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मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

गुलमोहर

फुलबगिया
कनबतियाँ करता स्वर्ग का फूल गुलमोहर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
लाल-पीले फूलोंवाले गुलमोहर को सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने मेडागास्कर में सबसे पहले देखा था। अठारहवीं शताब्दी में फ्रेंच किटीस के गवर्नर काउंटी डी प़ोएंशी ने इसका नाम बदल कर अपने नाम से मिलता-जुलता नाम पोइंशियाना रख दिया। बाद में यह सेंट किटीस व नेवीस का राष्ट्रीय फूल भी स्वीकृत किया गया। इसको रॉयल पोइंशियाना के अतिरिक्त फ्लेम ट्री के नाम से भी जाना जाता है। फ्रांसीसियों ने संभवत: गुलमोहर का सबसे अधिक आकर्षक नाम' स्वर्ग का फूल' दिया। यह पेड़ युगांडा, नाइजीरिया, श्री लंका, मेक्सिको, आस्ट्रेलिया तथा अमेरिका में फ्लोरिडा, ब्राजील तथा यूरोप में भी खूब पाया जाता है। मेडागास्कर जहाँ से इस पेड़ का विकास हुआ पर अब वहाँ यह लुप्तप्राय है। इसकी मूल प्रजाति संरक्षित वृक्षों की सूची में शामिल है। गुलमोहर के फूल मकरंद के अच्छे स्रोत हैं। गर्मियों में गुलमोहर के पेड़ पर नाममात्र पत्तियाँ और असंख्य फूल होते हैं।
भारत में गुलमोहर का इतिहास करीब दो सौ वर्ष पुराना है। संस्कृत में इसका नाम 'राज-आभरण' है, जिसका अर्थ राजसी आभूषणों से सजा हुआ वृक्ष है। गुलमोहर के फूलों से श्रीकृष्ण भगवान की प्रतिमा के मुकुट का श्रृंगार किया जाता है। इसलिए संस्कृत में इसे 'कृष्ण चूड़' कहते हैं। यह भारत के गरम तथा नमी वाले स्थानों में सब जगह पाया जाता है। गुलमोहर के फूल मकरंद के अच्छे स्रोत हैं। शहद की मक्खियाँ फूलों पर खूब मँडराती हैं। मकरंद के साथ पराग भी इन्हें इन फूलों से प्राप्त होता है। फूलों से परागीकरण मुख्यतया पक्षियों द्वारा होता है। सूखी कठोर भूमि पर खड़े पसरी हुई शाखाओं वाले गुलमोहर पर पहला फूल निकलने के एक सप्ताह के भीतर ही पूरा वृक्ष गाढ़े लाल नारंगी, पीले रंग के अंगारों जैसे फूलों से भर जाता है। सौंदर्य वृद्धि के लिए पार्क, बगीचे और सड़क के किनारे इसे लगाया जाता है। शहद की मक्खियाँ फूलों पर खूब मँडराती हैं। मकरंद के साथ पराग भी इन्हें इन फूलों से प्राप्त होता है।
गुलमोहर के फूलों के खिलने का मौसम अलग अलग देशों में अलग-अलग होता है। दक्षिणी फ्लोरिडा में यह जून के मौसम में खिलता है तो कैरेबियन देशों में मई से सितम्बर के बीच। भारत और मध्यपूर्व में यह अप्रैल-जून के मध्य फूल देता है। आस्ट्रेलिया में इसके खिलने का मौसम दिसम्बर से फरवरी है, जब इसको पर्याप्त मात्रा में गरमी मिलती है। उत्तरी मेरीयाना द्वीप पर यह मार्च से जून के बीच खिलता है। गुलमोहर की फली का रंग हरा होता है जबकि बीज भूरे रंग के बहुत सख्त होते हैं। कई जगहों पर इसे ईधन के काम में भी लाया जाता है। जब हवाएँ चलती हैं तो इनकी आवाज़ झुनझुने की तरह आती है, तब ऐसा लगता है जैसे कोई बातें कर रहा है इसीलिए इसका एक नाम "औरत की जीभ" भी है।गुलमोहर एक सुगंन्धित पुष्प है। प्रकृति ने गुलमोहर को बहुत ही सुव्यवस्थित तरीक़े से बनाया है, इसके हरे रंग की फर्न जैसी झिलमिलाती पत्तियों के बीच बड़े-बड़े गुच्छों में खिले फूल इस तरीक़े से शाखाओं पर सजते है कि इसे विश्व के सुंदरतम वृक्षों में से एक माना गया है। गुलमोहर का फूल आकार में लगभग १३ सेमी का होता है। इसमें पाँच पंखुड़ियाँ होती हैं। चार पंखुड़ियाँ तो आकार और रंग में समान होती हैं पर पाँचवी थोड़ी लंबी होती है और उस पर पीले सफ़ेद धब्बे भी होते हैं। फूलों का रंग सभी को अपनी ओर खींचता है मियामी में तो गुलमोहर को इतना पसंद किया जाता है कि वे लोग अपना वार्षिक पर्व भी तभी मनाते है जब गुलमोहर के पेड़ में फूल आते हैं। होली के रंग बनाने में गुलमोहर फूलों का प्रयोग किया जाता है।
औषधीय प्रयोग
गुलमोहर की छाल और बीजों का आयुर्वेदिक महत्त्व भी हैं। इसके फूल एंटीबैक्टीरियल, एंटीफंगल, एंटी-इंफ्लेमेटरी, एंटीमाइरियल, एंटीमाइक्रोबियल, एंटीऑक्सिडेंट, कार्डियो-प्रोटेक्टिव, गैस्ट्रो-प्रोटेक्टिव और घाव भरने के औषधीय गुण से युक्त होते हैं। गुलमोहर की पत्तियों में अतिसार-रोधी, हेपेटोप्रोटेक्शन, फ्लेवोनोइड्स और एंटी डायबिटिक गुण मौजूद होते हैं। इसके इस्तेमाल से गठिया, बवासीर जैसी बीमारियों समेत स्किन और बालों से जुड़ी कई समस्याएं भी दूर की जाती हैं। गुलमोहर के पत्तों का इस्तेमाल बालों की समस्या में बहुत फायदेमंद माना जाता है। गुलमोहर के तने की छाल में खून को बहने से रोकने के गुण, मूत्र और सूजन से जुड़ी समस्याओं को खत्म करने के गुण पाए जाते हैं। सिरदर्द और हाजमे के लिए आदिवासी लोग इसकी छाल का प्रयोग करते हैं। मधुमेह की आयुर्वेदिक दवाओं में भी गुलमोहर के बीजों को अन्य जड़ी-बूटियों के साथ मिला कर भी उपयोग किया जाता है। गुलमोहर की छाल का उपयोग मलेरिया की दवा में भी किया जाता है।


१. गुलमोहर फूल को सुखाकर इसका चूर्ण २ से ४ ग्राम चूर्ण को शहद के साथ मिलाकर खाने से पीरियड्स के दौरान होने वाले दर्द (Menstrual Cramp) और इससे जुड़ी अन्य समस्याओं में फायदा होगा।
२. बाल झड़ने की समस्या में गुलमोहर की पत्तियों को सुखा-पीसकर चूर्ण गर्म पानी में मिलाकर खोपड़ी (स्कैल्प्स) पर हफ्ते में दो बार लगाएं। ३. पेचिश, दस्त या डायरिया हो तो गुलमोहर के तने की छाल का २ ग्राम चूर्ण डायरिया की समस्या में खाएँ। बहुत फायदा मिलता है।
४. पीले गुलमोहर के पत्ते पीसकर गठिया-दर्द वाली जगह पर लगाने तथा पत्तों का का काढ़ा बनाकर उसका भाप देने से आराम मिलता है।
५. बवासीर (Piles) होने पर गुलमोहर के पत्ते दूध के साथ पीसकर मस्सों पर लगाने से आराम मिलता है।

गुलमोहर पर दोहे
गुल मोहर हो गई है, रुपया टका समान।
गुलमोहर खिलखिल करे, खिलखिल दे मुस्कान।।
हो जब गुल मो हर कहीं, दिखे आप ही आप।
मैं-तू बिसरे हम बनें, सके उजाला व्याप।।
हो न लाल-पीला कभी, रहे हमेशा शांत।
खिले लाल-पीला रहे, गुलमोहर अक्लांत।।
वर्षा ठंडी ग्रीष्म सह, रहता है चुपचाप।
संत सदृश धीरज धरे, इसने लिए न पाप।।
नहीं नहाता कुम्भ क्यों?, गुलमोहर निष्पाप।
छाँह-पुष्प दे पुण्य कर, छोड़े सब पर छाप।।
१८.२.२०२५
०००गुलमोहर बहुत याद आया
दिशा विद्यार्थी
आज फिर गुलमोहर बहुत याद आया
गली का शोर, घर का आँगन याद आया।
छुट्टी के दिन,चाचा की कुल्फी,
नीले आकाश का पतंन्गों से सतरंगी हो जाना
माँ के बुलाने पर पांच मिनट कह घंटों खेलना
रेट के टीलों पर नंगे पैर चढ़ जाना याद आया
आज फिर गुलमोहर याद आया
नानी का लाड़, बाबा का मनुहार
सावन के झूले,राखी का त्यौहार
सखियों की ठिठोली,मेहँदी चूड़ी के बाज़ार
थोड़ा सा रूठने पर सबका मनाना याद आया
आज फिर गुलमोहर याद आया।
यूँ तो बचपन बहुत पीछे छूट गया
काँधे पर बास्ते का बोझ बदल गया
दोने की चाट,बेफिक्र मौज
बीता ज़माना हो गया
चलो फिर से जी आएं बचपन
मन को गुड़िया का ब्याह रचाना याद आया
आज फिर गुलमोहर बहुत याद आया।
०००
मैं बनूँगा गुलमोहर
सुशोभित
.
अच्‍छा सुनो,
यदि प्रेम हो,
तो संकोच न करना।
कह देना नि:शंक :
'मैं प्रेम में हूँ!'
मुझसे न कह सको तो
कह देना किसी दरख्‍़त से
या मुझी को मान लेना,
अमलतास का एक पेड़।
कह देना
क्‍योंकि कहना ज़रूरी होता है
होने से एक रत्‍ती अधिक
एक सूत ज्‍़यादह
होना यूँ तो मुकम्‍मल है पर नाकाफ़ी
मुकम्‍मल काफ़ी भी हो
ये ज़रूरी तो नहीं!
अपने को पूरे से ज्‍़यादह बनाना
अपने होने को कहना
कहने के चंद्रमा से उसे आलोकना
दीठ को देना एक दीपती हुई दूरी
थोड़ा दूर तलक व्‍यापना।
क्‍योंकि सबसे अकेला वो होता है
जो होता है अकेला अपने प्‍यार के साथ
उसे कह देना यूँ कि तारे तक आ जाएँ उसकी ज़द में
सुदूर से भी परे झपकाते पलकें
अपने अकेलेपन को एक बेछोर पसार देना
क्‍योंकि और अकेला हो जाना बेहतर है
केवल अकेला होने से!
मत रखना दुविधा
कह देना कि प्‍यार है
मुझसे न कह सको तो
कह देना किसी दरख्‍़त से
या मुझी को मान लेना
चिनार का एक पेड़!
ये एक दस्‍तूर है कि राज़दार बनें दरख्‍़त
और ठहरें रहें ख़ामोश हज़ार आवाज़ों और तरानों के साथ
के ये एक रवायत है।
तुम्‍हारी आँखों में
परिंदों की विकल वापसी से भरी साँझ है
उनके लिए मैं बनूँगा नीड़
तुम्‍हारे कानों के नीले छल्‍ले
नदियों की नींद में काँपते हैं
उनके लिए मैं बनूँगा लहर
जब प्रेम में होओगी तुम और
कहना चाहोगी अपना होना
मैं बनूँगा गुलमोहर।
०००
गुलमोहर - प्रेम और जीवन का
निशु माथुर
.
गुलमोहर के पेड़ के नीचे
भड़कीले प्यार में
हमारी इच्छाओं की एक कहानी
एक दूसरे को रंगते हुए
एक चमकीला सिंदूर
उसके लाल रंग के फैलाव के नीचे
आनंदमय आश्रय में छाया हुआ।
उसकी शाखाओं तक पहुँचते
हुए, पकड़ते
हुए, चढ़ते हुए, झूलते हुए
, पीछा करते हुए, हँसते हुए
लाल पंखुड़ियों की एक चमकदार बौछार के नीचे
दिलों और गर्मी के, प्यार और जीवन के
एक झुलसाने वाले भारतीय गर्मियों के फूल।
लपटों में, उसका जीवंत जलता हुआ मुकुट
उसकी छतरी, उत्सवी कीनू के फूलों पर इठलाती
हुई झुर्रीदार चिढ़ाती हुई पंखुड़ियाँ
एक सीधी खड़ी
सफेद रंग की विचित्र मासूमियत
के साथ जोशीले जुनून के लाल रंग से सराबोर
जश्न मनाते और उम्मीद करते हुए
हमारे, हमारे प्यार के जश्न में
बारिश का इंतजार करते हुए..
जैसे उसकी शाखाएँ काले बादलों का वादा करने के लिए ऊँची पहुँचती हैं।
मानसून के संगीत के साथ
गुलमोहर की नम पत्तियां चमकती हैं
हवा और पानी के साथ, कोमल लय में बारिश की बूंदें फिसलने से पहले
एक पल के लिए रुकती हैं नम, तृप्त धरती पर बिखरी हुई नारंगी पंखुड़ियों से चमकती हुई गुलमोहर की हमारी तरह भीगी और भीगी हुई।
०००
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र
सोनी पांडेय
.
इस मौसम भी
गुलमोहर ज़रूर खिला होगा
मैं ही मुरझा रही हूँ
तुम्हें देखना था जी भर
आँचल में भर लेना था
मन की तहों में दबा कर रखना था
कि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है
मेरी उदासियों को पढ़ सकते हो तो पढ़ लेना
इस तन्हाई में बस इतना भरम रखते हैं
गुलमोहर के झरने से पहले
ख़त्म हो जाएँगी सारी दूरियाँ
उसके लाल दहकते फूलों से लदी डालियाँ
बचाए हैं हरे पत्तों में थोड़ा-सा मेरा बचपन
वहीं कहीं चिपकी है उसकी शाख़ पर
मेरे माथे की लाल बिंदी
बाहर दहक रहा है मौसम
अंदर भरा है महमह गुलमोहर का लाल रंग
इस लाली से बचेगी दुनिया
कि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है
तुम जा रहे हो!
जाओ!
मुझे याद मत करना
मत कुरेदना भूल कर मेरी किसी बात को
हमारे बीच केवल बातें थीं सेतु
बस इस सेतु को बचाए रखना
तुम जब भी पुकारोगे
मेरी बातें थाम लेंगी तुम्हारी उँगली...
देखना वहीं कहीं गदराया मिलेगा
दहकते लाल रंग में डूबा
खिलखिलाता गुलमोहर
बचपन की भोली मुस्कान लिए
बिना किसी यातना या छल के
गा रहा होगा वह गीत
जिसे तुम गुनगुनाते थे
हँस कर थाम लेगा तुम्हारा हाथ
जब भी थक कर गिरोगे
महसूसना उसके स्पर्श में
मेरे छुवन को...
मैंने धो-सूखा कर रख लिया है
सहेज कर मन की पिटारी में
क्योंकि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है
सुनो!
मुझसे मत कहना कि तुम मेरे प्रेम में थे
ग़लती से भी मत कहना
कुछ बातें कहने के साथ ही
अपना अर्थ खो देती हैं
हमारे बीच कितना प्रेम था
सोचना और लिखना
कहना-सुनना
संभव नहीं मेरे लिए
मैंने आँचल के कोर में बाँध लिया
फागुन की गाँठ की तरह
तपती जेठ की दुपहरी में
जलती धरती की छाती पर
विरहन की हूक की तरह उठती तुम्हारी यादें
इन सन्नाटे भरे दिनों में
जब जीना दुभर हो रहा हो तन्हाई में
मैंने सीख लिया प्रेम करना ख़ुद से
पकड़ कर तुम्हारी यादों की डोर
क्योंकि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है
थोड़ा नरम
थोड़ा खट्टा... मीठा भी
तुम्हें देखते हुए
मुझे बचपन के चूरन याद आते हैं
ख़ूब गिले-शिकवे
उलाहने
तुम समझे नहीं
मैंने बताया नहीं
जाओ यहीं छोड़कर
अपनी बातों की तासीर
जब तुमने कहा कि
मैं तुम्हारे दिल में रहती हूँ
बस इतना बहुत था
मैंने आँखे बंद कर लीं
सहेज लिया सब कुछ
जाओ! तुम ख़ुश रहना और बाँटते रहना
दुनिया में मेरे हिस्से का प्रेम...
जब-जब खिलेंगे गर्म मौसम में
गुलमोहर के फूल
मैं तलाश लूँगी तुम्हारे प्रेम की लाली
धरती ख़ुश हो लेती है जैसे
तमाम उलाहनों के बीच
गुलमोहर से मिलकर
मैं बचा कर रखूँगी रसोई में
हल्दी के डिब्बे में थोड़ा-सा पीलापन
हल्दी की थाप से सजी तुम्हारी गलियाँ
जब जोहती हैं बाट बसंत की
सावन को पुकारतीं हैं किसी नवब्याता बेटी की तरह
मैं जेठ की लू भरी दुपहरी से पूछती हूँ तुम्हारा पता
न जाने किस देश में है तुम्हारा ठौर
तुम जब भी लौटना
पूछ लेना गुलमोहर से मेरा पता
क्योंकि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है।
०००

गुलमोहर के प्रेमपथ पर
अभिनव पंचोली


मार्ग पर चलते हुए,
मनन-चिंतन करते हुए,
जहां तक गयी दृष्टि,
छितराए पड़े थे,
लाल फूल ही लाल फूल……..
ग्रीवा उठाकर इधर-उधर देखा,
चहुं ओर हरा और लाल,
अनंत नीला परिप्रेक्ष्य,
बीच-बीच में पुष्पवर्षा,
साधारण सड़क किसी चित्र-सी सुशोभित ।
ना मानो, तो कुछ नहीं,
हैं वही पुराने गुलमोहर,
जो बूझ सको सौन्दर्य अगर तो,
रंग लाल, रंगत अति मनोहर,
गुलमोहर हैं, गुल मोहर !
लाल फूल हैं, सुर्ख लाल!
आसक्त हो कर चमके लाल,
धूप में तपकर हुए लाल,
भक्ति में रंग गए लाल,
लहू से भी गहरे ये लाल !
चूंकि प्रभु मस्तक पर सजाये,
तो कृष्णचूड़ भी कहलाए,
आभूषणों से सुसज्जित वृक्ष को,
राज आभरण पुकारा जाये,
नाम चला लेकिन एक ही-
गुलमोहर ही जनमानस को भाए,
पुष्पित हो जब यह वृक्ष तब,
नगर विवाह-मंडप सा सज जाए।
००० 

फरवरी १८, सॉनेट, धतूरा, सूरज, चित्रालंकार, नवगीत, दोहा, लघुकथा, प्रेम गीत में संगीत, चंडिका छंद, दोहा ग़ज़ल, बसंत

सलिल सृजन फरवरी १८
*
आज प्लूटो दिवस 
० 
गुलमोहर पर दोहे 
० 
गुल मोहर हो गई है, रुपया टका समान।
गुलमोहर खिलखिल करे, खिलखिल दे मुस्कान।। 
० 
हो जब गुल मो हर कहीं, दिखे आप ही आप। 
मैं-तू बिसरे हम बनें, सके उजाला व्याप।। 
० 
हो न लाल-पीला कभी, रहे हमेशा शांत। 
खिले लाल-पीला रहे, गुलमोहर अक्लांत।। 
वर्षा ठंडी ग्रीष्म सह, रहता है चुपचाप। 
संत सदृश धीरज धरे, इसने लिए न पाप।। 
० 
नहीं नहाता कुम्भ क्यों?, गुलमोहर निष्पाप। 
छाँह-पुष्प दे पुण्य कर, छोड़े सब पर छाप।। 
१८.२.२०२५ 
०००     
दोहा
सूरज पुजता जगत में, तम हर जग उजियार।
काम करे निष्काम रह, ले-दे नहीं उधार।।
सोरठा
करे न मन की बात, कर्मव्रती रवि शत नमन।
समभावी विख्यात, स्वार्थ न किंचित साधता।।
रोला
भास्कर अपने आप, करता अग्निस्नान क्यों?
आत्मदाह का दोष, क्यों उस पर लगता नहीं?
साधे स्वार्थ न क्रोध, रश्मिरथी जग-हित वरे।
काम-क्रोध कर क्षार, सकल जगत उजियारता।।
नायक छंद
उगता रह।
ढलता रह।
चमको रवि
पुजते रह।
•••
सॉनेट
धतूरा
*
सदाशिव को है 'धतूरा' प्रिय।
'कनक' कहते हैं चरक इसको।
अमिय चाहक को हुआ अप्रिय।।
'उन्मत्त' सुश्रुत कहें; मत फेंको।।
.
तेल में रस मिला मलिए आप।
शांत हो गठिया जनित जो दर्द।
कुष्ठ का भी हर सके यह शाप।।
मिटाता है चर्म रोग सहर्ष।।
.
'स्ट्रामोनिअम' खाइए मत आप।
सकारात्मक ऊर्जा धन हेतु।
चढ़ा शिव को, मंत्र का कर जाप।
पार भव जाने बनाएँ सेतु।।
.
'धुस्तूर' 'धत्तूरक' उगाता बाल।
फूल, पत्ते, बीज,जड़ अव्याल।।
१७-२-२०२३
...
सॉनेट
शुभेच्छा
नहीं अन्य की, निज त्रुटि लेखें।
दोष मुक्त हो सकें ईश! हम।
सद्गुण औरों से नित सीखें।।
काम करें निष्काम सदा हम।।
नहीं सफलता पा खुश ज्यादा।
नहीं विफल हो वरें हताशा।
फिर फिर कोशिश खुद से वादा।।
पल पल मन में पले नवाशा।।
श्रम सीकर से नित्य नहाएँ।
बाधा से लड़ कदम बढ़ाएँ।
कर संतोष सदा सुख पाएँ।।
प्रभु के प्रति आभार जताएँ।।
आत्मदीप जल सब तम हर ले।
जग जग में उजियारा कर दे।।
१८-२-२०२२
•••
कार्यशाला
कुंडलिया
*
पुष्पाता परिमल लुटा, सुमन सु मन बेनाम।
प्रभु पग पर चढ़ धन्य हो, कण्ठ वरे निष्काम।।
चढ़े सुंदरी शीश पर, कहे न कर अभिमान।
हृदय भंग मत कर प्रिये!, ले-दे दिल का दान।।
नयन नयन से लड़े, झुके मिल मुस्काता।
प्रणयी पल पल लुटा, प्रणय परिमल पुष्पाता।।
१८-२-२०२०
***
नवगीत:
अंदाज अपना-अपना
आओ! तोड़ दें नपना
*
चोर लूट खाएंगे
देश की तिजोरी पर
पहला ऐसा देंगे
अच्छे दिन आएंगे
.
भूखे मर जाएंगे
अन्नदाता किसान
आवारा फिरें युवा
रोजी ना पाएंगे
तोड़ रहे हर सपना
अंदाज अपना-अपना
*
निज यश खुद गाएंगे
हमीं विश्व के नेता
वायदों को जुमला कह
ठेंगा दिखलाएंगे
.
खूब जुल्म ढाएंगे
सांस, आस, कविता पर
आय घटा, टैक्स बढ़ा
बांसुरी बजाएंगे
कवि! चुप माला जपना
अंदाज अपना-अपना
***
१८.२.२०१८
***
चित्रालंकार:पर्वत
गाएंगे
अनवरत
प्रणय गीत
सुर साधकर।
जी पाएंगे दूर हो
प्रिये! तुझे यादकर।
१८-२-२०१८
***
नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़कर बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गारे राई,सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें न लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोडा-थोडा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मर कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
***
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
***
लघुकथा
सबक
*
'तुम कैसे वेलेंटाइन हो जो टॉफी ही नहीं लाये?'
''अरे उस दिन लाया तो था, अपने हाथों से खिलाई भी थी. भूल गयीं?''
'भूली तो नहीं पर मुझे बचपन में पढ़ा सबक आज भी याद है. तुमने कुछ पढ़ा-लिखा होता तो तुम्हें भी याद होता.'
''अच्छा, तो मैं अनपढ़ हूँ क्या?''
'मुझे क्या पता? कुछ पढ़ा होता तो सबक याद न होता?'
''कौन सा सबक?''
'वही मुँह पर माखन लगा होने के बाद भी मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो कहने वाला सूर का पद. जब मेरे आराध्य को रोज-रोज खाने के बाद भी माखन खाना याद नहीं रहा तो एक बार खाई टॉफी कैसे??? चलो माफ़ किया अब आगे से याद रखना सबक '
१८-२- २०१७
***
नवगीत:
तुमसे सीखा
*
जीवन को
जीवन सा जीना
तुमसे सीखा।
*
गिरता-उठता
पहले भी था
रोता-हँसता
पहले भी था
आँसू को
अमृत सा पीना
तुमसे सीखा।
*
खिलता-झरता
पहले भी था
रुकता-बढ़ता
पहले भी था
श्वासों में
आसों को जीना
तुमसे सीखा।
*
सोता-जगता
पहले भी था
उगता-ढलता
पहले भी था
घर ही
काशी और मदीना
तुमसे सीखा
*
थकता-थमता
पहले भी था
श्रोता-वक्ता
पहले भी था
देव
परिश्रम और पसीना
तुमसे सीखा
***
नवगीत:
ओ' मेरी तुम!
*
श्वास-आस में मुखरित
निर्मल नेह-नर्मदा
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रवहित-लहरित
घहरित-हहरित
बूँद-बूँद में मुखरित
चंचल-चपल शर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रमुदित-मुकुलित
हर्षित-कुसुमित
कुंद इंदु सम अर्चित
अर्पित अचल वर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
कर्षित-वर्षित
चर्चित-तर्पित
शब्द-शब्द में छंदित
वन्दित विमल धर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
१८-२-२०१६
***
प्रेम गीत में संगीत चेतना
*
साहित्य और संगीत की स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व असंदिग्ध है किन्तु दोनों के समन्वय और सम्मिलन से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत-शिव-सुन्दर की प्रतीति कराती है. साहित्य जिसमें सबका हित समाहित हो और संगीत जिसे अनेक कंठों द्वारा सम्मिलित-समन्वित गायन१।
वाराहोपनिषद में अनुसार संगीत 'सम्यक गीत' है. भागवत पुराण 'नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन' को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य 'आनंद प्रदान करना' मानता है, यही उद्देश्य साहित्य का भी होता है.
संगीत के लिये आवश्यक है गीत, गीत के लिये छंद. छंद के लिये शब्द समूह की आवृत्ति चाहिए जबकि संगीत में भी लयखंड की आवृत्ति चाहिए। वैदिक तालीय छंद साहित्य और संगीत के समन्वय का ही उदाहरण है.
अक्षर ब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह से साक्षात् साहित्य करता है तो नाद ब्रम्ह और ताल ब्रम्ह से संगीत। ब्रम्ह की
मतंग के अनुसार सकल सृष्टि नादात्मक है. साहित्य के छंद और संगीत के राग दोनों ब्रम्ह के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
साहित्य और संगीत का साथ चोली-दामन का सा है. 'वीणा-पुस्तक धारिणीं भगवतीं जाड्यंधकारापहाम्' - वीणापाणी शारदा के कर में पुस्तक भी है.
'संगीत साहित्य कलाविहीन: साक्षात पशु: पुच्छ विषाणहीनः' में भी साहित्य और संगीत के सह अस्तित्व को स्वीकार किया गया है.
स्वर के बिना शब्द और शब्द के बिना स्वर अपूर्ण है, दोनों का सम्मिलन ही उन्हें पूर्ण करता है.
ग्रीक चिंतक और गणितज्ञ पायथागोरस के अनुसार 'संगीत विश्व की अणु-रेणु में परिव्याप्त है. प्लेटो के अनुसार 'संगीत समस्त विज्ञानों का मूल है जिसका निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टि की विसंवादी प्रवृत्तियों के निराकरण हेतु किया गया है. हर्मीस के अनुसार 'प्राकृतिक रचनाक्रम का प्रतिफलन ही संगीत है.
नाट्य शास्त्र के जनक भरत मुनि के अनुसार 'संगीत की सार्थकता गीत की प्रधानता में है. गीत, वाद्य तथा नृत्य में गीत ही अग्रगामी है, शेष अनुगामी.
गीत के एक रूप प्रगीत (लिरिक) का नामकरण यूनानी वाद्य ल्यूरा के साथ गाये जाने के अधर पर ही हुआ है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से गीत और प्रगीत का अंतर आकारगत व्यापकता तथा संक्षिप्तता ही है.
गीत शब्दप्रधान संगीत और संगीत नाद प्रधान गीत है. अरस्तू ने ध्वनि और लय को काव्य का संगीत कहा है. गीत में शब्द साधना (वर्ण अथवा मात्रा की गणना) होती है, संगीत में स्वर और ताल की साधना श्लाघ्य है. गीत को शब्द रूप में संगीत और संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है.
प्रेम के दो रूप संयोग तथा वियोग श्रृंगार तथा करुण रस के कारक हैं.
प्रेम गीत इन दोनों रूपों की प्रस्तुति करते हैं. आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से नि:सृत प्रथम काव्य क्रौंचवध की प्रतिक्रिया था. पंत जी के नौसर: 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान'
लव-कुश द्वारा रामायण का सस्वर पाठ सम्भवतः गीति काव्य और संगीत की प्रथम सार्वजनिक समन्वित प्रस्तुति थी.
लालित्य सम्राट जयदेव, मैथिलकोकिल विद्यापति, वात्सल्य शिरोमणि सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, प्रेमदीवानी मीरा आदि ने प्रेमगीत और संगीत को श्वास-श्वास जिया, भले ही उनका प्रेम सांसारिक न होकर दिव्य आध्यात्मिक रहा हो.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', हरिवंश राय बच्चन आदि कवियों की दृष्टि और सृष्टि में सकल सृष्टि संगीतमय होने की अनुभूति और प्रतीति उनकी रचनाओं की भाषा में अन्तर्निहित संगीतात्मकता व्यक्त करती है.
निराला कहते हैं- "मैंने अपनी शब्दावली को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह संगीत के छंदशास्त्र की अनुवर्तिता की है.… जो संगीत कोमल, मधुर और उच्च भाव तदनुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है, उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है.''
पंत के अनुसार- "संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा से प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं। वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल झंकारों का छेकानुप्रास है.''
लोक में आल्हा, रासो, रास, कबीर, राई आदि परम्पराएं गीत और संगीत को समन्वित कर आत्मसात करती रहीं और कालजयी हो गयीं।
गीत और संगीत में प्रेम सर्वदा अन्तर्निहित रहा. नव गति, नव लय, ताल छंद नव (निराला), विमल वाणी ने वीणा ली (प्रसाद), बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (महादेवी), स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्ठित / गुंजित पुंजित तरल रसाल (पंत) से प्रेरित समकालीन और पश्चात्वर्ती रचनाकारों की रचनाओं में यह सर्वत्र देखा जा सकता है.
छायावादोत्तर काल में गोपालदास सक्सेना 'नीरज', सोम ठाकुर, भारत भूषण, कुंवर बेचैन आदि के गीतों और मुक्तिकाओं (गज़लों) में प्रेम के दोनों रूपों की सरस सांगीतिक प्रस्तुति की परंपरा अब भी जीवित है.
१८-२-२०१४
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द्विपदी
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
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विमर्श
झाड़ू
* ज्योतिष-वास्तु एवं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार झाड़ू सिर्फ हमारे घर की गंदगी को दूर नहीं करती है, बल्कि हमारे * जीवन में आ रही दरिद्रता को भी घर से बाहर निकालने का कार्य करती है। झाड़ू हमारे घर-परिवार में सुख-समृद्घि लाती है। जिस घर में झाड़ू का अपमान होता है, वहाँ धन हानि होती है।
* झाड़ू में महालक्ष्मी का वास माना गया है। झाड़ू घर से बाहर अथवा छत पर न रखें। इससे चोरी का भय होता है।
* झाड़ू छिपाकर ऐसी जगह पर रखना चाहिए जहाँ से झाड़ू हमें, घर या बाहर के सदस्यों को दिखाई नहीं दें।
* गौ माता या अन्य किसी भी जानवर को झाड़ू से मारकर कभी भी नहीं भगाना चाहिए।
* गलती से भी कभी झाड़ू को लात न मारें अन्यथा लक्ष्मी रुष्ट होकर घर से चली जाती है।
* घर-परिवार के सदस्य अगर खास कार्य से घर से जाएँ तो उनके जाने के उपरांत तुरंत झाड़ू नहीं लगाना चाहिए। यह अपशकुन है। ऐसा करने से बाहर गए व्यक्ति को अपने कार्य में असफलता का मुंह देखना पड़ सकता है।
* झाड़ू को आदर-सत्कार से रखें तो हमारे घर में कभी भी धन-संपन्नता की कमी महसूस नहीं होगी।
* झाड़ू के सम्मान का परिणाम आप दल को सत्ता के रूप में मिल रहा है।
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छंद सलिला:
चंडिका छंद
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दो पदी, चार चरणीय, १३ मात्राओं के मात्रिक चंडिका छंद में चरणान्त में गुरु-लघु-गुरु का विधान है.
लक्षण छंद:
१. तेरह मात्री चंडिका, वसु-गति सम जगवन्दिता
गुरु लघु गुरु चरणान्त हो, श्वास-श्वास हो नंदिता
२. वसु-गति आठ व पाँच हो, रगण चरण के अंत में
रखें चंडिका छंद में, ज्ञान रहे ज्यों संत में
उदाहरण:
१. त्रयोदशी! हर आपदा, देती राहत संपदा
श्रम करिये बिन धैर्य खो, नव आशा की फस्ल बो
२. जगवाणी है भारती, विश्व उतारे आरती
ज्ञान-दान जो भी करे, शारद भव से तारती
३. नेह नर्मदा में नहा, राग द्वेष दुःख दें बहा
विनत नमन कर मात को, तम तज वरो उजास को
४. तीन न तेरह में रहे, जो मिथ्या चुगली कहे
मौन भाव सुख-दुःख सहे, कमल पुष्प सम हँस बहे
१८-२-२०१४
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बासंती दोहा ग़ज़ल
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स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
१८-२-२०११

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