''काल है संक्रांति का'' एक काव्य-समीक्षा
-राकेश खंडेलवाल
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[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-,
चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
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-राकेश खंडेलवाल
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[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-,
चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
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जिस संक्रान्ति काल की अब तक जलती हुई प्रतीक्षायें थीं
आज समय के वृहद भाल पर वह हस्ताक्षर बन कर उभरा
नवगीतों ने नवल ताल पर किया नई लय का अन्वेषण
एक छन्द में हुआ समाहित बरस-बरस का अन्तर्वेदन
सहज शब्द में गुँथा हुआ जो भाव गूढ़, परिलक्ष हो रहा
उपन्यास जो कह न सके हैं, वह रचना में व्यक्त हो रहा
शारद की वीणा के तारों की झंकृत होती सरगम से
सजा हुआ हर वाक्य, गीत में मुक्तामणियों जैसा सँवरा
सजा हुआ हर वाक्य, गीत में मुक्तामणियों जैसा सँवरा
हर रस के भावों को विस्तृत करते हुये शतगुणितता में
शब्द और उत्तर दोनों ही चर्चित करते हर कविता में
शब्द और उत्तर दोनों ही चर्चित करते हर कविता में
एक शारदासुत के शब्दों का गर्जनस्वर और नियोजन
वाक्य-वाक्य में मंत्रोच्चारों सा परिवर्तन का आवाहन
वाक्य-वाक्य में मंत्रोच्चारों सा परिवर्तन का आवाहन
जनमानस के मन में जितना बिखरा सा अस्पष्ट भाव था
बहते हुये सलिल-धारा में शतदल कमल बना, खिल निखरा
बहते हुये सलिल-धारा में शतदल कमल बना, खिल निखरा
अलंकार के स्वर्णाभूषण, मधुर लक्षणा और व्यंजना
शब्दों की संतुलित प्रविष्टि कर, हाव-भाव से छंद गूँथना
शब्दों की संतुलित प्रविष्टि कर, हाव-भाव से छंद गूँथना
सहज प्रवाहित काव्य सुधामय गीतों की अविरल रस धारा
जितनी बार पढो़, मन कहता एक बार फिर पढें दुबारा
जितनी बार पढो़, मन कहता एक बार फिर पढें दुबारा
इतिहासों पर रखी नींव पर नव-निर्माण नई सोचों का
नई कल्पना को यथार्थ का दिया कलेवर इसने गहरा.
नई कल्पना को यथार्थ का दिया कलेवर इसने गहरा.
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