स्वार्थ नहीं सर्वार्थ ही, करें सर्व-कल्याण।।
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नियति-प्रकृति का झूमना, शिव नर्तन लें जान।
करें प्रकृति संहार तो, संकट में हो जान।।
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पार्वती पर्वतसुता, शंकर उनके इष्ट।
गिरिजा गिरि-कन्या बसें, वन में करो न नष्ट।
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कंकर में शंकर बसें, कंकर मिलें पहाड़।
झाड़-लता जंगल बनें, बसते सिंह दहाड़।।
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सर्प-वृषभ वन में पलें, हों रुद्राक्ष अनेक।
संग पखेरू-पशु रहें, कीड़े-कृमि सविवेक।।
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मृदा कणों को बांधती, सलिल धार दे सींच।
कली-पुष्प को तितलियां, लें बांहों में भींच।।
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परिपूरक हैं शिवा-शिव, संपूरक भी जान।
आत्म और परमात्म हैं, भेद न किंचित मान।।
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८.१.२०१८
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