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शनिवार, 18 नवंबर 2017

navgeet

नवगीत:
संजीव
.
बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
भटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
***
२१.४.२०१५
.....




नवगीत
संजीव
.
मैं नहीं नव
गीत लिखता
   उजासों की
   हुलासों की
   निवासों की
   सुवासों की
   खवासों की
   मिदासों की
   मिठासों की
   खटासों की
   कयासों की
   प्रयासों की
कथा लिखता
व्यथा लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
   उतारों की
   चढ़ावों की
   पड़ावों की
   उठावों की
   अलावों की
   गलावों की
   स्वभावों की
   निभावों की
   प्रभावों की
   अभावों की
हार लिखता
जीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
   चाहतों की
   राहतों की
   कोशिशों की
   आहटों की
   पूर्णिमा की
   ‘मावसों की
   फागुनों की
   सावनों की
   मंडियों की
   मन्दिरों की
रीत लिखता
प्रीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता

*
नवगीत  : 
संजीव
*
द्रोण में 
पायस लिये
पूनम बनी,
ममता सनी
आयी सुजाता,
बुद्ध बन जाओ.
.
सिसकियाँ
कब मौन होतीं?
अश्रु
कब रुकते?
पर्वतों सी पीर
पीने
मेघ रुक झुकते.
धैर्य का सागर
पियें कुम्भज
नहीं थकते.
प्यास में,
संत्रास में
नवगीत का
अनुप्रास भी
मन को न भाता.
युद्ध बन जाओ.
.
लहरियां
कब रुकीं-हारीं.
भँवर
कब थकते?
सागरों सा धीर
धरकर
मलिनता तजते.
स्वच्छ सागर सम
करो मंथन
नहीं चुकना.
रास में
खग्रास में
परिहास सा
आनंद पाओ
शुद्ध बन जाओ.
....


नवगीत: 
संजीव
.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए 
.
सघन कोहरा
छटना ही है.
आज न कल
सच दिखना ही है.
श्रम सूरज
निष्ठा की आशा
नव परिभाषा
लिखना ही है.
संत्रासों की कब्र खोदने
कोशिश गेंती
साथ चलायें
घटे विषमता,
समता वरिए
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
.
दल ने दलदल
बहुत कर दिया.
दलविहीन जो
ऐक्य हर लिया.
दीन-हीन को
नहीं स्वर दिया.
अमिया पिया
विष हमें दे दिया.
दलविहीन
निर्वाचन करिए.
नव निर्माणों
का पथ वरिए.
निज से पहले
जन हित धरिए.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
१६.२.२०१५, भांड़ई

.....
नवगीत: 
संजीव
.
सबके 
अपने-अपने मानक 
.
‘मैं’ ही सही
शेष सब सुधरें.
मेरे अवगुण
गुण सम निखरें.
‘पर उपदेश
कुशल बहुतेरे’
चमचे घेरें
साँझ-सवेरे.
जो न साथ
उसका सच झूठा
सँग-साथ
झूठा भी सच है.
कहें गलत को
सही बेधड़क
सबके
अपने-अपने मानक
.
वही सत्य है
जो जब बोलूँ.
मैं फरमाता
जब मुँह खोलूँ.
‘चोर-चोर
मौसेरे भाई’
कहने से पहले
क्यों तोलूँ?
मन-मर्जी
अमृत-विष घोलूँ.
बैल मरखना
बनकर डोलूँ
शर-संधानूं
सब पर तक-तक.
सबके
अपने-अपने मानक
.
‘दे दूँ, ले लूँ
जब चाहे जी.
क्यों हो कुछ
चिंता औरों की.
‘आगे नाथ
न पीछे पगहा’
दुःख में सब संग
सुख हो तनहा.
बग्घी बैठूँ,
घपले कर लूँ
अपनी मूरत
खुद गढ़-पूजूं.
मेरी जय बोलो
सब झुक-झुक.
सबके
अपने-अपने मानक
१७.२.२०१५
.....

नवगीत:
संजीव
*
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे 
.
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें.
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें.
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो.
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें.
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो.
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो.
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो.
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी
मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों.
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है.
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है.
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है.
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है.
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है.
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है.
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो.
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो.
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो.
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
१५-१६.२.२०१५
.....
नवगीत: 
संजीव
*
अहंकार का 
सिर नीचा 
.
अपनेपन की
जीत है
करिए सबसे प्रीत
सहनशीलता
हमेशा
है सर्वोत्तम रीत
सद्भावों के
बाग़ में
पले सृजन की नीत
कलमकार को
भुज-भींचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पद-मद का
जिस पर चढ़ा
उतरा शीघ्र बुखार
जो जमीन से
जुड़ रहा
उसको मिला निखार
दोष न
औरों का कहो
खुद को रखो सँवार
रखो मनोबल
निज ऊँचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पर्यावरण
न मलिन कर
पवन-सलिल रख साफ
करता दरिया-
दिल सदा
दोष अन्य के माफ़
निबल-सबल को
एक सा
मिले सदा इन्साफ
गुलशन हो
मरु गर सींचा
अहंकार का
सिर नीचा
१५.२.२०१५
.....

नवगीत:
संजीव

आश्वासन के उपन्यास 
कब जन गण की 
पीड़ा हर पाये? 

नवगीतों ने व्यथा-कथाएँ 
कही अंतरों में गा-गाकर 
छंदों ने अमृत बरसाया 
अविरल दुःख सह
सुख बरसाकर
दोहा आल्हा कजरी पंथी
कर्म-कुंडली बाँच-बाँचकर
थके-चुके जनगण के मन में
नव आशा
फसलें बो पाये
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नव प्रयास के मुखड़े उज्जवल
नव गति-नव यति, ताल-छंद नव
बिंदासी टटकापन देकर
पार कर रहे
भव-बाधा हर
राजनीति की कुलटा-रथ्या
घर के भेदी भक्त विभीषण
क्रय-विक्रयकर सिद्धांतों का
छद्म-कहानी
कब कह पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
हास्य-व्यंग्य जमकर विरोध में
प्रगतिशीलता दर्शा हारे
विडंबना छोटी कहानियाँ
थकीं, न लेकिन
नक्श निखारे
चलीं सँग, थक, बैठ छाँव में
कलमकार से कहे लोक-मन
नवगीतों को नवाचार दो
नयी भंगिमा
दर्शा पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?

१३-२-२०१५
....


नवगीत:
संजीव
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई. 
चमरौधों में जागी आशा 
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५

.....
नवगीत:
संजीव
.
आम आदमी
हर्ष हुलास
हक्का-बक्का
खासमखास
रपटे
धारों-धार गये
.
चित-पट, पट चित, ठेलमठेल
जोड़-घटाकर हार गये
लेना- देना, खेलमखेल
खुद को खुद ही मार गये
आश्वासन या
जुमला खास
हाय! कर गया
आज उदास
नगदी?
नहीं, उधार गये
.
छोडो-पकड़ो, देकर-माँग
इक-दूजे की खींचो टाँग 
छत पानी शौचालय भूल
फाग सुनाओ पीकर भाँग
जितना देना
पाना त्रास
बिखर गया क्यों
मोद उजास?
लोटा ले
हरि द्वार गये
११-२-२०१५
...
नवगीत : 
संजीव
.
दुनिया 
बहुत सयानी लिख दे 
.
कोई किसी की पीर न जाने 
केवल अपना सच, सच माने 
घिरा तिमिर में 
जैसे ही तू  
छाया भी 
बेगानी लिख दे 
.
अरसा तरसा जमकर बरसा 
जनमत इन्द्रप्रस्थ में  सरसा
शाही सूट 
गया ठुकराया  
आयी नयी 
रवानी लिख दे 
.
अनुरूपा फागुन ऋतु हर्षित 
कुसुम कली नित प्रति संघर्षित 
प्रणव-नाद कर 
जनगण जागा 
याद आ गयी 
नानी लिख दे 
.
भूख गरीबी चूल्हा चक्की 
इनकी यारी सचमुच पक्की 
सूखा बाढ़ 
ठंड या गर्मी 
ड्योढ़ी बाखर 
छानी लिख दे 
सिहरन खलिश ख़ुशी गम जीवन 
उजली चादर, उधड़ी सीवन
गौरा वर  
धर कंठ हलाहल
नेह नरमदा 
पानी लिख दे 
११-२-२०१५ 
....
फाग-नवगीत
संजीव
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजय घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें
१०-२-२०१५ 
...
२०१४ 


नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.

पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
२३-१२-२०१४
.....
नवगीत:
संजीव


*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीयर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की 
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा 
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोर करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
२३-१२-२०१४
***
- संजीव 
काल चक्र का 
महाकाल के भक्त
करो अगवानी 
तपूँ , जड़ाऊँ या बरसूँ 
नाखुश होंगे बहुतेरे 
शोर-शांति
चाहो ना चाहो 
तुम्हें रहेंगे घेरे
तुम लड़कर जय वरना 
चाहे सूखा हो या पानी 
बहा पसीना 
मेहनत कर 
करना मेरी अगवानी 
चलो, गिरो उठ बढ़ो 
शूल कितने ही आँख तरेरे  
बाधा दें या  
रहें सहायक 
दिन-निशि, साँझ-सवेरे 
कदम-हाथ गर रहे साथ  
कर लेंगे धरती धानी  
कलम उठाकर 
करें शब्द के भक्त
मेरी अगवानी
शिकवे गिले शिकायत 
कर हल होती नहीं समस्या   
सतत साधना   
से ही होती  
हरदम पूर्ण तपस्या  
स्वार्थ तजो, सर्वार्थ साधने   
बोलो मीठी बानी  
फिर जेपी-अन्ना 
बनकर तुम करो 
मेरी अगवानी
३१-१२-२०१४ 
...
नवगीत:
संजीव
*
साँप-सँपेरे
करें सियासत
.
हर चुनाव है नागपंचमी
बीन बज रही, बजे चंग भी
नागिन मोहे, कभी डराये
स्नेह लापता, छोड़ी जंग भी
कहीं हो रही
लूट-बगावत
.
नाचे बंदर, नचा मदारी
पण्डे-झंडे लाये भिखारी
कथनी-करनी में अंतर है
जनता, थोड़ा सबक सिखा री!
क्षणिक मित्रता
अधिक अदावत
.
खेलें दोनों ओर जुआरी
झूठे दावे, छद्म अदा री
जीतें तो बन जाए टपरिया
साथ मंज़िला भव्य अटारी
भृष्ट आचरण
कहें रवायत
२६-१२-२०१४
.....
नवगीत:
संजीव
.
सांस जब अविराम चलती जा रही हो
तब कलम किस तरह
चुप विश्राम कर ले?
.
शब्द-पायल की
सुनी झंकार जब-जब
अर्थ-धनु ने
की तभी टंकार तब-तब
मन गगन में विचारों का हंस कहिए
सो रहे किस तरह 
सुबह-शाम कर ले?
.
घड़ी का क्या है
टँगी थिर, मगर चलती
नश्वरी दुनिया
सनातन लगे, छलती
तन सुमन में आत्मा की गंध कहिए
खो रहे किस तरह 
नाम अनाम कर ले?
२६-१२-२०१४ 
.....
नवगीत:
संजीव।
.
सांताक्लाज!
बड़े दिन का उपहार
न छोटे दिलवालों को देना
.
गुल-काँटे दोनों उपवन में
मधुकर कलियाँ खोज
दिनभर चहके गुलशन में ज्यों
आयोजित वनभोज
सांताक्लाज!
कभी सुख का संसार 
न खोटे मनवालों को देना
.
अपराधी संसद में बैठे
नेता बनकर आज
तोड़ रहे कानून बना खुद
आती तनिक न लाज
सांताक्लाज!
करो जान पर उपकार
न कुर्सी धनवालों को देना
.
पौंड रहे मानवता को जो
चला रहे हथियार
भू को नरक बनाने के जो
नरपशु जिम्मेदार
सांताक्लाज!
महाशक्ति का वार 
व लानत गनवालों को देना
२५-१२-२०१४
.....
नवगीत:
संजीव
.
कौन है जो
बिन कहे ही
शब्द में संगीत भरता है?
.
चाँद उपगृह निरा बंजर
सिर्फ पर्वत बिन समंदर
ज़िन्दगी भी नहीं संभव 
उजाला भी नहीं अंदर
किन्तु फिर भी
रात में ले
चाँदनी का रूप  झरता है
.
लता को देता सहारा
करें पंछी भी गुजारा
लकड़ियाँ फल फूल पत्ते
लूटता वहशी मनुज पर 
दैव जैसा
सदय रहता 
वृक्ष कल से नहीं डरता है
.
नदी कलकल बह रही है
क्या कभी कुछ गह रही है?
मिटाती है प्यास सबकी
पर न कुछ भी कह रही है
अचल सागर
से अँजुरिया
नीर पी क्या कोई तरता है?
२५-१२-२०१४ 
......
नवगीत:
संजीव
*
साँप-सँपेरे
करें सियासत
.
हर चुनाव है नागपंचमी
बीन बज रही, बजे चंग भी
नागिन मोहे, कभी डराये
स्नेह लापता, छोड़ी जंग भी
कहीं हो रही
लूट-बगावत
.
नाचे बंदर, नचा मदारी
पण्डे-झंडे लाये भिखारी
कथनी-करनी में अंतर है
जनता, थोड़ा सबक सिखा री!
क्षणिक मित्रता
अधिक अदावत
.
खेलें दोनों ओर जुआरी
झूठे दावे, छद्म अदा री
जीतें तो बन जाए टपरिया
साथ मंज़िला भव्य अटारी
भृष्ट आचरण
कहें रवायत
२५-१२-२०१४ 
......
नवगीत:
संजीव
.
कुछ तो कीजिए
हुज़ूर!
कुछ तो कीजिए
माथे बिंदिया
द्वारे सतिया
हाथ हिना लख
खुश परबतिया
कर बौरा का जाप  
भजिए रीझिए
.
भोर सुनहरी
गर्म दुपहरी
साँझ सजीली
निशा नशीली
होतीं अपने आप
नवता दीजिए
.
धूप तप रही
हवा बह रही
लहर मीन से
कथा कह रही
दूरी लेंगी नाप
पग धर दीजिए
.
हँसतीं कलियाँ
भ्रमर तितलियाँ
देखें संग-संग
दिल की गलियाँ
दिग्दिगंत तक व्याप
ढलिये-ऊगिये
.
महल टपरिया
गली बजरिया
मटके भटके
समय गुजरिया
नाच नचायें साँप
विष भी पीजिए
२५-१२-२०१४ 
.....
नवगीत:
संजीव
.
बहुत-बहुत आभार तुम्हारा
ओ जाते मेहमान!
.
पल-पल तुमने
साथ निभाया
कभी रुलाया
कभी हँसाया
फिसल गिरे, आ तुरत उठाया
पीठ ठोंक
उत्साह बढ़ाया
दूर किया हँस कष्ट हमारा
मुरझाते मेहमान
.
भूल न तुमको
पायेंगे हम
गीत तुम्हारे
गायेंगे हम
सच्ची बोलो कभी तुम्हें भी
याद तनिक क्या
आयेंगे हम?
याद मधुर बन, बनो सहारा
मुस्काते मेहमान
.
तुम समिधा हो
काल यज्ञ की
तुम ही थाती 
हो भविष्य की 
तुमसे लेकर सतत प्रेरणा 
मन:स्थिति गढ़
हम हविष्य की
'सलिल' करेंगे नहीं किनारा 
मनभाते मेहमान 
२४-१२-२०१४
.....
नवगीत:
नए साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
.
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पायेगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटायी
तो क्या
घटनाक्रम होगा?
.
काशी, मथुरा, अवध
विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी
तज विद्रोह
हटेंगे क्या?
पूर्वांचल में
अमन-चैन का
क्या होगा?
.
धर्म भाव 
कर्तव्य कभी
बन पायेगा?
मानवता की
मानव जय
गुंजायेगा?
मंगल छू
भू के मंगल
का क्या होगा?
२३-१२-२०१४ 
....... 
नवगीत:
संजीव
Sun and Moon
सिर्फ सच का साथ देना 
नव बरस 
धाँधली अब तक चली, अब रोक दे 
सुधारों के लिये खुद को झोंक  दे 
कर रहे मनमानियाँ, गाली बकें-
ऐसे जनप्रतिनिधि गटर में फेंक दे 
सेकते जो स्वार्थ रोटी भ्रष्ट हो 
सेठ-अफसर को न किंचित टेक दे 
टेक का निर्वाह जनगण भी करे
टेक दें घुटने दरिंदे 
इस बरस 
अँधेरों को भेंट कुछ आलोक दे 
दहशतों को दर्द-दुःख दे, शोक दे 
बेटियों-बेटों में समता पल सके- 
रिश्वती को भाड़ में तू झोंक दे 
बंजरों में फसल की उम्मीद बो 
प्रयासों के हाथ में साफल्य दे    
करें नेकी, अ-नेकी को भूलकर 
जयी हों विश्वास-आस 
हँस बरस 
.
हाथ भूखा कमा पाये रोटियाँ
निर्जला रहने न देना टोंटियाँ
अब न हो निस्तार बाहर, घर-करें
छीन लेना रे! शकुनि से गोटियाँ
बोटियाँ कर बिन हिचक आतंक की
जय करें अब तक न जीती चोटियाँ
अंत कर अज्ञान का, पाखंड का 
बढ़ सकें, नट-बोल्ट सारे  
कस बरस 
२०-१२-२०१४ 
...... 
नवगीत:
cherry blossom, painting
नये साल की ख़ुशी मना ले
शूल त्याग कर फूल खिला ले
.
मानव है
तो हिंसा छोड़
पग विनाश जाते
ले मोड़
बैठ छाँह में
कर मत होड़
सुस्ता ले 
नव रिश्ते जोड़ 
मिल मुस्काकर गले लगा ले
.
नया साल 
है मीठा बोल 
कानों में मिसरी 
दे घोल
अंतर्मन की 
गाँठें खोल 
चलता चल  
है दुनिया गोल 
अपने सपने आप सजा ले 
१९-१२-२०१४ 
......
नव गीत:
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
करो नमस्ते
या मुँह फेरो
सुख में भूलो
दुःख में टेरो
अपने सुर में गाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
एक दूसरे 
को मारो या 
गले लगाओ 
हँस मुस्काओ 
दर्पण छवि दिखलायेगा ही 
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
चाह न मिटना 
तो खुद सुधरो 
या कोसो जिस-
तिस को ससुरों 
अपना राग सुनायेगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
१९-१२-२०१४ 
.....
नवगीत:
बस्ते घर से गए पर
लौट न पाये आज
बसने से पहले हुईं
नष्ट बस्तियाँ आज
.
है दहशत का राज
नदी खून की बह गयी
लज्जा को भी लाज
इस वहशत से आ गयी
गया न लौटेगा कभी
किसको था अंदाज़?
.
लिख पाती बंदूक
कब सुख का इतिहास?
थामें रहें उलूक
पा-देते हैं त्रास
रहा चरागों के तले
अन्धकार का राज
.
ऊपरवाले! कर रहम
नफरत का अब नाश हो
दफ़्न करें आतंक हम
नष्ट घृणा का पाश हो
मज़हब कहता प्यार दे
ठुकरा तख्तो-ताज़
१८-१२-२०१४ 
......
नवगीत: 

जितनी रोटी खायी  
की क्या उतनी मेहनत?
मंत्री, सांसद मान्य विधायक 
प्राध्यापक जो बने नियामक 
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता 
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता 
व्यापारी, वकील मुँह खोलें   
हुए मौन क्यों? 
कहें न तुहमत 
श्रमिक-किसान करे उत्पादन 
बाबू-भृत्य कर रहे शासन 
जो उपजाए वही भूख सह 
हाथ पसारे माँगे राशन 
कब बदलेगी परिस्थिति यह 
करें सोचने की 
अब ज़हमत 
उत्पादन से वेतन जोड़ो 
अफसरशाही का रथ मोड़ो 
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा? 
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा 
सत्ता-धन की 
फ़ैली दहशत
१७-१२-२०१४ 
.....
    

navgeet:

नवगीत:


पत्थरों की फाड़कर छाती
उगे अंकुर
.
चीथड़े तन पर लपेटे
खोजते बाँहें
कोई आकर समेटे।
खड़े हो गिर-उठ सम्हलते
सिसकते चुप हो विहँसते।
अंधड़ों की चुनौती स्वीकार
पल्लव लिये अनगिन
जकड़कर जड़ में तनिक माटी
बढ़े अंकुर।
.
आँख से आँखें मिलाते
बनाते राहें
नये सपने सजाते।
जवाबों से प्रश्न करते
व्यवस्था से नहीं डरते।
बादलों की गर्जना-ललकार
बूँदें पियें गिन-गिन
तने से ले अकड़ खांटी
उड़े अंकुर।
.
घोंसले तज हौसले ले
चल पड़े आगे
प्रथा तज फैसले ले।
द्रोण को ठेंगा दिखाते
भीष्म को प्रण भी भुलाते।
मेघदूतों का करें सत्कार
ढाई आखर पढ़ हुए लाचार  
फूलकर खिल फूल होते 
हँसे अंकुर।
१५-१२-२०१४ 
.....
नवगीत:
नवगीतात्मक खंडकाव्य रच
महाकाव्य की ओर चला मैं
.
कैसा मुखड़ा?
लगता दुखड़ा
कवि-नेता ज्यों
असफल उखड़ा
दीर्घ अंतरा क्लिष्ट शब्द रच
अपनी जय खुद कह जाता बच
बहुत हुआ सम्भाव्य मित्रवर!
असम्भाव्य की ओर चला मैं
.
मिथक-बिम्ब दूँ
कई विरलतम
निकल समझने
में जाए दम
कई-कई पृष्ठों की नवता 
भारी भरकम संग्रह बनता 
लिखूं नहीं परिभाष्य अन्य सा
अपरिभाष्य की ओर चला मैं
.
नवगीतों का
मठाधीश हूँ
अपने मुँह मिट्ठू
कपीश हूँ
वहं अहं का पाल लिया है 
दोष थोपना जान लिया है   
मानक मान्य न जँचते मुझको 
तज अमान्य की ओर चला मैं
१४-१२-२०१४ 
.....
नवगीत:


ओ ममतामयी!
कहाँ गयीं तुम?
.
नयनों से वात्सल्य लुटातीं
अधर बीच मोती चमकातीं
माथे रहा दमकता सूरज-
भारत माँ तुम पर बलि जातीं
ओ समतामयी!
कहाँ गयीं तुम?
.
शक्ति-शारदा-रमा त्रयी थीं
भारत माता की अनुकृति थीं
लालबहादुर की अर्धांगिनी
सत्य कहूँ तुम परा-प्रकृति थीं
ओ क्षमतामयी!
कहाँ गयीं तुम?
.
ओज तेज सौंदर्य स्वरूपा
सात्विकता की मूर्ति अनूपा
आस जगाने, विजय दिलाने
प्रगटीं देवांगना अरूपा
ओ ममतामयी!
कहाँ गयीं तुम?
१२-१२-२०१४ 
.....
जिजीविषा अंकुर की
पत्थर का भी दिल
दहला देती है
*
धरती धरती धीरज
बनी अहल्या गुमसुम
बंजर-पड़ती लोग कहें
ताने दे-देकर
सिसकी सुनता समय
मौन देता है अवसर
हरियाती है कोख
धरा हो जाती सक्षम
तब तक जलती धूप
झेलकर घाव आप
सहला लेती है
*
जग करता उपहास
मारती ताने दुनिया
पल्लव ध्यान न देते
कोशिश शाखा बढ़ती
द्वैत भुला अद्वैत राह पर
चिड़िया चढ़ती
रचती अपनी सृष्टि आप
बन अद्भुत गुनिया
हार न माने कभी
ज़िंदगी खुद को खुद
बहला लेती है
*
छाती फाड़ पत्थरों की
बहता है पानी
विद्रोहों का बीज

उठाता शीश, न झुकता
तंत्र शिला सा निठुर
लगे जब निष्ठुर चुकता
याद दिलाना तभी
जरूरी उसको नानी
जन-पीड़ा बन रोष
दिशाओं को भी तब
दहला देती है
११-१२-२०१४ 
......
पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी
.
आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी
१-१२-२०१४
… 
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये

बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?

सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०-१२-२०१४ 
***
नयन झुकाये बैठे हैं तो
मत सोचो पथ हेर रहे हैं
*
चहचह करते पंछी गाते झूम तराना
पौ फटते ही, नहीं ठण्ड का करें बहाना
सलिल-लहरियों में ऊषा का बिम्ब निराला
देख तृप्त मन डूबा खुद में बन बेगाना
सुन पाती हूँ चूजे जगकर
कहाँ चिरैया? टेर रहे हैं
*
मोरपंख को थाम हाथ में आँखें देखें
दृश्य अदेखे या अतीत को फिर-फिर लेखें
रीती गगरी, सूना पनघट,सखी-सहेली
पगडंडी पर कदम तुम्हारे जा अवरेखें
श्याम लटों में पवन देव बन
श्याम उँगलियाँ फेर रहे हैं
*
नील-गुलाबी वसन या कि है झाँइ  तुम्हारी
जाकर भी तुम गए न मन से क्यों  बनवारी?
नेताओं जैसा आश्वासन दिया न झूठा-
दोषी कैसे कहें तुम्हें रणछोड़ मुरारी?
ज्ञानी ऊधौ कैसे समझें  
याद-मेघ मिल घेर रहे हैं?
३०-११-२०१४ 
*****
क्या नाम है
इस खेल का?
.
तोल-तोल के बोल रहे हैं
इक-दूजे को तोल रहे हैं
कौन बताये पर्दे पीछे
किसके कितने मोल रहे हैं?
साध रहे संतुलन
मेल का
.
तुम इतने लो, हम इतने लें
जनता भौचक कब कितने ले?
जैसी की तैसी है हालत
आश्वासन चाहे जितने ले
मेल नीर के
साथ तेल का?
.
केर-बेर का साथ निराला
स्वार्थ साधने बदलें पाला
सत्ता खातिर खेल खेलते
सिद्धांतों पर डाला ताला
मौसम आया
धकापेल का
२९-११-२०१४ 
......
नीले-नीले कैनवास पर
बादल-कलम पकड़ कर कोई
आकृति अगिन बना देता है

मोह रही मन द्युति की चमकन
डरा रहा मेघों का गर्जन
सांय-सांय-सन पवन प्रवाहित
जल बूँदों का मोहक नर्तन
लहर-लहर लहराता कोई
धूसर-धूसर कैनवास पर
प्रवहित भँवर बना देता है

अमल विमल निर्मल तुहिना कण
हरित-भरित नन्हे दूर्वा तृण
खिल-खिल हँसते सुमन सुवासित
मधुकर का मादक प्रिय गुंजन
अनहद नाद सुनाता कोई
ढाई आखर कैनवास पर
मन्नत कफ़न बना देता है
२७-११-२०१४
***
नवगीत:

कब रूठें
कब हाथ मिलायें?
नहीं, देव भी
कुछ कह पायें
.
ये जनगण-मन के नायक हैं
वे बमबारी के गायक हैं
इनकी चाह विकास कराना
उनकी राह विनाश बुलाना
लोकतंत्र ने
तोपतंत्र को
कब चाहा है
गले लगायें?
.
सारे कुनबाई बैठे हैं
ये अकड़े हैं, वे ऐंठे हैं
उनका जन आधार बड़ा पर
ये जन मन मंदिर पैठे हैं
आपस में
सहयोग बढ़ायें
इनको-उनको
सब समझायें
. . .
(सार्क सम्मलेन काठमांडू, २६.१.२०१४ ) 
------------------------------
५१. धूप
**
दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप

तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप

हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरियाए झाँके
दीवाल के पार
भौजी  चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप

तेल मला दादी के, बैठी
देखूं किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
२४-११-२०१४ 
*** 
नवगीत: ५०  
*अड़े खड़े हो 
न राह रोको 


यहाँ न झाँको 
वहाँ न ताको 
न उसको घूरो 
न इसको देखो 
परे हटो भी 
न व्यर्थ टोको 

इसे बुलाओ 
उसे बताओ 
न राज अपना 
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो 
न भाड़ झोंको 
२४-११-२०१४ 
***
नवगीत: ४९
*
रस्म की दीवार
करती कैद लेकिन
आस खिड़की
रूह कर आज़ाद देती

सोच का दरिया
भरोसे का किनारा
कोशिशी सूरज
न हिम्मत कभी हारा
उमीदें सूखी नदी में
नाव खेकर
हौसलों को हँस
नयी पतवार देती

हाथ पर मत हाथ
रखकर बैठना रे!
रात गहरी हो तो
सूरज लेखना रे!
कालिमा को लालिमा
करती विदा फिर
आस्मां को
परिंदा उपहार देती
२२-११-२०१४
.....
नवगीत: ४८
*
तरस मत खाओ
अभी भी बहुत दम है

झाड़ कचरा, तोड़ टहनी, बीन पाती
कसेंड़ी ले पोखरे पर नहा, जल लाती
फूँकती चूल्हा कमर का धनु बनाती
धुआँ-खाँसी से न डरती
आँख नम है

बुढ़ाई काया मगर है हौसला बाकी
एक आलू संग चाँवल एक मुट्ठी भर
तोड़ टहनी फूँक चूल्हा पकाये काकी
खिला सकती है तुम्हें
ममता न कम है
२२-११-२०१४
***
नवगीत : ४७
* 
वृक्ष ही हमको हुआ 
स्टेडियम है 

शहर में साधन हजारों
गाँव में आत्मबल 
यहाँ अपनापन मिलेगा 
वहाँ है हर ओर छल
हर जगह जय समर्थों की 
निबल की खातिर 
नियम है 

गगन छूते भवन लेकिन 
मनों में स्थान कम 
टपरियों में संग रहते 
खुशी, जीवट, हार, गम 
हर जगह जय अनर्थों की 
मृदुल की खातिर 
प्रलय है
२२-११-२०१४ 
***
नवगीत: ४६
*
ज़िंदगी मेला
झमेला आप मत कहिए इसे

फोड़कर ऊसर जमीं को
मुस्कुराता है पलाश
जड़ जमा लेता जमीं में
कब हुआ कहिए हताश?
है दहकता तो
बहकता आप मत कहिए इसे

पूछिए जा दुकानों में
पावना-देना कहानी
देखिए जा तंबुओं में
जागना-सोना निशानी
चक्र चलता
सिर्फ ढलता आप मत कहिए इसे

जानवर भी है यहाँ
दो पैर वाले सम्हलिए
शांत चौपाया भले है
दूर रह मत सिमटिए
प्रदर्शन है
आत्मदर्शन आप मत कहिए इसे

आपदा में
नहीं होती नष्ट दूर्वा देखिए
सूखकर फिर
ऊग जाती, शक्ति इसकी लेखिए
है रवानी
निगहबानी आप मत कहिए इसे
२२-११-२०१४ 
***
नवगीत: ४५
*
अहर्निश चुप 
लहर सा बहता रहे 

आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को 
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?

सुबह उगने साँझ को 
ढलता रहे 
हरीतिमा की जयकथा 
कहता रहे 

दे सके औरों को कुछ ले कुछ नहीं 
सिखाती है यही भू माता मही 
कलुष पंकिल से उगाना  है कमल 
धार तब ही बह सकेगी हो विमल 

मलिन वर्षा जल 
विकारों सा बहे  
शांत हों, मन में न 
दावानल दहे 

ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण  
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण 
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे 
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले 

कहानी कुदरत की सुन, 
अपनी कहे 
स्वप्न बनकर नयन में 
पलता रहे 
२२-११-२०१४ 
***
नवगीत: ४४
*
काबलियत को भूल
चुना बेटे को मैंने

बाम्हन का बेटा बाम्हन है
बनिया का बेटा है बनिया
संत सेठ नेता भी चुनता
अपना बेटा माने दुनिया
देखा सपना झूम
उठा बेटे को मैंने

मरकर पगड़ी बाँधी सुत-सिर
तुमने, पर मैंने जीते जी
बिना बात ही बात उछाली
तुमने खूब तवज्जो क्यों दी?
चर्चित होकर लिया
चूम बेटे को मैंने

खुद को बदलो तब यह बोलो
बेटा दावेदार नहीं है
किसे बुलाऊँ, किसको छोड़ूँ
क्या मेरा अधिकार नहीं है?
गर्वित होकर लिया बाँध
फेंटे को मैंने
२२-११-२०१४ 
***
नवगीत: ४३
*
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

बीड़ी-गुटखा बहुत जरूरी
साग न खा सकता मजबूरी
पौआ पी सकता हूँ, लेकिन
दूध नहीं स्वीकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

कौन पकाये घर में खाना
पिज़्ज़ा-चाट-पकौड़े खाना
चटक-मटक बाजार चलूँ
पढ़ी-लिखी मैं नार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

रहें झींकते बुड्ढा-बुढ़िया
यही मुसीबत की हैं पुड़िया
कहते सादा खाना खाओ
रोके आ सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

हुआ कुपोषण दोष न मेरा
खुद कर दूँ चहुँ और अँधेरा
करे उजाला घर में आकर
दखल न दे सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
२२-११-२०१४
***
नवगीत: ४२ 
*
अच्छा लगेगा आपको 
यह जानकर अच्छा लगेगा

*
सुबह सूरज क्षितिज पर 
अलसा रहा था 
उषा-वसुधा-रश्मि को 
भरमा रहा था 
मिलीं तीनों,
भाग नभ पर
जां बचाई, कान पकड़े
अब न संध्या को ठगेगा
*
दोपहर से दिन ढले
की जी हजूरी
समय से फिर भी
नहीं पाई मजूरी
आह भरता नदी से
मिल गले रोया
लहर का मुख
देखकर पीड़ा तहेगा
*
हार अब तक नहीं मानी
फिर उठेगा
स्वप्न सब साकार करने
हँस बढ़ेगा
तिमिर बाधा कर पराजित
जब रुकेगा
सकल जग में ईश्वरवत
नित पुजेगा
२०-११-२०१४ 
......
नवगीत: ४१ 
*
भाग-दौड़ आपा-धापी है 

नहीं किसी को फिक्र किसी की
निष्ठा रही न ख़ास इसी की
प्लेटफॉर्म जैसा समाज है
कब्जेधारी को सुराज है
अति-जाती अवसर ट्रेन
जगह दिलाये धन या ब्रेन
बेचैनी सबमें व्यापी है

इंजिन-कोच ग्रहों से घूमें
नहीं जमाते जड़ें जमीं में
यायावर-पथभ्रष्ट नहीं हैं
पाते-देते कष्ट नहीं हैं
संग चलो तो मंज़िल पा लो
निंदा करो या सुयश सुना लो
बाधा बाजू में चाँपी है

कोशिश टिकिट कटाकर चलना
बच्चों जैसे नहीं मचलना
जाँचे टिकिट घूम तक़दीर
आरक्षण पाती तदबीर
घाट उतरते हैं सब साथ
लें-दें विदा हिलाकर हाथ
यह धर्मात्मा वह पापी है
२०-११-२०१४ 
***
नवगीत: ४० 
*
अच्छा लगेगा आपको 
यह जानकर अच्छा लगेगा

*
सुबह सूरज क्षितिज पर
अलसा रहा था
उषा-वसुधा-रश्मि को
भरमा रहा था
मिलीं तीनों,
भाग नभ पर
जां बचाई, कान पकड़े
अब न संध्या को ठगेगा
*
दोपहर से दिन ढले
की जी हजूरी
समय से फिर भी
नहीं पाई मजूरी
आह भरता नदी से
मिल गले रोया
लहर का मुख
देखकर पीड़ा तहेगा
*
हार अब तक नहीं मानी
फिर उठेगा
स्वप्न सब साकार करने
हँस बढ़ेगा
तिमिर बाधा कर पराजित
जब रुकेगा
सकल जग में ईश्वरवत
नित पुजेगा
२०-११-२०१४
*****
नवगीत: ३९ 
*
जितने मुँह हैं
उतनी बातें

शंका ज्यादा, निष्ठा कम है
कोशिश की आँखें क्यों नम हैं?
जहाँ देखिये गम ही गम है
दिखें आदमी लेकिन बम हैं

श्रद्धा भी करती
है घातें

बढ़ते लोग जमीं कम पड़ती
नद-सर सूखे, वनश्री घटती
हँसे सियासत, जनता पिटती
मेहनत अपनी किस्मत लिखती

दिन छोटा है
लंबी रातें

इंसां कभी न हिम्मत हारे
नभ से तोड़ बिखेरे तारे
मंज़िल खुद आएगी द्वारे
रुक मत, झुक मत बढ़ता जा रे!

खायें मात
निरंतर मातें

***
१३-११-२०१४ 
१२७/७ आयकर कॉलोनी 
विनायकपुर, कानपूर

***
नवगीत: ३८ 
*
जितने चढ़े
उतरते उतने
कौन बताये
कब, क्यों कितने?

ये समीप वे बहुत दूर से
कुछ हैं गम, कुछ लगे नूर से
चुप आँसू, मुस्कान निहारो
कुछ दूरी से, कुछ शऊर से
नज़र एकटक
पाये न टिकने 

सारी दुनिया सिर्फ मुसाफिर
किसको कहिये यहाँ महाज़िर
छीन-झपट, कुछ उठा-पटक है
कुछ आते-जाते हैं फिर-फिर
हैं खुरदुरे हाथ
कुछ चिकने

चिंता-चर्चा-देश-धरम की
सोच न किंचित आप-करम की
दिशा दिखाते सब दुनिया को
बर्थ तभी जब जेब गरम की
लो खरीद सब
आया बिकने
११-११-२०१४ 
कानपुर रेलवे प्लेटफॉर्म 
सवेरे ४ बजे 

***
गीत: ३७ 

शुभ नवगीत महोत्सव, आओ!

शब्दब्रम्ह-हरि आराधन हो 
सत-शिव-सुंदर का वाचन हो 
कालिंदी-गोमती मिलाओ 
नेह नर्मदा नवल बहाओ 
'मावस को पूर्णिमा बनाओ 

शब्दचित्र-अंकन-गायन हो 
सत-चित-आनंद पारायण हो
निर्मल व्योम ओम मुस्काओ 
पंकज रमण विवेक जगाओ 
संजीवित अवनीश सजाओ
रस, लय, भाव, कथ्य शुचि स्वागत  
पवन रवीन्द्र आस्तिक आगत 
श्रुति सौरभ पंकज बिखराओ
हो श्रीकांत निनाद गुँजाओ  
रोहित ब्रज- ब्रजेश दिखलाओ   

भाषा में कुछ टटकापन हो 
रंगों में कुछ चटकापन हो 
सीमा अमित सुवर्णा शोभित 
सिंह धनंजय वीनस रोहित 
हो प्रवीण मन-राम रमाओ 

लख नऊ दृष्टि हुई पौबारा 
लखनऊ में गूँजे जयकारा 
वाग्नेर-संध्या हर्षाओ   
हँस वृजेन्द्र सौम्या नभ-छाओ  
रसादित्य जगदीश बसाओ 

नऊ = नौ = नव 
१०-११-२०१४ 
- १२६/७ आयकर कॉलोनी
विनायकपुर, कानपुर
समयाभाव के कारण पढ़ा नहीं गया   
***
नवगीत: ३६
*
बीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल

हरसिँगारी छवि तुम्हारी
प्रात किरणों ने सँवारी
भुवन भास्कर का दरस कर
उषा पर छाई खुमारी
मुँडेरे से झाँकते, छवि आँकते

रीतते ही नहीं है
ये प्रतीक्षा के पल

अमलतासी मुस्कराहट
प्रभाती सी चहचहाहट
बजे कुण्डी घटियों सी
करे पछुआ सनसनाहट
नत नयन कुछ माँगते, अनुरागते

जीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल

शंखध्वनिमय प्रार्थनाएँ
शुभ मनाती वन्दनाएँ
ऋचा सी मनुहार गुंजित
सफल होती साधनाएँ
पलाशों से दहकते, चुप-चहकते

सीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
१९-११-२०१४
*****
नवगीत : ३५
*
काल बली है 
बचकर रहना 

सिंह गर्जन के  
दिन न रहे अब 
तब के साथी?
कौन सहे अब? 
नेह नदी के 
घाट बहे सब 
सत्ता का सच 
महाछली है 
चुप रह सहना 

कमल सफल है 
महा सबल है 
कभी अटल था 
आज अचल है 
अनिल-अनल है 
परिवर्तन की 
हवा चली है 
यादें तहना 

ये इठलाये 
वे इतराये 
माथ झुकाये 
हाथ मिलाये 
अख़बारों 
टी. व्ही. पर छाये 
सत्ता-मद का 
पैग  ढला है 
पर मत गहना 

बिना शर्त मिल 
रहा समर्थन 
आज, करेगा 
कल पर-कर्तन 
कहे करो 
ऊँगली पर नर्तन  
वर अनजाने 
सखा पुराने 
तज मत दहना 
१८-११-२०१४ 
***
नवगीत: ३४  
(सोरठा-दोहा गीत)
*
कई झाड़ुएँ साथ
जहाँ- न कचरा वहाँ हैं
लचक न जाएँ हाथ
थामे हैं होकर सजग

कचरा मन में सड़ रहा  
कैसे होगा दूर
प्यार प्रदर्शन कर रहे
पेशेवर हो क्रूर
सिर्फ शरीरों से किया
कृत्य हुआ बेनूर
लगता है वीभत्स यह
तजिए, बनें न सूर

होते हैं आरम्भ
प्रेम-सफाई घरों से
हुआ प्रदर्शित दम्भ
वृथा प्रदर्शन- लें समझ

देख-देख यह कृत्रिमता
सच को आती शर्म
गर्व करें अनुभव विहँस
ये नादां बेशर्म
है प्रचार के लिए ही
यह नौटंकी कर्म
काश समझ पाते तनिक
प्रेम-कर्म का मर्म

किसे पड़ेगा फर्क
आप थूक या चूम लें
करते रहें कुतर्क
उड़ी हँसी, जग घूम लें

हो विनम्र झुककर करें
साफ़-सफाई आप
तनकर चलती नायिका
रूप गया जग-व्याप
मन से जब तक दर्प का
हटे न कचरा- शाप
पुण्य बताकर कर रही
तब तक जानें पाप

जन-मन से अनजान  
अख़बारों की खबर बन
घटा रहीं आधार 
हे माँ! हेमा आज तन  

देह-देह की चाहकर
हुई देह के संग
गेह न पाया प्रेम ने
हुआ रंग बदरंग
इतने पर ही क्यों रुकें?
आगे करिए जंग
बेशर्मी से उतारें
चाहें कपडे तंग

देख अशोभन कृत्य
पशु भी लज्जित हो रहे
दानव मानव भेस में 
काहे को दुःख बो रहे

अवनत करते जा रहे 
उन्नति के सोपान 
मुर्दा शूकर कर लिए 
कहें करो गोदान 
माटी में देंगे मिला 
जनक-जननि की आन 
घर से निकले आज ये 
मन में यह हठ ठान 

नहीं साथ में आरहे 
बंधु-बांधवी शर्म कर 
नज़र मिला ना पा रहे 
खुद से गर्हित कर्म कर 
१०-११-२०१४ 
***
नवगीत: ३३ 
*
मौन सुनो सब, गूँज रहा है 
अपनी ढपली 
अपना राग 

तोड़े अनुशासन के बंधन 
हर कोई मनमर्जी से 
कहिए कैसे पार हो सके
तब जग इस खुदगर्जी से 
भ्रान्ति क्रांति की 
भारी खतरा
करे शांति को नष्ट 
कुछ के आदर्शों की खातिर 
बहुजन को हो कष्ट 
दोष व्यवस्था के सुधारना 
खुद को उसमें ढाल 
नहीं चुनौती अधिक बड़ी क्या 
जिसे रहे हम टाल?

कोयल का कूकना गलत है 
कहे जा रहा 
हर दिन काग 

संसद-सांसद भृष्ट, कुचल दो 
मिले न सहमत उसे मसल दो 
पिंगल के भी नियम न  माने 
कविपुंगव की नयी नसल दो 
गण, मात्रा,लय, 
यति-गति तज दो  
शब्दाक्षर खुद  
अपने रच लो 
कर्ता-क्रिया-कर्म बंधन क्यों?

ढपली ले, 
जो चाहो भज लो 
आज़ादी है मनमानी की 
हो सब देख निहाल   

रोक-टोक मत 
कजरी तज  
सावन में गायें फाग 
१०-११-२०१४ 
******
नवगीत: ३२ 
*
आभासी दुनिया का सच भी
झूठा सा लगता है

जिनसे कुछ संबंध नहीं है
उनसे जुड़ता नाता
नाता निकट रहा है जिनसे
यहाँ न दिखने पाता

भावनाओं से छला गया मन 
फिर-फिर फँस हँसता है

दर्द मौत दुर्घटना को भी
लाइक मिलें अनेकों
कोई नहीं विकल्प कि दूर
गुनाहों को चुन फेंको

कामनाओं से ठगा गया मन
मुक्ति न क्यों मँगता है?

ब्रम्हा जो निज सृजन-विश्व का
वह भी बना भिखारी
टैग करे, फिर लाइक माँगे 
दिल पर चलती आरी

चाह तृप्ति को जो अतृप्त वह
पंख मध्य धँसता है

***
५-११-२०१४
संजीवनी अस्पताल रायपुर
नवगीत: ३१ 
*
धैर्य की पूँजी
न कम हो
मनोबल
घटने न देना

जंग जीवट- जिजीविषा की
मौत के आतंक से है
आस्था की कली कोमल
भेंटती शक-डंक से है

नाव निज
आरोग्य की
तूफ़ान में
डिगने न देना

मूल है किंजल्क का
वह पंक जिससे भागते हम
कमल-कमला को हमेशा
मग्न हो अनुरागते हम
देह ही है
गेह मन का
देह को
मिटने न देना

चिकित्सा सेवा अधिक
व्यवसाय कम है ध्यान रखना
मौत के पंजे से जीवन
बचाये बिन नहीं रुकना
लोभ को,
संदेह को
मन में तनिक
टिकने न देना
५-११-२०१४ 
___
नवगीत: ३० 
*

भोर भई पंछी चहके
झूले पत्ते डाली-डाली

मनके तार छेड़कर 
गाऊँ राग प्रभाती
कलरव सुन सुन
धूप-छाँव से 
करती सुन-गन
दूल्हा गीत
बरात सजाये
शब्द बराती 

कहाँ खो गए हो?, आओ!
लाओ, अब तो चैया प्याली

लहराती लट बिखरीं
झूमें जैसे नागन 
फागुन को भी
याद तुम्हारी
करती सावन
गाओ गीत 
न हमें भुलाओ
भाव सँगाती   

हेरूँ-टेरूँ मनका फेरूँ
मनका माला गले लगा ली
५-११-२०१४ 
_____________
गीत: २९ 
*

हो कहाँ तुम छिपे बैठे 
आओ! भर लूँ बाँह में मैं 

मूक लहरें दे रहीं है नील नभ को भी निमंत्रण 
सुनें गर्जन घोर शंकित हो रहे संयम किनारे  
नियति के जलपोत को तृणवत न कर, कुछ तरस खा रे 
उठा तरकश सिंधु ने शर साध छेड़ा आज हँस रण 

हो रहा हूँ प्रिय मिलन बिन  
आज हुदहुद डाह में मैं  

राम! शर संधान से कर शांत दो विक्षुब्ध मम मन 
गहूं नीलोफर पुलक मैं मिटा दूँ आतंक सारा 
कभी जैसा दशानन ने  सिया हरकर था पसारा 
द्वारका के द्वार का संकट हरूँ कर अमिय मंथन 

भारती की आरती जग, 
जग करे हूँ चाह में मैं 
३-११-२०१४ 

*** 
नवगीत: २८ 
*
दहशत फैला
सका नहीं
तूफां नीलोफर

गर्जन-तर्जन बेमानी है
भारत के तट रहे सुरक्षित
पाकिस्तान सम्हाले खुद को
दहशतगर्दों से है  भक्षित

जनप्रतिनिधि
सेना के आगे
दबते शोफर

यहाँ शांति की परंपरा है
उर्वर-उन्नत तंत्र खड़ा है
कोई छोटा नहीं किसी से
कोई किसी से नहीं बड़ा है  

भारत माँ के
लिये समर्पित
सीकर बोकर

नहीं किसी से कभी
उलझने हम जाते हैं.
खुद आकर जो उलझे
हमसे पछताते हैं

करें मित्र से प्रेम
शत्रु  को
माँरें ठोकर 
१-११-२०१४ 
***

नवगीत : २७ 
*
क्यों प्रतिभा के 
पंख कुतरना चाह रहे हो? 

खुली हवा दो 
कुछ सपने साकार हो सकें 
निराकार हैं जो 
अरमां आकार ले सकें 
माटी ले माटी से  
मूरत नयी गढ़ सकें 
नीति-नियम, आचारों का 
आधार ले सकें 

क्यों घर में कर कैद 
खुदी को दाह रहे हो?

बीता भर लम्बा है 
जीवनकाल तुम्हारा 
कब आये पल 
महाकाल ने लगे गुहारा 
माटी में मिलना ही 
तय है नियति सभी की 
व्यर्थ गुमां क्यों 
दे पाओगे सदा सहारा?
नयन मूंदकर 
ले सागर की थाह रहे हो 
१-११-२०१४ 
***
नवगीत: २६   
*
गुमसुम बैठी 
किन प्रश्नों से 
जूझ रही हो?

मोबाइल को 
खोल-बंदकर झुंझलाती हो 
फिक्र मंद हो 
दूजे पल ही मुस्काती हो 
धूप-छाँव, 
ऊषा-संध्या से रंग अनेकों 
आते-जाते 
चेहरे पर, मन भरमाती हो 

कौन पहेली 
जिसे सहेली 
बूझ रही हो?

पर्स निकट ही 
उठा-रख रहीं बार-बार तुम 
कभी हटातीं 
लटें कभी लेतीें सँवार तुम 
विजयी लगतीं 
कभी लग रहीं गयीं हार तुम 
छेड़ रहीं क्या 
मन-वीणा के सुप्त तार तुम?

हल बनकर 
हर जटिल प्रश्न का 
सूझ रही हो 
१-११-२०१४ 
***
नवगीत: २५ 
*
बुरे दिनों में 
थे समीप जो 
भले दिनों में दूर हुए 

सत्ता की आहट मिलते ही 
बदल गए पैमाने 
अपनों को नीचे दिखलाने 
क्यों तुम मन में ठाने? 
दिन बदलें फिर पड़े जरूरत 
तब क्या होगा सोचो?

आँखें रहते भी 
बोलो क्यों 
ठोकर खाकर सूर हुए?

बड़बोलापन आज तुम्हारा 
तुम पर ही है भारी 
हँसी उड़ रही है दुनिया में 
दिल पर चलती आरी 
आनेवाले दिन भारी हैं
लगता है जनगण को 

बढ़ते कर 
मँहगाई न घटती 
दिन अपने बेनूर हुए 

अच्छे दिन के सपने टूटे 
कथनी-करनी भिन्न 
तानाशाही की दस्तक सुन 
लोकतंत्र है खिन्न
याद करें संपूर्ण क्रांति को 
लाना है बदलाव 

सहिष्णुता है 
क्षत-विक्षत 
नेतागण क्रूर हुए 
१-११-२०१४ 
***
नवगीत: २४
सूर्य उग रहा आशाओं का 
आशंका बादल घेरे हैं 

जय नरेंद्र की 
बोल रहा देवेन्द्र हुलस कर 
महाराष्ट्र भी 
राष्ट्र वंदना करे पुलक कर
रचे महाभारत 
जब-जब तब भारत बदले 
शतदल कमल 
खिला है, हेरे विश्व विहँस कर 
  
करे भागवत 
मोहन उन्नति के फेरे हैं 

सीमा पार 
पड़ोसी बैठे घात लगाये 
घर में छिपा विभीषण 
अरि को गले लगाये 
धन लिप्सा 
सेठों-नेताओं की घातक है 
भरे विदेशी बैंक 
संधियाँ कर मुस्काये 

आम आदमी को  
अभाव  पल-पल टेरे है 

चपरासी-बाबू पर 
खर्च घटाओ स्वागत 
जनप्रतिनिधि को तनिक 
सिखाएं कभी किफायत 
अफसर अपव्यय घटा 
सकें, मँहगाई घटेगी 
सस्ता न्याय-इलाज 
बनायें नयी रवायत 

जनता को कानून 
व्यर्थ ही क्यों पेरे हैं?
***
संजीवनी अस्पताल रायपुर
३१. १०.२०१४  
नवगीत: २३
*
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम

जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता

मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम

नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है

खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?

साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है

थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
३०-१०-२०१४ 
***
नवगीत: २२ 
*
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित

खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है

बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित 

कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी

सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित

पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी

आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित

शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने

सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
३०-१०-२०१४
*
नवगीत: २१ 
*
हर चेहरा है
एक सवाल 

शंकाकुल मन
राहत चाहे
कहीं न मिलती.
शूल चुभें शत
आशा की नव
कली न खिलती

प्रश्न सभी
देते हैं टाल

क्या कसूर,
क्यों व्याधि घेरती,
बेबस करती?
तन-मन-धन को 
हानि अपरिमित
पहुँचा छलती

आत्म मनोबल
बनता ढाल

मँहगा बहुत
दवाई-इलाज
दिवाला निकले
कोशिश करें
सम्हलने की पर 
पग फिर फिसले

किसे बताएं
दिल का हाल?

***
संजीवनी अस्पताल, रायपुर
२९-१०-२०१४ 
नवगीत:२० 
*
आओ रे!
मतदान करो

भारत भाग्य विधाता हो
तुम शासन-निर्माता हो
संसद-सांसद-त्राता हो

हमें चुनो
फिर जियो-मरो
कैसे भी
मतदान करो

तूफां-बाढ़-अकाल सहो
सीने पर गोलियाँ गहो
भूकंपों में घिरो-ढहो

मेलों में
दे जान तरो
लेकिन तुम
मतदान करो

लालटेन, हाथी, पंजा
साड़ी, दाढ़ी या गंजा
कान, भेंगा या कंजा

नेता करनी
आप भरो
लुटो-पिटो
मतदान करो

पाँच साल क्यों देखो राह
जब चाहो हो जाओ तबाह
बर्बादी को मिले पनाह

दल-दलदल में
फँसो-घिरो
रुपये लो
मतदान करो

नाग, साँप, बिच्छू कर जोड़
गुंडे-ठग आये घर छोड़
केर-बेर में है गठजोड़

मत सुधार की
आस धरो
टैक्स भरो
मतदान करो
२९-१०-२०१४
***
(कश्मीर तथा अन्य राज्यों में चुनाव की खबर पर )
नवगीत: १९
*
ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर
धर देता

वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता

सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता

रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता
२९-१०-२०१४
*** 
नवगीत: १८
*
सुख-सुविधा में
मेरा-तेरा
दुःख सबका
साझा समान है

पद-अधिकार
करते झगड़े
अहंकार के
मिटें न लफ़ड़े
धन-संपदा
शत्रु हैं तगड़े
परेशान सब
अगड़े-पिछड़े

मान-मनौअल
समाधान है

मिल-जुलकर जो
मेहनत करते
गिरते-उठते
आगे बढ़ते
पग-पग चलते
सीढ़ी चढ़ते
तार और को
खुद भी तरते

पगतल भू
करतल वितान है
२९-१०-२०१४
***
नवगीत:१७
*
देव सोये तो
सोये रहें
हम मानव जागेंगे

राक्षस
अति संचय करते हैं
दानव
अमन-शांति हरते हैं
असुर
क्रूर कोलाहल करते
दनुज
निबल की जां हरते हैं

अनाचार का
शीश पकड़
हम मानव काटेंगे

भोग-विलास
देवता करते
बिन श्रम सुर
हर सुविधा वरते
ईश्वर पाप
गैर सर धरते
प्रभु अधिकार
और का हरते

हर अधिकार
विशेष चीन
हम मानव वारेंगे

मेहनत
अपना दीन-धर्म है
सच्चा साथी
सिर्फ कर्म है
धर्म-मर्म
संकोच-शर्म है

पीड़ित के
आँसू पोछेंगे
मिलकर तारेंगे

***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर
नवगीत: १६
*
ऐसा कैसा
पर्व मनाया ?

मनुज सभ्य है
करते दावा
बोल रहे
कुदरत पर धावा
कोई काम
न करते सादा
करते कभी
न पूरा वादा

अवसर पाकर
स्वार्थ भुनाया

धुआँ, धूल
कचरा फैलाते
हल्ला-गुल्ला
शोर मचाते
आज पूज
कल फेकें प्रतिमा
समझें नहीं
ईश की गरिमा

अपनों को ही
किया पराया

धनवानों ने
किया प्रदर्शन
लंघन करता
भूखा-निर्धन
फूट रहे हैं
सरहद पर बम
नहीं किसी को
थोड़ा भी गम

तजी सफाई
किया सफाया
२७-१०-२०१४
***
नवगीत: १५
*
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं

गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं

बिन समझे
हल बूझ रहे हैं

कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ

खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं

पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार

हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
२७-१०-२०१४
***
गीत: १४ 
*
एक जुट प्रहार हो 
घना जो अन्धकार हो 
*
गूंजती पुकार हो 
बह रही बयार हो 
घेर ले तिमिर घना 
कदम-कदम पे खार हो 
हौसला चुके नहीं 
शीश भी झुके नहीं 
बाँध मुट्ठियाँ बढ़ो 
घना जो अन्धकार हो 
*
नित नया निखार हो 
भूल का सुधार हो
काल के भी भाल पर 
कोशिशी प्रहार हो 
दुश्मनों से जूझना 
प्रश्न पूछ-बूझना 
दाँव-पेंच-युक्तियाँ 
एक पर हजार हो
घना जो अन्धकार हो 
*
हार की भी हार हो 
प्यार को भी प्यार हो 
प्राणदीप लो जला 
सिंगार का सिंगार हो 
गरल कंठ धारकर
मौत को भी मारकर 
ज़िंदगी की बंदगी 
विहँस बार-बार हो 
घना जो अन्धकार हो 
२३-१०-२०१४ 
***
नवगीत: १३  
*
दिल न जलाओ,
दिया जलाओ 

ईश्वर सबको 
सुख समृद्धि दे 
हर प्रयास को 
कीर्ति-वृद्धि दे 

नित नव पथ पर 
कदम बढ़ाओ 

जीत-हार 
जो हो, होने दो 
किन्तु मित्रता 
मत खोने दो 

रुठो मत, 
बाँहों में आओ 

लेना-देना 
चना-चबेना 
जब सुस्ताओ 
सपने सेना 

'मावस को 
पूर्णिमा बनाओ
२३-१०-२०१४ 
***
नवगीत: १२ 
*
दीपमालिके! 
दीप बाल के 
बैठे हैं हम 
आ भी जाओ

अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता

मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर

विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ

अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो

चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो
सदय दिखाओ
२३-१०-२०१४ 
***
नवगीत: ११ 
*
मंज़िल आकर 
पग छू लेगी 

ले प्रदीप 
नव आशाओं के 
एक साथ मिल 
कदम रखें तो 

रश्मि विजय का 
तिलक करेगी 

होनें दें विश्वास 
न डगमग
देश स्वच्छ  हो 
जगमग जगमग 

भाग्य लक्ष्मी 
तभी वरेगी 

हरी-भरी हो 
सब वसुंधरा 
हो समृद्धि तब ही 
स्वयंवरा 

तब तक़दीर न
कभी ढलेगी 
२३-१०-२०१४ 
***
नवगीत:

डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये

लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते

अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते

करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये

अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने  

अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने

गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये

शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे

नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे

गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें 
आशा-दीप
न कोई जलाये
२२-१०-२०१४
***
नव गीत: १० 
*
कम लिखता हूँ
अधिक समझना

अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात

शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात

गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात

झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना

एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक

एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक

कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक

शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना

एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप

मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप

विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप 

भोग
लगाकर
आप गटकना
२२-१०-२०१४
***
९.
*
मंदिर में
पूजा जाता जो
उसका भी 
क्रय-विक्रय होता
*
बिका हुआ भगवान
न वापिस होगा
लिख इंसान हँस रहा
वह क्या जाने
कालपाश में
ईश्वर के वह स्वयं फँस रहा
आस्था को
नीलाम कर रहा
भवसागर में
खाकर गोता
मन-मंदिर खाली
तन-मंदिर में
नित भोग चढ़ाते रहते
सिर्फ देह हम
उस विदेह को दिखा
भोग खुद खाते रहते
थामे माला
राम नाम
जपते रहते है
जैसे तोता
रचना की
करतूतें बेढब
रचनाकार देखकर विस्मित
माली मौन
भ्रमरदल से है
उपवन सारा पल-पल गुंजित
कौन बताये
क्या पाता है
क्या कब कौन
कहाँ है खोता???
२१-१०-२०१४ 
========
८. सन्नाटा  
*
बिन बोले ही बोले
सब कुछ
हो गहरा सन्नाटा

नहीं लिपाई
नहीं पुताई
हुई नहीं है
कही सफाई
केवल झाड़ू
गयी उठाई
फोटो धाँसू
गयी खिंचाई

अंतर से अंतर का
अंतर
नहीं गया है पाटा

हार किसी की
जीत दिला दे 
जयी न कभी 
बनाती है
मृगतृष्णा
नव आस जगा दे
तृषा बुझा
कब पाती है?

लाभ तभी शुभ जब न
बने वह
कल अपना ही घाटा

आत्म निरीक्षण
आत्म परीक्षण
खुद अपना
कर देखो
तभी दिवाली
जब अपनी
कथनी-करनी
खुद लेखो 

कहकर बात मुकरना
लगता आप
थूककर चाटा
१९-१०-२०१४
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७. कोशिश  
*
कोशिश
करते रहिए, निश्चय 
मंज़िल मिल जाएगी

जिन्हें भरोसा
है अतीत पर
नहीं आज से नाता
ऐसों के
पग नीचे से
आधार सरक ही जाता
कुंवर, जमाई
या माता से
सदा राज कब चलता?
कोष विदेशी
बैंकों का
कब काम कष्ट में आता

हवस
आसुरी वृत्ति तजें
तब आशा फल पायेगी 

जिसने बाजी
जीती उसको
मिली चुनौती भारी
जनसेवा का
समर जीतने की
अब हो तैयारी
सत्ता करती
भ्रष्ट, सदा ही
पथ से भटकाती है
अपने हों
अपनों के दुश्मन
चला शीश पर आरी

सम्हलो
करो सुनिश्चित
फूट न आपस में आएगी

जीत रहे
अंतर्विरोध पर
बाहर शत्रु खड़े हैं
खुद अंधे हों
काना करने
हमें ससैन्य अड़े हैं
हैं हिस्सा
इस महादेश का
फिर से उन्हें मिलाना
महासमर ही
चाहे हमको
बरबस पड़े रचाना

वेणु कृष्ण की
तब गूंजेगी
शांति तभी आएगी
१९-१०-२०१४
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६. खुश हो  
*
कमललोचना मैया!
खुश हो
मची कमल की धूम

जनगण का
जनमत आया है
शतदल
सबके मन भाया है
हाथी दूरी
पाल कमल से
मन ही मन
रो-पछताया है

ज्योतिपर्व के पूर्व
पटाखे फूटे
बम बम बूम

हँसिया गया
हाशिये पर
नहीं साथ में धान
पंजा झाड़ू थाम
सफाई करे गँवाया मान
शिव-सेना का
अमल कमल ने
तोड़ दिया अभिमान

नर-नर जब होता
नरेंद्र तब
यश लेता नभ चूम

जो तुमको
रखकर विदेश में
देते काला नाम
उनसे रूठी
भाग्य लक्ष्मी
हुआ विधाता वाम
काम सभी को
प्यारा होता
अधिक न भाये चाम

दावे कब
मिट जाएँ धूल में
किसको है मालूम
१९-१०-२०१४
***
५. किसने?  
*
किसने पैदा करी
विवशता
जिसका कोई तोड़ नहीं है?

नेता जी का
सत्य खोजने
हाथ नहीं क्यों बढ़ पाते हैं?

अवरोधों से
चाह-चाहकर
कहो नहीं क्यों लड़ पाते हैं?

कैसी है
यह राह अँधेरी
जिसमें कोई मोड़ नहीं है??

जय पाकर भी
हुए पराजित
असमय शास्त्री जी को खोकर

कहाँ हुआ क्या
और किस तरह?
कौन  शोक में गया डुबोकर?

हुए हादसे
और अन्य भी 
लेकिन उनसे होड़ नहीं है

बैंक विदेशी
देशी धन के
कैसे कोषागार हुए हैं?

खून चूसते
आमजनों का
कहाँ छिपे? वे कौन मुए हैं?

दो ऋण मिल
धन बनते लेकिन
ऋण ही ऋण है जोड़ नहीं है
१९-१०-२०१४
***
४. हम मिले 
*
हम मिले बिछुड़ने को   
कहा-सुना माफ़ करो...
*
पल भर ही साथ रहे
हाथों में हाथ रहे.
फूल शूल धूल लिये-
पग-तल में पाथ रहे
गिरे, उठे, सँभल बढ़े 
उन्नत माथ रहे 
गैरों से चाहो क्योँ? 
खुद ही इन्साफ करो... 
*
दूर देश से आया
दूर देश में आया
अपनों सा अपनापन 
औरों में है पाया
क्षर ने अक्षर पूजा 
अक्षर ने क्षर गाया 
का खा गा, ए बी सी 
सीन अलिफ काफ़ करो… 
*
नर्मदा मचलती है 
गोमती सिहरती है 
बाँहों में बाँह लिये 
चाह जब ठिठकती है  
डाह तब फिसलती है 
वाह तब सँभलती है 
लहर-लहर घहर-घहर 
कहे नदी साफ़ करो...
१९-१०-२०१४ 
३. दम रहने तक लड़ो  
*
रोगों से
मत डरो 
दम रहने तक लड़ो

आपद-विपद
न रहे
हमेशा आते-जाते हैं

संयम-धैर्य
परखते हैं
तुमको आजमाते हैं 

औषध-पथ्य
बनेंगे सबल
अवरोधों से भिड़ो

जाँच परीक्षण
शल्य क्रियाएँ 
योगासन व्यायाम न भायें

मन करता है
कुछ मत खायें
दवा गोलियाँ आग लगायें 

खूब खिजाएँ
लगे चिढ़ाएँ
शांत चित्त रख अड़ो
१६-१०-२०१४
*
२. मन की महक
*
मन की महक 
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
नेह नर्मदा नहा,
छाछ पी, जमुना रास रचाये.
गंगा 'बम भोले' कह चम्बल
को हँस गले लगाये..
कहे : 'राम जू की जय'
कृष्णा-कावेरी सरयू से-
साबरमती सिन्धु सतलज संग
ब्रम्हपुत्र इठलाये..

लहर-लहर
जन-गण मन गाये,
'सलिल' करे मनुहार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
विन्ध्य-सतपुड़ा-मेकल की,
हरियाली दे खुशहाली.
काराकोरम-कंचनजंघा ,
नन्दादेवी आली..
अरावली खासी-जयंतिया,
नीलगिरी, गिरि झूमें-
चूमें नील-गगन को, लूमें
पनघट में मतवाली.

पछुआ-पुरवैया
गलबहियाँ दे
मनायें त्यौहार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
चूँ-चूँ चहक-चहक गौरैया
कहे हो गयी भोर.
सुमिरो उसको जिसने थामी
सब की जीवन-डोर.
होली ईद दिवाली क्रिसमस
गले मिलें सुख-चैन
मिला नैन से नैन,
बसें दिल के दिल में चितचोर.

बाज रहे
करताल-मंजीरा
ठुमक रहे करतार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
****************

१.  महका-महका 

*                                                   
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
*
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
*
लख मयंक की छटा अनूठी 
तारे हरषे.
नेह नर्मदा नहा चन्द्रिका
चाँदी परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
 *** 


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