बन कवच खड़े सुडौल 
छरहरे से गात का 
***
महक मधुकामिनी की 

लगाओ घर के आँगन या 
किसी गमले में कोने में 
महक मधुकामिनी की तो 
मिले मन के भगोने में 

बहुत टिकते नहीं पर पुष्प 
खिलते हैं सभी मौसम 
लगे है रंग इसका श्वेत 
जैसे सज गया रूपम
नहीं कोई मशक्कत है 
न लगता खर्च बोने में 

कलम ही से लगाओ बीज 
या फिर रोप ले आओ 
बरस दो में महकते पुष्प 
अपने बाग़ में पाओ 
सुशोभित अब इसे कर दो 
बगीचे शुभ सलोने में 

हरा रखती भरा रखती 
सदा मधुकामिनी उपवन 
खिले  तो  ग्रीष्म का सारा 
करे ये दूर सूनापन 
बुराई हैं नहीं कोई 
कहीं भी इसके होने में  
***
हरी-भरी मधुमालती 

देखते ही देखते, 
यह चढ़ गयी दीवार पर 
छाँटते हैं काटते 
इसको बढ़त से हारकर

वल्लरी मधुमालती की 
ग्रीष्म भर रहती हरी 
फूल कलियों गंध से 
रहती हमेशा ही भरी 
नित मुदित आँगन दिखा 
हर्षित इसे स्वीकार कर 

पक्षियों का है बसेरा 
इसकी झुरमुट के तले 
ढेर बच्चे हर चिड़ी के 
इसके आँचल में पले 
शाम महकाती हवा 
आती इसे जो पार कर 

नीर इसको दो न दो 
खिलती हमेशा शान से
पतझड़ों में पात झड़ते 
कुछ अधिक अनुमान से 
झाड़ देते हैं उन्हें सब 
फूल जैसे प्यार कर 
***

०० अस्मिता 'शैली', जबलपुर  ४ पृष्ठ 

९६३/६४ 'नीराजन' समीप जवाहर गंज थाना, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश।
चलभाष ८३०५०९९७५५, ई मेल- asmi.chourasia@ gmail.com   

अस्मिता 'शैली' संस्कारधानी जबलपुर की सुस्थापित कवयित्री, कला साधिका, लेखिका तथा उद्यमी है। बहुमुखी प्रतिभा की विरासत अस्मिता ने भली प्रकार सहेजी और निरंतर  प्रयास कर सँवारी है। पारिस्थितिक चक्रव्यूह में न केवल प्रवेश करना अपितु सतत संघर्ष कर विजय वरण करने की जिजीविषा अस्मिता को असाधारण बनाती है। स्वातंत्र्य सत्याग्रहीपितामह माणिक लाल चौरसिया, हिंदी प्राध्यापक-सुकवि पिता जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', चाचा द्वय कृष्ण कुमार 'पथिक' तथा गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' की साहित्य सृजन की विरासत को आगे बढ़ाने के साथ-साथ अस्मिता ने चित्रकला के माध्यम से भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। एम.ए., एम.एड., डेकोरेशन एंड होम क्राफ्ट में डिप्लोमा, पेंटिग में डिप्लोमा, सङ्गीतविद, आकाशवाणी जबलपुर से वाणी प्रमाणपत्र आदि में सफलता प्राप्त कर अस्मिता ने कलाभिव्यक्ति वाइब्रेंट गैलरी तथा हुनर वीथिका शॉप को सफल बनाकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। 'सृजन के सोपान : एक रचनात्मक कला यात्रा' पुस्तक के माध्यम से हिंदी वाङमय को समृद्ध किया है।चंद्र विजय अभियान काव्य संकलन में सहभागी होकर अस्मिय ने हिंदी में तकनीकी विषय पर लिखने के अनुष्ठान में अपनी समिधा समर्पित की है। फुलबागिया में 'नागचंपा', 'शिरीष' तथा 'धानी कोना' रचनाओं के माध्यम से स्वतंत्र चिंतन तथा लीक से हटकर चलने की कोशिश की है। 
अस्मिता सहज बोधगम्य भाषा में प्रसाद शैली में अमिधा शक्ति में लिखती है। वे कथ्य को क्लिष्ट शब्दावली से बचते हुए आम पाठक की रुचि के अनुकूल अपनी बात कहती है। बहु आयामी प्रतिभा की धनी अस्मिता वस्तुत: साहित्य, कला और उद्यम की त्रिवेणी हैं और उनसे तीनों क्षेत्रों में नवोन्मेषी सृजन की अपेक्षा है।     
  ***

"प्राकृतिक अचंभा : नागचंपा" 
आज हमारी लघु वाटिका, पा गई प्राकृतिक अनुकंपा,
पल्लवित,पुष्पित हुआ वो बिरवा ,
यथानाम है नागचंपा,
सरलता से ये लग जाए,
कलम से नई पौध बनाए,
धूप में लंबी बढ़त है पाए,
शीर्ष पर धवल कुसुम सजाए,
दिखते पत्ते ऐसे जैसे,
पत्ता ही नाग बन बैठा,
फन फैलाए होता है भ्रम,
प्रकृति का ये एक अचंभा,
यथानाम है नागचंपा,
श्वेत पुष्प का रूप अनूप,
बनती इनसे सुगंधित धूप,
तेल भी होता अति गुणकारी,
हरे मानसिक व्याधि सारी,
पूजा पाठ में आए काम,
औषधि के गुण इसके नाम,
गमले में ही खूब है पनपा,
धन्य हो गए इसको हम पा,
यथानाम है नागचंपा।
***
"शिरीष सुकुमार : रंगत रतनार "
पुष्पों के संसार में,देखी हमने रंगतें हज़ार, 
भांति-भांति के कुसुमों पर कुदरत ने किया अजब सिंगार ,
अद्भुत उसकी चली  तूलिका, रंग बिखेरे बेशुमार,
जीवन के हर इक अवसर पर फूलों के लगते अंबार,
पूजन,स्वागत, विवाहोपलक्ष्य,
पुष्पांजलि या तीज-त्यौहार,
इनके बिना जग लगे अधूरा, बगिया दिखती बिल्कुल बेज़ार,
इन पर लिख मन सुरभित कर ले ,
लेखनी की भी यही पुकार ,
 अंतर्मन से उभरी कविता, प्रस्तुत है आप सबके समीक्षार्थ.....
न्यारी इस फुलबगिया से,
हमको भाया वो फूल,
फैली टहनी दूर तक,
कहीं-कहीं होते हैं शूल,
कली दिखे शहतूत-सी,
रंगत पाई है रतनार,
नयन मुग्ध करता 'शिरीष'
कितना कोमल, रेशेदार,
'अलबिजिया लेबैक' इसका, है वैज्ञानिक नाम,
त्वक रोगों में विशेषकर,
आता है ये काम,
एंटीऑक्सीडेंट, एंटी फंगल, इसमें गुण तमाम,
इंच-इंच पर रहे खिला,
हो चाहे जेठ दुपहरी घाम,
इसीलिए पाया इसने 'शीत पुष्प' भी और इक नाम,
तपती ऋतु में खिलकर 'शिरीष',
यूं लगे कर रहा, मंत्रोच्चार,
जीवन के संग्राम में, 
भरो तुम अजेय हुंकार,
मंत्र मुग्ध करता 'शिरीष'
संकल्पित भी बारंबार,
खिले रहो तुम, डटे रहो तुम, चाहे जैसी चले बयार,
कहीं खिले पीताभ और
कहीं दिखे रतनार,
फुलबगिया में भ्रमण कर,
 हमने चुना 'शिरीष' सुकुमार,
हरित पात के बीच झांकता,कितना कोमल रेशेदार,
पुष्पों का संसार हमें,
कर देता हरदम गुलज़ार,
नयनों को आनंदित करतीं , 
इनकी रंगतें हज़ार ।
***

"धानी कोना: सदा संजोना" 
नयनों को ठंडक देता है घर का धानी कोना,
बहुत ज़रूरी होता है हर घर में इसका होना,
बरन- बरन के पात,पुष्प और बेल हैं इस पर सजते,
लिपे-पुते और हरे-भरे हैं 
गमले सुंदर लगते,
नित्य प्रति हम चुनते इनसे जासौन और गुलाब,
सदा सुहागन, चांदनी,मोगरा ,पारिजाद,
पूजन में जब अर्पित होते,अपने घर के फूल,
मन- मयूर नर्तन करे,
यही खुशियों का मूल,
बड़े जतन से संजो रखा ये हरीतिम सपन- सलोना
नयनों को ठंडक देता ये घर का धानी कोना.....
तपती ऋतु की तपिश जो सहते,
मुक्ताकाशी सदा हैं रहते,
बरखा की रिमझिम बौछारें,
उनको ही मिलतीं हैं खुल के,
छांव में जो छिपा रहेगा,बौछारों से जुदा रहेगा,
ग्रीष्म,शीत के भय से दुबका,
कैसे अपनी राह गढ़ेगा..?
प्रकृति के निश्चित क्रम हैं ये, 
तनिक तू विचलित हो ना,
संघर्षों की धूप में तप कर,
कुंदन बनता सोना,
कितनी ही सीखें देता ये हरित परणी कोना,
हरियाली का मोल, रे प्राणी !
समझ न औना-पौना, 
बहुत ज़रूरी होता है,
हर घर में इसका होना,
नयनों को ठंडक देता है,
मन को आह्लादित करता है, 
घर का धानी कोना।
***




००. आनंद श्रीवास्तव, प्रयागराज ४ पृष्ठ 
०६. कालीदास ताम्रकार, जबलपुर ४ पृष्ठ

परिचय
नाम :  काली दास ताम्रकार
कवि काली जबलपुरी फिल्मी गीतकार
माता का नाम:स्व.सरस्वती ताम्रकार
पिता का नाम :स्व.कवि सूरज प्रसाद ताम्रकार
जन्म का स्थान : कालिका भवन म.न.833
शाही नाका गढ़ा जबलपुर म.प्र.
जन्म तारीखः12/11/1960
काव्य गुरू ःः कविवर  सूरज प्रसाद ताम्रकार
वर्तमान पता :४६१/४० अ एकता चौक बिजयनगर जबलपुर म.प्र.
फोन /वाट्स एप नं. ; 9826795236
शिक्षा /व्यवसाय ;मेकेनिकल ,,मानचित्रकार /
सम्बधताः शासकीय महिलाआई टी आई प्राचार्य जबलपुर संचालनालय कौशल विकास( बिभाग स्किल डेवलपमेंट )रिटायर्ड मेन्ट प्रशासनिक अधिकारी  जबलपुर म.प्र.
प्रकाशन विवरण:- १ प्यार की तरंग
२ उजाले की सैर
३ सूरज की कविता 
४ तीसरी आँख
देश के अनेक काव्य संग्रह:- कलम के सिपाही ,मधुसंचय ,विरासत ,रेंन बसेरा ,दीप जगमगज्योति, बुन्देली दैनिकभास्कर , यंग ब्लड,नवीन दुनियाँ ,देशबन्धु ,राजएक्सप्रेस छोटे समाचार पत्रों आदि में रचनायें समय समय पर प्रकाशित,मौलिक 3000फिल्मी् गीतों का संधारण
संस्थाओं से संबद्धता:-साहित्य उत्थान संगठन अध्य्क्ष ,सदस्य १ मिलन ,बर्तिका ,पाथेय, साहित्यकार मंच,जागरण साहित्य , हिन्दी साहित्य सेवा , राम लीला जाबलिपुरम्, अखिल भारतीय बुन्देली साहित्य परिषद,गूंज संस्था, साहित्य मित्र मंडल जबलपुर ,मंथन, सहोदर,म.प्र.,कविता कोश संस्था ,नव लेखन,
कादम्बरी,जागरण,वाह वाह मंच   ,लघु कहानियाँँ, जबलपुर से 30से अधिक प्रकाशित काव्य संग्रहों मे प्रकाशन
अलंकरण:- १ काव्य अलंकरण भोपाल २ हिन्दी सेवा समिति जबलपुर ३ पाथेय अलंकरण साहित्य् कार अलंकरण छिंदबाड़ा गूूंज  अंलकरण, जागरण अलंकरण, प्रसंग अलंकरण जबलपुर,मंथन अलंकरण आदि।। 
काव्यः-   गचगेंधा सम्मेलन,मूर्ख सम्मेलन ,संस्कारधानी सम्मेलन,जबलपुर ;कवि सम्मेलन,हिन्दी महाकुम्भ सम्मानित,भारत की बात में समय पर अन्य शहरों के मंचीय कार्यक्रम ,आन लाईन काव्य गोष्ठियां, आदि 
आकाशवाणी ;रायपुर ,कलकत्ता ,जबलपुर ,भोपाल ,जबलपुर, गूगल कवि 
दूरदर्शन ;जबलपुर ,कलकत्ता ,भोपाल 
फिल्मी गीतकार:फ़िल्म प्रेम ही पूजा,फ़िल्म दरार आदि के गीत लिखने का अवसर मिला।गूगल कवि
घोषणा :-
मैं यह घोषण करता हूं की मेरे द्वारा दी गयी उपरोक्त समस्त जानकारी सत्य है असत्य पाये जाने की दशा में हम स्वयं जिम्मेदार रहेंगे
 काली दास ताम्रकार
कवि काली जबलपुरी
४६१/४० अ एकता चौक विक्रमादित्य कालेज के पास विजय नगर जबलपुर म.प.
मो नं9826795236
म ग स म/ 2709/2016/

जासौन
फूल जासौन का  महत्व अधिक होता है
रंग रंग का यह मीठा अधिक होता है!!
चैत और क्वार में माँ पूजन को लगता है
नाम जासौन है गुडहल फूल कहाता है!!
इसके सेवन से चेहरे पर ललामी आती है
इसकी टहनी सहज मिट्टी में लग जाती है!!
रात में कलियाँ फूल बनने को आतुर होती
भोर भये खिलके ये प्रकृति को मुस्काता है!!
माँ गौरी पूजन में जासौन  फूल चढता है
पंखुडियाँ कोमल होने से दिन में मुरझाता है!!
बारह मासी फूल है ये सुगन्ध नहीं देता है
जिस घर पौधा होता खुशहाली देता है!!
फूल जासौन देख दिल गदगद हो जाता है
सुख और शाँति का प्रतीक धर्म बताता है!!
काली को प्रिय  ज्यादा माँ को चढता है
जीवन में रंग खुशियों के यह भर देता है!!
 काली दास ताम्रकार काली जबलपुरी
***

कैलाश कौशल जोधपुर राजस्थान  
अमलतास
 राजस्थान में तापमान चरम पर है, सूर्यनगरी के हर पेड़ की फुनगी पर मानो सूर्य बैठा है, इस भीषण गर्मी में भी अमलतास अपने पीले फूलों की स्वर्णिम आभा बिखेर रहा है, पार्वती ने शिव - वरण हेतु ग्रीष्मकाल में तपस्यारत रहते हुए इसी वृक्ष के सुंदर पुष्पों को कर्णिकार रूप में धारण किया था, महादेव के प्रति विनत होते हुए यही झर पड़ा था सबसे पहले, मानो गिरिजा के मन की बात कहने को आतुर हो -

स्वर्ण द्रुम अमलतास 

 पीताभ गरिमा लिए 
स्वर्ण-पुष्पों से लकदक
प्रेमयोगी है अमलतास 
गिरिजा के प्रणय -भाव में
जब यह कर्णिकार झरा
तो साकार हुआ 
स्वर्ण-द्रुम  के तले 
प्रणय - पंचांग * 
वसंत को पूर्णता देता
प्रकृति का यह
नयनाभिराम श्रृंगार 

*पंचांग - पंच तत्त्व,  पंच -शर, पंचाग्नि तप, वृक्ष के पाँचों भाग
 सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह 'प्रार्थनाओँ में इंद्रधनुष' से
डाॅ कैलाश कौशल,  जोधपुर


०७. खंजन सिन्हा, भोपाल
एम ३०३ चेतक ब्रिज के पास, गौतम नगर  भोपाल म. प्र. ४६२०२३ 
चलभाष -९१६५४ ७१११४ 
E-mail -sinha khanjan 360gmail.com 

सनातन सलिला नर्मदा की घाटी सदा से साधना भूमि रही है। इस क्षेत्र में देश भक्ति का प्रखर स्वर गुंजानेवाले कविवर इंद्रबहादुर खरे और श्रीमती विद्यावती खरे (व्याख्याता) को २४ सितंबर १९..  को एक प्रतिभा सम्पन्न पुत्री कस वरदान प्राप्त हुआ। शब्द-ब्रह्म उपासना की पारिवारिक विरासत को ग्रहण कर संस्कृति और साहित्य के प्रति समर्पित रहते हुए भी पारिवारिक अपेक्षाओं और दायित्वों को वरीयता देते हुए खंजन जी  अभियंता पति कृष्ण कुमार सिन्हा का संबल बनीं। कालचक्र के प्रभाव से पति की जीवन यात्रा पूर्ण होने के पश्चात उन्होंने लोक कला (चित्रांकन) और काव्य लेखन के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को प्रकाश में आने दिया। उनका काव्य संकलन 'समर्पित भावनाएँ' बहुचर्चित है। 

मधुमालती, पलाश, रातरानी एवं सूरज मुखी पुष्पों पर प्रस्तुत रचनाएँ उनकी कारयित्री प्रतिभा की परिचायक हैं। मधुमालती में बचपन की स्मृति, पलाश  से आजीविका प्राप्ति, रातरानी से जगत को महकाने की प्रेरणा और सूरजमुखी के विविध उपयोगों को काव्य रचना में समाविष्ट कर खंजन जी ने  रचनाओं को प्रासंगिक बनाया है। उनकी कलम द्रुत गति से चलती हुए हिंदी के कोश को समृद्ध करने में समर्थ है। 
*     
मधु मालती
 
मधु मालती 
बसंत बहार बन छाई रहती हो 
पर सदा संसार  महकाती हो 
खुशबू से भरी बेल तुम्हारी है 
सुन्दर फूलों से खिली धरा हमारी है 

बचपन की उन यादों में 
समाई रहती है मधु मालती 
तुम्हारे लाल सफेद फूल खिले रहते थे।
घर की द्वार देहरी इसी से सजी रहती थी 

वो मधु मालती की बेल 
आँगन की क्यारी में पनपती थी 
घर के छप्पर पर चढ़ जाती थी 
छप्पर फाड़कर के बढ़ती थी ये बेल ।
लाल सफेद फूलों से सजी रहती थी 
फूलों के गुच्छे में सदा ये खिलती थी 
सदाबहार बन महकती थी।

मधु मालती तुम पर भौंरे खूब मंडराते 
तितली भी तुम पर फर्र फर्र उड़ती है 
तुम्हारे फूलों के पराग कण से 
अपना जीवन सँवारती है ।

मधु मालती तुम्हारे फूल की बड़ी माया 
शर्करा के रोगी को देती नई काया 
इन फूलों से बनाओ तुम काढ़ा 
यह पेय पिलाओ तुम किडनी के रोगी को 
 कुछ दिन में दूर हो जाएँगे ये रोग 
मिलेगा बहुत लाभ
मधु मालती से नहीं कोई हानि ।
लेती हो हर मौसम में अंगड़ाई 
सदा बहार बन खिलती हो ।

 मधु मालती के फूल 
तुमको देख वह बचपन याद आया 
तुम्हारे लाल सफेद फूल की पंखुड़ियों से 
खेलते-खेलते अपने हाथ सजाते थे 
उँगलियों में नाखून पर पंखुड़ियाँ
लगाकर चिपकाते थे 
देखने में बड़े बड़े लगते थे 
लगते भी बहुत खूबसूरत थे
लगता था कि नाखून बढ़ाकर 
नाखून पॉलिश लगाया है 
ऐसा प्रतीत होता था।
सहसा दूर से एक दिन देखा दादी ने 
लगाई थी एक फटकार 
ये क्या? राक्षसी जैसे नाखून बढ़ाए।
ऐसा सुनते ही हँसकर हमने अपने 
नाखूनों से तुरंत हटाई थी वो पंखुरियाँ
यह देख दादी भी बहुत मुस्कुराई थी 
मधु मालती के फूलों से 
बचपन की यादें थी 
जो पुनः लौट आई है।
***
पलाश 

पलाश जिसकी थी हमें तलाश
अवनि और आकाश हो गये पलाश 
जंगल, पहाड़ और बागों में दिखते 
अंगारों से चमकते पलाश।
कवि जब कल्पना में खो जाता 
दृष्टि पड़ती पलाश की  डाल पर
लगता उसको ऐसा जैसे
कतार बद्ध बैठी चिड़िया डाल पर 
काली देह पर उभरे केसरिया पंख।
पर हो असल में तुम, पलाश के संग।
केसरिया रंग में खिले तुम्हारे पुष्प।
लगे तुम बहुत सुन्दर और प्यारे 
दिखी तुम्हारे पुष्प में अग्नि सा रंग
चमक उठा था वो अंगारों सा लाल रंग।

पलाश तुम्हारे पत्ते बड़े काम के 
कभी भोजन की थाली (पत्तल)बनती
कभी पत्तों से बनते दोना कटोरी  
सहेजते हुए बने हैं पर्यावरण के मित्र।
पत्तल दोना का करते उपयोग
करते उसमें भोजन, बाद में खाकर फैंकते 
प्रदूषण का करते बहिष्कार 
धरा की माटी में फिर समा जाते 
वो पलाश के पत्तों के दोना, पत्तल।
पर्यावरण को बचाकर 
स्वाभिमान से पुनः उठते।
सिर उठा कर धरा पर 
खिलते पुष्प पलाश के 
 प्रफुल्लित होते अवनि और आकाश।

तुम्हारे सूखे पत्तों से 
लोगों को गाँव में  घर बैठे मिलता काम रे!
लोग अपना निर्वाह करते गाँव में।
चमकते रहो अंगारों से पुष्प तुम पलाश के।
आकाश की ओर भी खिलते हो पलाश 
अंगारों जैसे दिखते तुम पुष्प पलाश के 
राहो में भी बिछ जाते पलाश।
हो जाते  पलाशमय पलाश 
कभी नदी तीरे खिलते पलाश 
झर जाते पुष्प नदी के प्रवाह में 
जब दिखती नदी में तुम्हारी छाया 
लहरों में भी उछलते पुष्प तुम्हारे 
और बह जाते अविरल प्रवाह में 
सागर की आस लिए
दिशा तय कर जाते
पुष्प तुम्हारे पलाश के।
होली में भी बनता तुम्हारे पुष्प से रंग 
खेले अब केसरिया संग 
फाग की मच गई धूम ।
भर पिचकारी डारे राधा कृष्ण के संग 
क्योंकि केसरिया है रंग
पलाश है संग।
जब केसरिया पलाश
है तुम्हारे संग।
फिर तलाश न करो दूसरे रंग ।
***
रातरानी  

रातरानी तुम किस रात खिली ।
अमावस की रात में खिली 
कि पूनम की रात में खिली 
चाँदनी में चमके फूल तुम्हारे 
उससे कहीं  ज्यादा चमके 
रात अमावस में फूल तुम्हारे ।
सफेद उजले फूलों से भरा वृक्ष तुम्हारा ।
चमेली से दमकते महकते फूल तुम्हारे ।
रातरानी हो तुम बहुत उपयोगी।
तुम्हारे फूलों से बनता तेल  
जो काया को बनाता निरोग 
मुँह में हो छाले तो 
पत्तों को पीसकर 
लगाते उसका लेप 
और पा जाते निदान।
रातरानी तुम्हारे फूलों से ही 
बनता इत्र जो 
महका देता सारे जहाँ को।
इत्र की खुशबू से 
नासिका को मिलता आराम ।
कवि भी चाँदनी रात में लिखते हैं 
करते फूलों संग पत्तियों का बखान।
खूब फूलों रातरानी तुम 
हम सबको साथ लेकर 
महकाओ धरा को ।
पर लगता है डर 
क्योंकि जब फूलों की खुशबू उड़ती है 
लिपट,लिपट पेड़ों पर अपना फैलाते हैं फन
पर नाम बताने से लगता है डर 
समझ तो गए होंगे आप।
बस खिली रहो रातरानी तुम 
सदा बहार बन मुस्कुराओ तुम।
हम कभी न तोड़ेंगे तुम्हारे खिलते फूलों को ।
पर होगा समय का परिवर्तन 
और रहेगें जीवन में तुम्हारे संग 
फिर महकेगें और  मुस्कुराएँगे हम।
***
सूरजमुखी 

निशा ढ़़ली 
आई भोर की लाली 
पूरब में खड़े तुम 
सूरज के सम्मुख हो तुम ।
सूरज को देख धरा पर खिलते 
इसीलिए  सूरजमुखी कहलाते ।
सूरजमुखी 
शिशिर आने के पहले 
धरा पर होता आगमन तुम्हारा 
हर्षित होकर करते स्वागत तुम्हारा ।
ज्यों ज्यों सूरज हौले-हौले
घूमता पश्चिम की ओर 
सूरजमुखी का पुष्प  तुम भी 
घूम जाते पश्चिम की ओर। 
बसंत बहार बन छा जाते हो 
बागों की शोभा बढाते हो।
खेतों में बाग बगीचों में खिलते हो 
बड़ी दूर से दिखकर मुस्कुराते हो 
सभी की नजरों के सामने आते हो 
तुमको देखने के लिए 
कोई अलग से प्रयास नहीं 
ऐसे ही सूरजमुखी खिला करो 
सबको मनमोहक छबि दिखाया करो।
गुलदस्ते के पुष्पों बीच भी खिलते हो 
तो और भी सुंदर सजीले लगते हो 
सुन्दर सौंदर्य रूप तुम्हारा 
सब पुष्पों के बीच 
अलग ही ऊँचाई पाते हो ।
तुम्हारे पुष्प की पंखुड़ियां और पत्तियाँ 
है बड़ी बड़ी सुंदर सजीली 
तुम्हारे पराग का एक एक कण 
एक एक पुष्प जैसे लगते है 
लगता है कितने पुष्पों से समाहित हो तुम 
इसलिए क्या इतने बड़े बने हो 
पर हो बहुत ही सम्माननीय तुम 
हे सूरजमुखी के पुष्प ।
पुष्प के बीच पराग कण भी सुन्दर हैं 
पीले और कत्थई रंग से बनी है छबि तुम्हारी 
इसी  सुन्दरता की चाहत में 
तुम पर, भौंरे और तितली मँडराते हैं।
तुम्हारे पुष्पों के बीज से बनता है तेल 
है बहुत ही पोषक 
जो खाने के है योग्य और आता उपयोग  
तेल बनने के बाद बचा पदार्थ 
बनता है पशुओं का आहार।
सूरजमुखी का पेड़ 
हर  तरफ से है़ उपयोगी
जुडा़ है जमीन से 
खड़ा है जमीन पर 
देखता है आकाश को 
सूरज की तरह चमकता है 
रहता है खेतों और बाग बगीचों में।  

तुम्हारे लिए नहीं है कोई
बिजूका   
इसलिए रहते हो हर जगह
अपना अस्तित्व जमाकर 
हे सूरजमुखी के पुष्प।
ऐसे ही धरा पर खिलखिलाते हुए आया करो 
बड़े सुन्दर छबीले हो तुम 
अपनी छबि से सभी का मन मोह लिया करो 
हे सूरजमुखी के पुष्प।

बिजूका- खेत में पक्षियों से फसल के बचाव के लिए खड़ा किया गया पुतला। 
***

०८. गीता फौजदार 'गीतश्री', आगरा १० पृष्ठ




44, नेहरू नगर, आगरा 
पिन कोड - 282002
#7830553875
बीएससी, गृहिणी 
प्रकाशित पुस्तक प्रतिबिम्ब
प्रकाशनाधीन पुस्तक गुलकंद
*परिचय*

      मेरा नाम गीता फौजदार है। मेरा जन्म 1 नवंबर 1954 को लखनऊ में हुआ था और मेरी प्रारंभिक 7वीं तक की शिक्षा एक मिशिनरी स्कूल, आनंद भवन - बाराबंकी से हुई थी। आगे की 12 वीं तक की शिक्षा लाल बाग गर्ल्स इंटरमीडिएट कॉलेज- लखनऊ के क्षत्रावास में रह कर हुई। इसके बाद अपनी स्नातक की डिग्री मैंने विज्ञान से रघुनाथ गर्ल्स डिग्री कॉलेज के क्षात्रावास में रहकर मेरठ विश्वविद्यालय से प्राप्त की।
       छात्रावास में रह कर जीवन का अनुभव अच्छा रहा और आत्म निर्भर रहना सीखा।
मैं अच्छे नम्बर लाने के कारण सभी शिक्षकों की नज़रों में रहती थी और अभिनय से लेकर, नृत्य तथा वादविवाद प्रतियोगिता में भी भाग लिया करती थी। इन सब से मेरा व्यक्तित्व निखरता गया और आत्मविश्वास को बल मिला।
     कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरे जीवन ने नया मोड़ लिया। 2 नवंबर 1976 को मेरा विवाह श्री विनोद फौज़दार के साथ आगरा शहर में हुआ। जो भारतीय अति विशिष्ट सेना में अधिकारी हैं। उनके परिवार की चार पीढ़ियां सेना में रहकर देश की सेवा कर रही हैं। 
     हमारी दो संताने हैं। 1979 में पुत्र विनय और 1982 में पुत्री विप्रा ने जन्म लिया। गृहस्थ जीवन में बहू, पत्नी और माँ बन कर सारे दायित्वों का निर्वाह करते हुए मैं आध्यात्मिकता की अग्नि को हवा देती रही हूँ। 
      सेना में पति के साथ रहते हुए मैंने लगभग पूरे भारत का भ्रमण किया है। लद्दाख के पेगोंग झील से लेकर कन्याकुमारी तक और सिक्किम के गैंगटोक से लेकर लगभग सभी प्रदेशों का दर्शन किया है।
     बचपन से मेरा कविताओं को लिखने का सिलसिला और आधत्मिकता से प्राप्त अनुभूतियां मेरी आत्मकथा प्रतिबिम्ब - 'जीवन की अनुभूति' नामक पुस्तक में छप चुकी हैं। अब लगभग 100 कविताओं का संग्रह गुलकंद नाम से छप रहा है। कविताओं के लिए मैं अपना नाम गीतश्री लिखती हूँ। यहाँ मैंने गुलाब, ट्यूलिप, शरद ऋतु और बसंत ऋतु के कुछ फूलों पर कविताएं लिखी हैं।
     ~~~~~~~~~~~~

*जब गुलाब खिले*

गुलाब के जब फूल खिले,
बहुरंगों से गुलशन भरे।
तितलियों के दिल मचले,
खुशबुओं से भौँरे खिंचे।
             जब गुलाब के फूल खिले।
मधुमक्खियों ने शहद रचे,
पंखुड़ियों से गुलकंद बने।
चाशनी की भीनी खुशबू से,
चींटियों के मस्त झुंड चले।
             जब गुलाब के फूल खिले।
पान का मधुर बीड़ा बना,
कोई सादा कोई मीठा बना।
कत्था सुपाड़ी का तड़का लगा,
लौंग इलाइची संग गुलकंद भरा।
             जब गुलाब के फूल खिले।
जवां दिलों में शोर मचा,
प्रेम कश्ती में वो तैर चले।
दिल गुलाब सा खिल उठा,
गुल माला में दोनों बंधे।
             जब गुलाब के फूल खिले।
गुलाब की गुलबगिया से,
बिटिया की डोली सजी।
गुलकंदी मिठास बिखरी,
सुगंध से हर सांस भरी।
            जब गुलाब के फूल खिले।
एक लड़ी जूड़े में गुंथी,
इत्र की डिबिया खुली।
दूल्हा दुल्हन अब एक हुए,
अजब अनोखी मंडप सजी।                  
           जब गुलाब के फूल खिले।
---- गीतश्री 
      फूलों की बात हो और गुलाब का प्रसंग ना आये ऐसा नहीं हो सकता। गुलाब के फूलों को प्रेम का प्रतीक माना जाता है। गुलाब की वाड़ी में लगभग सभी मौसम में फूल आते रहते हैं और इसकी पंखुड़ियों का उपयोग गुलकंद बनाने के लिए किया जाता है। 
      इसकी सुगंध बहुत ही मनमोहक होती है। इस कविता को पढ़ कर हर कोई सुगंध का मीठा सा आभास कर लेता है। सुगंध वह तत्व है जिसका प्रभाव सीधा भावों को प्रेरित करता है।
***

*बसंती बागबहार*

बर्फ की रजाई से ढका हुआ 
कहीं कोहरे की चादर से,
ली अंगड़ाई अब ऋतु बसंत ने
किंचित हटाके एक कोने से।

आहट हुई सर्वत्र बसंत की और,
हुई पुष्टि संक्रांति के शंखनादों से।
वो आइरिस का नीला बैगनी रूप,
उभरा बहुरंगी प्रिमरोज़ बगीचों से।

गुदगुदाया वसुधा के कपोलों को
डेज़ी डेहलिया के बिछौने से,
फैला जन जीवन में उमंग उल्हास
उभरे क्रोकस अपने बल्बों से।

सतरंगी कतारें ग्लैडुला की और
कैमेलिया खिली बंद कलियों से,
शीतऋतु घटा अब धुंध हुआ दूर 
लिली कतारें खिलीं झाड़ियों से।

भौँरे और तितली भी निकले,
देखो अपने अपने कोकूनों से।
फिर होगा कीटों का एक और,
नवजीवन चत्वारी चक्र शुरू से।
--- गीतश्री 
शब्दार्थ --
चत्वारी - चार अवस्था वाला 
      बसंत के फूलों का आगमन भारत में साधारणतः मकर संक्रांति से आरम्भ माना जाता है, क्योंकि संक्रांति के बाद से ही सूर्य धीरे धीरे उत्तर की ओर आना आरम्भ करता है और शीत कम होने लगती है, जोकि बसंत के फूलों के लिए बिलकुल उपयुक्त समय होता है। आइरिस, प्रिमरोज़, डेज़ी, डेहलिया, क्रोकस, ग्लैडुला, कैमेलिया, लिली आदि अनेक प्रकार के फूल खिलखिलाने लगते हैं। भौँरे और तितली भी इस दिनों कोकुन से बाहर आकर नया जीवन चक्र आरम्भ करते हैं।
***
*चित्रकार की ट्यूलिप तूलिका*

निरुपम दृश्य धरा से क्षितिज तक 
कोंपलों की मदमस्त छटा यौवनी, 
कहीं कलियाँ रचें जवाँ पराग को 
कहीं पाते गढ़ रहे अमर संजीवनी।

        अनुपम रंगों से रचा विधान को 
        विचारती रही हूँ मैं अभिभूत सी, 
        यह लीला हिमगिरी के मैदानों में 
        विस्मित कर रही है विचित्र सी।

ट्यूलिप फूलों से भरी तलहटी 
रम्यक मोहक सुगंध पुष्पों की,
अगम सारणी तरंग सतरंग की 
स्वर्णिम आभा देखी बसंत की।

       झरनों नदियों का खेल निराला 
       उन्मत्त होकर कलकल करती, 
       पसरी हुई जब उथल उपल में 
       बिखरे तरुणों की क्षुधा बुझाती।

रंग बिरंगी बिछौनी ट्युलिप की 
विषम माया है दैव्य तूलिका की,
कहीं रक्त कतारों से होश उड़ाती 
कहीं चादर बिछी हुई नील की।

        अविरत पंगत पड़ी श्वेत वर्ण की
        बसी चेतना फूलों में जीवन की,
        नित लिए डोर कर रहा नियंत्रित
        इन मंजरियों में बहते प्राणों की।
---गीतश्री
शब्दार्थ --
तूलिका -- कूँची 
मंजरी -- फूल 
उपल -- पत्थर
अगम -- दुर्गम 
      बसंत ऋतु में कुछ ऊँचे स्थानों पर ट्यूलिप के बागानों को देख कर लगता है जैसे किसी चित्रकार ने अपनी तूलिका से सृष्टि में अनोखी रचना कर दी है। ट्यूलिप को कई रंगों में हम देखते हैं और इसीलिए यहाँ पर उसके अलग अलग रंगों से सजी बहार का वर्णन कविता में किया है।
***
*शरद ऋतु सृजन*

सज गया है वसुंधरा में,
       चमकते भास्कर का गुरुर।
जैसे सुहागिन की मांग में,
       हो उसके सजना का सिंदूर।

फैल गई महक हवा में,
       फूलबगिया का क्या कसूर।
बिखर गई चमेली चमन में,
       तो मालिन का क्या कसूर।

इठलाती चम्पा कह रही 
       भौँरे! तू जाना नहीं दूर।
नई कोंपल खिल आये,
       यहाँ आना कल ज़रूर।

चाँद नहीं आया अंबर में,
       रात रानी का क्या कसूर।
रव्यूदय में मच गया है शोर,
       सूरजमुखी का क्या कसूर।

धड़कते वेग से झूमे भागे,
       बहती जल-धारा मगरूर।
तालों में सध गया सलिल,
       जलकुमुद का क्या कसूर।

पंछी करें कलरव कोलाहल 
       उर्मिल बेला का क्या कसूर।
आँगनवाड़ी में पद्म खिला के 
       शरद में है सृजन का सुरूर।
----- गीतश्री 
       शरद ऋतु के फूलों का यहाँ विश्लेषण किया गया है। उन दिनों सूर्य की चमक बढ़ जाती है जिसकी तुलना सुहागिन की मांग के सिंदूर से की है।
      जहाँ कहीं फूल बगिया होगी वहाँ महक तो आएगी ही। सुबह सुबह धरती पर चमेली के फूल गिरे हुए मिलते हैं, उसके लिए मालिन को दोष नहीं दिया जा सकता।
      रात को चाँद आये या ना आये रात की रानी अपनी सुगंध बिखेरती ही है। प्रातः सूरजमुखी सूर्य की ओर मुख करके खिल जाती है। सभी जीवों की ध्वनि सूर्योदय के कारण है। उसी प्रकार जहां कहीं बहता जल रुक कर तालाब बना लेता है वहीं जलकुमुद को खिलने का प्रसंग बन जाता है। भोर बेला में पंछियों की चहचहाहट होगी और उसी समय यदि आँगन के किसी जलकुण्ड में कमल के फूल 'पद्म' खिल आएं तो शरद ऋतु में सृष्टि का सृजन अद्भुत लगता है।
***

०९. चारु श्रोत्रिय, जावरा, रतलाम ४ पृष्ठ

फूलों की चादर ताने धरती भी मुस्काती 
देखो पेड़ों के झुरमुट की हर डाली लहराती।
ठंडी हवा के झोंके ले मधुबन महकता 
चिड़िया सा उड़ता मन देखो कैसे चहकता।
जीवन की इस बगिया में सुगंधित फूल
कीमत पहचान मस्तक पर लगा लो धूल।
बैला गुलाब जुही अनंत पुष्प देते संदेश 
प्रेम करो सबसे रखो न किसी से कोई द्वेष।
कभी दुआ कभी दवा जीवन रस बन जाते
आसमान में बिखरे सितारे से चमक उठते ।
फूलों की दुनिया दिखती सच में बड़ी निराली 
गुनगुन करते भंवरो ने अपनी बारात निकाली। 
रंग बिरंगे पंख बिखेर तितली इन पर मंडराती
संध्या का घूंघट ले खिल उठी रातरानी इठलाती ।
आओ हम तुम मिल फूलों की दुनिया सजा ले
रूठे पर्यावरण को महकाकर फिर से मना ले।
                    चारु श्रोत्रिय 
                मुगलपुरा, जावरा

१०. छाया सक्सेना जबलपुर
११. नीलिमा रंजन भोपाल 
१२. पुष्पा वर्मा हैदराबाद
१३. भावना पुरोहित हैदराबाद
१४. ममता सिन्हा, जशपुर ४ पृष्ठ

१५. मीना भट्ट 'सिद्धार्थ' जबलपुर ८ पृष्ठ

दोहे गुलाब 

शाही फूल गुलाब का,देव-पुष्प अनमोल।
अद्भुत मधुर सुगंध है,रखी इत्र है घोल।।

शूलों को सहता सहज, रंग नहीं हो मंद।
दर्शन पुष्प गुलाब का,देता है आनंद।।

पन्नों मध्य किताब के, मिलता  रखा गुलाब।
यादों को ताजा करे,  सहते-सहते  दाब।।

गोरी का शृंगार है, सरस प्रेम उपहार।
दर्शन पुष्प गुलाब का,छेड़े मन के तार।

अनुपम पुष्प गुलाब का,मधुर-मिलन पहचान।।
पुष्प वाटिका मध्य में,प्रणय भाव प्रतिमान।।

रखती आँचल मध्य में, प्यारे फूल गुलाब।
लाल गुलाबी संग में,पीले का न  जवाब ।।

सुंदर पुष्पों की छटा, देती है आनंद।
वरमाला इनकी लगे, सरस मनोहर छंद ।।

कलकंठी मोहित हुई, किया मनोहर गान।
मन में पुष्पों की छटा, मधुर सुनाए तान।।

सुरभि पिया के प्रेम की, लगे सुधा का घोल।
कंचनवर्णी प्रियतमा,सजन हेतु अनमोल ।।

आनन भी मोहक लगे,संग प्रेम भरतार।
गजरा फूल गुलाब का, सरस मनुज उद्गार।।
***

दोहे  पुष्प पलाश

खिलते टेसू पुष्प हैं,पुलकित होता बाग।
झूम रहा ऋतुराज है, जागा है अनुराग।।

स्वागत करें पलाश का,मधुकर जाते झूम।
आनंदित मनसिज हुए,कली-कली को चूम।।

लाल-लाल तो रंग है,दहके पुष्प पलाश।
बहके मनसिज ले रहे,रति को अपने पाश।।

किंशुक फागुन में रँगा,ओढ़ चुनर है लाल।
मनमोहक शृंगार है,उपवन मालामाल।।

नाचे आज वसंत है,करता छूल धमाल।
गाती तानें कोकिला,होता फागुन लाल।।

नवजीवन की आस से, खिलता पुष्प पलाश।
उल्लासित विहंग हुए,लाया नवल प्रकाश।।

नवल सृजन की लालिमा, फैली है चँहुओर।
उत्साहित कवि वृंद भी,प्रकृति परी चितचोर।।

भरता क्षितिज उड़ान मन,लेकर नवल उमंग।
पंछी बन कर डोलते,भाया केसू रंग।।

चले हवा है फाल्गुनी, आया है मधुमास।
फैली किंशुक लालिमा,हुए सुखद आभास।।

कोमल है मृगलोचनी,चढ़ा ढाक का रंग।
अनुरागी रसमंजरी,नाचे पीकर भंग।।
***
दोहे
महुआ

 फागुन महुआ फूलता ,करता हृदय धमाल।
 हर्षित हर चौपाल है, मदिरा करे कमाल।।

पुष्पित महुआ हो रहा,छाया है उल्लास।
साँस-साँस में जग गयी,पिया मिलन की आस।।

महुआ खिलने से हुआ,सुरभित है हर बाग़।
रमणी का दुगुना हुआ,प्रियतम से अनुराग।।

मादक महुआ है बड़ा,करता है मदहोश।
पीकर झूमे जग सकल,लाता है नव जोश।।

महुआ से मदिरा बने,मनमोहक पहचान।
पीकर होते मस्त हैं,बूढ़े और जवान।।

अधरों पर पिय नाम है,मन में नवल उमंग।
महका मन उद्यान है, महुआ का है रंग।।

मन में महुआ है बसा,तन में बसा अनंग।
साँसें सुरभित हो रही,पुलकित है हर अंग।।

डाल-डाल महुआ खिला,महका है संसार।
कविवर करते हैं सृजन,मिलें छंद उपहार।।

आया है मधुमास भी,महुआ करे पुकार।
गीत रचे कवि प्रेम के,सुन सजनी मनुहार।।

गुण की खान मलूक है, करे रोग उपचार।
मिर्गी भागे देख कर,औषधि की भरमार।।

पाकर गंध मलूक की,विचलित होते संत।
वशीभूत हो काम के,रति भी ढूँढ़ें कंत।।

कोई मेवा मानकर, बाँध करे भुजपाश।
महुआ की मदिरा करे,किंतु  देह का नाश।
***

                        

१६. मुकुल तिवारी, जबलपुर ८ पृष्ठ
१७. रेखा श्रीवास्तव अमेठी 
१८. वर्तिका वर्मा भोपाल
१९. वसुधा वर्मा, मुंबई    ८
२०. शिप्रा सेन, जबलपुर ८ पृष्ठ
९९ इंद्रपुरी, पोलीपत्थर, ग्वारीघाट रोड  जबलपुर ४८२००८ 
चलभाष- ७७४८९८०५३३ ईमेल- shiprasen197@gmail.com

शिप्रा सेन नाम है उस व्यक्तित्व का जो अविराम आगे बढ़ने में विश्वास करती है। माँ कुंतल जी तथा पिता समरेन्द्र नाथ सेन के घर में १४ जुलाई १९६१ को जन्मी शिप्रा ने हिंदी-बांग्ला तथा बुंदेली को घुट्टी में पाया। बी. एस-सी., बी.एड., एम.ए. ग्रामीण विकास (स्वर्ण पदक), पुरातन भारतीय शिल्प में डिप्लोमा तथा रैकी ग्रैंड मास्टर की शिक्षा शिप्रा की बहुमुखी सुरुचि तथा प्रतिभा की परिचायक है। इस युग के महान आध्यात्मिक गुरु सत्य साई बाबा (पुट्टपुर्ति) की उपासक शिप्रा आध्यात्मिक परामर्शक-चिकित्सक, एकीकरण मूल्य शिक्षा प्रशिक्षक, नेशनल लीडरशिप प्रग्राम अभिप्रेरक वक्ता तथा श्री सत्य साईं राष्ट्रीय नेतृत्व कार्यक्रम में संलग्न हैं। कर्नल पीयूष कुमार सेन (से. नि.) की जीवन संगिनी के रूप में आपने देश की रक्षा कर रहे सैन्य अधिकारियों और जवानों के परिवारों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया है। सुदर्शन व्यक्तित्व और मधुर वाणी की स्वामिनी शिप्रा की साहित्यिक समझ स्पृहणीय है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर की केन्द्रीय कार्यकारिणी में आध्यात्मिक प्रकोष्ठ की प्रभारी  के रूप में आपका सहयोग सराहनीय है। विश्व कीर्तिमान स्थापित करते काव्य संग्रह ''चंद्र विजय अभियान'' में आप सहभागी हैं। देश की रक्षा के लिए समर्पित होने का संकल्प आपकी अगली पीढ़ी में बिटिया विदिशा- ब्रिगेडियर शुभांकर सेनगुप्ता तथा पुत्र कर्नल क्षितिज-जाह्नवी में भी मूर्तिमान है।  

फुलबगिया में अपराजिता, गुड़हल, पलाश, पारिजात (बांग्ला) तथा पिओनी (अंग्रेजी) पर आपके गीत गागर में सागर की तरह भावनाओं के आलोड़न-विलोड़न के माध्यम से पाठक का मन मोहने में समर्थ हैं। बहुभाषी वक्ता तथा लेखिका होने के साथ-साथ शिप्रा जी की बहुमुखी प्रतिभा मौलिक चिंतन की मणि-मुकताओं से अलंकृत है।''फुलबगिया'' को पारंपरिक विवाह संस्कार का अंग निरूपित करटे हुए शिप्रा जी लिखती हैं-  'प्राचीन काल से विवाह संस्कार में फूलों की वरमाला / जयमाला पहनाने की परंपरा है। इसका आशय नवदंपती का जीवन फूलों की  तरह सुगन्धित कोमल और सुवासित रहने की कामना व्यक्त करना होता है। दूल्हा-दुल्हन एक दूजे पुष्प-हार पहनाकर  दो परिवारों के मध्य स्नेह सुवासित संबंधों की चाहत को अभिव्यक्त करते हैं। विवाहोपरान्त हार एक वर्ष तक सहेज कर रखते हैं, फूल सूखने पर भी धागा उन्हें जोड़े रखता है।  वैसे ही समय के साथ  परस्परिक एवं पारिवारिक सम्बन्ध भी जुड़े रहने चाहिए। पुष्प-पाँखुड़ियों का संयोजन समाज, घर में तालमेल रखना सिखाता है। बाहरी पंखुड़ियाँ समाज से जुड़ावको, उसके अंदर के घेरे की पंखुड़ियाँ परिवार के एकत्व को और भीतर की पंखुड़ियाँ पति-पत्नी की अभिन्नता और प्यार को दर्शाती है।'
 
श्री गौरी प्रसन्न मजूमदार द्वारा रचित बांग्ला में रचित बकुल गीत की पहली पंक्ति है- 

ऑलिर कोथा शुने बोकुल हाँशे 
कोई आमार कोथा शुने तुम्ही हाँशोना तो?
अर्थात भँवरे की बातें सुनकर बकुल तुम हँसती हो,
मेरी बातें तुमको क्यों नहीं हँसाती हैँ??
*
प्रिय था,तुम्बी बकुल धतूरा
विशाल  विश्व के ब्रम्हांड नायक  जोडीआदि पल्ली सोमाप्पा, 
शिव शक्ति प्रचलित यह नामस्वरूपा.
कैलाश स्थित माहेश्वर गिरिजा,
पुष्प उन्हों जो बहुत प्रिय था,तुम्बी बकुल धतूरा। 
हज़ार पंखुड़ी युक्त कमल पुष्प 
माथे बद्रीविशाल पर सुशोभित था। 
रुद्राक्ष, उत्पन्न हुए,शिव के तेज स्वरूपा। 
जो पुष्प हुए, रूप गंध बिन  त्यक्त,
उन्हें भी स्वीकार लिए भाल पर  गौरीशंकर द्वय.
पारिजात, आक  भी चरणों में  समर्पण हेतु लालायित,
पुष्पों के अहोभाग्य देख मानव थे चकित। 
शमी, धतूरा मदार, चंपा, कनेर 
रूद्र को करें प्रसन्न  सुमन अनेक। 
पुष्पांजलि मेरी स्वीकारों भगवन,
अनेक  फूलों से सजा दिया आपने प्रकृति को हर पल। 
***
अपराजिता
अपराजिता तुम प्रकृति की हो अनुपम भेंट,
पर्यावरण की नायाब कृति,तन्वी सुंदर बेल।

विष्णुप्रिया तुम ,शनि प्रसन्ना, हनुमंत सेवित पुष्प,
देवी दुर्गा, महाकाली ,करती सबकी मनोकामना पाकर तुम्हे, पूर्ण।

धार्मिक और औषधीय गुणों से हो भरपूर,
वातावरण के ऑक्सिकारक-रोधक,योगी के रूप में भी मशहूर।

नीले श्वेत रंगों में खिलकर,प्रकृति खिलखिलाती है,
अन्य पुष्प सहित यह भी अनूठे अनोखे महत्व  रखती हैं।

तितली-मटर, नीलकंठ,सुंगपू नाम से,और वनस्पति परिवार फबेसी की शान हो,
गौकर्ण, विष्णुकांता गिरिकर्णी नाम से भी कई जगह जानी जाती हो।

बेलनुमा पौधे में खिलते असंख्य ये फूल है,
इनके सेवन में रोग प्रतिरोधक क्षमता भरपूर है।

यदि धन की समस्या हो तो रख दो शिव के भाल पर इन्हें,
ध्यान केंद्रित करने  में भी सहायक है,सेवन से इनके।

मातंगमुखा की प्रिय ,वास्तु शास्त्र में  भी इनके स्थान विशेष,
पर रात्रि काल में इनको स्पर्श  करना है निषेध।

नहीं लगाया अब तक इनको अपने घर पर यदि,
शीघ्र लगा लो गमले में या बाग में आप सभी।

 पर्यावरण के प्रति प्रीति हेतु  इस पौधे पुष्प के विवरण को छंद में पिरोया है,
बच्चे युवा और सभी के साथ खेल खेल में सांझा करने की बस मेरी मंशा है।।
***

गुड़हल की शोभा

प्रेम पूजा पवित्रता से शोभित,
लाल रंग की पंच पंखुड़ियों से पल्लवित।
सौंदर्य और आकर्षण की सज्जा,
एकदंत और माता के शीर्ष पर विराजित शोभा।

कोमल पंखुड़ियों के रंग स्पर्श से आकर्षित,भँवरे और तितलियाँ,
कई प्रकार के रंगों से  सज्जिता बाग की बनती  ये खूबियाँ।

वनस्पति शास्त्र के छात्र मालवेसी परिवार के नाम से जानते इसको,
रूप विज्ञान के विन्यास
एकव्यास सममित जायंगोपरीक,व्ययवर्ती पुष्प से पढ़ते इनको।

झाड़ीनुमा पेड़ में लगते इनमे तुरही आकार कुसुम,
मधुमक्खी और तितलियों द्वारा होते इनके परागण।

घने काले केशों का राज़ भी इनमें है छिपा,
चाय भी बनाकर कई प्रान्त में है इन्हें पिया जाता।

सरल आसान डाल के टुकड़ों से नए पेड़ लग जाते,
कलम बाँधकर कई रंगों के मिश्रित वर्ण संकर पेड़ तैयार होते।

बाग का माली इस कारण सहेजता इनको,
आते-जाते प्रेम से निहारते रहते देखो सब लोग।।
***

पलाश की लाली

लाल रंग का सौंदर्य,
वन जंगल का आभूषण।
पंखुड़ियों में है कोमलता,
हृदय स्पंदित करती रंगों की आभा।

बसंत का है वो सन्देशवाहक,
आशाओं-उमंगों की उज्ज्वल मूरत।
हताश पथिक को जब हो छाँव की तलाश,
मीलों लंबे पथ पर देखे वो पलाश की कतार।

रंग महक की महिमा अपार,
प्रेम ऊर्जा से करती मन में संचार।
सांस्कृतिक-धार्मिक पवित्र पेड़ के रूप में इसकी महती शान,
टेसू ,परसा,ढाक, किंशुक और नाम मिला, जंगल की आग।

भारतीय उपमहाद्वीप के गौरव में अग्रणी,
पूजा अनुष्ठान, आयुर्वेद,और काष्ठ उद्दोग में धनी।
पलाश के फूलों से बनते रंग,
लकड़ी से मिलते महंगे ईंधन।

त्रिफलक पत्तों से सुसज्जित ये वृक्ष,
वनस्पति विज्ञान में मिला बुटिया फेबेसी परिवार में कक्ष।
छत्तीसगढ़ में गौरव पूर्ण, राज्य पुष्प पद से सुशोभित,
अर्थव्यवस्था में जो देते ये, बहुमूल्य सौगात।

सुंदर सुडौल तना और  आकर्षक पुष्प,
उपयोगिता में भी अद्भुत अनुपम।
बीज संग्रहित कर इनको उगाये,
परिचित रहे नूतन प्रजन्म ,इनके गुण उन्हें समझाए ।

सौंदर्य और आकर्षण से इन्होंने, पर्यावरण महकाया,
कितने औषधि जे रूप में जीवन बचाया।
रखना सहेज कर वन की महिमा,
गुणपारखी ईश्वर ने आशा से इनसे, धरा सजाया।।
***

पारिजात होलो शिउली

प्रोतिटी फुलेर पापड़ी ते लुकिये  थाके प्रोकृतिर भाषा,
शुगोंधे छोड़िये थाके तादेर प्रेमेर कोथा।

पारिजात नामेर राजकुमारी प्रेम कोरे छिलो आदित्यो के,
भास्कर स्वीकार कोरेनी प्रेम प्रोस्ताब के।

मृत्यु बोरोन कोरे पारिजात, शिउली होए धरा ते फोटे,
किंतु प्रभाकरेर आशार आगे धूलि ते लूटिये पोडे।

पुराण बोले श्री कृष्णो सत्यभामर जोन्नो इंद्रेर शाथे युद्धो कोरे,
पारिजात के स्वर्ग थेके पृथ्वी ते आने।

क्षनिकेर जोन्नो शिउली शुधु शुबाश छोड़िये हांशे,
भोर एर आलो देख़ार आगे उदास लुटिये पोडे पोथे।

शोरोत  काले दुर्गा मायेर आगोम  बार्ता आने,
फूल, पाता आर छाले तार ओनेक औषोधि   आयाम लुकिये थाके।

Coral Jasmine नाम टा तोमार लालचे कोमोला रोंगर जोनो पोडे,
Trees of Sorrow नाम, ओलपो ते झोरे पोडे जाबार जोन्नो होए थाके।

पश्चिम बोंगो  ते जातियो फूल नामे ,परिचिति तोमार,
हिंदू ग्रोन्थे,पुराणे आछे तोमार, बिस्त्रित प्रोमान

मोन मातानो गोंधे भोरा शिउली शोबार प्राण,
भाव विह्वल  होय जाए, जे देखे तोमाय।

पांच पापड़ीर शादा फूल, शोनाली पादुकेर शाथे,
शेफाली, प्राजक्ता, तोमार शुभाशे, गोटा पृथ्वी मातोवारा होए नाचे।
***
The Charming Peony

Sturdy handsome elegant Peony,
Enchantingly robust symbol of safety.
In garden bright you still nudge cozily in shade,
King among flowers with a radiant face.

Peony's beauty is sight to see,
Your existence is also, steeped in Greek history.
Symbolism of good fortune and wealth,
You are presented as token of love and good health.

Your buds are tight and unyielding,
But blooms by command of Moons magic.
You are a luxury flower,priced high in markets,
Growing them in your garden ,best to raise income instant.

Delicate fragrant Peonies,are stunning dudes,
In Wedding venues,guests eyes  on your looks,stay glued.
They grow in very short span,each year,
Oh!! what a fortune attracter are these flowers forever.
००० 

२१. शोभा सिंह जबलपुर 


२२. संगीता भारद्वाज भोपाल



साहित्य-कला और संगीत की त्रिवेणी जिस परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी सतत प्रवाहित हो वहाँ तीर्थ  निवास करते हैं। आध्यात्मिकता और देशप्रेम का संगम जहाँ निरंतर होता हो, वहाँ जन्म लेना वस्तुत: सौभाग्य का विषय है। संस्कारधानी जबलपुर में स्वतंत्रता सत्याग्रही स्व. माणिकलाल चौरसिया का परिवार ऐसा ही परिवार है जहाँ ४ पीढ़ियाँ  देशभक्ति, आध्यात्मिकता, साहित्य, कला और संगीत की थाती सहेजती आई हैं। इस परिवार के शिखर व्यक्तित्व प्रो. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' तथा हेमलता जी की बड़ी पुत्री संगीता (जन्म २० अगस्त १९६७) हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि स्वर्ण पदक सहित उत्तीर्ण कर 'जबलपुर परिक्षेत्र की राष्ट्रीय काव्य धारा' विषय पर शोध कार्य किया। जीवन साथी जयंत भारद्वाज (हास्य कलाकार, चित्रकार, संचालक) के साथ साई बाबा का आशीष पाकर आध्यात्मिक साधना के पथ पर कदम बढ़ाया। यात्राओं की तलाश, यात्रा वृत्तान्त तथा यादों के पलाश कृतियाँ रचकर संगीता साहित्य के क्षेत्र में चर्चित रही हैं। ''चंद्र विजय अभियान'' की  सहयोगी रचनाकार संगीता प्रयोगधर्मी रचनाकार हैं। 

संगीता ने फुलबागिया में रजनीगंधा, डहेलिया, पलाश, सेवन्ती तथा कौरव-पांडव  फूलों पर १०-१० दोहों की रचना की है। इन दोहों की भाषा सहज बोधगम्य तथा प्रवाहमयी है। फूलों के रूप-रंग के साथ उनकी छवि-छटा का वर्णन दोहों को जीवंत करता है। फूलों के विविध नामों का उल्लेख शब्द भंडार वृद्धि में सहायक है। शिल्प पर कथ्य को वरीयता देना संगीता की विशेषता है।वे देशज शब्द-रूपों का प्रयोग करती हैं। यदा-कदा कथ्य-शैथिल्य अथवा अनावश्यक प्रतीत होते शब्द दोहों का चारुत्व घटाते हैं। भविष्य में उनसे और अधिक कसे हुए दोहों की अपेक्षा है। 

रजनीगंधा 

रजनीगंधा फूल नित, महके प्रीतम द्वार। 
मंत्र-मुग्ध सी कर रही, खुशबू बारंबार।।

रूप-रंग का समन्वय, अनुपम सा संसार।
मन प्राणों में है बसा, आज पिया का प्यार।।

मंथर गति से ये खिले, मनभावन है रूप ।
श्वेत वर्ण ये पुष्प है, अनुपम और अनूप।।

रजनीगंधा नाम है, मोहिनी है सुवास।
मन में जैसे पल रही, पिया मिलन की आस।।

मन मेरा अनुराग सा, कलियांँ खिलती आज।
पिया रूप है मोहता, बजता मन का साज।।

चित्त प्रफुल्लित कर गया, सौरभ है भरपूर ।
रजनीगंधा ज्यों  हंँसे, बिखरे मुख पर नूर।।

खुशी सुरभि ज्यों पा गया, मुस्काता है मीत।
 जैसे छंदों में बंधा, सुंदर लगता गीत।।

रजनीगंधा याद सा, बसता मन में खास।
द्वारे पर आहट हुई,आज पिया जी पास।।

फूल सुहाने पा गए,मन भी हुआ विभोर ।
आशाएंँ पूरी हुई, नाचे मन का मोर।।

रजनीगंधा ये खिला, सचमुच है अनमोल।
मन को भाएँ जो सदा,मीठे बोलो बोल।।
***
डहेलिया 

रंग बिरंगी पंखुड़ी, सजती है नित भोर।
डहेलिया के नेह से, जीवन सदा मनोर।।

सजती उपवन की धरा, जैसे स्वर्गिक द्वार।
डहेलिया मुस्कान दे, हर दुख का उपचार।।

फूलों का यह गेह भी, भरे हृदय में प्यार।
डहेलिया मृदु गंध ये, छू ले सब संसार।।

भोर सुहानी कह रही, अनुपम है सिंगार।
डहेलिया कहता सदा, जीवन है उपहार।।

झलक भरी सौंदर्य की, मृदुता तेरे बोल।
डहेलिया तुझसे सजे, धरती का भूगोल।।

मन हर लेता रंग से, नयन भरे आनंद।
डहेलिया की गंध में, बसे खुशी का छंद।।

सजी हुई हर पंखुड़ी,जैसे रख रख तौल।
पचास हजार जातियांँ,तेरी हैं अनमोल।।

लाल गुलाबी बेंगनी, रूप भरे संसार।
डहेलिया खिलता सदा, सुख संवेदन सार।।

शीत मंद बयार चले, सुरभि भरा संगीत।
हंँसी-खुशी महके सदा, जग में लाए प्रीत।।

रंगों खिली बहार है, बगिया राजकुमार।
डहेलिया तू है बना, सृष्टि सुखद उपहार।।
***
पलाश 

जंगल-जंगल छेवला, लगा रहा है आग।
घोल प्रीत का रंग मिल , खूब गुँजाओ फाग।।

नारंगी सा फूल ये, धरा सजी है आज।
सुंदर फागुन आभ है, सबको तुझ पर नाज।।

फागुनी ये फूल खिले, धधके जैसे आग।
वन उपवन सब झूमते, गूंँजे कोई राग।।

ज्यों दीपक की ज्योति है, अब केसरिया लाल।
पूर्णिमा में खिले सदा, गुण औषधी कमाल।।

हंँसता जब-जब डाल पर, छाय बसंत बहार।
कानन में रौनक हुई, लगती रंग कतार।।

यूंँ ढाक काँकड़ी कहें, टेसुन कहो पलाश।
वेदों में चर्चित रहा, महिमा बड़ी है खास।।

देह टेसु सी हो गई, मन जैसे मकरंद।
कृष्णा बनी है आत्मा, बसे यशोदानंद।।

टेसु रंग  गुलाल लिए,  ब्रज ग्वालों के साथ,
कान्हा गलियन ढूंँढते, राधा लगे न हाथ।।

भीगी सखियांँ ओढ़नी, पिचकारी की धार।
टेसु के रंग में रंँगी, आज बिरज की नार।।

शुभ बसंत का आगमन, गले  टेसुआ माल।
हरियाली चहुँ ओर है, दिव्य धरा खुशहाल।।
***
सेवंती  

बगिया में सोना खिला, लगे सुहाना रूप।
सेवंती लगती सदा, उज्ज्वल  और अनूप।।

सर्दी की इस धूप में, खिलता इसका रंग ।
मन को भाये यूंँ सदा, जैसे रूप अनंग।।

फूलों में मिलता सदा, निश्छल प्रेम अपार। 
 सेवंती के फूल से, बनते सुंदर हार।।

नरम बहुत है पंखुड़ी, सुंदर सा अहसास।
रंग बिरंगे फूल में, रहता प्रेम उजास।।

रंग-रंग में खिल रहे, प्यारा इनका संग।
सुंदरता बस एक है, सब भ्रम होते भंग।।

छांँव नहीं फिर भी खिलें, सुंदर है व्यवहार।
सेवंती कहती सदा, करो मनुज से प्यार।।

सुंदरता मन ताजगी, विनय भरी है आज।
सबको खुश रखिए सदा, खोले जीवन राज।।

माटी पाकर फैलती, तनिक नहीं है शोर।
सेवंती ठाने यही, मंत्र सादगी जोर।।

भौंरे ये नादान हैं, खुशबू का है साथ।
मैत्री रखते हैं सदा, रंग बिरंगा पाथ।।

रूप रंग की खान है, हुए गुलाबी गाल। 
सजे हुए इस रूप से, धरती हुई निहाल।।
***
कौरव पांडव  

कौरव पांडव फूल ये, कहता हमसे आज।
पन्नों में इतिहास के, छुपे हुए हैं राज।।

सुंदर रंगों से सजा, अनुपम इसका रूप। 
उजली अरुणिम भोर में, कुछ कहती है धूप।।

शतक पंखुड़ी के लगे, ऊपर पांडव पांँच।
झूठ कभी टिकता नहीं, सांँच न  आती आंँच।।

कोई देखे जब इसे, मन में बजते साज।
डाली के सिर पर सजा, जैसे कोई ताज।।

सजती है ज्यों कामिनी, अद्भुत है श्रृंगार।
सुंदर छवि से मोहती, स्वागत बांँह पसार।।

कृष्ण कमल कोई कहे, मोहक पुष्प अनूप।
लाल श्वेत है बैंगनी, विविध रंग हैं रूप।।

बजती है ज्यों रागिनी, प्रीत भरा संसार। 
नवल किरण सी ओज है, देखूँ बारंबार।। 

कृष्ण कमल के रूप में, ईश मिला उपहार।
 सच्चा सोने सा खरा, देता है ये प्यार।।

कृष्ण सदा इसमें दिखें, चक्र सुदर्शन फूल।
मंत्र मुग्ध सब रह गये,अपनी सुध बुध भूल।।

धरती का उपकार है, पाई सुख सौगात।
कृष्ण कमल हंँसता रहे, दिन हो चाहे रात।।

कृष्ण कमल के शीर्ष में, ब्रह्मा विष्णु महेश। 
भक्ति-संपदा पास है, मिटते सारे क्लेश।।
***

२३. संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर २० पृष्ठ

००. संतोष शुक्ला, नवसारी गुजरात ४ पृष्ठ  

आयु केवल एक अंक है जो किसी की रह में बाधा नहीं बन सकती। यह कथन चरितार्थ होता है संतोष जी पर। १५ अगस्त १९४२ को लखीमपुर खैरी उत्तर प्रदेश में सौभाग्यवती सौभाग्यवती जी तथा बृज नारायण त्रिवेदी पर बृज नारायण की अनुकंपा हुई और एक कन्या रत्न ने धरावतरण किया। जब कन्या शिक्षा अपवाद स्वरूप थी तब सामाजिक प्रतिबंधों से जूझते हुए एम. ए. (संस्कृत, हिंदी) तथा विद्या वाचस्पति (संस्कृत) की उच्च उपाधियाँ प्राप्त करने पर भी संतोष न कर संतोष जी ने जीवन साथी विजय कृष्ण शुक्ल जी का समर्थन पाकर कन्या शिक्षा के सामाजिक महायज्ञ में शिक्षकीय समिधा समर्पित कर जीवन व्यतीत  किया। भारत के स्वतंत्रता सत्याग्रह संबंधी अनेक ग्रंथों के रचयिता प्रो. चिंतामणि शुक्ल जी से संतोष जी को साहित्य सृजन संबंधी विरासत मिली। सेवा निवृत्ति पश्चात विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर में संतोष जी ने छंद तथा संस्मरण लेखन में रुचि लेकर काव्य कालिंदी, खुशियों की सौगात तथा छंद सोरठा खास (हिंदी की प्रथम सोरठा सतसई) का सृजन किया। वार्धक्य को चुनौती देते हुए संतोष जी ने युवकोचित उत्साहपूर्वक अपने मायके तथा ससुराल पक्ष की प्रथम लेखिका बनकार नई पीढ़ी को राह दिखाई है। वे गुरु के प्रति समर्पण की पक्षधर हैं।  


२४. सरला वर्मा 'शील', भोपाल ८ पृष्ठ

२५ .सुरेंद्र सिंह पंवार जबलपुर  ४ पृष्ठ


अभियंता सुरेन्द्र सिंह पँवार एक ऐसी शख्सियत का नाम है जो अपने आपमें व्यक्ति नहीं संस्था है। सागर मध्य प्रदेश में २५ जून १९५७ को श्रीमती शांति देवी पँवार व श्री नृपति सिंह पँवार को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। नन्हा शिशु सुख, ऐश्वर्य, सफलता पाए इस कामना से माता-पिता ने उसका नामकरण 'सुरेन्द्र ' किया। सुरेन्द्र ने बी. ई. सिविल, एम. बी. ए. (मानव संसाधन) की उपाधियाँ पाईं तथा जलसंसाधन विभाग नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण मध्य प्रदेश से कार्यपालन यंत्री से सेवा निवृत्त हुए। विभागीय कार्यों के समांतर साहित्यिक-सामाजिक कार्यों में सतत गतिशील रहे सुरेन्द्र को अपनी धर्म पत्नी मीना पँवार से प्रेरणा और सहयोग दोनों प्राप्त हुए। 
'मालवा के शहीद कुँवर चैन सिंह' (शोधपरक ऐतिहासिक कृति), परख (समीक्षा संकलन) तथा विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया (जीवनी) कृतियों के माध्यम से सुरेन्द्र ने साहित्यिक पहचान बनाई है। त्रैमासिक पत्रिका साहित्य संस्कार के संपादक के रूप में सुरेन्द्र ने कर्म कुशलता को मूर्त किया है। सहायक अभियंता संघ, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी तथा इयन्सटीट्यूशन यॉफ इंजीनियर्स आदि संस्थाओं में लगातार सकृत रहकर सुरेन्द्र ने अपना अलग मकाम बनाया है। 
मंदार पर सोरठे, हरसिंगार पर दोहे तथा गुलबकावली पर में सुरेन्द्र की सजगता, अनुभूतिक प्रवणता तथा भाषिक पकड़ दृष्टव्य है।  
*** 
गुलबकावली 
कनक झील बैकुंठ मॅह, पुष्पित पूनम रात। 
दोलन चम्पा की नहीं, जग में कोई बिसात।। 1।।

मेकल में शैशव कटा, सखी-सहेली साथ।
बनी जोगनिया नर्मदा, गुल को किया अनाथ।। 2।।

उडती तितली का भ्रम, मन मत पालैं आप। 
माई की बगिया भली, गुल का पुण्य प्रताप।। 3।।

फारस की इक परिकथा, बकावली अरु शाह।
फर्जंद लाया फूल जब, अब्बा मिली निगाह।। 4।।

खिली धूप, अदरक लिली, उडें पतंगे  पास।
बहुरंगी बहु सुगंधित, खिड़की पर मधुमास।। 5।।

गुलबकावली उपचरित, काडा, टाॅनिक भोग। 
दर्द दूर, सूजन घटे, हरे गांठ का रोग।। 6।।

कचर कपूरी का अर्क, अमृत के मानिंद।
आंखों में सुरमा सजे, रुके मोतियाबिंद।। 7।।

दो टहनी पर्याप्त हैं, गुलदस्ते को भूल।
मादक महक बिखेरते, लिलि तितली के फूल।। 8।।
***


युग दधीच मंदार

चितवन चित्तीदार, लाल बैंगनी श्वेत रंग।
संज्ञापित मंदार, अर्क अकौआ आकवन।।

सजता पूजन थार, दीप धूप नैवेद्य सह।
केसर शुभ्र मंदार, इतराता शिव माथ चढ़।।

छोटा छत्तादार, ऊँची ऊसर भूमि पर।
दिव्यौषधि मंदार, जंगल में मंगल करे।।

झट से दे झटकार, खुजली खाज व एक्जिमा।
रामवाण मंदार, तन-मन की पीड़ा हरे।।

सांसों का उपचार, दाँत-कान-सिरदर्द भी।
कर्म करे मंदार, तजकर फल की कामना।। 

हँसता है बीमार, सेवन कर फल- फूल-जड़। 
युग दधीच मंदार, करे अस्थियाँ दान जब।। 

सूरज सा संसार, ताप तीक्ष्ण व तेजमय। 
'वनपारद' मंदार, दिव्य श्रेष्ठतम रसायन।। 

विरवा रोपें द्वार, बुरी बला से घर बचे। 
पाप हरे मंदार, जड़ में बसते गजानन।। 

इस कथनी का सार, गुण के संग अवगुण रहें।
उपविष है मंदार, चतुर वैद की राय लें।।
***
दुर्लभ हरसिंगार 

स्थापित अलका पुरी में, दुर्लभ हरसिंगार।
हठी तिया को मनाएँ, हरि ला वृक्ष उतार।।१।।

रीत प्रीत में लिपटकर, बन बैठा प्रतिमान।
बिखरे फूलों को मिला, हरि पूजा का मान।।२।।

शुभ्र धवल तन-बदन है, नारंगी है नाल।
गहन चिकित्सा, सजावट, राज-पुष्प बंगाल।।३।।

हल्की, सूखी, तिक्त, कटु, कफ नाशक तासीर।
सेवन हरसिंगार से, गठिया हो बेपीर।।४।।

खिल जाता है रात में, महकाता दिन- रात।
चिंता छू, चितवन खिले, छूकर नव परिजात।।५।।

डेंगू में भी  कारगर, काढ़ा हरसिंगार ।
प्रतिरोधक क्षमता बढे़, वश में करे बुखार।।६।।

गहरी नींद, दिमाग थिर, उसका नेक उपाय।
परिजात के पुष्प की, पीना हर्बल चाय।।७।।

शेफाली के पुष्प सह, बीज करें उपयोग।
अलबेली लावण्यता, चिर यौवन का योग।।८।।

टटके टोने-टोटके, जुडे संग परिजात।
हो शादी, तंगी मिटे, चले न्याय की बात।। ९।।
***

१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
 

फूलों पर केंद्रित फिल्मी गीत गीतकार, गायक और फिल्म के नाम सहित जोड़िए-                                                
  ०१. मेरे फूलों में छुपी है जवानी: दरदा दी दरदा री री रा रा दारा रा, मेरे फूलों में छुपी है जवानी, मेरे हारो में, मेरे गजरो में, कोई ले लो जी मेरी निशानी, मेरी जवानी, फिल्म अनोखा प्यार, वर्ष १९४८।
०२. तेरे फूलों से भी प्यार है: अमृत और जहर दोनों है सागर में एक साथ, माथे का अधिकार है सबको, फल प्रभु तेरे हाथ। तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काँटों से भी प्यार, जो भी देना चाहे, दे दे करतार, फिल्म नास्तिक, वर्ष १९५४।. 
०३. 3.ऐ गुलबंद, फूलों की महक कांटों की चुभन: ऐ गुलबदन, फूलों की महक काँटों की चुभन, तुझे देखके कहता है मेरा मन, कहीं आज किसी से मोहब्बत ना हो जाए, फिल्म, १९६२। 
०४. ऐ फूलों की रानी बहारों की मल्लिका: ऐ फूलों की रानी, ​​बहारों की मलिका, तेरा मुस्कुराना, गजब हो गया, ना दिल होश में है, ना हम होश में हैं, नजर का मिलाना, गजब हो गया, फिल्म आरज़ू, १९६४। 
०५. फूल गेंदवा ना मारो: हाय जी फूल गेंदवा, ना मारो, ना मारो. लगत करेजवा में चोट, फूल गेंदवा ना मारो, ना मारो, फिल्म दूज का चांद, १९६४ । 
०६. .ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी कसम: जलते भी गये, कहते भी गये, आजादी के परवाने जीना तो उसी का जीना है, जो मरना वतन पे जाने, ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम, तेरी राहों में जां तक ​​लुटा जायेंगे, फूल क्या चीज है, तेरे कदम पे हम, भेंट अपने सरों की चढ़ा जायेंगे, फिल्म शहीद, १९६५। 
०७. ये कली जब तलक फूल बनके: ये कली जब तलक फूल बनके खिले, इंतजार, इंतजार, इंतजार करो, इंतजार करो, ये कली जब तलक फूल बनके खिले, इंतजार, इंतजार, इंतजार करो, इंतजार करो, इंतजार वो भला क्या करे तुम जिसे, बेकरार, बेकरार, बेकरार करो, फिल्म 'आये दिन बहार के', १९६६। 
०८. कलियों ने घूँघट खोले: कलियों ने घूँघट खोले हर फूल पे भँवरा डोले, कलियों ने घूँघट खोले हर फूल पे भँवरा डोले, लो आया प्यार का मौसम गुल-ओ-गुलज़ार का मौसम, फिल्म दिल ने फिर याद किया, १९६६।
०९.फूल तुम्हें भेजा है ख़त में: फूल तुम्हें भेजा है ख़त में, फूल नहीं मेरा दिल है, प्रियतम मेरे मुझको लिखना क्या ये तुम्हारे काबिल है, प्यार छुपा है ख़त में इतना जितने सागर में मोती, फ़िल्म सरस्वतीचंद्र, १९६८। 
१०.  मिले ना फूल तो कांटों: मिले ना फूल तो कांटों से दोस्ती कार्ली, इसी तरह बस हमने जिंदगी कार्ली, फिल्म अनोखी रात, १९६८। 
११. फूल है बहारों का: फूल है बहारों का बाग है नजारो का, और चांद होता है सितारों का, मेरा तू तुही तू.मौज है किनारों की रात बेकरारो की, और रिम झिम सावन की बुहारो की, मेरी तू तुही तू, फिल्म जिगरी दोस्त से, १९६९ 
१२. फूलों के रंग से: फूलों के रंग से, दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज पाती, कैसे बताऊं किस किस तरह से, पल पल मुझको तू सताती, फिल्म प्रेम पुजारी, १९७०। 
१३. फिर कहीं कोई फूल खिला है: फिर कहीं कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको, फिर कहीं कोई डूब के जला, मंजिल ना कहो उसको, फिर कहे कोई फूल खिला, फिल्म अनुभव। १९७० ।
१४.फूलों का तारों का: फूलों का, तारों का सबका कहना है, एक हजारों में मेरी बहना है। सारी उमर हमें संग रहना है. फूलों का तारों का सबका कहना है, फिल्म हरे रामा, हरे कृष्णा, १९७१।                                                 १५. .रजनीगंधा फूल तुम्हारे: रजनीगंधा मूर्ख तुम्हारे, महके यू ही जीवन में यौ ही महके अतीत पिया की मेरे अनुरागी मन में, अधिकार ये जब से साजन का हर धड़कन पर मना मैंने, फिल्म रजनीगंधा, १९७४।
१६. बागों में कैसे फूल खिलते हैं: बागों में, बागों में कैसे ये फूल, खिलते हैं हो खिलते हैं, खिलते हैं भंवरों से, जब फूल मिलते हैं हो मिलते हैं, हो हो हो बागों में, फिल्म चुपके चुपके, १९७५। 
१७. सुमन समान तुम अपना खिला खिला मन: सुमन समान तुम अपना खिला खिला मन रखना, खुशबू लुटाते रहना खुशबू लुटाते रहना, चाहे पड़े काटो पर तन रखना, सुमन समान तुम अपना खिला खिला मन रखना, दुनिया में फूलों का सानी नहीं कोई, फूलों से बढ़के दानी नहीं कोई, से फ़िल्म कोटवाल साब, १९७७। 
१८. गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता: गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसमे गुल को हसना भी हमारा कम होता, आएंगे बहारे तो अबके उन्हें कहना जरा इतना सुने, मेरे गुल बिना कहा उनका बहार नाम होता, फिल्म देवता से, १९७८। 
१९. सूर्यमुखी है मुखड़ा तेरा बिजली सी चांद: सूर्यमुखी है मुखड़ा तेरा, बिजली सी तेरी चितवन नैन कमाल है, जिसने तेरा रूप बनाया, देख के तुझको खुद सरमाया, कैसे कहूं मैं क्या तू है, तू बस तू है तू बस तू है, सूर्य मुखी है मुखड़ा तेरा, फिल्म तू मेरी, मैं तेरा से, १९८८। 
२०. .गेंदा फूल: हेय्य्य्य हेय्य्य, ओये होये होये, ओये होये होये, ओये होये होये, सइयां छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल, फिल्म दिल्ली-६, २००९। 
२१. गेंदा फूल बादशाह द्वारा: कम ऑन बेबी किक इट, किक इट, काटूं तेरी टिकट टिकट, खेलता नहीं क्रिकेट विकेट, पर ले लूँ तेरी विकेट विकेट, बोरो लोकेर बिटि'लो लोम्बा लोम्बा चुल, आमोन माथा बेंधे देबो लाल गेंदा फूल, बोरो लोकेर बिटि'लो लोम्बा लोम्बा चुल, आमोन माथा बेंडे देबो लाल गेंदा फूल रैपर द्वारा २०२१। 
२२. बॉम्बे टू पंजाब: तू बॉम्बे दी छोरी ए, मैं पंजाबी टच कुड़े, तू फूल वारगी ए, लेजू पत के बच कुदे 2019 में रिलीज़ हुए डिवाइन और दीप जांदू के हिंदी और पंजाबी मिक्स। 
२३. 
२४. 
२५. 

फुलबगिया

बहुभाषायी पर्यावरणीय साझा काव्य संकलन






प्रधान संपादक- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'


संपादक- डॉ. मुकुल तिवारी - सरला वर्मा 'शील'




फुलबगिया




बहुभाषायी पर्यावरणीय साझा काव्य संकलन







संपादक

आचार्य संजीव वर्मा ''सलिल''

सह संपादक




डॉ. मुकुल तिवारी - सरला वर्मा ''शील''




प्रस्तुति

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर




समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर




001                         फुलबगिया                         ००१



फुलबगिया


बहुभाषाई पर्यावरणीय साझा काव्य संकलन


o


प्रतिलिप्याधिकार- तुहिना वर्मा, जबलपुर ४८२००१ भारत


o


प्रथम संस्करण- २०२५


o


आवरण-


मुद्रण - ज्योति ग्राफिक्स, चौक, चुनार, जनपद मीरजापुर २३१३०४


प्रकाशक -


समन्वय प्रकाशन
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ भारत
चलभाष- ९४२५१८३२४४


वितरक
........................ प्रकाशन


दिल्ली
o


आई एस बी एन-
o


इस पुस्तक का कोई अंश संपादक की पूर्व लिखित अनुमति बिना किसी भी प्रकार, किसी भी माध्यम से संकलित, प्रकाशित या प्रस्तुत नहीं किया जाना प्रतिबंधित है।



००२ फुलबगिया 002




स्मरण




003 फुलबगिया ००३

: विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर :

उद्देश्य
 





















००४ फुलबगिया 004




समर्पण




005 फुलबगिया ००५







: समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर :







००६ फुलबगिया 006




पुरोवाक्




007 फुलबगिया ००७







००८ फुलबगिया 008



009 फुलबगिया ००९




०१० फुलबगिया 010




011 फुलबगिया ०११




०१२ फुलबगिया 012




013 फुलबगिया ०१३




०१४ फुलबगिया 014



015 फुलबगिया ०१५

संजीव वर्मा ''सलिल''




विनय
.
भोर भई टेरत गौरइया
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
हवा सुहानी सुंदर बगिया
हेर रई पथ कोमल कलिया
शारद! आशिष लुटा-लुटा खें
खाली कर दे आशिष डलिया
तार सितार टुनटुना तनकऊ
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
रानी बिटिया! नाज़ुक सुंदर
सपर करौं सिंगार मनोहर
पटियाँ पार गूँथ दौं बेनी
जवाकुसुम लै धार कंठ पर
चंपा पायल सोहे पइंया
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
हरसिँगार करधनी न बिसरा
महुआ कंगन निखरा निखरा
खोंस गुलाब कली बालन मां
सँग सोहे बेला का गजरा
तो सौं वरदा कौनउ नइया
काए बिलम रई उठ री मइया!
२७.४.२०२५
.

फुलबगिया

फुलबगिया में रूप-रंग है
भरम न जाना महक-गंध है।
अलस्सुबह घाँसों पर घूमो
भू पर पैर, गगन को छू लो।
क्या करते हो?, सुमन न तोड़ो
कली-पुष्प रक्षित कर छोड़ो।
आई आई तितली आई
संग भ्रमर मतवाले लाई।
कली लली परिवार न तजती
रक्षा भ्रमर भाई से मिलती।
टिड्डा अगर आँख दिखलाता
फल आ उसको दूर भगाता।
कोयल संग टिटहरी बोले
मन मयूर नाचे हँस डोले।
सब हिल-मिलकर साथ रहेंगे
व्यथा-कथा निज नहीं कहेंगे।
पौ फटती प्राची को देखो
रूप उषा का मन में लेखो।
आँख मूँद लो अपनी बैठो
तज चिंता निज मन में पैठो।
पवन दुलार रहा हो मुकुलित
सूर्य किरण करती आलिंगित।
खींचो श्वास रोक अब छोड़ो
योगासन से तन-मन जोड़ो।
सुमिरो नाम इष्ट का सविनय
करो प्रार्थना सभी हों अभय।
फुलबगिया के पौधे विकसें
कभी सलिल के लिए न तरसें।
पौधों-फूलों को पहचानें
गुण-उपयोग आदि भी जानें।
पेड़ न काटें, नए लगाएँ
संजीवित हो मोद मनाएँ।
हम सब वनमाली हो पाएँ
हरियाली की जय गुँजाएँ।
२२.१.२०२५
०००
सुधियों के सुमन
.
सुधियों के सुमन महकते हैं
जाने-अनजाने यादों के
पाखी मन-आँगन आते हैं
अपनी ही धुन में गाते हैं।
अधरों पर धरते कभी हँसी
नयनों में नीर कभी भरते
सुध-बुध का हाथ छुड़ाते है।
बैरागी मन रागी होता
कल से कल का नाता जुड़ता
ताना-बाना संबंधों का
अपनापन पा-देता मुड़ता
निस्सार सार सम हो जाता
आशा का पंछी फिर गाता।
कोशिश की कोयल कूक कूक
कहती बिसरा दे हृदय हूक
झट आँख खोल
उठ कदम बढ़ा
मन उन्मन मत हो ख्वाब नया
देखे साकार करें हिल मिल
सुधियाँ हो साथ करें झिलमिल
जो खोया उसको संग जान
श्वासों की सरगम गूँज कहे
सुधियों के सुमन महकते हैं।
१.४.२०२५
०००
शिरीष के फूल
*
फूल-फूल कर बजा रहे हैं
बीहड़ में रमतूल,
धूप-रूप पर मुग्ध, पेंग भर
छेड़ें झूला झूल
न सुधरेंगे
शिरीष के फूल।
*
तापमान का पान कर रहे
किन्तु न बहता स्वेद,
असरहीन करते सूरज को
तनिक नहीं है खेद।
थर्मामीटर नाप न पाये
ताप, गर्व निर्मूल
कर रहे हँस
शिरीष के फूल।।
*
भारत की जनसँख्या जैसे
खिल-झरते हैं खूब,
अनगिन दुःख, हँस सहे न लेकिन
है किंचित भी ऊब।
माथे लग चन्दन सी सोहे
तप्त जेठ की धूल
तार देंगे
शिरीष के फूल।।
*
हो हताश एकाकी रहकर
वन में कभी पलाश,
मार पालथी, तुरत फेंट-गिन
बाँटे-खेले ताश।
भंग-ठंडाई छान फली संग
पीकर रहते कूल,
हमेशा ही
शिरीष के फूल।।
*
जंगल में मंगल करते हैं
दंगल नहीं पसंद,
फाग, बटोही, राई भाते
छन्नपकैया छंद।
ताल-थाप, गति-यति-लय साधें
करें न किंचित भूल,
नाचते सँग
शिरीष के फूल।।
*
संसद में भेजो हल कर दें
पल में सभी सवाल,
भ्रमर-तितलियाँ गीत रचें नव
मेटें सभी बबाल।
चीन-पाक को रोज चुभायें
पैने शूल-बबूल
बदल रँग-ढँग
शिरीष के फूल।।
१२.६.२०१६
***
गीत,
यार शिरीष!
*
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
अब भी खड़े हुए एकाकी
रहे सोच क्यों साथ न बाकी?
तुमको भाते घर, माँ, बहिनें
हम चाहें मधुशाला-साकी।
तुम तुलसी को पूज रहे हो
सदा सुहागन निष्ठा पाले।
हम महुआ की मादकता के
हुए दीवाने ठर्रा ढाले।
चढ़े गिरीश
पर नहीं बिगड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
राजनीति तुमको बेगानी
लोकनीति ही लगी सयानी।
देश हितों के तुम रखवाले
दुश्मन पर निज भ्रकुटी तानी।
हम अवसर को नहीं चूकते
लोभ नीति के हम हैं गाहक।
चाट सकें इसलिए थूकते
भोग नीति के चाहक-पालक।
जोड़ रहे
जो सपने बिछुड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम जंगल में धूनि रमाते
हम नगरों में मौज मनाते।
तुम खेतों में मेहनत करते
हम रिश्वत परदेश-छिपाते।
ताप-शीत-बारिश हँस झेली
जड़-जमीन तुम नहीं छोड़ते।
निज हित खातिर झोपड़ तो क्या
हम मन-मंदिर बेच-तोड़ते।
स्वार्थ पखेरू के
पर कतरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम धनिया-गोबर के संगी
रीति-नीति हम हैं दोरंगी।
तुम मँहगाई से पीड़ित हो
हमें न प्याज-दाल की तंगी।
अंकुर पल्लव पात फूल फल
औरों पर निर्मूल्य लुटाते।
काट रहे जो उठा कुल्हाड़ी
हाय! तरस उन पर तुम खाते।
तुम सिकुड़े
हम फैले-पसरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
१६-६-२०१६
***
अमलतासी सुमन सज्जित
*
तुम विरागी,
वीतरागी
विदेही राजा जनक से
*
सिर उठाये खड़े हो तुम
हर विपद से लड़े हो तुम
हरितिमा का छत्र धारे
पुहुप शत-शत जड़े हो तुम
तना सीधा तना हर पल
सैनिकों से कड़े हो तुम
फल्लियों के शस्त्र थामे
योद्धवत अड़े हो तुम
एकता की विरासत के
पक्षधर सच बड़े हो तुम
तमस-आगी,
सहे बागी
चमकते दामी कनक से
तुम विरागी,
वीतरागी
विदेही राजा जनक से
*
जमीं में हो जड़ जमाये
भय नहीं तुमको सताये
इंद्रधनुषी तितलियों को
संग तुम्हारा रास आये
अमलतासी सुमन सज्जित
छवि मनोहर खूब भाये
बैठ गौरैया तुम्हारी
शाख पर नग्मे सुनाये
दूर रहना मनुज से जो
काटकर तुमको जलाये
उषा जागी
लगन लागी
लोरियाँ गूँजी खनक से
वीतरागी
विदेही राजा जनक से
*
[मुक्तिका गीत,मानव छंद]

पूर्णिका
सेवंती

रंग-बिरंगी सेवंती हँसती-गाती सेवंती
.
इतराती-इठलाती है
जन-मन भाती सेवंती
.
लाड़ लड़ाती तितली से
गीत सुनाती सेवंती
.
गृह बगिया की शोभा है
मोह बढ़ाती सेवंती
.
आतप, वर्षा, ठंडी से
लड़ जी जाती सेवंती
.
करती न ही कराती है
ठकुर सुहाती सेवंती
.
वादे करे न जुमला कह
झुठलाती है सेवंती
.
कलियों की रक्षा करती
सीख सिखाती सेवंती
.
पाखंडों से दूर रहे
प्रभु गुण गाती सेवंती
.
जड़ जमीन से जुड़ी रखे
शीश उठाती सेवंती
.
सबकी सुने, न अपनी कह
धैर्य धराती सेवंती
.
दूर सियासत से रहती
सच अपनाती सेवंती
.
घोड़े नई कल्पना के
नित दौड़ाती सेवंती
.
'रमता जोगी' सा जीवन
'बहता पानी' सेवंती
.
शब्द दहेज मायके से
चुन ले जाती सेवंती
.
संस्कार संवर्धित कर
जीवन पाती सेवंती
.
जय-जयकार करे सत की
असत मिटाती सेवंती
.
गुस्सा पी होती गुमसुम
गम खा जाती सेवन्ती
.
लुकती फिर भी भँवरों को
दिख जाती है सेवन्ती
.
माली कोई माँ दे दे !
विनय सुनाती सेवन्ती
.
कश्ती हो मुश्किल में तो
पार लगाती सेवन्ती
.
दीप-ज्योति हो 'मावस में
जल जाती थी सेवन्ती
.
जाग गई हर बाधा को
अब सुलगाती सेवन्ती
.
है संजीवित सुप्त नहीं
मदमाती है सेवन्ती
.
नेह नर्मदा सलिल नहा
तर जाती है सेवन्ती
***
मधुमालती
हँसती है मधुमालती
फँसती है मधुमालती
.
साथ जमाना दे न दे
चढ़ती है मधुमालती
.
देख-रेख बिन मुरझकर
बढ़ती है मधुमालती
.
साथ जमाना दे न दे
चढ़ती है मधुमालती
.
लाज-क्रोध बिन लाल हो
सजती है मधुमालती
.
नहीं धूप में श्वेत लट
कहती है मधुमालती
.
हरी-भरी सुख-शांति से
रहती है मधुमालती
.
लव जिहाद चाहे फँसे
बचती है मधुमालती
.
सत्नारायण कथा सी
बँचती है मधुमालती
.
हर कंटक के हृदय में
चुभती है मधुमालती
.
बस में है, परबस नहीं
लड़ती है मधुमालती
.
खाली हाथ, न जोड़ कुछ
रखती है मधुमालती
.
नहीं गैर की गाय को
दुहती है मधुमालती
.
परंपराएँ सनातन
गहती है मधुमालती
.
मृगतृष्णा से दूर, हरि
भजती है मधुमालती
.
व्यर्थ न थोथे चने सी
बजती है मधुमालती
.
दावतनामा भ्रमर का
तजती है मधुमालती
.
पवन संग अठखेलियाँ
करती है मधुमालती
.
नहीं और पर हो फिदा
मरती है मधुमालती
.
अपने सपने ठग न लें
डरती है मधुमालती
.
रिश्वत लेकर घर नहीं
भरती है मधुमालती
.
बाग न गैरों का कभी
चरती है मधुमालती
.
सूनापन उद्यान का
हरती है मधु मालती
.
बिना सिया-सत सियासत
करती है मधु मालती
.
नेह नर्मदा सलिल सम
बहती है मधुमालती
९.४.२०१५
***
सगाई के सोरठे
.
हुई गुलाबी-लाल, कुड़माई के पल सुमिर।
लिली लली के गाल, कहें कहानी नेह की।।
.
किस्से कहे तमाम, किससे राज खुले नहीं।
लौट सगाई बाद, छुईमुई छिप सोचती।।
.
लगन लगी दुर्दैव, तितली फुर् से उड़ गई।
भँवरा साथ सदैव, नहीं एक का दे कभी।‌।
.
कमल-कमलिनी साथ, लिए हाथ में हाथ हैं।
सफल सगाई नाथ!, हो प्रभु से भू मनाती।।
.
करें सगाई रोज, रोग-दवा संसार में।
करें चिकित्सक भोज, रोगी है मँझधार में।।
०००
पियराए दोहे
.
अरमां के पीले किए, जब कोशिश ने साथ।
मंज़िल ने पाया तभी, जन्म-जन्म का साथ।।
.
पियराई सरसों करें, नैन मटक्का शाम।
छैला पवन निहारता, भुज भर बिना लगाम।।
.
गेंदे को हल्दी लगी, बेला हुई सफेद।
सदा सुहागिन जानती, भेद हुआ क्यों खेद।।
.
हुई लाल पीली अबस, वैजंती यह देख।
सिसक चाँदनी पहनती, साड़ी सिर्फ सफेद।।
.
पीताभित कचनार छवि, मोहक दिव्य अनूप।
मोहक महुआ पर हुआ, फिदा अजाने भूप।।
रुद्राक्ष, भोपाल
२४.४.२०२५
०००
जीवन बगिया

अपर्णा हुई शाख
धरा ने धरा धैर्य
तना था तना, न झुक
गगन ने लुटाई छाँह
पवन ने पकड़ बाँह
सलिल से कहा 'सींच
जड़ जड़ न हो सके,
पल्लव उगें नए
कलियाँ जवान हों
तितलियाँ उड़ान भर
ख्वाब की तामीर कर
आसमान हाथ में
उठा सकें, सुना सकें
गीत नए मीत को।
फूल उठा फूल झूम
बगिया में मची धूम
नव बहार आ गई।
लोरियाँ, प्रयाण गीत
सुपर्णा सुना गई।
दिनकर का थाम हाथ
ऊषा हँस उठा माथ
जी वन कह जीवन की
फुलबगिया महका गई।
३०.४.२०२५
सॉनेट
पेड़ की छाँव
मापनी: २१२-२१२-२१२-२१२
*
बैठिए दो घड़ी पेड़ की छाँव में,
पंछियों की सुनें चहचहाहट जरा,
देख लूँ मैं सपन आपकी ठाँव में,
देखने से अभी मन कहाँ है भरा।
आपके नैन में मैं बसा हूँ विहँस,
नैन में हैं बसे आप मेरे सनम,
दृष्टि बंकिम गई धँस; गया तीर फँस,
पीर हृद में उठी; आँख है मीत नम।
हाथ में हाथ ले हम चलें साथ हो,
ज़िंदगी की डगर पर कदम साथ रख,
दृष्टि नत हो मगर उच्च सिर-माथ हो,
प्रेम प्याला पिएँ विष-अमिय साथ चख।
तोड़ बेड़ी पड़ी जो रही पाँव में,
हम बसें हौसलों के किसी गाँव में।
२१.५.२०२४
***


सॉनेट

मदन मस्त तुम महकते
लेकिन नहीं पराग है
मन में तनिक न आग है
ऊँचे-लंबे गमकते।
कभी न देखा चहकते
पर्ण वसन बेदाग है
सुमन सुमन अनुराग है
व्यर्थ न जहँ-तहँ भटकते।।


'मनोरंगिनी' बन इतर
महकाता सारा जगत
काष्ठ चूर्ण समिधा बने।
कवि 'यलंग' का गान कर
पुष्पांजलि देता भगत
सहज, न नाहक झुक-तने ।।
४.६.२०२५
***
सॉनेट

हुआ मोगरा मनुआ महका
गाल गुलाबी लाल हुआ है
छुईमुई सिर झुका हुआ है
तन पलाश होकर है दहका।
नैन-बैन हो महुआ बहका
चकित चपल चित किसे छुआ है?
माँग माँग भर करी दुआ है
आशा-पंछी कूका-चहका।


जुड़ी-चमेली हुई किशोरी
हरसिंगार सुमन चुन-चुनकर
हर सिंगार करे तरुणाई।
तितली ताके भ्रमर टपोरी
नैनों में सपने बुन-बुनकर
फुलबगिया करती पहुनाई।।
९.६.२०२५
०0०


पूर्णिका : फुलबगिया
.
हो आनंदित आप, फुलबगिया में घूमिए।
सुमन सुमन में व्याप, पवन झुलाए झूमिए।।
.
भँवरा ख्वाब हसीन, दिखा रहा है कली को।
मादक महुआ मौन, कहे बाँह भर चूमिए।।
.
'लिव इन' का है दौर, पल-पल नाते बदलते।
सुबह किसी के आप, शाम किसी के हो लिए।।
.
रहे बाँह में एक, और चाह में दूसरा।
नजर तीसरा खोज, कहे शीघ्र फ्री होइए।।
.
फुलबगिया गमगीन, देख बिक रही प्रीत को।
प्रेम न पूजा आज, एक-दूसरे हित जिए।।
१०.६.२०२५
पूर्णिका

स्वस्थ रहो, मस्त रहो।
कहो शत्रु से पस्त दहो।।
.
जो जी चाहे वही करो।
मन मसोस कुछ नहीं सहो।।
.
हरी-भरी फुलबगिया में
हो आनंदित कहो अहो!
.
आना-जाना खाली हाथ
शेष समय धन-कीर्ति गहो।।
.
जिन यादों से खुशी मिले
उनको ओढ़ो-बिछा-तहो।।
.
सबकी सुनो मगर अपने
मन की मानो और कहो
.
फाड़ शोक-चट्टानों को
सलिल संग संतुष्ट बहो।।
१६.६.२०२५
०0०
गीत
खिले दस बजे टैन-ओ-क्लॉक
पथ आलस का कर दे ब्लॉक
.
अनुशासित रहता हँसमुख
गुप-चुप सह जाता हर दुख
भारती माटी इसे नरम
शुष्क न गीली केवल नम
खिले एक नहिं इसके फ्लॉक
खिले दस बजे टैन-ओ-क्लॉक
पथ आलस का कर दे ब्लॉक
.
पीले और सफेद सुमन
बना रहे रमणीय चमन
इसे नहीं भाते हैं शूल
खिले समय पर करे न भूल
बाँटे, करे न खुशियाँ लॉक
खिले दस बजे टैन-ओ-क्लॉक
पथ आलस का कर दे ब्लॉक
१६-६-२०२५
०0०

०००

०१६                      फुलबगिया                       016

संतोष शुक्ला  

१५ अगस्त १९४२ लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश  
एम.ए.(संस्कृत, हिन्दी), विद्यावाचस्पति (संस्कृत)
सेवानिवृत्त प्रवक्ता
पति-  स्व.श्री विजय कृष्ण शुक्ला
आत्मजा- स्व. श्रीमती सौभाग्यवती त्रिवेदी - स्व.श्री ब्रज नारायण त्रिवेदी 
निवास- गुरुदेव भवन ५८,कृष्णापुरी मथुरा
संपर्क- श्री मनीष शुक्ल ३३३, शालिग्राम बंग्लोज,शीतल होटल कै पीछे ग्रीन नवसारी(गुजरात) ३९६४२४ 
चलभाष- ९८७४१४२१००  
प्रकाशित पुस्तकें- काव्य कालिंदी, खुशियों की सौग़ात (दोहा सतसई), छंद सोरठा ख़ास( हिंदी की प्रथम सोरठा सतसई )

अमलतास 

मन को मोहित कर रहे, अमलतास के फूल।
पीट सुनहरे सोहते, ओढ़े स्वर्ण दुकूल।।
*
अमलतास है विरेचक, करते वैद्य प्रयोग।
औषध यह कफ-पित्त की, करिए पूछ प्रयोग।।
*
कंठ रोग में लाभ दे, करता दूर बुखार।
पेट दर्द में लाभ कर,हरता मूत्र विकार।।
*
वजन घटाने के लिए, इसका हो उपयोग।
कम करने मधुमेह को,देता है सहयोग।।
*
पीले फूलों से लदा, जैसे श्री भगवान।
हरियल पत्ते सोहते, अधोवस्त्र की शान 
*
रातरानी 

रात रातरानी खिले ,महक उठे चहुँओर।
सबको आकर्षित करे, रख दे मन झकझोर।।
*
खुशबू फैली कहाँ तक, इसका ओर न छोर। 
महक बहक घूमें फिरें, बचे न कोई ठौर।।
'मावस हो या पूर्णिमा, महकाती है खूब। 
निकट बैठ मूँदें नयन, मस्त सुरभि में डूब।।
*
बदल जाए मौसम भले, ना बदले दिलदार।
काली काली रात या, तारों का संसार।।
*
नाजुक कलियाँ चहककर , झर जाती हैं भोर। 
खूब महकतीं मचलतीं, थामे आशा-डोर।।

चमेली 

फूल चमेली का सुखद, मादक मोहक गंध।
बस में रहता मन नहीं, सहे न कोई बंध।।
*
कलियों का गजरा बने ,फूलों का गलहार।
नैनों में कजरा सजे, मारें बाण कटार।।
कहे चमेली सुन सखी,आजा मेरे पास।
खुश कर दूँगी मैं तुझे,दिखना नहीं उदास।।
*
फूल चमेली का सुखद,मादक उसकी गंध।
बस में रहता मन नहीं,सहे न कोई बंध।।
*
फूल चमेली महकता,मोहक उसका रूप।
गुलाबी कलियाँ उसकी,शुभ्र वर्ण प्रतिरूप।।
*

कचनार 

आने पर मधुमास के, खिल जाते कचनार।
वन-उपवन उद्यान में, फूलों की भरमार।।
*
श्वेत गुलाबी बैंगनी, ये कचनारी फूल।
आने पर ऋतुराज के, खिल जाते गम भूल।।
*
सुन्दर कचनारी कली, मचा रही है शोर। 
कोई आए तो इधर, हुई सुहानी भोर।।
*
जड़ पत्ते कलियाँ सुमन, सब आते हैं काम। 
बनती औषधि है गजब, मिलता है आराम।।
*
खांसी पेचिश अरु अपच, कई त्वचा के रोग।
लाभ दिलाते हैं बहुत, अगर करो उपयोग। 
*

हरसिंगार 

बचपन से 
बाबू जी की बगिया में,
खिलते खूब
महकते खूब
गुप-चुप,गुप-चुप जाते झर।
पृथ्बचपन से 
बाबू जी की बगिया में,
खिलते खूब ,
महकते खूब
गुप-चुप,गुप-चुप जाते झर।
पृथ्वी को देते थे भर।
जिन्हें देख हर्षाए मन 

ब्याह हुआ ,ससुर घर आई  
छूट गई,बाबुल अँगनाई
खुशबू मेरे  संग संगआई
पारिजात का वृक्ष देख कर 
मन ही मन मुस्काई।
लगा महीना जैसे क्वांर
सज गये वैसे हरसिंगार 
सुरभित सुरभित चले बयार 
महकाते सब भीतर बाहर 
मन भी जाता महक महक 
घर में घूमें चहक चहक
पवन चले ज्यों बहक बहक 
शुभ्रवर्णी आकर्षक फूल 
मनवा जाता सबकुछ भूल 
केवल नहीं हैं आकर्षक 
ये हैं बहुत स्वास्थ्यवर्धक 
मधुमेह को दूर भगाए 
जीने की यह राह दिखाए 
देवगणों को प्रिय यह फूल 
इन्हें चढ़ाना मत जाना भूल।
                                         
फूल चमेली से कहे, सुन्दर सुभग गुलाब।
मैं भी तुमसे कम नहीं, मेरा नहीं जवाब।।
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बेला गेंदा मालती, कहें पुकार पुकार।
एक बार पा लो मुझे, चाहोगे सौ बार।।
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फूलों से बगिया सजी, भाँति भांति के फूल।
सुरभित है वातावरण,सब कुछ जाए भूल।।
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कलियों का गजरा बने ,फूलों का गलहार।
नैनों में कजरा सजे,मारें बाण कटार।।
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बेला गेंदा मालती,कहें पुकार पुकार।
एक बार पा लो मुझे,चाहोगे हर बार।।
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फूल चमेली से कहे,सुन्दर सुभग गुलाब।
मैं भी तुमसे कम नहीं,मेरा नहीं जवाब।। 
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सड़क किनारे लग गए, वृक्ष सुभग कचनार।
डाल डाल पर  झूमते,च लती  मधुर बयार।।
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मन को सब के भा रही, मादक इसकी गंध।
आकर्षित हो आ रहे,पक्षी अंधाधुंध।।
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पत्तियों में है निहित, ऐंटीऑक्सीडेंट।
कर के उपयोग इनका, खुश हो परमानेंट।।
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हांगकांग देश का ,राष्ट्रीय फूल कचनार। 
पीड़ा दूर करके,  देता सबको उपहार।।

 गंधराज (गार्डेनिया) की खुशबू इतनी शानदार होती है कि महंगे से महंगा परफ्यूम भी इसके आगे कुछ नहीं। इस की खुशबू गुलाब से भी बेहतर है और दिखने में भी बेहद खूबसूरत लगता है। इस पौधे को उगाना बेहद आसान है और इसमें ज्यादा मेहनत भी नहीं लगती। यही वजह है कि आजकल लोग इसे तेजी से अपने गार्डन का हिस्सा बना रहे हैं। इस पौधे के फूल देखने में छोटे गुलाब जैसे लगते हैं. फूलों की संख्या भी कम नहीं होती. औसतन देखा जाए तो गार्डेनिया का पौधा साल में करीब २०० दिन तक फूल देता है। इसके व्हाइट, सॉफ्ट और महकते फूल आपके घर को सजाते और महकाते रहेंगे। आम भाषा में इस पौधे को गंधराज या केप जैस्मिन कहते हैं। खुशबू की वजह से इसका नाम ‘परफ्यूम फ्लावर' भी रखा गया है। इसका वैज्ञानिक नाम Gardenia Jasminoides है और ये कॉफी फैमिली से आता है। इसका पौधा झाड़ीनुमा होता है और फूलों के साथ इसकी पत्तियों की चमक भी बहुत आकर्षक लगती है। इस सुंदर और सुगंधित फूल वाले पौधे को लगाना और केयर करना बेहद आसान है। यह हल्के गर्म, सूखे वातावरण में भी अच्छी तरह उगता है। इसे ज्यादा खाद या बार-बार पानी देने की जरूरत नहीं होती। एक बार पानी देने के बाद इसे महीने भर के लिए वैसे ही छोड़ सकते हैं. बस इसकी मिट्टी नरम और वॉटर-ड्रेनिंग होनी चाहिए ताकि जड़ें सड़ें नहीं। गार्डेनिया का पौधा रात के समय में ऑक्सीजन छोड़ता है और कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखता है। बहुत कम पौधे ऐसा कर पाते हैं. यानी ये सिर्फ देखने और सूंघने भर का नहीं, बल्कि घर की हवा को भी साफ करने वाला पौधा है। इसे अपने बेडरूम या लिविंग रूम में लगाकर आप नैचुरल फ्रेशनर का फायदा उठा सकते हैं।





रोहिड़ा, (टेकोमेला अंडुलाटा) राजस्थान का राज्य पुष्प है। यह एक चमकीले लाल रंग का फूल है, जो वसंत ऋतु में खिलता है। रोहिड़ा के पेड़ मुख्यतः थार मरुस्थल में पाए जाते हैं। इनकी लकड़ी इमारती लकड़ी के रूप में उपयोग की जाती है। रोहिड़ा का फूल लाल रंग का होता है, जो बाद में नारंगी और पीले रंग में बदल जाता है। यह घंटी के आकार का होता है। रोहिड़ा के फूल चैत्र माह (वसंत ऋतु) में खिलते हैं। १९८३ में रोहिड़ा को राजस्थान का राज्य पुष्प घोषित किया गया था। रोहिड़ा के फूल, छाल और लकड़ी का उपयोग कई आयुर्वेदिक औषधियों में किया जाता है। रोहिड़ा के पेड़ भूमि कटाव को रोकने में मदद करते हैं और रेगिस्तानी इलाकों में जैव विविधता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रोहिड़ा की लकड़ी का उपयोग इमारती लकड़ी, फर्नीचर और कृषि उपकरणों में किया जाता है। रोहिड़ा का फूल राजस्थान की संस्कृति और कला में भी महत्वपूर्ण है, और इसे समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। रोहिड़ा के फूल, छाल और लकड़ी का उपयोग कई आयुर्वेदिक दवाएं बनाने में किया जाता है, जैसे कि रोहितकारिष्ट, कुमार्यासव, कालमेघासव आदि। रोहिड़ा के फूल का उपयोग प्राकृतिक रंग बनाने के लिए भी किया जाता है, और इसकी पत्तियां जानवरों के लिए चारा के रूप में उपयोग होती हैं।







चंद्र विजय अभियान : साझा काव्य संकलन


: सम्मिलित भाषाएँ (देवनागरी वर्ण क्रमानुसार) :


*५० भाषा/बोलियाँ (१ अंगिका, २ अंग्रेजी, ३ अरबी, ४ अवधी, ५ असमी, ६ उर्दू, ७ ओड़िया, ८ कन्नड़, ९ कनोजिया, १० काठियावाड़ी, ११ कुमायूनी, १२ गढ़वाली, १३ गुजराती, १४ छत्तीसगढ़ी, १५ डोगरी, १६ तेलुगु, १७ निमाड़ी, १८ पंजाबी, १९ पचेली, २० पाली, २१ प्राकृत, २२ फारसी, २३ बज्जिका, २४ बघेली, २५ बृज, २६ बांग्ला, २७ बुंदेली, २८ बैसवाड़ी, २९ भदावरी, ३० भुआणी, ३१ भोजपुरी, ३२ मगही, ३३ मराठी, ३४ मारवाड़ी, ३५ मालवी, ३६ मेवाड़ी, ३७ मैथिली, ३८ राजस्थानी, ३९ रुहेली, ४० वागड़ी, ४१ शेखावाटी ४२ संताली, ४३ संबलपुरी, ४४ संस्कृत, ४५ सरगुजिहा, ४६ सिन्धी, ४७ सिरायकी, ४८ हलबी, ४९ हाड़ौती, ५० हिंदी।)*