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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

om prakash yati

अभियंता कवि ओमप्रकाश यति संस्कारधानी में

मेरे नज़दीक शायरी भी एक तपस्या है - यति 
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अभियन्ता साहित्य संगोष्ठी
जबलपुर. नये वर्ष की पूर्व संध्या पर इंस्टीटयूशन ऑफ़ इन्जीनियर्स, अभियान तथा इंडियन जिओ टेकनिकल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में इन्स्टीट्यूशन कार्यालय, सिविल लाइन, गोविन्द भवन के सामने जबलपुर में ग़ज़ल विधा के देशव्यापी ख्याति प्राप्त अभियंता कवि ओम प्रकाश यति नोएडा के सम्मान तथा मुख्यातिथ्य में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया है। श्री यति के ग़ज़ल संग्रह 'बाहर छाया भीतर धूप' तथा 'सच कहूँ तो' साहित्य जगत में बहु चर्चित रहे हैं। 
कार्यक्रम की अध्यक्षता संस्थाध्यक्ष अभियंता वीरेन्द्र कुमार साहू तथा सञ्चालन अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' करेंगे। अभियंता ओम प्रकाश यति के साथ नगर के अभियंता कवियों सर्व अभियंता अमरेन्द्र नारायण, आर.आर. फौजदार, देवेन्द्र गोंटिया 'देवराज', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर', विवेक रंजन श्रीवास्तव, डी. सी. जैन, के. सी. जैन, सुरेन्द्र सिंह पंवार, उदयभानु तिवारी 'मधुकर', बसंत मिश्रा, संजय वर्मा, शोभित वर्मा, गजेंद्र कर्ण तथा अभियंता-परिजनों श्रीमती सुमन श्रीवास्तव, श्रीमती राजलक्ष्मी शिवहरे, श्रीमती मिथलेश बड़गैया आदि द्वारा काव्य पाठ किया जाएगा। 
पूर्ण होते वर्ष की विदाई तथा नए वर्ष का स्वागत सारस्वत अनुष्ठान से करने की नव परम्परा अभियन्ताओं द्वारा की जा रही है।  इंस्टीटयूशन ऑफ़ इन्जीनियर्स के सदस्यों, अभियंता-परिवारों तथा काव्य प्रेमियों से उपस्थिति हेतु सर्व अभियंता तरुण कुमार आनंद, राकेश राठोड़, मुक्ता भटेले, मधुसुदन दुबे, अरुण खर्द, प्रवीण ब्योहार ने अनुरोध किया है। 
***
ओम प्रकाश यती न केवल शब्दों के जादूगर हैं बल्कि शब्दों के भीतर अपने समय को जिस तरलता से पकड़ते हैं वह निश्चय ही उनके जैसे कवि के लिए ही संभव है। अपने आस-पास जिंदगी की दुश्वारियाँ उन्हें मथती हैं और यही मंथन उनकी ग़ज़लों की शकल लेकर बाहर आता है। उनकी रचनाओं में बेशक कथ्य की प्रौढ़ता और शिल्प की गहराई दिखायी पड़ती है। वे समय के ताप को उसकी समग्रता में महसूस करते हैं और उसे पूरी ताकत से व्यक्त भी करते हैं। उनको पढ़ते हुए कोई भी अपने भीतर झांकता हुआ महसूस कर सकता है। 
''ओम प्रकाश यति के कलाम में बड़ा तीखापन, ज़िंदगी की सच्चाइयां और कड़वाहटे हैं" - शायरेआज़म कृष्ण बिहारी 'नूर' 
Front Coverप्रस्तुत हैं यति की कुछ ग़ज़लें....
१.
तुम्हें कल की कोई चिन्ता नहीं है

तुम्हारी आँख में सपना नहीं है।

ग़लत है ग़ैर कहना ही किसी को
कोई भी शख्स जब अपना नहीं है।

सभी को मिल गया है साथ ग़म का 
यहाँ अब कोई भी तनहा नहीं है।

बँधी हैं हर किसी के हाथ घड़ियाँ
पकड़ में एक भी लम्हा नहीं है।

मेरी मंज़िल उठाकर दूर रख दो
अभी तो पाँव में छाला नहीं है।
*
२. 
स्वार्थ की अंधी गुफ़ाओं तक रहे

लोग बस अपनी व्यथाओं तक रहे।

काम संकट में नहीं आया कोई
मित्र भी शुभकामनाओं तक रहे।

क्षुब्ध था मन देवताओं से मगर
स्वर हमारे प्रार्थनाओं तक रहे।

लोक को उन साधुओं से क्या मिला
जो हमेशा कन्दराओं तक रहे।

सामने ज्वालामुखी थे किन्तु हम
इन्द्रधनुषी कल्पनाओं तक रहे।
*
३. 
दुख तो गाँव–मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी

पर जिनगी की भट्ठी में खुद जरते आए बाबूजी।

कुर्ता,धोती,गमछा,टोपी सब जुट पाना मुश्किल था 
पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी।

बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी।

एक नतीजा हाथ न आया,झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट–कचहरी करते आए बाबूजी।

रोज़ वसूली कोई न कोई,खाद कभी तो बीज कभी
इज्ज़त की कुर्की से हरदम डरते आए बाबूजी।


नाती–पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी।
*
४.
आदमी क्या, रह नहीं पाए सम्हल के देवता
रूप के तन पर गिरे अक्सर फिसल के देवता

बाढ़ की लाते तबाही तो कभी सूखा विकट
किसलिए नाराज़ रहते हैं ये जल के देवता

भीड़ भक्तों की खड़ी है देर से दरबार में
देखिए आते हैं अब कब तक निकल के देवता

की चढ़ावे में कमी तो दण्ड पाओगे ज़रूर
माफ़ करते ही नहीं हैं आजकल के देवता

लोग उनके पाँव छूते हैं सुना है आज भी
वो बने थे ‘सीरियल’ में चार पल के देवता

भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता

कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता

है अगर किरदार में कुछ बात तो फिर आएंगे
कल तुम्हारे पास अपने आप चल के देवता

शाइरी सँवरेगी अपनी हम पढ़ें उनको अगर
हैं पड़े इतिहास में कितने ग़ज़ल के देवता
*
५. 
नज़र में आज तक मेरी कोई तुझ सा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला

कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला

ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला

सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला

जहाँ पर ज़िन्दगी की, यूँ कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
***
प्रस्तुति:आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', ९४२५१८३२४४ 

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