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गुरुवार, 9 नवंबर 2017

समीक्षा- khidakiyan kholo nav geet sangrah

कृति चर्चा:
'खिड़कियाँ खोलो' : वैषम्य हटा समता बो लो
संजीव
*
[कृति विवरण: खिड़कियाँ खोलो, नवगीत संग्रह, ओमप्रकाश तिवारी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ९०/-, बोधि प्रकाशन जयपुर]
साहित्य वही जो सबके हित की कामना से सृजा जाए। इस निकष पर सामान्यतः नवगीत विधा और विशेषकर नवगीतकार ओमप्रकाश तिवारी का सद्य प्रकाशित प्रथम नवगीत संग्रह 'खिड़कियाँ खोलो' खरे उतरते हैं। खिड़कियाँ खोलना का श्लेषार्थ प्रकाश व ताजी हवा को प्रवेश देना और तम को हटाना है। यह नवगीत विधा का और साहित्य के साथ रचनाकार ओमप्रकाश तिवारी जी के व्यवसाय पत्रकारिता का भी लक्ष्य है। सुरुचिपूर्ण आवरण चित्र इस उद्देश्य को इंगित करता है। ६० नवगीतों का यह संग्रह हर नवगीत में समाज में व्याप्त विषमताओं और उनसे उपजी विडंबनाओं को उद्घाटित कर परोक्षतः निराकरण और सुधार हेतु प्रेरित करता है। पत्रकार ओमप्रकाश जी जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं। वे अपनी बात रखने के लिए सुसंस्कृत शब्दावली के स्थान पर आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं ताकि सिर्फ पबुद्ध वर्ग तक सीमित न रहकर नवगीतों का संदेश समाज के तक पहुँच सके।
इन नवगीतों का प्राण भाषा की रवानगी है. ओमप्रकाश जी को तत्सम, तद्भव, देशज, हिंदीतर किसी शब्द से परहेज नहीं है। उन्हें अपनी बात को अरलता और स्पष्टता से सामने रखने के लिए जो शब्द उपयुक्त लगता है वे उसे बेहिचक प्रयोग कर लेते हैं। निर्मल, गगन, गणक, दूर्वा, पुष्पाच्छादित, धरनि, पावस, शाश्वत, ध्वनि विस्तारक, श्रीमंत, उद्धारक, षटव्यंजन, प्रतिद्वन्दी, तदर्थ, पुनर्मिलन, जलदर्शन आदि संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ कंप्यूटर, मोटर, टायर, बुलडोज़र, चैनेल, स्पून, जोगिंग, हैंगओवर, ट्रेडमिल, इनकमटैक्स, वैट, कस्टम, फ्लैट, क्रैश, बेबी सिटिंग, केक, बोर्डिंग, पिकनिक, डॉलर, चॉकलेट, हॉउसफुल, इंटरनेट आदि अंग्रेजी शब्द, आली, दादुर, नून, पछुआ, पुरवा, दूर, नखत, मुए, काहे, डगर, रेह, चच्चा, दद्दू, जून (समय), स्वारथ, पदार्थ, पिसान आदि देशज शब्द अथवा ताज़ी, ज़िंदगी, दरिया, रवानी, गर्मजोशी, रौनक, माहौल, अंदाज़, तूफानी, मुनादी, इंकलाब, हफ्ता, बवाल, आस्तीन, बेवा, अफ़लातून, अय्याशी, ज़ुल्म, खामी, ख्वाब, सलामत, रहनुमा, मुल्क, चंगा, ऐब, अरमान, ग़ुरबत, खज़ाना, ज़ुबां, खबर, गुमां, मयस्सर, लहू, क़तरा जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरी स्वाभाविकता के साथ इन नवगीतों में प्रयुक्त हुए हैं। निस्संदेह यह भाषा नवगीतों को उस वर्ग से जोड़ती है जो विषमता से सर्वाधिक पीड़ित है। इस नज़रिये से इन नवगीतों की पहुँच और प्रभाव प्राञ्जल शब्दावली में रचित नवगीतों से अधिक होना स्वाभाविक है।
ओमप्रकाश जी के लिए अपनी बात को प्रखरता, स्पष्टता और साफगोई से रखना पहली प्राथमिकता है। इसलिए वे शब्दों के मानक रूप को बदलने से भी परहेज़ नहीं करते, भले ही भाषिक शुद्धता के आग्रही इसे अशुद्धि कहें। ऐसे कुछ शब्द पाला के स्थान पर पाल्हा, धरणी के स्थान पर धरनि, ऊपर के स्थान पर उप्पर, पुछत्तर, बिचौलिये के लिए बिचौले, इसमें की जगह अम्मी, चाहिए के लिए चहिए, प्रजा के लिए परजा, सीखने के बदले सिखने आदि हैं. विचारणीय है की यदि हर रचनाकार केवल तुकबंदी के लिए शब्दों को विरूपित करे तो भाषा का मानक रूप कैसे बनेगा ? विविध रचनाकार अपनी जरूरत के अनुसार शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने लगें तो उनमें एकरूपता कैसे होगी? हिंदी के समक्ष विज्ञान विषयों की अभिव्यक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा शब्दों के रूप और अर्थ सुनिश्चित न होना ही है। जैसे 'शेप' और 'साइज़' दोनों को 'आकार' कहा जाना, जबकि इन दोनों का अर्थ पूर्णतः भिन्न है। ओमप्रकाश जी निस्संदेह शब्द सामर्थ्य के धनी हैं, इसलिए शब्दों को मूल रूप में रखते हुए तुक परिवर्तन कर अपनी बात कहना उनके लिए कठिन नहीं है। नवगीत का एक लक्षण भाषिक टटकापन माना गया है। कोई शक नहीं कि ग्रामीण अथवा देशज शब्दों को यथावत रखे जाने से नवगीत प्राणवंत होता है किन्तु यह देशजता शब्दविरूपण जनित हो तो खटकती है।
नवगीत को मुहावरेदार शब्दावली सरसता और अर्थवत्ता दोनों देती है। ओमप्रकाश जी ने चने हुए अब तो लोहे के (लोहे के चने चबाना), काम करें ना दंत (पंछी करें न काम), दिल पर पत्थर रखकर लिक्खी (दिल पर पत्थर रखना), मुँह में दही जमा, गले मिलना, तिल का ताड़, खून के आँसू जैसे मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ-साथ भस्म-भभूति, मोक्ष-मुक्ति, चन-चबेना, चेले-चापड़, हाथी-घोड़े-ऊँट, पढ़ना-लिखना, गुटका-गांजा-सुरती, गाँव-गिराँव, सूट-बूट, पुरवा-पछुआ, भवन-कोठियाँ, साह-बहु, भरा-पूरा, कद-काठी, पढ़ी-लिखी, तेल-फुलेल, लाठी-गोली, घिसे-पिटे, पढ़े-लिखे, रिश्ता-नाता, दुःख-दर्द, वारे-न्यारे, संसद-सत्ता, मोटर-बत्ती, जेल-बेल, गुल्ली-डंडा, तेल-मसाला आदि शब्द-युग्मों का यथावश्यक प्रयोग कर नवगीतों की भाषा को जीवंतता दी है। इनमें कुछ शब्द युग्म प्रचलित हैं तो कुछ की उद्भावना मौलिक प्रतीत होती है। इनसे नवगीतकार की भाषा पर पकड़ और अधिकार व्यक्त होता है।
अंग्रेजी शब्दों के हिंदी भाषांतरण की दिशा में कोंक्रीट को कंकरीट किया जाना सटीक और सही प्रतीत हुआ। सिविल अभियंता के अपने लम्बे कार्यकाल में मैंने श्रमिकों को यह शब्द कुछ इसी प्रकार बोलते सुना है। अतः, इसे शब्दकोष में जोड़ा जा सकता है।
ओमप्रकाश जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य समसामयिक वैषम्य और विसंगतियों का संकेतन और उनके निराकरण का सन्देश दे पाना है। पत्रकार होने के नाते उनकी दृष्टि का सूक्ष्म, पैना और विश्लेषक होना स्वाभाविक है। यह स्वाभाविकता ही उनके नवगीतों के कथ्य को सहज स्वीकार्य बनती है और पाठक-श्रोता उससे अपनापन अनुभव करता है। पत्रकार का हथियार कलम है। विसंगतियां जिस क्रोध को जन्म देती हैं वह शब्द प्रहार कर संतुष्ट-शांत होता है। वे स्वयं कहते हैं: 'खरोध ही तो मेरी कविताओं का प्रेरक तत्व है। इस पुस्तक की ८०% रचनाएँ किसी न किसी घटना अथवा दृश्य से उपजे क्रोध का ही परिणाम है जो अक्सर पद्य व्यंग्य के रूप में ढल जाया करती है।' आशीर्वचन में डॉ. राम जी तिवारी ने इन नवगीतों का उत्स 'प्रदूषण, पाखंड, भ्रष्ट राजनीति, अनियंत्रित मँहगाई, लोकतंत्र की असफलता, रित्रहीनता, पारिवारिक कलह, सांप्रदायिक विद्वेष, संवेदनहीनता, सांस्कृतिक क्षरण, व्यापक विनाश का खतरा, पतनशील सामाजिक रूढ़ियाँ' ठीक ही पहचाना है। 'देख आज़ादी का अनुभव / देखा नेताओं का उद्भव / तब रानी एक अकेली थी / अब राजा आते हैं नव-नव / हम तो जस के तस हैं गुलाम' से लोक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
ओमप्रकाश जी की सफलता जटिल अनुभूतियों को लय तथा भाषिक प्रवाह के साथ सहजता से कह पाना है। कहा जाता है 'बहता पानी निर्मला'। नीरज जी ने 'ओ मोरे भैया पानी दो / पानी दो गुड़ घनी दो' लोकगीत में लिखा है 'भाषा को मधुर रवानी दो' इन नवगीतों में भाषा की मधुर रवानी सर्वत्र व्याप्त है: ' है सुखद / अनुभूति / दरिया की रवानी / रुक गया तो / शीघ्र / सड़ जाता है पानी'। सम्मिलित परिवार प्रथा के समाप्त होने और एकल परिवार की त्रासदी भोगते जान की पीड़ा को कवि वाणी देता है: 'पति[पत्नी का परिवार बचा / वह भी तूने क्या खूब रचा / दोनों मोबाइल से चिपके / हैं उस पर ऊँगली रहे नचा / इंटरनेट से होती सलाम'।
कलावती के गाँव शीर्षक नवगीत में नेता के भ्रमण के समय प्रशासन द्वारा छिपाने का उद्घाटन है: गाड़ी में से उतरी / पानी की टंकी / तेलमसाला-आता / साडी नौटंकी / जला कई दिन बाद कला के घर चूल्हा /उड़ी गाँव में खुशबू / बढ़िया भोजन की / तृप्त हुए वो / करके भोजन ताज़ा जी / कलावती के / गाँव पधारे राजाजी।
सांप्रदायिक उन्माद, विवाद और सौहार्द्र पत्रकार और जागरूक नागरिक के नाते ओमप्रकाश जी की प्राथमिक चिंता है। वे सौहार्द्र को याद करते हुए उसके नाश का दोष राजनीती को ठीक ही देते हैं: असलम के संग / गुल्ली-डंडा / खेल-खेल बचपन बीता / रामकथावले / नाटक में / रजिया बनती थी सीता / मंदिर की ईंटें / रऊफ के भट्ठे / से ही थीं आईं / पंडित थे परधान / उन्हीं ने काटा / मस्जिद का फीता / गुटबंदी को / खददरवालों / ने आकर आबाद किया 'खद्दर' शीर्षक इस नवगीत का अंत 'तिल को ताड़ / बना कुछ लोगों / ने है खड़ा विवाद किया' सच सामने ला देता है।
'कौरव कुल' में महाभारत काल के मिथकों का वर्तमान से सादृश्य बखूबी वर्णित है।'घर बया का / बंदरों ने / किया नेस्तनाबूद है' में पंचतंत्र की कहानी को इंगित कर वर्तमान से सादृश्य तथा 'लोमड़ी ने / राजरानी / की गज़ब पोशाक धारी' में किसी का नाम लिए बिना संकेतन मात्र से अकहे को कहने की कला सराहनीय है।
'चाकलेट / कम खाई मैंने/ लेकिन पाया / माँ का प्यार', 'अर्थ जेब में / तो हम राजा / वरना सब कुछ व्यर्थ', 'राजा जी को / कौन बताये / राजा नंगा है', दिनकर वादा करो / सुबह / तुम दोगे अच्छी', 'प्रेमचंद के पंच / मग्न हैं / अपने-अपने दाँव में', 'लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार', 'मुट्ठी बाँध / जोर से बोल / प्यारे अपनी / किस्मत खोल', 'बहू चाहिए अफ़लातून / करे नौकरी वह सरकारी / साथ-साथ सब दुनियादारी / बच्चों के संग पीटीआई को पीला / घर की भी ले जिम्मेदारी / रोटी भी सेंके दो जून', 'लाठी पुलिस / रबर की गोली / कैसा फागुन / कैसी होली', ऊंचे-ऊंचे भवन-कोठियाँ / ऊँची सभी दूकान / चखकर देखे हमने बाबू / फीके थे पकवान / भली नून संग रूखी रोटी / खलिहानों की छाँव' जैसी संदेशवाही पंक्त्तियों को किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।
इस संग्रह की उपलब्धि 'यूं ही नहीं राम जा डूबे' तथा 'बाबूजी की एक तर्जनी' हैं। 'हारे-थके / महल में पहुँचे / तो सूना संसार / सीता की / सोने की मूरत / दे सकती न प्यार / ऐसे में / क्षय होना ही था / वह व्यक्तित्व विराट' में राम की वह विवशता इंगित है जो उनके भगवानत्व में प्रायः दबी रह जाती है। कवि अपने बचपन को जीते हुए पिता की ऊँगली के माध्यम से जो कहता है वह इस नवगीत को संकलन ही नहीं पाठक के लिए भी अविस्मरणीय बना देता है: बाबूजी की / एक तर्जनी / कितनी बड़ा सहारा थी.... / ऊँगली पकड़े रहते / जब तक / अपनी तो पाव बारा थी / स्वर-व्यंजन पहचान करना / या फिर गिनती और पहाड़े / ऊँगली कभी रही न पीछे / गर्मी पड़ती हो या जेड / चूक पढ़ाई में / होती तो / ऊँगली चढ़ता पारा थी / … ऊँगली / सिर्फ नहीं थी ऊँगली / घर का वही गुजारा थी'।
ओमप्रकाश तिवारी जी ने नवगीत विधा को न केवल अपनाया है, उसे अपने अनुसार ढाला भी है। मुहावरेदार भाषा में तीक्ष्णता, साफगोई और ईमानदारी से विषमताओं को इंगित कर उसके समाधान के प्रति सोचा जगाना ही उनका उद्देश्य है। वे खुद को भी नहीं बख्शते और लिखते हैं: 'मत गुमां पालो / की हैं / अखबार में / सोच लो / हम भी/ खड़े बाजार में'। आइए! हम सब नवता के पक्षधर पूरी शिद्दत के साथ विसंगतियों के बाज़ार में खड़े होकर नवगीत की धार से वैषम्य को धूसरित कर वैषम्यहीन नव संस्कृति की आधारशिला बनें।
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-समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४, ०७६१ २४१११३१कृति चर्चा:
'खिड़कियाँ खोलो' : वैषम्य हटा समता बो लो
संजीव
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[कृति विवरण: खिड़कियाँ खोलो, नवगीत संग्रह, ओमप्रकाश तिवारी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ९०/-, बोधि प्रकाशन जयपुर]
साहित्य वही जो सबके हित की कामना से सृजा जाए। इस निकष पर सामान्यतः नवगीत विधा और विशेषकर नवगीतकार ओमप्रकाश तिवारी का सद्य प्रकाशित प्रथम नवगीत संग्रह 'खिड़कियाँ खोलो' खरे उतरते हैं। खिड़कियाँ खोलना का श्लेषार्थ प्रकाश व ताजी हवा को प्रवेश देना और तम को हटाना है। यह नवगीत विधा का और साहित्य के साथ रचनाकार ओमप्रकाश तिवारी जी के व्यवसाय पत्रकारिता का भी लक्ष्य है। सुरुचिपूर्ण आवरण चित्र इस उद्देश्य को इंगित करता है। ६० नवगीतों का यह संग्रह हर नवगीत में समाज में व्याप्त विषमताओं और उनसे उपजी विडंबनाओं को उद्घाटित कर परोक्षतः निराकरण और सुधार हेतु प्रेरित करता है। पत्रकार ओमप्रकाश जी जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं। वे अपनी बात रखने के लिए सुसंस्कृत शब्दावली के स्थान पर आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं ताकि सिर्फ पबुद्ध वर्ग तक सीमित न रहकर नवगीतों का संदेश समाज के तक पहुँच सके।
इन नवगीतों का प्राण भाषा की रवानगी है. ओमप्रकाश जी को तत्सम, तद्भव, देशज, हिंदीतर किसी शब्द से परहेज नहीं है। उन्हें अपनी बात को अरलता और स्पष्टता से सामने रखने के लिए जो शब्द उपयुक्त लगता है वे उसे बेहिचक प्रयोग कर लेते हैं। निर्मल, गगन, गणक, दूर्वा, पुष्पाच्छादित, धरनि, पावस, शाश्वत, ध्वनि विस्तारक, श्रीमंत, उद्धारक, षटव्यंजन, प्रतिद्वन्दी, तदर्थ, पुनर्मिलन, जलदर्शन आदि संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ कंप्यूटर, मोटर, टायर, बुलडोज़र, चैनेल, स्पून, जोगिंग, हैंगओवर, ट्रेडमिल, इनकमटैक्स, वैट, कस्टम, फ्लैट, क्रैश, बेबी सिटिंग, केक, बोर्डिंग, पिकनिक, डॉलर, चॉकलेट, हॉउसफुल, इंटरनेट आदि अंग्रेजी शब्द, आली, दादुर, नून, पछुआ, पुरवा, दूर, नखत, मुए, काहे, डगर, रेह, चच्चा, दद्दू, जून (समय), स्वारथ, पदार्थ, पिसान आदि देशज शब्द अथवा ताज़ी, ज़िंदगी, दरिया, रवानी, गर्मजोशी, रौनक, माहौल, अंदाज़, तूफानी, मुनादी, इंकलाब, हफ्ता, बवाल, आस्तीन, बेवा, अफ़लातून, अय्याशी, ज़ुल्म, खामी, ख्वाब, सलामत, रहनुमा, मुल्क, चंगा, ऐब, अरमान, ग़ुरबत, खज़ाना, ज़ुबां, खबर, गुमां, मयस्सर, लहू, क़तरा जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरी स्वाभाविकता के साथ इन नवगीतों में प्रयुक्त हुए हैं। निस्संदेह यह भाषा नवगीतों को उस वर्ग से जोड़ती है जो विषमता से सर्वाधिक पीड़ित है। इस नज़रिये से इन नवगीतों की पहुँच और प्रभाव प्राञ्जल शब्दावली में रचित नवगीतों से अधिक होना स्वाभाविक है।
ओमप्रकाश जी के लिए अपनी बात को प्रखरता, स्पष्टता और साफगोई से रखना पहली प्राथमिकता है। इसलिए वे शब्दों के मानक रूप को बदलने से भी परहेज़ नहीं करते, भले ही भाषिक शुद्धता के आग्रही इसे अशुद्धि कहें। ऐसे कुछ शब्द पाला के स्थान पर पाल्हा, धरणी के स्थान पर धरनि, ऊपर के स्थान पर उप्पर, पुछत्तर, बिचौलिये के लिए बिचौले, इसमें की जगह अम्मी, चाहिए के लिए चहिए, प्रजा के लिए परजा, सीखने के बदले सिखने आदि हैं. विचारणीय है की यदि हर रचनाकार केवल तुकबंदी के लिए शब्दों को विरूपित करे तो भाषा का मानक रूप कैसे बनेगा ? विविध रचनाकार अपनी जरूरत के अनुसार शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने लगें तो उनमें एकरूपता कैसे होगी? हिंदी के समक्ष विज्ञान विषयों की अभिव्यक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा शब्दों के रूप और अर्थ सुनिश्चित न होना ही है। जैसे 'शेप' और 'साइज़' दोनों को 'आकार' कहा जाना, जबकि इन दोनों का अर्थ पूर्णतः भिन्न है। ओमप्रकाश जी निस्संदेह शब्द सामर्थ्य के धनी हैं, इसलिए शब्दों को मूल रूप में रखते हुए तुक परिवर्तन कर अपनी बात कहना उनके लिए कठिन नहीं है। नवगीत का एक लक्षण भाषिक टटकापन माना गया है। कोई शक नहीं कि ग्रामीण अथवा देशज शब्दों को यथावत रखे जाने से नवगीत प्राणवंत होता है किन्तु यह देशजता शब्दविरूपण जनित हो तो खटकती है।
नवगीत को मुहावरेदार शब्दावली सरसता और अर्थवत्ता दोनों देती है। ओमप्रकाश जी ने चने हुए अब तो लोहे के (लोहे के चने चबाना), काम करें ना दंत (पंछी करें न काम), दिल पर पत्थर रखकर लिक्खी (दिल पर पत्थर रखना), मुँह में दही जमा, गले मिलना, तिल का ताड़, खून के आँसू जैसे मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ-साथ भस्म-भभूति, मोक्ष-मुक्ति, चन-चबेना, चेले-चापड़, हाथी-घोड़े-ऊँट, पढ़ना-लिखना, गुटका-गांजा-सुरती, गाँव-गिराँव, सूट-बूट, पुरवा-पछुआ, भवन-कोठियाँ, साह-बहु, भरा-पूरा, कद-काठी, पढ़ी-लिखी, तेल-फुलेल, लाठी-गोली, घिसे-पिटे, पढ़े-लिखे, रिश्ता-नाता, दुःख-दर्द, वारे-न्यारे, संसद-सत्ता, मोटर-बत्ती, जेल-बेल, गुल्ली-डंडा, तेल-मसाला आदि शब्द-युग्मों का यथावश्यक प्रयोग कर नवगीतों की भाषा को जीवंतता दी है। इनमें कुछ शब्द युग्म प्रचलित हैं तो कुछ की उद्भावना मौलिक प्रतीत होती है। इनसे नवगीतकार की भाषा पर पकड़ और अधिकार व्यक्त होता है।
अंग्रेजी शब्दों के हिंदी भाषांतरण की दिशा में कोंक्रीट को कंकरीट किया जाना सटीक और सही प्रतीत हुआ। सिविल अभियंता के अपने लम्बे कार्यकाल में मैंने श्रमिकों को यह शब्द कुछ इसी प्रकार बोलते सुना है। अतः, इसे शब्दकोष में जोड़ा जा सकता है।
ओमप्रकाश जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य समसामयिक वैषम्य और विसंगतियों का संकेतन और उनके निराकरण का सन्देश दे पाना है। पत्रकार होने के नाते उनकी दृष्टि का सूक्ष्म, पैना और विश्लेषक होना स्वाभाविक है। यह स्वाभाविकता ही उनके नवगीतों के कथ्य को सहज स्वीकार्य बनती है और पाठक-श्रोता उससे अपनापन अनुभव करता है। पत्रकार का हथियार कलम है। विसंगतियां जिस क्रोध को जन्म देती हैं वह शब्द प्रहार कर संतुष्ट-शांत होता है। वे स्वयं कहते हैं: 'खरोध ही तो मेरी कविताओं का प्रेरक तत्व है। इस पुस्तक की ८०% रचनाएँ किसी न किसी घटना अथवा दृश्य से उपजे क्रोध का ही परिणाम है जो अक्सर पद्य व्यंग्य के रूप में ढल जाया करती है।' आशीर्वचन में डॉ. राम जी तिवारी ने इन नवगीतों का उत्स 'प्रदूषण, पाखंड, भ्रष्ट राजनीति, अनियंत्रित मँहगाई, लोकतंत्र की असफलता, रित्रहीनता, पारिवारिक कलह, सांप्रदायिक विद्वेष, संवेदनहीनता, सांस्कृतिक क्षरण, व्यापक विनाश का खतरा, पतनशील सामाजिक रूढ़ियाँ' ठीक ही पहचाना है। 'देख आज़ादी का अनुभव / देखा नेताओं का उद्भव / तब रानी एक अकेली थी / अब राजा आते हैं नव-नव / हम तो जस के तस हैं गुलाम' से लोक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
ओमप्रकाश जी की सफलता जटिल अनुभूतियों को लय तथा भाषिक प्रवाह के साथ सहजता से कह पाना है। कहा जाता है 'बहता पानी निर्मला'। नीरज जी ने 'ओ मोरे भैया पानी दो / पानी दो गुड़ घनी दो' लोकगीत में लिखा है 'भाषा को मधुर रवानी दो' इन नवगीतों में भाषा की मधुर रवानी सर्वत्र व्याप्त है: ' है सुखद / अनुभूति / दरिया की रवानी / रुक गया तो / शीघ्र / सड़ जाता है पानी'। सम्मिलित परिवार प्रथा के समाप्त होने और एकल परिवार की त्रासदी भोगते जान की पीड़ा को कवि वाणी देता है: 'पति[पत्नी का परिवार बचा / वह भी तूने क्या खूब रचा / दोनों मोबाइल से चिपके / हैं उस पर ऊँगली रहे नचा / इंटरनेट से होती सलाम'।
कलावती के गाँव शीर्षक नवगीत में नेता के भ्रमण के समय प्रशासन द्वारा छिपाने का उद्घाटन है: गाड़ी में से उतरी / पानी की टंकी / तेलमसाला-आता / साडी नौटंकी / जला कई दिन बाद कला के घर चूल्हा /उड़ी गाँव में खुशबू / बढ़िया भोजन की / तृप्त हुए वो / करके भोजन ताज़ा जी / कलावती के / गाँव पधारे राजाजी।
सांप्रदायिक उन्माद, विवाद और सौहार्द्र पत्रकार और जागरूक नागरिक के नाते ओमप्रकाश जी की प्राथमिक चिंता है। वे सौहार्द्र को याद करते हुए उसके नाश का दोष राजनीती को ठीक ही देते हैं: असलम के संग / गुल्ली-डंडा / खेल-खेल बचपन बीता / रामकथावले / नाटक में / रजिया बनती थी सीता / मंदिर की ईंटें / रऊफ के भट्ठे / से ही थीं आईं / पंडित थे परधान / उन्हीं ने काटा / मस्जिद का फीता / गुटबंदी को / खददरवालों / ने आकर आबाद किया 'खद्दर' शीर्षक इस नवगीत का अंत 'तिल को ताड़ / बना कुछ लोगों / ने है खड़ा विवाद किया' सच सामने ला देता है।
'कौरव कुल' में महाभारत काल के मिथकों का वर्तमान से सादृश्य बखूबी वर्णित है।'घर बया का / बंदरों ने / किया नेस्तनाबूद है' में पंचतंत्र की कहानी को इंगित कर वर्तमान से सादृश्य तथा 'लोमड़ी ने / राजरानी / की गज़ब पोशाक धारी' में किसी का नाम लिए बिना संकेतन मात्र से अकहे को कहने की कला सराहनीय है।
'चाकलेट / कम खाई मैंने/ लेकिन पाया / माँ का प्यार', 'अर्थ जेब में / तो हम राजा / वरना सब कुछ व्यर्थ', 'राजा जी को / कौन बताये / राजा नंगा है', दिनकर वादा करो / सुबह / तुम दोगे अच्छी', 'प्रेमचंद के पंच / मग्न हैं / अपने-अपने दाँव में', 'लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार', 'मुट्ठी बाँध / जोर से बोल / प्यारे अपनी / किस्मत खोल', 'बहू चाहिए अफ़लातून / करे नौकरी वह सरकारी / साथ-साथ सब दुनियादारी / बच्चों के संग पीटीआई को पीला / घर की भी ले जिम्मेदारी / रोटी भी सेंके दो जून', 'लाठी पुलिस / रबर की गोली / कैसा फागुन / कैसी होली', ऊंचे-ऊंचे भवन-कोठियाँ / ऊँची सभी दूकान / चखकर देखे हमने बाबू / फीके थे पकवान / भली नून संग रूखी रोटी / खलिहानों की छाँव' जैसी संदेशवाही पंक्त्तियों को किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।
इस संग्रह की उपलब्धि 'यूं ही नहीं राम जा डूबे' तथा 'बाबूजी की एक तर्जनी' हैं। 'हारे-थके / महल में पहुँचे / तो सूना संसार / सीता की / सोने की मूरत / दे सकती न प्यार / ऐसे में / क्षय होना ही था / वह व्यक्तित्व विराट' में राम की वह विवशता इंगित है जो उनके भगवानत्व में प्रायः दबी रह जाती है। कवि अपने बचपन को जीते हुए पिता की ऊँगली के माध्यम से जो कहता है वह इस नवगीत को संकलन ही नहीं पाठक के लिए भी अविस्मरणीय बना देता है: बाबूजी की / एक तर्जनी / कितनी बड़ा सहारा थी.... / ऊँगली पकड़े रहते / जब तक / अपनी तो पाव बारा थी / स्वर-व्यंजन पहचान करना / या फिर गिनती और पहाड़े / ऊँगली कभी रही न पीछे / गर्मी पड़ती हो या जेड / चूक पढ़ाई में / होती तो / ऊँगली चढ़ता पारा थी / … ऊँगली / सिर्फ नहीं थी ऊँगली / घर का वही गुजारा थी'।
ओमप्रकाश तिवारी जी ने नवगीत विधा को न केवल अपनाया है, उसे अपने अनुसार ढाला भी है। मुहावरेदार भाषा में तीक्ष्णता, साफगोई और ईमानदारी से विषमताओं को इंगित कर उसके समाधान के प्रति सोचा जगाना ही उनका उद्देश्य है। वे खुद को भी नहीं बख्शते और लिखते हैं: 'मत गुमां पालो / की हैं / अखबार में / सोच लो / हम भी/ खड़े बाजार में'। आइए! हम सब नवता के पक्षधर पूरी शिद्दत के साथ विसंगतियों के बाज़ार में खड़े होकर नवगीत की धार से वैषम्य को धूसरित कर वैषम्यहीन नव संस्कृति की आधारशिला बनें।
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