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सोमवार, 18 दिसंबर 2017

कृति चर्चा: फिर उठेगा शोर एक दिन, शुभम श्रीवास्तव

कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.पुस्तक चर्चा-
'फिर उठेगा शोर एक दिन' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण- फिर उठेगा शोर एक दिन, नवगीत संग्रह, शुभम श्रीवास्तव ओम, ISBN ९७८-८१-७४०८-७००-३, वर्ष २०१७, आकार २२.५ से.मी. x १४.० से.मी., आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १११, मूल्य २४/-, अयन प्रकाशन, के १/२० महरौली, नई दिल्ली ११००३०, चलभाष ९८१८९८८६१३, नवगीतकार संपर्क- ग्राम बलवान, डाकघर पहाड़ा, जिला    मीरजापुर, चलभाष  ०७६६८७८८१८९, ०८३८१९८५५१५, ईमेल shubham.omji@gmail.com] 
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साहित्य वह जो सबके हित को लेकर सृजा जाए. सर्व हित का दावा करनेवाली राजनीति आज दलीय, गुटीय और समर्थ हित साधन की उपकरण मात्र रह गयी है।इसके विपरीत साहित्य तमाम गुटबंदियों, वादों, विचारों, विधाओं और शिक्षा संस्थानों मठाधीशों और प्रकाशकों की हठधर्मियों तथा मनमानियों के बावजूद बाजारूपन से जूझते हुए सत्य के उद्घोष को अपना लक्ष्य बनाए हुए है। सत्य के बहुरूप प्राय: भ्रम और शंका उत्पन्न करते हैं कि जिस रूप से हम परिचित हैं या जो हमारा सत्य है वही सबका सत्य हो। राजनीति अन्य के सत्य को नष्ट करना लक्ष्य मानती है, धर्म निज विश्वास से इतर अन्य को अधर्म घोषित करने में देर नहीं करता किंतु साहित्य 'एकं सत्यं विप्रं बहुधा वदंति' अर्थात सत्य एक है जिसे विद्वज्जन बहुत प्रकार से व्यक्त करते हैं, को स्वीकारते हुए मत वैभिन्न्य को स्वीकारता है। 
पारंपरिक साहित्य सृजन हो या अधुनातन, सत्य सबका इष्ट है, अंतर मात्र यह है कि एक विचारधारा सत्य को शिव (कल्याणकारी) और सुन्दर (लोक-रंजक) के द्वारा तथा के लिए अपनाना चाहता है तो दूसरी सोच सत्य के माध्यम से अशिव (अकल्याणकारी, विडंबना, विसंगति, विद्रूप) की अभिव्यक्ति कर उससे उपजी पीड़ा का अतिरेकी चित्रण कर अशिव से मुक्ति पाना चाहती है। गद्य हो या पद्य दोनों विधाओं में यह वैचारिक मतभेद उपस्थित होने, पूरी प्रतोबद्धता होने और दोनों को एक दूसरे द्वारा चुनौती दिए जाने के बाद भी दोनों का विकास निरंतर होता रहा है।  कविता के क्षेत्र में गीत के कल्पनाप्रधान होने पर, यथार्थपरक कविताओं तथा छंद को साधने के प्रयास में कथ्य की अभिव्यक्ति कमजोर होने पर छंद मुक्ति का का चलन हुआ। यहाँ तक कि प्रत्यक्षत: गीत (परोक्षत: छंद चूँकि गीत में छंद प्रयुक्त होता था) के मरण की घोषणा भी कर दी गयी। काल क्रम में तथाकथित प्रगतिवादी कवितायेँ अति बौद्धिकता, विद्रूपता और क्लिष्टता प्रधान होकर जन-मन से दूर होती गयी और गीत पुन: केंद्र में आ गया। राजनैतिक अवसरवादिता और दल-बदल की परंपरा ने साहित्य पर यह असर डाला कि गीत को सत्य कथन में बाधक माननेवाले भी गीत रचने लगे। यह संक्रमण इस स्तर तक हुआ कि गीत के परिवर्तित प्रारूप अर्थात नवगीत में वैचारिकता को नयी कविता की देन कहने की जानी-बूझी शरारत कर नवगीत के भवन में पिछले दरवाजे से दाखिल होने की कोशिश की जाने लगी। दूसरी ओर हिंदी के देशज रूप पर उर्दू के नाम पर अरबी-फारसी के लयखंड (रुक्न), छंद (बह्र) और काव्य विधाएँ लड़ने में असफल दल ने नवगीत की छांदस कहन को ग़ज़ल से ग्रहण की  गयी कहकर नवगीत के घर में सेंध लगाने की दुरभिसंधि की जाने लगी। इस सबके बाद भी नवगीत निरंतर ना केवल लिखा-पढ़ा-सुना जाता रहा अपितु उसने निरंतर खुद के तराशने और सँवारने का उद्यम किया। 
यह भी कि नवगीत ने अपने अंतर्विरोधों से आँख नहीं चुराई अपितु उन्हें लगातार विमर्श में बनाये रखकर उनसे उबरने का पथ तलाशा। फलत:, नवगीत के जन्म के प्रारंभिक ३ दशकों में सक्रिय कलमों द्वारा अपने विचारों और शिल्प को मानक माने जाने के लिए हर संभव कोशिश के बाद भी लगभग हर दशक में बदलते रुझानों को देखा, पहचाना और स्वीकार जाता रहा। इस क्रम में विवेच्य कृति अपनी मिसाल आप है। स्वतंत्रता के पश्चात अधिकांश समय राजनैतिक सत्ता पर एक विचारधारा तथा शिक्षा व साहित्य प्रतिष्ठानों पर उसकी सहयोगी दूसरी विचारधारा के हावी रहने ने पारंपरिक चिंतनधारा तथा सृजन विधाओं को मिटने का हर संभव प्रयास किया किंतु सफल नहीं हुए। कृति की भूमिका में गणेश गंभीर जी ने पूरी गंभीरता के साथ ठीक ही लिखा है कि ''आज भी हिंदी कविता आलोचना में नवगीतकारों को वही स्थान और मान्यता दी जाती है जो पाकिस्तान में मुहाजिरों और बलूचों को प्राप्त है।''
इतिहास गवाह है कि अस्वीकृति का खतरा आस्थावान और परिवर्तनकामी कलमों को अधिकाधिक समर्पण और सृजन के लिए आवश्यक ऊर्जा और प्रतिबद्धता उपलब्ध कराती है। शुभम श्रीवास्तव ओम जैसे ग्राम्यांचली किशोर कवि का जीविकोपार्जन के संघर्ष के समान्तर नवगीत सृजन के लिए उठ खड़े होना और इस शिद्दत के साथ विधागत बारीकियों को ग्रहण करना कि पहली ही कृति प्रतिष्ठित नवांकुर पुरस्कार पा सके आश्वस्त करता है कि नवगीत और नवगीतकार दोनों का भविष्य उज्जवल है। ओम की पीढ़ी जिस पारिस्थितिक चक्रव्यूह में घिरी है वह नवगीत की उपस्थिति के बावजूद बनी। इसका अर्थ यह है कि गत ७ दशकों के नवगीत की भावमुद्रा वैषम्य को रोक नहीं सकी। इसलिए इस और आगामी दशक के नवगीतकारों को नवगीत के कथ्य, शिल्प, कहन, बिम्ब और शैली में निरंतर बदलाव करते हुए उसे बुद्धिजीवी कम और लोकाजीवी अधिक बनाना होगा। लोक के छंद, लोक के कथ्य, लोक के शब्द, लोक की भाषा और लोक के बिम्ब प्रतीक लोक की आकांक्षा को सतत अभिव्यक्त करते रहकर लोकवाणी बन सकेंगे। यह भूमिका नवगीत या अन्य किसी अकेले की नहीं हो सकती। इस भूमिका के लिए नवगीत के सहयोगी रूप में भले ही अन्य छंद या काव्य रूप हों, केंद्र में नवगीत को ही रहना होगा।    

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