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बुधवार, 8 नवंबर 2017

haiku

त्रिपदिक (हाइकु) गीत:

करो मुनादी...

संजीव 'सलिल'
*
करो मुनादी
गोडसे ने पहनी
उजली खादी.....
*
सवेरे कहा:
जय भोले भंडारी
फिर चढ़ा ली..
*
तोड़े कानून
ढहाया ढाँचा, और
सत्ता भी पाली..
*
बेचा ईमान
नेता हैं बेईमान
निष्ठा भुला दी.....
*
एक ने खोला
मंदिर का ताला तो -
दूसरा डोला..
*
रखीं मूर्तियाँ
करवाया पूजन
न्याय को तौला..
*
मत समझो
जनगण नादान
बात भुला दी.....
*
क्यों भ्रष्टाचार
नस-नस में भारी?
करें विचार..
*
आख़िरी पल
करें किला फतह
क्यों हिन्दुस्तानी?
*
लगाया भोग
बाँट-खाया प्रसाद.
सजा ली गादी.....
*
हरियाणवी हाइकु 
*
घणा कड़वा 
आक करेला नीम
भला हकीम।१। 
*
​गोरी गाम की
घाघरा-चुनरिया
नम अँखियाँ।२।
*
बैरी बुढ़ापा
छाती तान के आग्या
अकड़ कोन्या।३।
*
जवानी-नशा
पोरी पोरी मटकै
जोबन-बम।४।
*
कोरा कागज
हरियाणवी हाइकु
लिक्खण बैठ्या।५।
*
'हरि' का 'यान'
देस प्रेम मैं आग्गै
'बहु धान्यक'।६।
*
पीछै पड़ गे
टाबर चिलम के
होश उड़ गे।७।
*
मानुष एक
छुआछूत कर्‌या
रै बेइमान।८।
*
हैं भारतीय
आपस म्हं विरोध
भूल भी जाओ।९।
*
चिन्ता नै चाट्टी
म्हारी हाण कचोट
रंज नै खाई।१०।
*
ना है बाज का
चिडिय़ा नै खतरा
है चिड़वा का।११।
*
गुरू का दर्जा
शिक्षा के मन्दिर मैं
सबतै ऊँच्चा।१२।
*
कली नै माली
मसलण लाग्या हे
बची ना आस। १३।
*
माणस-बीज
मरणा हे लड़कै
नहीं झुककै।१४।
*
लड़ी लड़ाई
जमीन छुड़वाई
नेता लौटाई।१५।
*
भुख्खा किसाण
कर्ज से कर्ज तारै
माटी भा दाणे।१६।
*
बाग म्हं कूकै
बिरहण कोयल
दिल सौ टूक।१७।
*
चिट्ठी आई सै
आंख्या पाणी भरग्या
फौजी हरख्या।१८।
*
सब नै दंग
करती चूड़ी-बिंदी
मैडल ल्याई।१९।
*
लाडो आ तूं
किलकारी मारकै
सुपणा मेरा।२०।
*
मुक्तक 
नींद उड़ानेवाले! तेरे सपनों में सँग-साथ रहूँ 
जो न किसी ने कह पाया हूँ, मन ही मन वह बात कहूँ 
मजा तभी बिन कहे समझ ले, वह जो अब तक अनजाना 
कही-सुनी तो आनी-जानी, सोची-समझी बात तहूँ 
*
बाल कविता

संजीव 'सलिल'
*
अंशू-मिंशू दो भाई हिल-मिल रहते थे हरदम साथ.
साथ खेलते साथ कूदते दोनों लिये हाथ में हाथ..  

अंशू तो सीधा-सादा था, मिंशू था बातूनी.
ख्वाब देखता तारों के, बातें थीं अफलातूनी..

 एक सुबह दोनों ने सोचा: 'आज करेंगे सैर'.
जंगल की हरियाली देखें, नहा, नदी में तैर..  

अगर बड़ों को बता दिया तो हमें न जाने देंगे,
बहला-फुसला, डांट-डपट कर नहीं घूमने देंगे..  

छिपकर दोनों भाई चल दिये हवा बह रही शीतल.
पंछी चहक रहे थे, मनहर लगता था जगती-तल..  

तभी सुनायी दीं आवाजें, दो पैरों की भारी.
रीछ दिखा तो सिट्टी-पिट्टी भूले दोनों सारी..  

मिंशू को झट पकड़ झाड़ पर चढ़ा दिया अंशू ने.
'भैया! भालू इधर आ रहा' बतलाया मिंशू  ने..  

चढ़ न सका अंशू ऊपर तो उसने अकल लगाई.
झट ज़मीन पर लेट रोक लीं साँसें उसने भाई..  

भालू आया, सूँघा, समझा इसमें जान नहीं है.
इससे मुझको कोई भी खतरा या हानि नहीं है..  

चला गए भालू आगे, तब मिंशू उतरा नीचे.
'चलो उठो कब तक सोओगे ऐसे आँखें मींचें.'  

दोनों भाई भागे घर को, पकड़े अपने कान.
आज बचे, अब नहीं अकेले जाएँ मन में ठान..  

धन्यवाद ईश्वर को देकर, माँ को सच बतलाया.
माँ बोली: 'संकट में धीरज काम तुम्हारे आया..  

जो लेता है काम बुद्धि से वही सफल होता है.
जो घबराता है पथ में काँटें अपने बोता है..  

खतरा-भूख न हो तो पशु भी हानि नहीं पहुँचाता.
मानव दानव बना पेड़ काटे, पशु मार गिराता..'  

अंशू-मिंशू बोले: 'माँ! हम दें पौधों को पानी.
पशु-पक्षी की रक्षा करने की मन में है ठानी..'  

माँ ने शाबाशी दी, कहा 'अकेले अब मत जाना.
बड़े सदा हितचिंतक होते, अब तुमने यह माना..'

*************************************
छंद सलिला:
गीतिका छंद
संजीव 
*
छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
*
कार्यशाला- ७-११-१७ 
आज का विषय- पथ का चुनाव 
अपनी प्रस्तुति टिप्पणी में दें।
किसी भी विधा में रचना प्रस्तुत कर सकते हैं। 
रचना की विधा तथा रचना नियमों का उल्लेख करें। 
समुचित प्रतिक्रिया शालीनता तथा सन्दर्भ सहित दें।
रचना पर प्राप्त सम्मतियों को सहिष्णुता तथा समादर सहित लें।
किसी अन्य की रचना हो तो रचनाकार का नाम, तथा अन्य संदर्भ दें।
*
हाइकु
सहज नहीं
है 'पथ का चुनाव'
​विकल्प कई.
(जापानी त्रिपदिक वार्णिक छंद, ध्वनि ५-७-५)
*
जनक छंद
*
झेल हर संकट-अभाव
करें कोशिश से निभाव
कीजिए पथ का चुनाव
*
मुक्तक
पथ का चुनाव आप करें देख-भालकर
सारे अभाव मौन सहें, लोभ टालकर
​पालें लगाव तो न तजें, शूल देखकर
भुलाइये 'सलिल' को न संबंध पालकर ​
​(२२ मात्रिक चतुष्पदिक मुक्तक छंद, पंक्त्यांत रगण नगण)
*
प्रेरणा गुप्ता, कानपुर

दिव्य दृष्टि से
ही पथ का चुनाव
करना राही।

सदा सहज
है पथ का चुनाव
मन चेते तो।

सही दिशा में
पथ का चुनाव तू
करते जाना।

याद रखना
पथ का चुनाव हो
सत्य की यात्रा।

पीड़ा में डूबों
को पथ का चुनाव
करना सिखा।

रखना ध्यान
पथ का चुनाव हो
सत्य अहिंसा।

सच्चे राही ही
तो पथ का चुनाव
करते सही।
*
कल्पना भट्ट, भोपाल
पथ का चुनाव आप करें देख भालकर
क्यों चलें इधर उधर सब कुछ जानकार
रखें कदम हर पथ पर सम्भल सम्भलकर
मिल ही जायेगी मन्ज़िल किसी पथ पर ।
*
साधना वैद,
धूप छाँह शूल फूल सब हमें क़ुबूल हैं
पंथ की कठिनाइयों को सोचना भी भूल है
लक्ष्य हो अभीष्ट और सही हो पथ का चुनाव
फिर किसी आपद विपद की धारणा निर्मूल है !
***
चर्चा :
शब्द और अर्थ
शब्द के साथ अर्थ जुड़ा होता है। यदि अन्य भाषा के शब्द का ऐसा अनुवाद हो जिससे अभीष्ट अर्थ ध्वनित न हो तो उसे छोड़ना चाहिए जबकि अभीष्ट अर्थ प्रगट होता है तो ग्रहण करना चाहिए ताकि उस शब्द का अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सके।
'चलभाष' या 'चलित भाष' से गतिशीलता तथा भाषिक संपर्क अनुमानित होता है। इसका विकल्प 'चलवार्ता' भी हो सकता है। कोई व्यक्ति 'मोबाइल' शब्द न जानता हो तो भी उक्त शब्दों को सार्थक पायेगा। अतः, ये हिंदी के लिये उपयुक्त हैं।
साइकिल का वास्तविक अर्थ चक्र होता है। चक्र का अर्थ भौतिकी, रसायन, युद्ध विज्ञान, यातायात यांत्रिकी में भिन्न होते हैं।
अंग्रेजी में 'बाइसिकिल' शब्द है जिसे हम विरूपित कर हिंदी में 'साइकिल' वाहन के लिये प्रयोग करते हैं. यह प्रयोग वैसा ही है जैसे मास्टर साहब को' मास्साब' कहना। अंग्रेजी में भी बाइ = दो, साइकिल = चक्र भावार्थ दो चक्र का (वाहन), हिंदी में द्विचक्रवाहन। जो भाव व्यक्त करता शब्द अंग्रेजी में सही, वही भाव व्यक्त करता शब्द हिंदी में गलत कैसे हो सकता है?
संकेतों के व्यापक ताने-बाने को नेट तथा इसके विविध देशों में व्याप्त होने के आधार पर 'इंटर' को जोड़कर 'इंटरनेट' शब्द बना। इंटरनेशनल = अंतर राष्ट्रीय सर्व स्वीकृत शब्द है। 'इंटर' के लिये 'अंतर' की स्वीकार्यता है (अंतर के अन्य अर्थ 'दूरी', फर्क, तथा 'मन' होने बाद भी)। ताने-बाने के लिये 'जाल' को जोड़कर अंतरजाल शब्द केवल अनुवाद नहीं है, वह वास्तविक अर्थ में भी उपयुक्त है।
टेलीविज़न = दूरदर्शन, टेलीग्राम =दूरलेख, टेलीफोन = दूरभाष जैसे अनुवाद सही है पर इसी आधार पर टेलिपैथी में 'टेली' का भाषांतरण 'दूर' नहीं किया जा सकता। 'पैथी' के लिये हिंदी में उपयुक्त शब्द न होने से एलोपैथी, होमियोपैथी जैसे शब्द यथावत प्रयोग होते हैं।
दरअसल अंग्रेजी शब्द मस्तिष्क में बचपन से पैठ गया हो तो समानार्थी हिंदी शब्द उपयुक्त नहीं लगता। भाषा विज्ञान के जानकार शब्दों का निर्माण गहन चिंतन के बाद करते हैं
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८
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रुबाइयाते-अनुज
डगमगाती ही रही थाम न पाए अब तक
जिनसे उम्मीद थी वो काम न आये अब तक
थक गईं राह में दिन-रात बिछाकर पलकें
हाय! क्या बात मेरे राम न आये अब तक
*
सुवायें मुझपे वो हुस्ने-कमर से फेंकते हैं
मेरे महबूब गुलाबी नज़र से देखते हैं
ईद के चाँद की क्या ख़ाक रौशनी होगी?
सैंकड़ों चाँद ज़बीं उनके दर पे टेकते हैं
*
प्यार को खेल मेरे दिल को खिलौना समझे
ग़लत समझे थे अगर टीन को सोना समझे
मरमरी दूधिया आशिक़ की क़ब्र को ऐ "अनुज"
हुस्न वाले बड़े अहमक हैं, बिछौना समझे
*
पहले धोबिन से साफ चोली, धुलाना साकी 
बाद मेहबूब के घर, डोली में जाना साकी
देखकर दाग,वो हो जायें न गुस्सा तुम पर-
दाग दामन के इबादत से मिटाना साकी 
*
नफ़्स की आग से, हर रोज जला जाता हूँ,
देखिये! खाक में कुछ दिन में मिला जाता हूँ,
मुझसे मत पूंछिए, जन्नत का रास्ता, मैं खुद-
ख़ुल्द के धोखे में दोज़ख को चला जाता हूँ
८-५-१९६०
नफ्स=इन्द्रियां, खुल्द=स्वर्ग, दोज़ख=नर्क
*
जाम का पीना या न पीना बराबर है मुझे,
होश का होना या न होना बराबर है मुझे,
याद में रहता हूँ हर वक्त जामवाले की-
नाम का लेना या न लेना बराबर है मुझे 
*
खुश रहे आप गुलिस्तां में बहारों की तरह
मौज़ में ग़र्क रहें, दोनों किनारों की तरह
अश्क आयें भी तो खुशियों की घटायें बनकर-
रोज बरसें मेरे सरकार फुहारों की तरह
ग़र्क = डूबे
*
आजकल हम बड़ी तन्हाईयों में रहते हैं,
अपने अफसोस की गहराइयों में रहते हैं,
चांद रहता है,बहुत दूर सितारों के करीब-
और हम पेड़ की परछाइयों में रहतें हैं
***
॥एक बुन्देली गजल ॥
अपनी करें के आपकी,कि की कही करें,
उरझे हिये के तार, कहां लो सही करें?
ऐंसीं ठगी करी है, अबादे की आड़ में-
ऐंसो लगत है आज, के जी की रही करें।
यारी बिगर गई है, तनक से में दूध सी-
ऐंसी लगायें लाग के, दिल खो दही करें।
मकरी से जार बुन गये, उरजी है जिन्दगी -
पारो लगो है लाज को, कैसें चही करें।
हमसें चलो ने जाय गरओ नेह को बोझो-
उखरी में मूड़ डार कें, कैसें नहीं करें।
हो गई अजान, जान कें, बचपन के खेल में।
रसिया "अनुज" बिगार कें बातें यही करें॥

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