दोहा शतक: अरुण अर्णव खरे
अरुण अर्णव खरे
आत्मज: स्व. गयाप्रसाद खरे
शिक्षा: बी.ई. यांत्रिकी
संप्रति: सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग मध्य प्रदेश।
संपर्क: डी-१/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग, भोपाल म०प्र० ४६२०२६
चलभाष: ९८९३००७७४४ , ई मेल: arunarnaw@gmail.com
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पता नहीं किस देव का, ऐसा है अभिशाप। खेल करोड़ों में रहे, नेता पैसा छाप।।
* असंतुष्ट हैं सब यहाँ, क्या किसान, क्या छात्र। संवेदी सरकार है, करती वादे मात्र।। * पुत्र हुआ सरपंच का, फिर दसवीं में फेल।
ख़ास योग्यता खेलता, राजनीति के खेल।। * टिकट उसे ही मिल गया, देखा-समझ रिज्यूम। रेप, घूस का अनुभवी, खाते में दो खून।। * गया रामलीला किया, लछमन जी का रोल। था अपात्र अब हो गया, वह नेता अनमोल | * जनमेजय के यज्ञ से, बचे रहे जो नाग। अब कुर्सी पर बैठकर, उगल रहे हैं आग।। * बिगुल चुनावी क्या बजा, लगें नित्य आरोप। मन व्याकुल है देखकर, मर्यादा का लोप।। * लाई है ऋतु चुनावी, आरोपों की बाढ़। झूठ बोलते ना दुखे, नेताओं की दाढ़।। * नेता जी हैरान हैं, सख्त बड़ा आयोग। कम्बल, दारू सब रखे, कैसे हो उपयोग? * जनसेवा चर्चित हुई, मंत्री की श्रीमान। साले जी को मिल गईं, सारी रेत खदान।।
* पूस-अंत की सुबह के, अलबेले हैं ढंग। सूरज है निस्तेज सा, कुहरा हुआ दबंग।। * सूरज काँपर ठण्ड से, कुहरा ओढ़े भोर। हवा तीर जैसी रही, अंदर तक झकझोर।। * शरद हमेशा की तरह, लाया है सौगात। जलतरंग सी नासिका, किट-किट करते दाँत।। * आँखें मलता रवि उगा, ले अलसाई धूप। ठिठुर-ठिठुर छाया हुई, कुबड़ी और कुरूप।। * दूभर सूरज का दरस, पारा जीरो पास। हम अपने घर ही सिमट, भोग रहे बनवास।। * कहो कहाँ प्रियतम खड़े, कुहरा है घनघोर। आँखें मल-मल देखते, चले नहीं कछु जोर।। * जलती रही अलाव में, ठण्डी-ठण्डी आग। जाड़ा-जाड़ा मन जपे, तन ने लिया बिराग।। * प्रियतम दूर, न आ रहे, आती उनकी याद। धुआँ-धुआँ सब शब्द हैं, कैसे हो संवाद।। * पूस अंत की सुबह का, धूसर-धूसर रंग। पाखी बैठे घोंसले, कैसे हो सत्संग।। * सहमा सूरज झाँकता, नभ से कम्बल ओढ़। सर्द हवाओं से किया, उसने ज्यों गठजोड़।।
* आभासी रिश्ते हुए, अपनेपन से दूर। लाइक गिन दिन कट रहे, हैं इतने मजबूर।। * जलता रावण कह रहा, सुन लो मेरा हाल। क़द मेरा दो चार फ़ुट, बढ़ जाता हर साल।।
* राम नाम रखकर करें, रावण जैसे काम। चाहे रामरहीम हों, चाहे आसाराम।।
* जलता रावण पूछता, बतलाओ हे राम! क्या कलयुग में फूँकना, पुतले केवल काम।। * अटारियाँ ऊँची हुईं, फक्कड़ रहे कबीर। लेशमात्र बदली नहीं, होरी की तक़दीर।। * काला धन आया नहीं, इसका सबको खेद। माल्या लेकर उड़ गया, सारा माल सफ़ेद।।
* संत कलंकित कर रहे, हम सबका संसार। त्याग-तपस्ता भूलकर, करते यौनाचार।। * समरसता के पथ चले, ना विकास के पाँव। होरी की है झोपड़ी, अब तक बाहर-गाँव।। * विनती राजन आपसे, करो निरंकुश राज। बस हमको मिलती रहे, सूखी-रोटी प्याज।। * चौंसठ खानों में छुपा, राजनीति का सार। नेताओं ने सीख लीं, चालें कई हजार।।
* रँगने को लाया तुम्हें, भाँति-भाँति के रंग। बचा सको तो लो बचा, अपने अंग अनंग।।
* अंदर-बाहर रँग दिया, होली में इस बार। मन बस से बाहर हुआ, कौन करे उपचार।।
* मुट्ठी लगे गुलाल ने, जोड़े मन के तार। बाँध गया सत जन्म को, होली का त्योहार।।
* पाती लिखी बसंत ने, जब गुलशन के नाम। माली को करने लगे, भौंरे भी परनाम।।
* पहली-पहली फाग का, अनुपम है उल्लास। नैन हुए कचनार से, अधरों खिले पलास।।
* फूलों की वेणी पहिन, पायल बाँधे पाँव। पूछे पता बसंत का, फागुन आकर गाँव।।
* रितु बसंत प्रिय दूर तो, मन है बड़ा उदास। हरसिंगार खिल यों लगे, उड़ा रहा उपहास।। * फूलों के घर आ गई, खुशबू लेकर डाक। लगीं तितलियाँ झूमने, बदल-बदल कर फ्रॉक।। * बाँचें गीत गोविंद जू, ढोलक देती थाप। फागुन लेकर आ गया, घर उमंग चुपचाप। * पोर-पोर खुशबू लिए, भीनी-भीनी छाँव। सिर महुए के घट धरे, फागुन आया गाँव।। *
होरी-धनिया हैं दुखी, बिटिया हुई सयान। घात लगाकर हैं खड़े, लोमड़, गीदड़, श्वान।। * पटवारिन की छोकरी, मिर्ची तीखी-लाल। चर्चा उसकी हर तरफ, गाँव, गली, चौपाल।।
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दिल में करुणा प्रेम है, अधरों पर मुस्कान।
मेरी इस संसार में, बस इतनी पहिचान।।
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शेर लिखे मैंने बहुत, हो मस्ती में चूर।
तुम्हें देखकर जो लिखे, हुए वही मशहूर।।
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वेद-पुराण पढ़े मगर, रहा अधूरा ज्ञान।
तुमसे मिलकर ही मिली, दुनिया में पहिचान।।
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भावहीन सब शब्द हैं, बुझे-बुझे से गीत।
इसका कारण एक ही, तुमसे दूरी मीत।।
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बिन बोले मनुहार का, ऐसे दिया जवाब।
नजर चुराई लाज से, गालों खिले गुलाब।।
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साँस-साँस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद।
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत, गजल, नव छंद।।
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अधिक और भी खिल गई, पूनम की वह रात।।
होंठ दबा जब बोल दी, उनने मन की बात।।
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केन नदी के तट मिला, अनुपम उनका साथ।
बिन बोले बस देखते, बीती सारी रात।।
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कहो इसे दीवानगी, या सच्चा अनुराग।
उनकी मृदु मुस्कान पर, हमने लिखी किताब।।
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सुंदर सारा जग लगे, मन में जागे प्रीत।
हारे दिल फिर भी लगे, मिली निराली जीत।।
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उपवन, मौसम, चाँदनी, तुमसे मेरे छंद।
तुमसे अधरों पर हँसी, तुमसे सब आनंद।।
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सात समंदर पार वे, करो सखी उपचार।
होरी-फागें बाँचता, फागुन आया द्वार।।
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साँस-साँस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद।
अनपढ़ मन की बात भी, लगती है गुलकंद।।
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जवाकुसुम सा रूप है, वाणी घुली मिठास।
तन चंदन-तरु सुवासित, मन में हुआ उजास।।
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बारिश की पहली झड़ी, हुआ विरोधाभास।
धरती का ज्वर कम करे, देह तपे आभास।।
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पानी लेकर आ गए, कारे-कारे मेघ।
खेतों में हलधर लिखें, ले हल नव आलेख।।
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सबको बारिश कर गई, इतना मालामाल।
सूखी नदिया बाह चली, हुए लबालब ताल।।
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जेठ माह में देखिये, कैसा है अंधेर।
लगे सुबह से घूरने, सूरज आँख तरेर।।
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भ्रमर, सुरभि, कोयल, कुसुम, हैं ये सभी गवाह।
तुम मस्ती में जब चलीं, मौसम भटका राह।।
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सूरज पानी ले उड़ा, किया नहीं संकोच।
पानी हमसे माँगती, गौरैया की चोंच।।
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