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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

अक्टूबर ४, सॉनेट, सोरठा, कन्या भोज, स्रग्विणी, दोहा, अर्थालंकार, लघुकथा, नर्मदा स्तुति,

सलिल सृजन अक्टूबर ४
*
सॉनेट
देह
देह पर अधिकार मेरा
यह अदालत कह रही है
गेह पर हक नहीं मेरा
धार कैसी बह रही है?
चोट मन की कौन देखे
लगीं कितनी कब कहाँ पर?
आत्मा को कौन लेखे
वेदना बिसरी तहा कर?
साथ फेरे जब लिए थे
द्वैत तज अद्वैत वरने
वचन भी देकर लिए थे
दूरियाँ किंचित न धरने।
उसे हक किंचित नहीं हो
साथ मेरे जो रहा हो।
४-१०-२०२२
•••
एक रचना
*
अदालत की अदा लत जैसे लुभाती
झूठ-सच क्या है, नहीं पहचान पाती
न्याय करना, कराना है काम जिनका
उन्हीं के हाथों गला सच का दबाती
अर्ज केवल अर्जियाँ ही यहाँ होतीं
फर्ज फर्जी मर्जियाँ ही फसल बोतीं
कोट काले सफेदी को धर दबाते
स्याह के हाथों उजाले मात खाते
गवाहों की गवाही बाजार बनती
कागजों की कागजी जय ख्वाब बुनती
सुपनखा की नाक काटी जेल होगी
एड़ियाँ घिरते रहो नहिं बेल होगी
गोपियों के वसन छीने चलो थाने
गड्डियाँ लाओ मिलेगा तभी जाने
बेच दो घर-खेत, दे दो घूस इसको
कर्ज लेकर चुका दो तुम फीस उसको
पेशियों पर पेशियाँ आगे बढ़ेंगी
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ लड़ती रहेंगी
न्याय का ले नाम नित अन्याय होगा
आस को, विश्वास को उपहार धोखा
वे करेंगे मौज, दीवाला हमारा
मर मिटे हम, पौ उन्हीं की हुई बारा
४-१०-२०२२
•••
सोरठा सलिला
रखें हमेशा ध्यान, ट्रेन रेल पर दौड़ती।
जाते हम लें मान, नगर न आ या जा सकें।।
मकां इमारत जान, घर घरवालों से बने।
जीव आप भगवान, मंदिर में मूरत महज।।
ब्रह्म कील पहचान, माया चक्की-पाट हैं।
दाना जीव समान, बचे कील से यदि जुड़े।।
४-१-२०२२
•••
विमर्श-
कन्या भोज
*
नव दुर्गा पर्व शक्ति आराधना का पर्व है। सृष्टि अथवा प्रकृति की जन्मदात्री शक्ति के ९ रूपों की उपसना पश्चात् ९ कन्याओं को उनका प्रतिनिधि मानकर पूजने तथा नैवेद्य ग्रहण करने की परंपरा चिरकालिक तथा सर्व मान्य है। कन्या रजस्वला होने के पूर्व तक की बालिकाओं के पूजन के पीछे कारण यह है की तब तक उनमें काम भावनाओं का विकास न होने से वे निष्काम होती हैं। कन्या की आयु तथा नाम: २- कुमारी, ३- त्रिदेवी, ४- कल्याणी, ५- रोहिणी, ६- कालिका, ७-चंडिका, ८- शांभवी, ९- दुर्गा, १० सुभद्रा। बालिका की आयु के अनुसार नाम लेकर प्रणाम करें ''ॐ .... देवी को प्रणाम''। स्नान कर स्वच्छ वस्त्रधारी कन्या के चरण धो-पोंछ कर, आसन पर बैठाकर माथे पर चंदन, रोली, अक्षत (बिना टूटे चावल), पुष्प आदि से तिलक कर चरणों का महावर से श्रृंगार कर भर पेट भोजन (खीर, पूड़ी, हलुआ, मेवा, फल आदि) कराएँ। खट्टी, कड़वी, तीखी, बासी सामग्री वर्जित है। कन्याओं के साथ लँगूरे (लांगुर) अर्थात अल्प वय के दो बालकों को भी भोजन कराया जाता है। कन्या के हाथ में मौली (रक्षा सूत्र) बाँधकर, तिलक कर उपहार (श्रृंगार अथवा शिक्षा संबंधी सामग्री, कुछ नगद राशि आदि ) देकर चरण स्पर्श कर, आशीर्वाद लेकर बिदा किया जाता है।
कन्या भोज का महत्त्व सामाजिकता, सौहार्द्र, समरसता तथा सुरक्षा भावना की वृद्धि है। मेरे पिता श्री चिरस्मरणीय राजबहादुर वर्मा जेलर तथा जेल अधीक्षक रहे। वे अपने निवास पर स्वयं अखंड रामायण, कन्या पूजन तथा कन्या भोज का आयोजन करते थे। अधिकारीयों व् कर्मचारियों की कन्याओं को समान आदर, भोजन व उपहार दिया जाता था। जाती, धर्म का भी भेद-भाव नहीं था। जेल कॉलोनी की सभी कन्याएँ संख्या कितनी भी हो आमंत्रित की जाती थीं। पिता जी जेल में बंद दुर्दांत अपराधियों को प्रहरियों की देख-रेख में बुलवाकर उनसे भी कन्या (मेरी बहिनें भी होती थीं) पूजन कराते थे। इस अवसर पर वे बंदी भावुक होकर फूट-फूटकर रोते थे, आगे कभी अपराध न करने की कसम खाते थे। उन बंदियों-प्रहरियों को भी प्रसाद दिया जाता था। सेवा निवृत्ति के पश्चात् माँ श्रीमती शांति देवी घर में कन्या भोज के साथ मंदिरों के बाहर बैठी भिक्षुणियों को भी प्रसाद भिजवाती थीं।
वास्तव में संपन्न परिवारों को हर दिन दरिद्र भोजन करना चाहिए। अनाथालय, वृद्धाश्रम, महिलाश्रम, अस्पताल आदि से समय तय कर दिनांक तथा समय तय कर हर माह एक बार भोजन कराएँ तो कोइ भूखा न रहे। शास्त्रों के अनुसार इससे मातृ-पितृ ऋण से मुक्ति मिलती तथा काल दोष शांत होता है। कन्या भोजन को धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव के पर्व के रूप में नवाचारित किया जाना आवश्यक है।
***
कार्यशाला: ४ / १० / १८
एक गीत दो छंद
*
प्रस्तुत है माननीय सुधा अहलूवालिया जी द्वारा रचित एक गीत।
सुधा जी की अनुमति से इस गीत में छंद की पहचान का प्रयास किया जा रहा है।
छंद वाचिक स्रग्विणी ( सम मात्रिक ) मापनी - २१२ २१२ २१२ २१२
------------------
है नहीं आसरा अब दिवा-कोण का। २१२ २१२ १११२ २१२
धुन्ध छाई हुई रवि-किरण मौन है। २१२ २१२ १११११ २१२
कौन जाने कहाँ जा रही ये डगर- २१२ २१२ २१२ २१११
कौन जाने किधर अब खड़ा कौन है॥ २१२ १११११ १११२ २१२
है नहीं .....
आँख पानी भरी आज तर हो गई। २१२ २१२ २१११ २१२
चुप अधर हो गए गुम डगर हो गई। १११११ २१२ १११११ २१२
घर हुए आज कैसे किसे है पता- १११२ २१२ २१२ २१२
कौन छोटा यहाँ अब बड़ा कौन है॥ २१२ २१२ १११२ २१२
है नहीं .....
आ चलें प्रिय वहीं दूर कोई न हो। २१२ १११२ २१२ २१२
जागती हो दिशा, साँझ सोई न हो। २१२ २१२ २१२ २१२ *
है विरह वेदना जो मनों में दबी- २११११ २१२ २१२ २१२
आ प्रिये बाँट लें अब अड़ा कौन है॥ २१२ २१२ १११२ २१२
है नहीं .....
मैं पवन का प्रिये शुचि सजल वेग हूँ। २१११ २१२ २१२ २१२
तू सुमन मैं प्रिये बस सरस नेग हूँ। २१११ २१२ १११११ २१२
हैं समाहित सुनों प्रिय हुए एक हम- २१२ १११२ १११२ २१११
देख शुचिता सुभग अब लड़ा कौन है २१११ २१११ १११२ २१२
है नहीं .....
*
स्रग्विणी छन्द का विधान ४ x रगण अर्थात ४ (२१२) है.
तारांकित * पंक्ति के अलावा किसी भी पंक्ति में इस विधान का पूरी तरह पालन नहीं किया गया है।
स्रग्विणी का उदाहरण देखें -
अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिं.
इसकी मात्रा गणना देखें -
अच्युतं २१२ केशवं २१२ रामना २१२ रायणं२१२. कृष्ण दा २१२ मोदरं २१२ वासुदे २१२ वं हरिं २१२.
यहाँ गण-व्यवस्था का शत-प्रतिशत पालन किया गया है। स्पष्ट है कि दो लघु को गुरु या गुरु को दो लघु नहीं किया जा सकता किंतु गण का अंत या आरंभ शब्द के बीच में हो सकता है। ऐसे स्थिति में पढ़ते समय अल्प विराम गण के संधि स्थल पर होता है।
क्या हिंदी में छंद रचते समय भी ऐसा ही नहीं किया जाना चाहिए? आइए, उक्त गीत के प्रथम पद को स्रग्विणी छंद में रूपांतरित करें-
रे! नहीं आसरा है दिवा-कोण का।
धुन्ध छाई हुई सूर्यजा मौन है।
कौन जाने कहाँ जा रही राह ये-
कौन जाने कहाँ तू खड़ा कौन है॥
यदि रचनाकार आरम्भ से ही सजग हो तो शुद्ध छंद में रचना की जा सकती है।
यह सरस गीत अरुण छंद के भी निकट है। जिन्हें रुचि हो वे अरुण और स्रग्विणी छंदों का तुलनात्मक अध्ययन (समानता और असमानता) कर सकते हैं।
इस अध्ययन हेतु अपना गीत उपलब्ध करने के लिए सुधाजी के प्रति पुन: आभार।
***
दोहा सलिला
*
लिखा आज बिन लिखे कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज।
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज।।
*
अर्थ न रहे अनर्थ में, अर्थ बिना सब व्यर्थ।
समझ न पाया किस तरह, समझा सकता अर्थ।।
*
सजे अधर पर जब हँसी, धन्य हो गयी आप।
पैमाना कोई नहीं, जो खुशियाँ ले नाप।।
*
सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग?
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग।।
*
दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल।
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल।।
*
प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान।
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान।।
*
कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग।
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग।।
*
कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख।
काम मैं करूँ द्रौपदी, का होता उल्लेख?
*
मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर।
फटक न; सटके सफलता, अटके; करिए गौर।।
*
३.८.२०१८
मुक्तक एक-रचनाकार दो
*
बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर
***
: अलंकार चर्चा १६ :
अर्थालंकार :
*
रूपायित हो अर्थ से, वस्तु चरित या भाव
तब अर्थालंकार से, बढ़ता काव्य-प्रभाव
कारण-कार्य विरोध या, साम्य बने आधार
तर्क श्रृंखला से 'सलिल', अर्थ दिखे साकार
जब वस्तु, भाव, विचार एवं चरित्र का रूप-निर्धारण शब्दों के चमत्कार के स्थान पर शब्दों के अर्थ से किया जाता है तो वहाँ अर्थालंकार होता है. अर्थालंकार के निरूपण की प्रक्रिया का माध्यम सादृश्य, वैषम्य, साम्य, विरोध, तर्क, कार्य-कारण संबंध आदि होते हैं.
अर्थालंकार के प्रकार-
अर्थालंकार मुख्यत: ७ प्रकार के हैं
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार
६. लोकनयायमूलक अर्थालंकार
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार:
इस अलंकार का आधार किसी न किसी प्रकार (व्यक्ति, वस्तु, भाव,विचार आदि) की समानता होती है. सबसे अधिक व्यापक आधार युक्त सादृश्य मूलक अलंकार का उद्भव किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का निरूपण करने के लिये समान गुण-धर्म युक्त अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि से तुलना अथवा समानता बताने से होता है. प्रमुख साधर्म्यमूलक अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति, पटटीप, भ्रान्ति, संदेह, स्मरण, अपन्हुति, व्यतिरेक, दृष्टान्त, निदर्शना, समासोक्ति, अन्योक्ति आदि हैं. किसी वस्तु की प्रतीति कराने के लिये प्राय: उसके समान किसी अन्य वस्तु का वर्णन किया जाता है. किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का वर्णन करने से इष्ट अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का चित्र स्पष्ट कराया जाता है. यह प्रक्रिया २ वर्गों में विभाजित की जा सकती है.
अ. गुणसाम्यता के आधार पर
आ. क्रिया साम्यता के आधार पर तथा
इनके विस्तार अनेक प्रभेद सदृश्यमूलक अलंकारों में देखे जा सकते हैं. गुण साम्यता के आधार पर २ रूप देखे जा सकते हैं:
१. सम साम्य-वैषम्य मूलक- समानता-असमानता की बराबरी हो. जैसे उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण, संदेह, प्रतीप आदि अलंकारों में.
२. साम्य प्रधान - अत्यधिक समानता के कारण भेदहीनता। यह भेद हीनता आरोप मूलक तथा समाहार मूलक दो तरह की होती है.
इनके २ उप वर्ग क. आरोपमूलक व ख समाहार या अध्यवसाय मूलक हैं.
क. आरोपमूलक अलंकारों में प्रस्तुत (उपमेय) के अंदर अप्रस्तुत (उपमान) का आरोप किया जाता है. जैसे रूपक, परिणाम, भ्रांतिमान, उल्लेख अपन्हुति आदि में.
समाहार या अध्यवसाय मूलक अलंकारों में उपमेय या प्रस्तुत में उपमान या अप्रस्तुत का ध्यवसान हो जाता है. जैसे: उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि.
ख. क्रिया साम्यता पर आधारित अलंकारों में साम्य या सादृश्य की चर्चा न होकर व्यापारगत साम्य या सादृश्य की चर्चा होती है. तुल्ययोगिता, दीपक, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, शक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप आदि अलंकार इस वर्गान्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं. इन अलंकारों में सादृश्य या साम्य का स्वरुप क्रिया व्यापार के रूप में प्रगट होता है. इनमें औपम्य चमत्कार की उपस्थिति के कारण इन्हें औपम्यगर्भ भी कहा जाता है.
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का आधार दो व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का अंतर्विरोध होता है. वस्तु और वास्तु का, गुण और गुण का, क्रिया और क्रिया का कारण और कार्य का अथवा उद्देश्य और कार्य का या परिणाम का विरोध ही वैशान्य मूलक अलंकारों का मूल है. प्रमुख वैषम्यमूलक अलंकार विरोधाभास, असंगति, विभावना, विशेषोक्ति, विषम, व्याघात, अल्प, अधिक आदि हैं.
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का मूल आधार क्रमबद्धता है. एकावली, करणमाला, मालदीपक, सार आदि अलंकार इस वर्ग में रखे जाते हैं.
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का उत्स तर्कप्रवणता में अंतर्निहित होती है. काव्यलिंग तथा अनुमान अलंकार इस वग में प्रमुख है.
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार-
इस वर्ग में परिसंख्या, यथा संख्य, तथा समुच्चय अलंकार आते हैं.
६. लोकन्यायमूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों की प्रतीति में लोक मान्यताओं का योगदान होता है. जैसे तद्गुण, अतद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सामान्य ततः विशेषक अलंकार आदि.
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार- किसी कथ्य के पीछे छिपे अन्य कथ्य की प्रतीति करने वाले इस अलंकार में प्रमुख सूक्षम, व्याजोक्ति तथा वक्रोक्ति हैं.
===
कविता
एक शब्द:
*
एक कविता पंक्ति पढ़ी
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
लाश तो निर्जीव होती है
जो बोल नहीं सकती,
यह कैसे बोल दी?
मेडिकल साइंस को चुनौती या
गलत मृत्यु प्रमाणपत्र का मामला?
सी बी आई जाँच जरूरी या
जाँच कमीशन?
समाचारी दुनिया के लिये
टी आर पी बढ़ाने का मौक़ा,
दलीय प्रवक्ताओं के लिये
बेसिर-पैर की आग उगलती
धाँसू छवि बनाने का सुनहरा अवसर,
संसद का काम-काज रुका,
धरना-प्रदर्शन,
पुलिसिया मार,
अख़बारों में सनसनीखेज ख़बरें,
सामाजिक न्याय की दुहाई,
निर्बलों के शोषण की व्यथा-कथा,
किसी ने कहा: 'लाश युवती की थी',
बहसों में नया मोड़,
महिला विमर्शवादी सक्रिय,
महिला आयोगों द्वारा पत्रकार वार्ताएँ,
जुलूस, नारे, पत्थरबाजी,
पुलिस कार्यवाही,
नेताओं के दौरे,
अशांति के पीछे
विदेशी शक्तियों का हाथ,
धार्मिक नेताओं के बयान-
'हिन्दू पर अत्याचार नहीं सहा जाएगा,
अल्पसंख्यक का शमन,
दलित का दमन,
मूलनिवासी की दुर्दशा,
प्रधान मंत्री मौन?
प्रति प्रशन ६७ साल का
हिसाब देगा कौन?
केंद्र की घोषणा:
लाख करोड़ का अनुदान.
राज्य सरकार प्रतिक्रिया:
मृतक और जनगण का अपमान.
चकित-दिग्भ्रमित आम आदमी
पैर में अधटूटी चप्पल
आँख में नमी
अटकता-भटकता
रुकता-झुकता, सँकुचता-सिसकता
निकला सत्य की खोज में.
पता चला अचल कवि कविता
साहित्य-संपादक की मेज के स्थान पर
गलती से पहुँच गयी थी
समाचार-संपादक की मेज पर
लिखा जाना था
'अधजली एक देह चौराहे पर पडी...'
अनजाने लिखा गया
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
बन गया तिल का ताड़
खड़ा हो गया अफवाहों का झाड़
उठ गया बवंडर।
खोदा पहाड़ निकली चुहिया
सच जानकार रह गया निशब्द
सरे विवाद और फसाद की जड़
महज एक शब्द।
४.१०.२२
***
मुक्तक सलिला:
मंगल पर पग रख दिया
नाम देश का कर दिया
इस रो में कोई नहीं-
इसरो ने साबित किया।
रो = कतार, पंक्ति
*
शक्ति पर्व है, भक्ति पर्व है
सीमा पर जो घटित हो रहा
उसे देखकर दिल रोता है
क्यों निवेश ही साध्य-सर्व है?
*
कोई न ले चीनी सामान
'लो देशी' अब हो अभियान
घाटा करें समाप्त तुरत
लेन-देन हो एक समान
*
दोहा मुक्तक:
आये आकर चले गए, मिटी नहीं तकरार
दिलविहीन दिलवर रहा, बेदिल था दिलदार
समाचार-फोटो कहें, खूब मिले थे हाथ
धन्यवाद ये कह रहे, वे कहते आभार
*
लघुकथा:
मुखडा देख ले
*
कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी. गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे. आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- ' बुरा ही देखो'.
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'.
' बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी.
' अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो?] संपादक जी ने डपटते हुए पूछा.
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है. कोई कमी रह गई हो तो बताएं.'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
***
लघुकथा:
एकलव्य
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- 'काश वह आज भी होता.'
४.१०.२०१४
***
नर्मदा स्तुति
शिवतनया सतपुड़ा-विन्ध्य की बहिना सुगढ़ सलौनी
गोद अमरकंटक की खेलीं, उछल-कूद मृग-छौनी
डिंडोरी में शैशव, मंडला में बचपन मुस्काया
अठखेली कैशोर्य करे, संयम कब मन को भाया?
गौरीघाट किया तप, भेड़ाघाट छलांग लगाई-
रूप देखकर संगमरमरी शिला सिहर सँकुचाई
कलकल धार निनादित हरती थकन, ताप पल भर में
सांकल घाट पधारे शंकर, धारण जागृत करने
पापमुक्त कर ब्रम्हा को ब्रम्हांड घाट में मैया
चली नर्मदापुरम तवा को किया समाहित कैंया
ओंकारेश्वर को पावन कर शूलपाणी को तारा
सोमनाथपूजक सागर ने जल्दी आओ तुम्हें पुकारा
जीवन दे गुर्जर प्रदेश को उत्तर गंग कहायीं
जेठी को करने प्रणाम माँ गंगा तुम तक आयीं
त्रिपुर बसे-उजड़े शिव का वात्सल्य-क्रोध अवलोका
बाणासुर-दशशीश लड़े चुप रहीं न पल भर टोका
अहंकार कर विन्ध्य उठा, जन-पथ रोका-पछताया
ऋषि अगस्त्य ने कद बौनाकर पल में मान घटाया
वनवासी सिय-राम तुम्हारा आशिष ले बढ़ पाये
कृष्ण और पांडव तव तट पर बार-बार थे आये
परशुराम, भृगु, जाबाली, वाल्मीक हुए आशीषित
मंडन मिश्र-भारती गृह में शुक-मैना भी शिक्षित
गौरव-गरिमा अजब-अनूठी जो जाने तर जाए
मैया जगततारिणी भव से पल में पार लगाए
कर जोड़े 'संजीव' प्रार्थना करे गोद में लेना
मृण्मय तन को निज आँचल में शरण अंत में देना
४-१०-२०१२
***
गीत:
आईने अब भी वही हैं
*
आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें नहीं.
और हिम्मत हारकर
घुटने कभी टेकें नहीं...
*
बेहतर शंका भुला दें,
सोचकर ना सिर धुनें.
और होगा अधिक बेहतर
फिर नये सपने बुनें.
कौन है जिसने कहे
सुनकर कभी किस्से नहीं.
और मौका मिला तो
मारे 'सलिल' घिस्से नहीं...
*
भूलकर निज गलतियाँ
औरों को देता दोष है.
सच यही है मन रहा
हरदम स्वयं मदहोश है.
गल्तियाँ कर कर छिपाईं
दण्ड खुद भरते नहीं.
भीत रहते किन्तु कहते
हम तनिक डरते नहीं....
*
आइनों का दोष क्या है?
पूछते हैं आईने.
चुरा नजरें, फेरकर मुँह
सिर झुकाया भाई ने.
तिमिर की करते शिकायत
मौन क्यों धरते नहीं?'सलिल' बनकर दिया जलकर
तिमिर क्यों हरते नहीं??...
४-१०-२०११
***
मुक्तिका :
सिखा गया
*
जिसकी उँगली थामी चुप रहना सिखा गया.
जिसने उँगली थामी चट चलना सिखा गया..
दर्पण से बात हुई तो खुद को खुद देखा.
कोई न पराया है, जग अपना सिखा गया..
जब तनी तर्जनी तो, औरों के दोष गिने.
तब तीन उँगलियों का सच जगना सिखा गया..
आते-जाते देखा, हर हाथ मिला खाली.
बोया-पाया-खोया ही तजना सिखा गया..
ढाई आखर का सच, कोई न पढ़ा पाया.
अनपढ़ न कबीरा था, मन पढ़ना सिखा गया..
जब हो विदेह तब ही, हो पात्र प्रेम के तुम.
यमुना रज का कण-कण, रस चखना सिखा गया.
जग नेह नर्मदा है, जग अवगाहन कर लो.
हर पंकिल पग-पंकज, उठ चलना सिखा गया..
नन्हा सा तिनका भी जब पड़ा नयन में तो.
सब वहम अहम् का धो, रो-चुपना सिखा गया..
रे 'सलिल' न वारी क्यों, बनवारी पर है तू?
सुन बाँस मुरलिया बन, बज सुनना सिखा गया..
***
मुक्तिका:
किस्मत को मत रोया कर.
*
किस्मत को मत रोया कर.
प्रति दिन फसलें बोया कर..
श्रम सीकर पावन गंगा.
अपना बदन भिगोया कर..
बहुत हुआ खुद को ठग मत
किन्तु, परन्तु, गोया कर..
मन-पंकज करना है तो,
पंकिल पग कुछ धोया कर..
कुछ दुनियादारी ले सीख.
व्यर्थ न पुस्तक ढोया कर..
'सलिल' देखने स्वप्न मधुर
बेच के घोड़ा सोया कर..
४-१०-२०१०
***
विशेष लेख:
देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर
रोम जल रहा... नीरो बाँसुरी बजाता रहा...
-: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-
किसी देश का नव निर्माण करने में अभियंताओं से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका और किसी की नहीं हो सकती. भारत का दुर्भाग्य है कि यह देश प्रशासकों और नेताओं से संचालित है जिनकी दृष्टि में अभियंता की कीमत उपयोग कर फेंक दिए जानेवाले सामान से भी कम है. स्वाधीनता के पूर्व अंग्रेजों ने अभियंता को सर्वोच्च सम्मान देते हुए उन्हें प्रशासकों पर वरीयता दी. सिविल इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को 'सर' का सर्वोच्च सम्मान देकर धन्यता अनुभव की.
स्वतंत्रता के पश्चात् अभियंताओं के योगदान ने सुई तक आयत करनेवाले देश को विश्व के सर्वाधिक उन्नत देशों की टक्कर में खड़ा होने योग्य बना दिया पर उन्हें क्या मिला? विश्व के भ्रष्टतम नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों ने अभियंता का सतत शोषण किया. सभी अभियांत्रिकी संरचनाओं में प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी बना दिए गये. अनेक निगम बनाये गये जिन्हें अधिकारियों और नेताओं ने अपने स्वार्थ साधन और आर्थिक अनियमितताओं का केंद्र बना दिया और दीवालिया हो जाने पा भ्रष्टाचार का ठीकरा अभियंताओं के सिर पर फोड़ा. अपने लाड़ले गुंडों को ठेकेदार बनाकर, उनके लाभ के अनुसार नियम बनाकर, प्रशासनिक दबाब बनाकर अभियंताओं को प्रताड़ित कर अपने मन मर्जी से काम करना-करना और न मानने पर उन पर झूठे आरोप लगाना, उनकी पदोन्नति के रास्ते बंद कर देना, वेतनमान निर्धारण के समय कम से कम वेतनमान देना जैसे अनेक हथकंडों से प्रशासन ने अभियंताओं का न केवल मनोबल कुचल दिया अपितु उनका भविष्य ही अंधकारमय बना दिया.
इस देश में वकील, शिक्षक,चिकित्सक और बाबू सबके लिये न्यूनतम योग्यताएँ निर्धारित हैं किन्तु ठेकेदार जिसे हमेशा तकनीकी निर्माण कार्य करना है, के लिये कोई निर्धारित योग्यता नहीं है. ठेकेदार न तो तकनीक जानता है, न जानना चाहता है, वह कम से कम में काम निबटाकर अधिक से अधिक देयक चाहता है और इसके लिये अपने आका नेताओं और अफसरों का सहारा लेता है. कम वेतन के कारण आर्थिक अभाव झेलते अभियंता के सामने कार्यस्थल पर ठेकेदार के अनुसार चलने या ठेकेदार के गुर्गों के हाथों पिटकर बेइज्जत होने के अलावा दूसरा रस्ता नहीं रहता. सेना और पुलिस के बाद सर्वाधिक मृत्यु दर अभियंताओं की ही है. परिवार का पेट पलने के लिये मरने-मिटाने के स्थान पर अभियंता भी समय के अनुसार समझौता कर लेता है और जो नहीं कर पाता जीवन भार कार्यालय में बैठाल कर बाबू बना दिया जाता है.
शासकीय नीतियों की अदूरदर्शिता का दुष्परिणाम अब युवा अभियंताओं को भोगना पड़ रहा है. सरकारों के मंत्रियों और सचिवों ने अभियांत्रिकी शिक्षा निजी हाथों में देकर अरबों रुपयों कमाए. निजी महाविद्यालय इतनी बड़ी संख्या में बिना कुछ सोचे खोल दिए गये कि अब उनमें प्रवेश के लिये छात्रों का टोटा हो गया है. दूसरी तरफ भारी शुल्क देकर अभियांत्रिकी उपाधि अर्जित किये युवाओं के सामने रोजगार के लाले हैं. ठेकेदारी में लगनेवाली पूंजी के अभाव और राजनैतिक संरक्षण प्राप्त गुंडे ठेकेदारों के कारण सामान्य अभियंता इस पेशे को जानते हुए भी उसमें सक्रिय नहीं हो पाता तथा नौकरी तलाशता है. नौकरी में न्यूनतम पदोन्नति अवसर तथा न्योंतम वेतनमान के कारण अभियंता जब प्रशासनिक परीक्षाओं में बैठे तो उन्हें सर्वाधिक सफलता मिली किन्तु सब अभियंता तो इन पदों की कम संख्या के कारण इनमें आ नहीं सकते. फलतः अब अभियंता बैंकों में लिपिकीय कार्यों में जाने को विवश हैं.
गत दिनों स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की लिपिकवर्गीय सेवाओं में २०० से अधिक अभियांत्रिकी स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त तथा ३८०० से अधिक अभियांत्रिकी स्नातक चयनित हुए हैं. इनमें से हर अभियंता को अभियांत्रिकी की शिक्षा देने में देश का लाखों रूपया खर्च हुआ है और अब वे राष्ट्र निर्माण करने के स्थान पर प्रशासन के अंग बनकर देश की अर्थ व्यवस्था पर भार बन जायेंगे. वे कोई निर्माण या कुछ उत्पादन करने के स्थान पर अनुत्पादक कार्य करेंगे. वे देश की राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के स्थान पर देश का राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति व्यय बढ़ाएंगे किन्तु इस भयावह स्थिति की कोई चिंता नेताओं और अफसरों को नहीं है.
***
स्मृति गीत-
पितृव्य हमारे नहीं रहे
*
वे
आसमान की
छाया थे.
वे
बरगद सी
दृढ़ काया थे.
थे-
पूर्वजन्म के
पुण्य फलित
वे,
अनुशासन
मन भाया थे.
नव
स्वार्थवृत्ति लख
लगता है
भवितव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
हर को नर का
वन्दन थे.
वे
ऊर्जामय
स्पंदन थे.
थे
संकल्पों के
धनी-धुनी-
वे
आशा का
नंदन वन थे.
युग
परवशता पर
दृढ़ प्रहार.
गंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
शिव-स्तुति
का उच्चारण.
वे राम-नाम
भव-भय तारण.
वे शांति-पति
वे कर्मव्रती.
वे
शुभ मूल्यों के
पारायण.
परसेवा के
अपनेपन के
मंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
२२-९-२००९
***

बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

अक्टूबर २, नवगीत, उत्सव, लघुकथा, गाँधी, शब्दालंकार, शास्त्री, सॉनेट, गोदना

सलिल सृजन अक्टूबर २
*
सॉनेट
गोदना
गोद ना लें हम कहो क्यों
मर रहा है गोदना अब
गोद लेकर बचा लें सब
विरासत को दें नहीं खो।
बिंदु रेखा वृत्त मिलते
बनाते आकृति नवेली
सुखद ज्यों पाई सहेली
हुए सज्जित अंग खिलते।
अनूठा जेवर, कला है
सीख लें इसको बनाना
लक्ष्य ठानें है सिखाना
चिकित्सा भी गोदना है।
गोदना है कला अनुपम
गोदना में मन सके रम।
२.१०.२०२४
•••
हास्य रस
चंद्रमा पर
ढूंढते रह जाओगे!!
लुगाईयाँ का घाघरा
खिचड़ी का बाजरा
सिरसम का साग
सर पै पाग
आँगण मै ऊखल
कूण मै मूसल
ढूंढते रह जाओगे!!
घरां मै लस्सी
लत्ते टाँगण की रस्सी
आग चूल्हे की
संटी दुल्हे की
कोरडा होली का
नाल मौली का
पहलवानां का लंगोट
हनुमानजी का रोट
ढूंढते रह जाओगे!!
घूंघट आली लुगाई
गाँम मै दाई
लालटेण का चानणा
बनछटीयाँ का बालणा
बधाई की भेल्ली
गाम मै हेल्ली
घरां मै बुड्ढे
बैठकाँ मै मुड्ढे
ढूंढते रह जाओगे!!
बास्सी रोटी अर अचार
गली मै घूमते लुहार
खांड का कसार
टींट का अचार
काँसी की थाली
डांगरां के पाली
बीजणा नौ डांडी का
दूध दही घी हांडी का
रसोई मै दरात
बालकां की दवात
ढूंढते रह जाओगे!!
बटेऊआँ की शान
बहुआं की आन
पील गर्मियां मैं
गूँद सर्दियाँ मैं
ताऊ का हुक्का
ब्याह का रुक्का
बोरला नानी का
गंडासा सान्नी का
कातक का नहाण
मूंज के बाण
ढूंढते रह जाओगे !!
चूल आली जोड़ी [ किवाड़ ]
गिनती मै कौड़ी
कोथली साम्मण की
रौनक दाम्मण की
पाटड़े पै नहाणा
पत्तल पै खाणा
छात्याँ मै खडंजे अर कड़ी
गुग्गा पीर की छड़ी
ढूँढते रह जाओगे !!
लूणी घी की डली
गवार की फली
पाणी भरे देग
बाहण-बेटियां के नेग
मोटे सूत की धोत्ती
घी बूरा अर रोटी
पीले चावलाँ का न्यौता
सात पोतियाँ पै पोत्ता
धौण धड़ी के बाट
मूँज - जेवड़ी की खाट
घी का माट
भुन्दे होए टाट
ढूंढते रह जाओगे!!
गुल्ली - डंडे का खेल
गुड की सेळ
ब्याह के बनवारे
सुहागी मैं छुहारे
ताँगे की सवारी
दूध की हारी
पेचदार पगड़ी
घोट्टे आली चुन्दडी
सर पै भरोट्टी
कमर पै चोट्टी
ढूढ़ते रह जाओगे !!
कासण मांजन का जूणा
साधूआँ का बलदा धुणा
गुग्गे का गुलगला
बालक चुलबला
बोरले आली ताई
सूत की कताई
मुल्तानी अर गेरू
बलध अर रेहडू
कमोई अर करवे
चा - पाणी के बरवे
ब्याह मै खोड़िया
बालकां का पोड़िया
ढूंढते रह जाओगे !!
हटड़ी अर आला
बुडकलाँ की माला
दूध पै मलाई
लोगाँ कै समाई
खेताँ मै कोल्हू
नामाँ मै गोल्हू
ढूंढते रह जाओगे
गुड़ की सुहाली
खेताँ मै हाली
हारे की सिलगती आग
ब्याह मै पेठे का साग
हाथ का बँटा बाण
सरगुन्दी आली नाण
हाथ मै झोला
खीर का कचोला
ड्योढ़ी की सोड
बंदडे का मोड़ [सेहरा ]
खेत में बैठ के खाना,
डोल्ला का सिरहाना,
लावणी करती लुगाईया,
पानी प्याती पनहारिया,
डेला नीचे खाट,
भाटा के बाट,
ढूंढते रह जाओगे !!
सिर मैं भौरी
अणपढ़ छौरी
चरमक चूँ की जूती
दुध प्यांण की तूती
मावस की खीर
पहंडे का नीर
गर्मियां मैं राबड़ी
खेताँ मैं छाबड़ी
घरां मैं पौली
कोरडे की होली
चणे के साग की कढी
चाबी तैं चालदी घडी
काबुआ कांसी का
काढ़ा खांसी का
काजल कौंचे की
शुद्धताई चौंके की
गुलगला बरसात का
चूरमा सकरात का
सीठणे लुगाइयाँ के
नखरे हलवाईयाँ के
ढूंढते रह जाओगे !!
***


नवप्रयोग
२. मुक्तक
गाँधी की आँधी चली, लोग थे जागे
सत्याग्रहियों में होड़, कौन हो आगे?
लाठी-डंडों को थाम, सिपाही दौड़े-
जो कायर थे वे पीठ, दिखा झट भागे
*
३. मुक्तिका
था लालबहादुर सा न, दूसरा नेता
रह सत्ता-सुख से दूर, नाव निज खेता
.
अवसर आए अनगिनत, न किंतु भुनाए
वे जिए जनक सम अडिग, न उन सा जेता
.
पाकी छोटा तन देख, समर में कूदे
हिमगिरि सा ऊँचा अजित, मनोबल चेता
.
व्रत सोमवार को करे, देश मिल सारा
अमरीका का अभिमान, कर दिया रेता
.
कर 'जय जवान' उद्घोष, गगन गुंजाया
फिर 'जय किसान' था जोश, नया भर देता
*
असमय ही आया समय, विदा होने का
क्या समझे कोई लाल, विदा है लेता
छंद कार्य शाला :
राधिका छंद
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद।
विधान: यति १३-९, पदांत यगण १२२ , मगण २२२।
अभिनव प्रयोग
गीत
*
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
क्यों अपने ही रह गए,
न सगे; पराए।।
*
तुलसी न उगाई कहाँ,
नवाएँ माथा?
'लिव इन' में कैसे लगे
बहू का हाथा?
क्या होता अर्पण और
समर्पण क्यों हो?
जब बराबरी ही मात्र,
लक्ष्य रह जाए?
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
*
रिश्ते न टिकाऊ रहे,
यही है रोना।
संबंध बिकाऊ बना
चैन मत खोना।।
मिल प्रेम-त्याग का पाठ
न भूल पढ़ाएँ।
बिन दिशा तय किए कदम,
न मंजिल पाए।।
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
*
२-१०-२०१८
***
नवगीत:
*
सत्याग्रह के नाम पर.
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
***
नवगीत:
गाँधी
*
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध
२-१०-२०२०
***
मुक्तक :
सज्जित कर दे रत्न मणि, हिंदी मंदिर आज
'सलिल' निरंतर सृजन कर, हो हिंदी-सर ताज
सरकारों ने कब किया भाषा का उत्थान?
जनवाणी जनतंत्र में, कब कर पाई राज??
२.१०.२०१५
***
लघुकथा:
गाँधी और गाँधीवाद
*
'बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपडा न मिले, तब तक कपडे न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं' -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ऐ उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारन पूछा.
नेताजी बोले- 'बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.'
' चाहे जन प्रतिनिधियों की सविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.' - एक युवा पत्रकार बोल पड़ा. अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.
२-१०-२०१४
***
नवगीत: उत्सव का मौसम
*
उत्सव का
मौसम आया
मन बन्दनवार बनो...
*
सूना पनघट और न सिसके.
चौपालों की ईंट न खिसके..
खलिहानों-अमराई की सुध
ले, बखरी की नींव न भिसके..
हवा विषैली
राजनीति की
बनकर पाल तनो...
*
पछुआ को रोके पुरवाई.
ब्रेड-बटर तज दूध-मलाई
खिला किसन को हँसे जसोदा-
आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..
कंस बिराजे
फिर सत्ता पर
बन बलराम धुनो...
*
नेह नर्मदा सा अविकल बह.
गगनविहारी बन न, धरा गह..
खुद में ही खुद मत सिमटा रह-
पीर धीर धर, औरों की कह..
दीप ढालने
खातिर माटी के
सँग 'सलिल' सनो.
२-१०-११
***

राधिका, उज्ज्वला, भुजंगिनी, जयकारी, गोपी, चौबोला, छंद ,अलंकार, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति,

छंद शाला

*
छंदशाला २५
चौबोला छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस व मनोरम छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत IS ।
लक्षण छंद-
पंद्रह मात्रा के पद रखे।
लघु-गुरु पदों का अंत सखे।।
चौबोला बोला गह हाथ।
शारद सम्मुख हो नत माथ।।
उदाहरण-
बुंदेली खें मीठे बोल।
रस कानन मां देउत घोल।।
बम्बुलिया गा भौतइ नीक।
तुरतइ रचौ अनूठी लीक।।
आल्हा सुन खें मूँछ मरोर।
बैरी सँग अजमाउत जोर।।
मचलें कजरी राई कबीर।
फाग गा रए मलें अबीर।।
सारद माँ खें पूजन जांय।
पैले रेवा खूब नहांय।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २६
गोपी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम व चौबोला छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदादि त्रिकल, पदांत S ।
लक्षण छंद-
पंद्रह कल, त्रिकलादि न भुला।
रास रचा कान्हा मन खिला।।
गोपी-गोप अंत गुरु रखें।
फोड़ें मटकी, माखन चखें।।
उदाहरण-
छंद साथ गोपी मिल रचें।
आदि त्रिकल, अंत गुरु परखें।।
कला दिखा पंद्रह सुख दिया।
नंद-यशोदा हुलसा हिया।।
बंसी बजी गोप सुन गए।
रास रचा प्रभु पुलकित हुए।।
जमुना तट पर खेलें खेल।
होता द्वैताद्वैती मेल।।
कान्हा हर गोपी सह नचे।
नाना रूप मनोहर रचे।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २७
जयकारी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला व गोपी छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SI ।
लक्षण छंद-
अंतिम तिथि कल संख्या मीत।
गुरु-लघु पद का अंत सुनीत।।
जयकारी-चौपई सुनाम।
गति-यति-लय-रस छंद ललाम।।
(संकेत- अंतिम तिथि १५)
उदाहरण-
जयकारी की कला महान।
चमचे सीखें, भरें उड़ान।।
करे वार तारीफ अचूक।
बढ़ती जाती सुनकर भूख।।
कंकर को शंकर कह रहे।
बहती गंगा में बह रहे।।
चरते खेत ईनामों का।
समय है बेईमानों का।।
लेन-देन सौदे कर रहे।
कवि चारण जीकर मर रहे।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २८
भुजंगिनी/गुपाल छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी व जयकारी/चौपई छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत ISI ।
लक्षण छंद-
नचा भुजंगिनी नच गुपाल।
वसु-ऋषि नाचे ले करताल।।
लघु-गुरु-लघु पद अंत रसाल।
छंद रचे कवि, करे कमाल।।
(संकेत- वसु८+ऋषि७=१५)
उदाहरण-
अपना भारत देश महान।
जग करता इसका गुणगान।।
सजा हिमालय सिर पर ताज।
पग धोता सागर दे मान।।
नदियाँ कलकल बह दिन-रात।
पढ़तीं गीता, ग्रंथ, कुरान।।
पंछी कलरव करें हमेश।
नाप नील नभ भरें उड़ान।।
बहा पसीना करें समृद्ध।
देश हमारे श्रमिक-किसान।।
चूसें नेता-अफसर-सेठ।
खून बचाओ कृपानिधान।।
एक-नेक हम करें निसार।
भारत माँ पर अपनी जान।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २९
उज्ज्वला छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई व भुजंगिनी/गुपाल छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SIS ।
लक्षण छंद-
उज्ज्वला रच बात बोलिए।
पंद्रह कला लिए डोलिए।।
गुरु-लघु-गुरु पदांत हो सखे!
बात में रस सलिल घोलिए।।
उदाहरण-
कृष्ण भजें पल पल राधिका।
कान्ह सुमिरे अचल साधिका।।
भव भुला चुप डूब भाव में।
भक्ति हो पतवार नाव में।।
शांत बैठ मन कर साधना।
अमला विमला रख भावना।।
नयन सूर हो बृज देख ले।
कान्ह पद रज शीश लेख ले।।
काम न आई मन कामना।
जब तक मिलता हँस श्याम ना।
२-१०-२०२२
•••
मुक्तिका
*
वो ही खुद को तलाश पाया है
जिसने खुद को खुदी भुलाया है
जो खुदी को खुदा में खोज रहा
वो खुदा में खुदी समाया है
आईना उसको क्या दिखाएगा
जिसने कुछ भी नहीं छिपाया है
जो बहा वह सलिल रहा निर्मल
जो रुका साफ रह न पाया है
देखता है जो बंदकर आँखें
दीप हो उसने तम मिटाया है
है कमालों ने क्या कमाल किया
आ कबीरों को बेच-खाया है
मार गाँधी को कह रहे बापू
झूठ ने सत्य को हराया है
***
छंद कार्य शाला :
राधिका छंद १३-९
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद.
विधान: यति १३-९, पदांत यगण १२२ , मगण २२२
उदाहरण:
१.
जिसने हिंदी को छोड़, लिखी अंग्रेजी
उसने अपनी ही आन, गर्त में भेजी
निज भाषा-भूषा की न, चाह क्यों पाली?
क्यों दुग्ध छोड़कर मय, प्याले में ढाली
***
: अलंकार चर्चा १५ :
शब्दालंकार : तुलना और अंतर
*
शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार
यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग
साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत
शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.
अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:
समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
*
अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)
आ. लाटानुप्रास और यमक:
समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
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ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)
इ. यमक और श्लेष:
समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)
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चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)
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ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:
समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
'पहन लो चूड़ी', कहा तो, हो गयी नाराज
ब्याहता से कहा ऐसा क्यों न आई लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)
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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

अक्टूबर १, गीत, हिंदी, यास्मीन, पुनरुक्तवदाभास, सॉनेट, दुर्गा, वृद्ध दिवस

सलिल सृजन अक्टूबर १

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वैश्विक वृद्ध दिवस पर गीत • जो थक-चुका वृद्ध वह ही है अपना मन अब भी जवान है अगिन हौसले बहुत जान है... • जब तक श्वासा, तब तक आशा पल में तोला, पल में माशा कटु झट गुटको, बहुत देर तक मुँह में घुलता रहे बताशा खुश रहना, खुश रखना जाने जो वह रवि सम भासमान है उसका अपना आसमान है... • छोड़ बड़प्पन बनकर बच्चा खुद को दे तू खुद ही गच्चा मिले दिलासा झूठी भी तो ले सहेज कह जुमला सच्चा लेट बिछा धरती की चादर आँख मुँदे गायब जहान है आँख खुले जग भासमान है... • गिनती कर किससे क्या पाया? जोड़ कहाँ क्या लुटा गँवाया? भुला पहाड़ा संचय का मन जोड़ा छूटा काम न आया काम सभी कर फल-इच्छा बिन भुला समस्या, समाधान है गहन तिमिर ही नव विज्ञान है १.१०.२०२४
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सॉनेट
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रतजगा कर किताब को पढ़ना
पंखुड़ी गर गुलाब की पाओ
इश्किया गजल मौन रह गाओ
ख्वाब में ख्वाब कुछ नए गढ़ना।
मित्र का चित्र हृदय में मढ़ना
संग दिल संगदिल न हो जाओ
बाँह में चाह को सदा पाओ
हाथ में हाथ थाम कर बढ़ना।
बिंदु में सिंधु ज्यों समाया हो
नेह से नेह को समेटें हम
दूर होने न कभी, हम भेंटें।
गीत ने गीत गुनगुनाया हो
प्रेम से प्रेम को लपेटें हम
चाँद को ताक जमीं पर लेटें।
१-१०-२०२३
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आदि शक्ति वंदना
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आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
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पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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: अलंकार चर्चा १४ :
पुनरुक्तवदाभास अलंकार
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जब प्रतीत हो, हो नहीं, काव्य-अर्थ-पुनरुक्ति
वदाभास पुनरुक्त कह, अलंकार कर युक्ति
जहँ पर्याय न मूल पर, अन्य अर्थ आभास.
तहँ पुनरुक्त वदाभास्, करता 'सलिल' उजास..
शब्द प्रयोग जहाँ 'सलिल', ना पर्याय- न मूल.
वदाभास पुनरुक्त है, अलंकार ज्यों फूल..
काव्य में जहाँ पर शब्दों का प्रयोग इस प्रकार हो कि वे पर्याय या पुनरुक्त न होने पर भी पर्याय प्रतीत हों पर अर्थ अन्य दें, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है.
किसी काव्यांश में अर्थ की पुनरुक्ति होती हुई प्रतीत हो, किन्तु वास्तव में अर्थ की पुनरुक्ति न हो तब पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।
२.
आतप-बरखा सह 'सलिल', नहीं शीश पर हाथ.
नाथ अनाथों का कहाँ?, तात न तेरे साथ..
यहाँ 'आतप-बरखा' का अर्थ गर्मी तथा बरसात नहीं दुःख-सुख, 'शीश पर हाथ' का अर्थ आशीर्वाद, 'तात' का अर्थ स्वामी नहीं पिता है.
३.
वे बरगद के पेड़ थे, पंछी पाते ठौर.
छाँह घनी देते रहे, उन सा कोई न और..
यहाँ 'बरगद के पेड़' से आशय मजबूत व्यक्ति, 'पंछी पाते ठौर' से आशय संबंधी आश्रय पाते, छाँह घनी का मतलब 'आश्रय' तथा और का अर्थ 'अन्य' है.
४.
धूप-छाँव सम भाव से, सही न खोया धीर.
नहीं रहे बेपीर वे, बने रहे वे पीर..
यहाँ धूप-छाँव का अर्थ सुख-दुःख, 'बेपीर' का अर्थ गुरुहीन तथा 'पीर' का अर्थ वीतराग होना है.
५.
पद-चिन्हों पर चल 'सलिल', लेकर उनका नाम.
जिनने हँस हरदम किया, तेरा काम तमाम..
यहाँ पद-चिन्हों का अर्थ परंपरा, 'नाम' का अर्थ याद तथा 'काम तमाम' का अर्थ समस्त कार्य है.
६. . देखो नीप कदंब खिला मन को हरता है
यहाँ नीप और कदंब में में एक ही अर्थ की प्रतीति होने का भ्रम होता है किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ नीप का अर्थ है कदंब जबकि कदंब का अर्थ है वृक्षों का समूह।
७. जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता है
यहाँ कनक और सुवर्ण में अर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है किन्तु है नहीं। कनक का अर्थ है सोना और सुवर्ण का आशय है अच्छे वर्ण का।
८. दुल्हा बना बसंत, बनी दुल्हिन मन भायी
दुल्हा और बना (बन्ना) तथा दुल्हिन और बनी (बन्नी) में पुनरुक्ति का आभास भले ही हो किन्तु दुल्हा = वर और बना = सज्जित हुआ, दुल्हिन = वधु और बनी - सजी हुई. अटल दिखने पर भी पुनरुक्ति नहीं है।
९. सुमन फूल खिल उठे, लखो मानस में, मन में ।
सुमन = फूल, फूल = प्रसन्नता, मानस = मान सरोवर, मन = अंतर्मन।
१० . निर्मल कीरति जगत जहान।
जगत = जागृत, जहां = दुनिया में।
११. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।
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मुक्तिका: यास्मीन
*
पूरी बगिया को महकाती यास्मीन चुप
गले तितलियों से लग गाती यास्मीन चुप
*
चढ़े शारदा के चरणों में किस्मतवाली
सबद, अजान, भजन बन जाती यास्मीन चुप
*
जूही-चमेली-चंपा के सँग आँखमिचौली
भँवरे को ठेंगा दिखलाती यास्मीन चुप
*
शीश सुहागिन के सज, दिखलाती है सपने
कानों में क्या-क्या कह जाती यास्मीन चुप
*
पाकीज़ा शबनम से मिलकर मुस्काती है
देख उषा को खिल जाती है यास्मीन चुप
***
मुक्तिका: हिंदी
हिंदी प्रातः श्लोक है, दोपहरी में गीत
संध्या वंदन-प्रार्थना, रात्रि प्रिया की प्रीत
.
हम कैसे नर जो रहे, निज भाषा को भूल
पशु-पक्षी तक बोलते, अपनी भाषा मीत
.
सफल देश पढ़-पढ़ाते, निज भाषा में पाठ
हम निज भाषा भूलते, कैसी अजब अनीत
.
देशवासियों से कहें, ओबामा सच बात
बिन हिंदी उन्नति हुई, सचमुच कठिन प्रतीत
.
हिंदी का ध्वज थामकर, जय भारत की बोल
लानत उन पर दास जो, अंग्रेज़ी के क्रीत
.
हम स्वतंत्र फिर क्यों नहीं, निज भाषा पर गर्व
करे 'सलिल', क्यों हम हुए, अंग्रेजी से भीत?
.
पर भाषा मेहमान है, सौंप न तू घर-द्वार
निज भाषा गृह स्वामिनी, अपनाकर पा जीत
***
षटपदी :
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
श्रम कर हों गुणवान, बनेंगे मोदी जैसे
बौने हो जायेंगे सुख-सुविधाएँ पैसे
करें अनुसरण जग में प्रेरित मानव लाखों
श्रम से जय कर जग मुस्कायें आँखों-आँखों
१.१०.२०१५
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गीत:
ज्ञान सुरा पी.…
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ज्ञान सुरा पी बहकें ज्ञानी,
श्रेष्ठ कहें खुद को अभिमानी।
निज मत थोप रहे औरों पर-
सत्य सुनें तो मरती नानी…
*
हाँ में हाँ चमचे करते हैं,
ना पर मिल टूटे पड़ते हैं.
समाधान स्वीकार नहीं है-
सद्भावों को चुभ-गड़ते हैं.
खुद का खुद जयकारा बोलें
कलह करेंगे मन में ठानी…
*
हिंदी की खाते हैं रोटी,
चबा रहे उर्दू की बोटी.
अंग्रेजी के चाकर मन से-
तनखा पाते मोटी-मोटी.
शर्म स्वदेशी पर आती है
परदेशी इनके मन भानी…
*
मोह गौर का, असित न भाये,
लख अमरीश अकल बौराये.
दिखे चन्द्रमा का कलंक ही-
नहीं चाँदनी तनिक सुहाये.
सहज बुद्धि को कोस रहे हैं
पी-पीकर बोतल भर पानी…
१-१०-२०१३
(असितांग = शिव का एक रूप, असित = अश्वेत, काला (शिव, राम, कृष्ण, गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद सभी अश्वेत), असिताम्बुज = नील कमल

अमर = जिसकी मृत्यु न हो. अमर + ईश = अमरीश = देवताओं के ईश = महादेव. वाग + ईश = वागीश।)