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गुरुवार, 25 जनवरी 2018

कार्यशाला: लता यादव - संजीव

कार्यशाला:
एक कविता - दो कवि
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लता यादव
मैं क्या जानूं बड़ी बड़ी गहरी बातों को मैं क्या जानूं मन में उठते जज्बातों को
लहर संग मैं उठती गिरती लहर सदृश ही चाँद पकड़ने निकली पूनम की रातों को
कभी लगे अम्बर में खेले कोई छौना
कभी लगे ये तो है मेरा स्वप्न सलोना
अरे! याद आया बाबा ने दिलवाया जो
अम्बर के हाथों में मेरा वही खिलौना
संजीव
चंदा कूद पड़ा नभ से सरवर में आया
पकड़ा हाथों में, गुम होकर मुझे छकाया
मैं नटखट, वह चंचल कोई हार न माने
रूठ चंद्रिका गयी, गया वह उसे मनाने
हुई अमावस काली मन को तनिक न भाए
बादल जाकर मेरा चंदा फिर ले आए
अब न चंद्रिका से मैं झगड़ा कभी करूँगी
स्नेह सलिल तट लता बनूँगी, खूब खिलूँगी
लता
हौले से जो लहर उठी नभ से टकराई
चंदा की कोई युक्ति फिर काम न आई
संजीव
झिलमिल-झिलमिल बहा नीर ज्यों चाँदी पिघली
हाथ न आई, झट से फिसल गयी फिर मछली
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