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सोमवार, 18 दिसंबर 2017

samiksha- sach kahoon to


चित्र में ये शामिल हो सकता है: पौधा, बाहर, प्रकृति और भोजनपुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
                                नवगीत की सृजन यात्रा को इस दशक में वैविध्य और विकास के सोपानों से सतत आगे ले जानेवाले महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में लखनऊ निवासी निर्मल शुक्ला जी की भूमिका महत्वपूर्ण है। नवगीतकार, नवगीत संपादक, नवगीत प्रकाशक और नव नवगीतकार प्रोत्साहक  की चतुर्मुखी भूमिका को दिन-ब-दिन अधिकाधिक सामर्थ्य से मूर्त करते निर्मल जी अपनी मिसाल आप हैं। 'सच कहूँ तो' निर्मल जी के इकतीस जीवंत नवगीतों का बार-बार पठनीय ही नहीं संग्रहणीय, मननीय और विवेचनीय संग्रह भी है। निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं जीते हैं। ''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।

                                'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।

सच कहूँ तो 
पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी
सारी इबारत 
               अब गुरु जी
शब्द अब तक
आपने जितने पढ़ाये
याद हैं सब
स्मृति में अब भी
तरोताज़ा
पृष्ठ के संवाद हैं अब
.
सच कहूँ तो
छोड़ आए 
हम अँधेरों की बहुत 
पीछे इमारत 
               अब गुरु जी

                                व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-

हिन्द की पहचान हिंदी 
शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो
कृत्य की परिकल्पना, 
अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित 
भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी 
हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो 
धरणि से
आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच
संस्कृत 
चेतना गन्धर्व हिंदी

                                'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-

सच कहूँ तो
हर किसी के दर्द को
अपना समझना 
हो सके तो
एक पल को मान लेना 
हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो
साँस ले-न-ले दुबारा

सच कहूँ तो
उन क्षणों में, एक छोटी 
चूक से
बचना-सम्हलना 
हो सके तो
एक पल को, कोख की 
हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत 
हवा के
हर कदम पर आँख रखना

                                अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में रचनात्मकता का आव्हान है-

'नदी से जन्मती है 
सच कहूँ तो 
आज संस्कृतियाँ'
.
नदी के कंठ में कल-कल 
उफनती धार में छल-छल 
प्रकृति को 
बाँटती सुषमा 
लुटाती राग वेगों में.
.
अछूती अल्पना देकर 
सजाती छरहरे जंगल  
प्रवाहों में समाई 
सच कहूँ तो 
आज विकृतियाँ'..... 
...तरंगों में बसी हैं
सच कहूँ तो 
स्वस्ति आकृतियाँ... 
....सिरा लें, आज चलकर 
सच कहूँ तो 
हर विसंगतियाँ ' 

                                निर्मल जी के नवगीत सत्यजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-

चिनगियों से आग 
 फिर जल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
बादलों की, परत
फिर गल कर रहेगी देख लेना 
सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज 
भी खुलकर बजेंगी देख लेना
सच कहूँ तो
                                निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गुनगुनाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, दो बिम्बों, प्रतीकों या विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। 

                                उर्दू ग़ज़ल में लम्बे-लम्बे रदीफ़ रखने की चुनौती स्वीकारनेवाले गजलकारों की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज-सज्जा के साथ प्रयोग करने का कौशल रखते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।

                                'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुँचात है कि बारम्बार पुनरावृत्तियों के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समूचा नवगीत इस 'सच कहूँ के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयता में वृद्धि करता है।

                                हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -

सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ - तहँ करत प्रकास

                                निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-

हम, 
संवेदन के जुगनू हैं
हम से
तम भी थर्राता है
                                निर्मल जी नवगीत में नए रुझान के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते उनके नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-

तंत्र राज में 
नाव कागजी भी 
उतराती है 
सच कह दूँ तो 
रोज सभ्यता 
आँख चुराती है...
...ऐसे में तो, जी करता है
सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को 
मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
किंतु वेदना संघर्षों की 
सिर चढ़ जाती है
सच कह दूँ तो  
यहाँ सभ्यता 
चीख दबाती है 

                                इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दलित-पीड़ित को हौसला देने और दालान-मुक्ति से संघर्ष का संबल बनने का परोक्ष संदेश अंतर्निहित कर पाना है। यह संदेश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है, अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह सुग्राह्य रख पाना निर्मल जी का वैशिष्ट्य है-

इसी समय यदि
समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें 
तो, 
आगे अच्छे दिन होंगे 
यही समय है
सच कह दूँ तो 
फिर जीने के
और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित 
जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर 
समय बाँचकर 
समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा 
 रंग-बिरंगे अंबर होंगे
सच कह दूँ तो 
फिर जीने के वासंती 
संवत्सर हौंगे

                                संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल in नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की असाधारण अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। 

                                नवगीत की बढ़ती लोकप्रियता और तथाकथित प्रगतिशील कविता की लोक विमुखता ने नवगीत के रचनाक्षेत्र में अयाचित हस्तक्षेप और अतिक्रमणों को जन्म दिया है। साम्यवादी चिंतन से प्रभावित लोगों ने नवगीत की लोक संवेदना के मूल में नयी कविता की वैचारिकता होने की, उर्दू ग़ज़ल के पक्षधरों ने नवगीत की सहज-सरस कहन पर ग़ज़ल से आयातित होने की जुमलेबाजी करते हुए नवगीत में पैठ बनने का सफल प्रयास किया है। निर्मल जी ऐसी हास्यास्पद कोशिशों से अप्रभावित रहते हुए नवगीत में अन्तर्निहित पारंपरिक गीतज लयात्मकता, लोकगीतीय अपनत्व तथा गीति-शास्त्रीय छान्दस विरासत का उपयोग कर वैयक्तिक अनुभूतियों को वैचारिक प्रतिबद्धता, अन्तरंग अभिव्यक्ति और रचनात्मक लालित्य के साथ सम्मिश्रित कर सम्यक शब्दों, बिम्बों और प्रतीकों की ऐसी नवगीत-बगिया बनाते हैं जो रूप-रंग-गंध और आकार का सुरुचिसंपन्न स्वप्न लोक साकार कर देता है। पाठक और श्रोता इस गीत-बगिया में भाव कलियों पर गति-यति भ्रमर तितलियों को लय मधु का पान करते देख सम्मोहित सा रह जाता है। नवगीत लेखन में प्रविष्ट हो रहे नव हस्ताक्षरों के लिए निर्मल जी के नवगीत संकलन पाठ्य पुस्तकों की तरह हैं जिनसे न्यूनतम शब्दों में अधिकताम अर्थ अभिव्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है।      

                                इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
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संपर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४




कृति चर्चा-

"अंजुरी भर धूप" नवगीत अरूप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

[कृति परिचय- अँजुरी भर धूप, गीत-नवगीत संग्रह, सुरेश कुमार पंडा, वर्ष २०१६, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४, आकार २०.५ से.मी.x१३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, १०४, मूल्य १५०/-, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर गीतकार संपर्क ९४२५५१००२७]

*
क्रमश: विकसित होते आदि मानव ने अपनी अनुभूतियों और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए प्राकृतिक घटनाओं और अन्य जीव-जंतुओं की बोली को अपने मस्तिष्क में संचित कर उनका उपयोग कर अपने सत्यों को संदेश देने की कला का निरंतर विकास कर अपनी भाषा को सर्वाधिक उन्नत किया. अलग-अलग मानव-समूहों द्वारा विकसित इन बोलियों-भाषाओँ से वर्त्तमान भाषाओँ का आविर्भाव होने में अगणित वर्ष लग गए. इस अंतराल में अभिव्यक्ति का माध्यम मौखिक से लिखित हुआ तो विविध लिपियों का जन्म हुआ. लिपि के साथ लेखनाधार भूमि. शिलाएं, काष्ठ पट, ताड़ पात्र, कागज़ आदि तथा अंगुली, लकड़ी, कलम, पेन्सिल, पेन आदि का विकास हुआ. अक्षर, शब्द, तथा स्थूल माध्यम बदलते रहने पर भी संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ नहीं बदलीं. अपने सुख-दुःख के साथ अन्यों के सुख-दख को अनुभव करना तथा बाँटना आदिकाल से आज तक ज्यों का त्यों है. अनुभूतियों के आदान-प्रदान के लिए भाषा का प्रयोग किये जाने की दो शैलियाँ गद्य और पद्य का विकसित हुईं. गद्य में कहना आसान होने पर भी उसका प्रभाव पद्य की तुलना में कम मर्मस्पर्शी रहा.

पद्य साहित्य वक्ता-श्रोता तथा लेखक-पाठक के मध्य संवेदना-तन्तुओं को अधिक निकटता से जोड़ सका. विश्व के हिस्से और हर भाषा में पद्य सुख-दुःख और गद्य दैनंदिन व्यवहार जगत की भाषा के रूप में व्यवहृत हुआ. भारत की सभ्यता और संस्कृति उदात जीवनमूल्यों, सामाजिक सहचरी और सहिष्णुता के साथ वैयक्तिक राग-विराग को पल-पल जीती रही है. भारत की सभी भाषाओँ में पद्य जीवन की उदात्त भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सहजता और प्रचुरता से प्रयुक्त हुआ. हिंदी के उद्भव के साथ आम आदमी की अनुभूतियों को, संभ्रांत वर्ग की अनुभूतियों पर वरीयता मिली. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में राजाओं और विदेश संप्रभुओं के विरुद्ध जन-जागरण में हिंदी पद्य साहित्य में महती भूमिका का निर्वहन किया. इस पृष्ठभूमि में हिंदी नवगीत का जन्म और विकास हुआ. आम आदमी की सम्वेदनाओं को प्रमुखता मिलने को साम्यवादियों ने विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा से जोड़ा. साम्यवादियों ने स्वान्त्रयोत्तर काल में जन समर्थन तथा सत्ता न मिलने पर भी योजनापूर्वक शिक्षा संस्थाओं और साहित्यिक संस्थाओं में घुसकर प्रचुर मात्र में एकांगी साहित्य रचकर, अपने की विचारधारा के समीक्षकों से अपने अनुकूल मानकों के आधार पर मूल्यांकन कराया.

अन्य विधाओं की तरह नवगीत में भी सामाजिक विसंगति, वर्ग संघर्ष, विपन्नता, दैन्य, विडम्बना, आक्रोश आदि के अतिरेकी और एकांगी शब्दांकन को वैशिष्ट्य मान तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य रचने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी. भारतीय आम जन सनातन मूल्यों और परम्पराओं में आस्था तथा सत-शिव-सुंदर में विश्वास रखने के संस्कारों के कारण ऐसे साहित्य से दूर होने लगा. साहित्यिक प्रेरणा और उत्स के आभाव ने सामाजिक टकराव को बढ़ाया जिसे राजनीति ने हवा दी. साहित्य मनीषियों ने इस संक्रमण काल में सनातन मूल्यपरक छांदस साहित्य को जनभावनाओं के अनुरूप पाकर दिशा परिवर्तन करने में सफलता पाई. गीत-नवगीत को जन सामान्य की उत्सवधर्मी परंपरा से जोड़कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है. सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है.

'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
*
अधरों के किसलई
किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम
*
सनातन शाश्वत अनुभूतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है. वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं. देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते. अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-

पीपल की फुनगी पर
टँगी रहीं आँखें
जाने कब
अँधियारा पसर गया?
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें.
*
नवगीत की सरसता सहजता, ताजगी और अभिव्यंजना ही उसे गीतों से पृथक करती है. 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं. एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की कला में नवगीतकार माहिर है -

आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का.
*
सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं को नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते. सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा.
*
'लिखा है एक ख़त' शीर्षक गीत में सुरेश जी प्रेम को दैहिक आयाम से मुक्त कराकर अंतर्मन से जोड़ते हैं-
भीतर के गाँवों तक
थिरक गयी
पुलकन की
लहर अनकही
निथर गयी
साँसों पर आशाएँ
उर्मिल और
तरल अन्बही
भीतर तक
पसर गयी है
गंध एक अनाम.
लिखा है एक ख़त
यह और
अनब्याही ललक के नाम.
*
जीवन में बहुद्द यह होता है की उल्लास की घड़ियों में ख़ामोशी से दबे पाँव, बिना बताये गम भी प्रवेश कर जाता है. बिटिया के विवाह का उल्लास कब बिदाई के दुःख में परिवर्तित हो जाता है, पता ही नहीं चल पाता. सुरेश जी इस जीवन सत्य को 'अनछुई उसासें' शीर्षक से उठाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टँगी रही आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया,
एकाकी बगर गया,
रीते रहे पल-छीन
अनछुई उसासें
*
गुपचुप इशारों सी
तारों की पंक्ति
माने तब
मनुहारिन अलकों में
निष्कम्पित पलकों में
आते पदचापों की होती है गिनती.
*
'अपने मन का हो लें' गीत व्यवस्था से मोह भंग की स्थिति में मनमानी करनी की सहज-स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति को सामने लता है किन्तु इसमें कहीं विद्रोह का स्वर नहीं है. असहमति और मत वैभिन्न्य की भी अभिव्यक्ति पूर्ण सकारात्मकता के साथ कर पाना गीतकार का इष्ट है-
अमराई को छोड़
कोयलिया
शहर बस गयी
पीहर पाकर
गूँज रही है
कूक सुरीली
आओ अब हम
खिड़की खोलें.
प्रेशर कुकर की सीटी भाप को निकाल कर जिस तरह विस्फोट को रोकती है उसे तरह यहाँ खिड़की खोलने का प्रतीक पूरी तरह सार्थक और स्वाभाविक है.
जुगनू ने
पंगत तोडी है
तारों की
संगत में आकर
उजियारा
सपना बन बैठा
कैसे हम जीवन रस घोलें?...
.... तम का
क्या विस्तार हो गया
बतलाओ तो
क्यों न अपने मन का हो लें?
*
आदिवासी और ग्रामीण अंचलों में अभावों के बाद भी जीवन में व्याप्त उल्लास और हौसले को सुरेश जी 'मैना गीत गाती हैं' में सामने लाते हैं. शहरी जीवन की सुविधाएँ और संसाधन विलासिता की हद तक जाकर भी सुख नहीं दे पाते जबकि गाँव में आभाव के बाद भी जिंदगी में 'गीत' अर्थात राग शेष है.
मैना गीत गाती है
रात में जं
गल सरइ के
गुनगुनाते हैं.
घोर वन के
हिंस्र पशु भी
शांत मन से
झुरमुठों में
शीत पाते हैं.
रात करती नृत्य
मैना गीत गाती है.
हरड़ के पेड़ों चढ़ी
वह
भोर की ठंडी हवा भी
सनसनाती है.
जंगली फल-मूल से
घटती उदर ज्वाला
मन का नहीं है
अब तलक
कोना कोई काला.
स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की कालजयी रचना 'सतपुड़ा के घने जंगल' की याद दिलाती इस रचना का उत्तरार्ध जंगल की शांति मिटाते नकसली नक्सली आतंक को शब्दित करता है-
अब यहाँ
जीवन-मरण का
खेल चलता है
बारूदों के ढेर बैठा
विवश जीवन
हाथ मलता है.
भय का है फैला
क्षेत्र भर में
अजब कारोबार
वैन में,
नदी में
पर्वतों में
आधुनिकतम बंदूकें ही
दनदनाते हैं.
*
अपने समय के सच से आँख मिलाता कवि साम्यवाद और प्रगतिवाद की यह दिशाहीन परिणति सामने लाने में यत्किंचित भी संकोच नहीं करता. 'मन का कोना में निस्संकोच कहता है-
अर्थहीन
पगडंडी जाती
आँख बचाकर
दूर.
नवगीत इस 'अर्थहीनता' के चक्रव्यूह को बेधकर 'अर्थवत्ता' के अभिमन्यु का जयतिलक कर सके, इसी में उसकी सार्थकता है. प्राकृतिक वन्य संपदा और उसमें अन्तर्निहित सौन्दर्य कवि को बार-बार आकर्षित करता है-
कांस फूला
बांस फूला
आम बौराया.
हल्दी का उबटन घुलाकर
नीम हरियाया.
फिर गगन में मेघ संगी
तड़ित पाओगे.

आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेरा चंचल हुआ है, तुम आये थे, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं. सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है. सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है. यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है.
***
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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ओम
पुस्तक सलिलां-
‘‘बोलना सख्त मना है’’ नवगीत की विसंगतिप्रधान भावमुद्रा
[पुस्तक परिचय- बोलना सख्त मना है, ISBN 978-93-85942-09-9, नवगीत संग्रह, पंकज मिश्र ‘अटल’,वर्ष २०१६, आकार २०.५ से.मी. x ७.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १०० रु., बोधि प्रकाशन एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क सृजन, कुमरा गली, रोशनगंज, शाहजहाॅंपुर २४१००१, चलभाष 99366031136 ।] 0
साहित्य को सशक्त हथियार और पारंपरिकता को तोड़ने व वैचारिक क्रांति करने का उद्देश्य मात्र माननेवाले रचनाकार पंकज मिश्र की इस नवगीत संग्रह से पूर्व दो पुस्तकें ‘चेहरों के पार’ तथा ‘नए समर के लिये’ प्रकाशित हो चुकी र्हैं। विवेच्य संकलन की भूमिका में नवगीतकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्वता से अवगत कराकर पाठक को रचनाओं में अंतप्र्रवहित भावों का पूर्वाभास करा देता है। उसके अनुसार ‘‘माध्यम महत्वपूर्ण तो है, पर उतना नहीं जितना कि वह विचार, लक्ष्य या मंतव्य जो समाज को चैतन्यता से पूर्ण कर दे, उसे जागृत कर दे और सकारात्मकता के साथ आगे पढ़ने को बाध्य कर दे। मैंने अपने नवगीतों में अपने आस-पास जो घटित हो रहा है, जो मैं महसूस कर रहा हूॅं और जो भोग रहा हूॅं, उस भोगे हुए यथार्थ को कथ्य रूप में अभिव्यक्ति प्रदान की है।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि रचनाकार केवल भोगे हुए को अभिव्यक्ति दे सकता है, अनुभूत को नहीं। तब किसी अनपढ, किसी शोषित़ के दर्द की अभ्व्यिक्ति कोई पढ़ा-लिखा यंा अशोषित कैसे कर सकतंा है? तब कोई स्त्रीए पुरुष की, कोई प्रेमचंद किसी धीसू या जालपा की बात नहीं कह सकेगा क्योंकि उसने वह भोगा नहीं, देखा मात्र है। यह सोच एकांगी ही नहीं गलत भी है। वस्तुतः अभिव्यक्त करने के लिये भोगना जरूरी नहीं, अनुभूति को भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः भोगे हुए यथार्थ कथ्य रूप में अभिव्यक्त करने का दावा अतिशयोक्ति ही हो सकता है।
कवि के अनुसार उसके आस-पास वर्जनाएॅं, मूल्य नहीं मूल्यों की चर्चाएॅं, खोखलेपन और दंभ को पूर्णता मान भटकती-बिखरती पीढ़ी, तिक्त-चुभते संवाद और कथन, खीझ और बासीपन, अति तार्किकता, दम तोड़ती भावनाएॅं, खुद को खोती-चुकती अवसाद धिरी भीड़ है और इसी को से जन्मे हैं उसके नवगीत। यह वक्तव्य कुछ सवाल खड़े करता है. क्या समाज में केवल नकारात्मकता ही है, कुछ भी-कहीं भी सकारात्मक नहीं है? इस विचार से सहमति संभव नहीं क्योंकि समाज में बहुत कुछ अच्छा भी होता है। यह अच्छा नवगीत का विषय क्यों नहीं होे सकता? किसी एक का आकलन सब के लिये बाध्यता कैसे हो सकता है? कभी एक का शुभ अन्य के लिये अशुभ हो सकता है तब रचनाकार किसी फिल्मकार की तरह एक या दोनों पक्षों की अनुभूतियों को विविध पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है।
कवि की अपेक्षा है कि उसके नवगीत वैचारिक क्रांति के संवाहक बनें। क्रांति का जन्म बदलाव की कामना से होता है, क्रांति को ताकत त्याग-बलिदान-अनुशासन से मिलती है। क्रांति की मशाल आपसी भरोसे से रौशन होती है किंतु इन सबकी कोई जगह इन नवगीतों में नहीं है। गीत से जन्में नवगीत में शिल्प की दृष्टि से मुखड़ा-अंतरा, अंतरों में सामान्यतः समान पंक्ति संख्या और पदभार, हर अंतरे के बाद मुखड़े के समान पदभार व समान तुक की पंक्तियाॅं होती हैं। अटल जी ने इस शिल्पानुशासन से रचनाओं को गति-यति युक्त कर गेय बनाया है। हिंदी में स्नातकोत्तर कवि अभिव्यक्ति सामथ्र्य का धनी है। उसका शब्द-भंडार समृद्ध है। कवि का अवचेतन अपने परिवेश में प्रचलित शब्दों को बिना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करता है इसलिए भाषा जीवंत है। भाषा को प्राणवान बनाने के लिये कवि गुंफित, तिक्त, जलजात, कबंध, यंत्रवत, वाष्प, वीथिकाएॅं जैसे संस्क्रतनिष्ठ शब्द, दुआरों, सॅंझवाती, आखर आदि देशज शब्द, हाकिम, जि़ंदगी, बदहवास, माफिक, कुबूल, उसूल जैसे उर्दू शब्द तथा फुटपाथ, कल्चर, पेपरवेट, पेटेंट, पिच, क्लासिक, शोपीस आदि अंग्रेजी शब्द यथास्थान स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करता है। अहिंदी शब्दों का प्रयोग करतें समय कवि सजगतापूर्वक उन्हें हिंदी शब्दों की तरह वापरता है। पेपरों तथा दस्तावेजों जैसे शब्दरूप सहजता से प्रयोग किये गये हैं।
हिंदी मातृभाषा होने के कांरण कवि की सजगता हटी और त्रुटि हुई। शीष, क्षितज जैसी मुद्रण त्रुटियाॅं तथा अनुनासिक तथा अनुस्वार के प्रयोग में त्रुटि खटकती है। संदर्भ का उच्चारण सन्दर्भ है तो हॅंसकर को अहिंदीभाषी हन्सकर पढ़कर हॅंसी का पात्र बन जाएगा। हॅंस और हंस का अंतर मिट जाना दुखद है। इसी तरह बहुवचन शब्दों में कहीं ‘एॅं’ का प्रयोग है, कहीं ‘यें’ का देखें ‘सभ्यताएॅं’और ‘प्रतिमायें’। कवि ने गणित से संबंधित शब्दों का प्रयौग किया है। ये प्रयोग अभिव्यक्ति को विशिष्ट बनाते हैं किंतु सटीकता भी चाहते हैं। ‘अपनापन /घिर चुका आज / फिर से त्रिज्याओं में’ के संबंध में तथ्य यह है कि त्रिज्या वृत के केंद्र से परिधि तक सीधी लकीर होती है, त्रिज्याएॅं चाप के बिना किसी को घेर नहीे सकतीं। ‘बन चुकी है /परिधि सारी /विवशतायें’, गूॅंगी /चुप्पी में लिपटी /सारी त्रिज्याएॅं हैं’, घुट-घुटकर जीता है नगरीय भूगोल, बढ़ने और घटनें में ही घुटती सीमाएॅं है, रेखाएॅं /घुलकर क्यों /तिरता प्रतिबिंब बनीं?’, ‘धुॅंधलाए /फलकों पर/आधा ही बिंब बनीं’, ‘आकांश बनने /में ही उनके/कट गए डैने’, ‘ड्योढि़याॅं/हॅंसती हैं/आॅंगन को’, इतिहास के /सीने पे सिल/बोते रहे’, ‘लड़ रहीं/लहरें शिलाओं से’, लिपटकर/हॅंसती हवाओं से’, ‘एक बौना/सा नया/सूरज उगाते हम’जैसे प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं किंतु अधिक सजगता भी चाहते हैं।

अटल जी के ये नवगीत पारंपरिक कथ्य को तोड़ते और बहुत कुछ जोड़ते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता पर सहज अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति को वरीयता होने पर रस औ भाव पक्ष गीत को अधिक प्रभावी होंगे। यह संकलन अटल जी से और अधिक की आशा जगाता है। नवगीतप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होगे। सुरुचिपूर्ण आवरण, मुद्रण तथा उपयुक्त मूल्य के प्रति प्रकाशक का सजग होना स्वागतेय है।
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