बुन्देली लघु कथाएँ
सुरेन्द्र सिंह पवार
१. जबाबी पोस्टकार्ड
सागर वारे भैय्या, व्हीकल फेक्ट्री, जबलपुर मा काम करत हते। बे हर महीना मनीआर्डर से रुपैए भेजत हते, संगे एक ठइयां जबाबी पोस्ट कार्ड सोई पठात हते, जौन में रुपैया कौन-कौन मद में कित्तो-कित्तो खरच करने है सोई लिख देत हते। खरच सेन बचे रुपैया गाँव में रहबे बारे छोटे भैया चन्द्र भान को देब खातिर लिखो रहत तो। भौजी खों करिया अक्छर भैंसिया बरोबर हतो सो वे कौनऊ सें चिठिया बचबाबे खें बाद जबाब लिखाउत हतीं ‘सुन करिया! (भौजी गोरी-चिट्टी थीं और भैया काले-कलूटे) तुमने भेजे दो सौ रुपैया। सो आधेलग गए पप्पू (उनका पुत्र) की दवा-दारु में। सुनो, बो ने खात है, ने पियत है। कनकने वैद कैत हते “सूखो रोग आय—होत-होत ठीक हुइये। ” अब बाकी बचे रुपइयों में नोन-तेल-लकडियें और दूधवारे की उधारी, हाथ में आहें बीस रुपइया, सो का ओढहें, का बिछाहें. रोज की साग-सब्जी और ऊपर के खर्चा , नास हो जाए जे चंद्रभान की, अब ओए रुपइया कहाँ से देहें?—चलो, एक काम करत हें। बाहर दरवाजे पे खुटिया ठुकी है, ओये हिलावें से रुपइया झरहें- सो बेई चंद्रभान खों दे देहें.’
भौजी चिट्ठी के अंत में कुछ भावुक हो जातीं और यह लिखना ण भूलतीं -‘जब टेम मिले सो आ जइयो, पप्पू बेजा याद करत है. और सुनो, “ लौटत बेर कटंगी कें रसगुल्ला सोई लेत अइयो अपने घाईं करिया-करिया’
***
२. माँ
हमाए घर के नजीके वृध्दाश्रम आय. उते की रहबेबारी एक डुकरो दाई मेहरारू कने आत-जात हती। बे गहूं बीनने, पापड़-बड़ी सुखाने जैसे छोटे-छोटे कामों में श्रीमती की मदद करत हतीं। एक दिना संझा बेर आईं और कैन लगीं “राम- राम भैय्या, बिटिया! हलकान ने हुइयो. हम चाय ने पीहें। ”
‘राम- राम अम्मा, काय! चाय काय ने पीहो?’हमने पूछी।
डुकरो नें कई“आज हरछठ उपासे हैं, एक बेर महुआ डरी चाय पी लई है, अब ने पी हैं।”
मोसें रुको नई गाओ, तुरतई बोल परो ‘अम्मा! बेटा-बहू ताका खों नई पूछत आंय, बीमारी सोई नें देखी, परदेस में पटक गओ और तुमबाके काजे हरछठ का उपवास करहो, कौन माटी की बनी हो?’
डुकरो खों ऐसी उम्मीद ना हती, सो पल भर चुप रै गईं, फिर धीरे सें बोलीं 'बाकी करनी बाके साथ मनो हम तो माँ आंय।
***
३. इंसानियत
गरमी के दिन हते, भरी दुपरिया सड़क किनाए हाथ-ठेले पे ताजे फल दिखाने सो खरीदाबे खातिर लोग जुटन लगे। ओई टैम एक नओ दम्पति पौंचे। जननी केन माथे पर छलकता पसीना बता रओ हतो के बे पैर-पैदल चले आत आंय। जनानी नें आतई ठांडे होबे खातिर ठेले का सहारा लओ और ओ पे बंधे मैले-कुचैले छाजन में सर छिपाबे की कोसिस कारन लगी। बाकी कातर निगाहें कबऊ फलवाले पे टिकतीं कबऊ घरवाले पे। फलवाले ने बाकी परेसानी देखी तो ठंडा हो गाओ और अपनो स्टूल बाको बैठबे खातिर देन लगो, मनो लडखडान लगो तो ठेले का सहारा ले के सम्हर गओ। सब औरन ने देखो ओको एक पैरई ना हतो।
अपनी मुस्किल भूल खें औरन की मदद करबे के लाने तैयार ठेलेबारे की इंसानियत देख सब प्रसंसा करन लगे।
***
४. नर्मदा मैया की जय
बरगी बाँध और नहरें तैया भईं।नहरों से पहली-पहली बार सिंचाई का पानी छोड़ने हतो। नाहर के सिंचाई क्षेत्र में ज्वार, बाजार, मका की फसलें हतीं। छोटे किसानण खों खेतों में रबी फसल की लगाबे लाने हौसला दओ जा रओ हतो। जमुनियाखड़े के परधान कोंडीलाल राय से बात भई तो वे तो एकदम उबल पड़े, बोले,-“साब!आप भरम में भूले हो, तुम्हाही जे नहरें-वहरें कछु ने चल पें हें, समझ लो, मैया कुंवारी हें, उनखों अबे तक कोऊ नहीं रोक पाओ, ने सोनभदर, ने सहसबाहू, जो तुमाओ बाँध कैसे बच हे? भगवानई जानें। ”
-दद्दू! आप ठीक कैत हो, मनो नर्मदा मैया ने किरपा की और नहरों के रास्ते खेतान माँ पौंच गईं तो का करहो?'
_“देखहें!” बिनने टालबे काजे कै दई। नियत दिना जब जमुनिया की नहरों में जल बहन लगो तो बाजे–गाजे के साथ “नर्मदा मैया की जय” बोलत भए गाँववारन के संगे सबसें आगू खड़े हते परधान कोंडी लाल राय।
***
सुरेन्द्र सिंह पंवार/ 201, शास्त्रीनगर, गढ़ा,जबलपुरम(म.प्र.)/9300104296/email- pawarss2506@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें