नव लेखन कार्य शाला:
दोहा सलिला
सुनीता सिंह
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पीड़ा मे क्यो डूबता, बैठ करे संताप।
ले बीड़ा उपचार का, अपना रहबर आप।।
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क्यों पीड़ा से हारकर, करे मनुज संताप?
ले बीड़ा उपचार का, बन निज रहबर आप।।
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देती कुदरत राह भी , निर्भय देख प्रयास।
कातर नयना क्यो खड़ा, ढूँढ तमस मे आस।।
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कुदरत देती राह यदि, हो अनवरत प्रयास।
नयन झ्ककर क्यों खड़ा?, ढूँढ तमस में आस।।
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रात अंधियारी घनी, लगे प्राण ले जाय।
भोर सुहानी सी कभी, रोक नहीं पर पाय।।
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घोर अँधेरी रात से, भीत न हो नादान।
भोर सुहानी कब रुके?, ऊगे अभय विहान।।
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रोक सके कोई नहीं, होनी हो सो होय।
घटती अनहोनी कहीं, जिजीविषा न खोय।।
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रोक न सकता कोई भी, होनी होती मीत।
अनहोनी होती नहीं, यही जगत की रीत।।
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खेवनहार सँवारता, खेवत जो सब नाव।
ईश नाम मरहम रहा, फिर चाहे जो घाव।।
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खेवनहार लगा रहा, पार सभी की नाव।
ईश नाम मरहम लगा, चाहे जो हो घाव।।
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राधा मोहन को जपे, मोहन राधा नाम।
अनहोनी फिर भी रही, पीड़ा रही तमाम।।
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राधा मोहन को जपे, मोहन राधा नाम।
अनहोनी फिर भी हुई, पीड़ित उम्र तमाम।।
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चाहो जो मिलता नहीं, मिले नहीं जो चाह।
देने वाला जानता, कौन सही है राह।
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मनचाहा मिलता नहीं, किंतु तजो मत चाह।
देनेवाला दे-न दे, चलता चल निज राह।।
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मोल चाहने का हुआ, चाह बिना बेकार।
नजर नजर का फेर है, नेह नजर दरकार ।।
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मोल चाह का कौन दे?, चाह सदा अनमोल।
नजर-नजर का फेर है, नजर न बोली बोल।।
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नीड़ नयन में नीर का, नहीं नजर का नूर।
संग नाम भगवान का, नजर न हो बेनूर।।
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नीड़ नयन में नीर का, नहीं नजर का नूर।
नयन बसे भगवान तो, नजर न हो बेनूर।
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जीवन समझत युग गया, समझ सका ना कोय।
मन का भार उतारिए, जो होनी सो होय।।
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जीवन जीते युग गया, जी पाया कब कौन?
क्या होगा मत सोचिए, होने दें रह मौन।।
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@सुनीता सिंह (27-12-2017)
संशोधनोपरांत
सुन निज मन क्या कह रहा, देता क्या संदेश। सोच-विचारे पग बढ़े, भ्रमित हुए बिन लेश।।
पहले सोचा फिर किया, पर न सही परिणाम। मिले माथ पर जो लिखा, पीड़ा का क्या काम।। सबकी अपनी जिन्दगी, अपनी-अपनी राह। पर पथ अनुगामी बने, रहे न ऐसी चाह।। मिली आस दो पल रही, पुलक गयी फिर बीत। तड़ित उजाला रात में, तमस वही फिर रीत।। पुष्प सुवासित कर रहा, बगिया को चहुँओर। हवा तेज है क्या पता, कब त्रासद हो घोर।। भवसागर में चल रहा, लेकर भार अपार। पग-पग पर भँवरें खड़ीं, चल सब भार उतार। परत दर परत जम रही, हुई पीर हिमस्नात। पिघलाकर बारिश करो, धोकर मन आघात।। हस्ती सबकी है यहाँ, तारक, सूरज,चाँद। जिसकी जब बारी रही, छोड़ निकलता माँद।। जब विपदा मुश्किल- नहीं बचना हो आसान। राह भक्ति की तब चले, परा शक्ति को मान।। ह्रदय तोड़कर आपदा, कर दे जब मजबूर। मौन सफर भीतर हुआ, तब पहचाना नूर।। डूब गया अवसाद में, रहा दर्द से जूझ। मर्जी रब की ही चले , बात यही बस बूझ।। अंधकार दम घोंटता, प्राणवायु ही फाँस। पीर कलेजा चीरती, देता जुगनू झाँस।। प्राण निकलने को तड़े, अति से हो संत्रास। या फिर पीर पहाड़ सी, बने काल का ग्रास।। पीड़ा को वीणा बना, छेड़ दर्द के गीत। जो मिलना मिलकर रहे, विलन या विरह मीत।। द्वेष बढ़ाने से कभी, मिटे न निज मन क्लेश। दिया जला समभाव का, तब सुरभित संदेश । छाई धुंध कुहास की, राह धुएँ में लीन। भानु-डीप भी लापता, रहे थरथरा दीन।। कहे वचन शीतल सदा, घोलें शहद-मिठास। औरों से ज्यादा मिले, खुद को ही मधुमास।।
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संशोधनोपरांत
सुन निज मन क्या कह रहा, देता क्या संदेश। सोच-विचारे पग बढ़े, भ्रमित हुए बिन लेश।।
पहले सोचा फिर किया, पर न सही परिणाम। मिले माथ पर जो लिखा, पीड़ा का क्या काम।। सबकी अपनी जिन्दगी, अपनी-अपनी राह। पर पथ अनुगामी बने, रहे न ऐसी चाह।। मिली आस दो पल रही, पुलक गयी फिर बीत। तड़ित उजाला रात में, तमस वही फिर रीत।। पुष्प सुवासित कर रहा, बगिया को चहुँओर। हवा तेज है क्या पता, कब त्रासद हो घोर।। भवसागर में चल रहा, लेकर भार अपार। पग-पग पर भँवरें खड़ीं, चल सब भार उतार। परत दर परत जम रही, हुई पीर हिमस्नात। पिघलाकर बारिश करो, धोकर मन आघात।। हस्ती सबकी है यहाँ, तारक, सूरज,चाँद। जिसकी जब बारी रही, छोड़ निकलता माँद।। जब विपदा मुश्किल- नहीं बचना हो आसान। राह भक्ति की तब चले, परा शक्ति को मान।। ह्रदय तोड़कर आपदा, कर दे जब मजबूर। मौन सफर भीतर हुआ, तब पहचाना नूर।। डूब गया अवसाद में, रहा दर्द से जूझ। मर्जी रब की ही चले , बात यही बस बूझ।। अंधकार दम घोंटता, प्राणवायु ही फाँस। पीर कलेजा चीरती, देता जुगनू झाँस।। प्राण निकलने को तड़े, अति से हो संत्रास। या फिर पीर पहाड़ सी, बने काल का ग्रास।। पीड़ा को वीणा बना, छेड़ दर्द के गीत। जो मिलना मिलकर रहे, विलन या विरह मीत।। द्वेष बढ़ाने से कभी, मिटे न निज मन क्लेश। दिया जला समभाव का, तब सुरभित संदेश । छाई धुंध कुहास की, राह धुएँ में लीन। भानु-डीप भी लापता, रहे थरथरा दीन।। कहे वचन शीतल सदा, घोलें शहद-मिठास। औरों से ज्यादा मिले, खुद को ही मधुमास।।
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