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मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

navgeet

एक रचना:
मालिक को 
रक्षक लूट रहे 
*
देश एक है हम अनेक 
खोया है जाग्रत विवेक
परदेशी के संग लडे
हाथ हमारे रहे जुड़े
कानून कई थे तोड़े
हौसले रहे कब थोड़े?
पाकर माने आज़ादी
भारत माँ थी मुस्कादी
चाह था
शेष न फूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
जब अपना शासन आया
अनुशासन हमें न भाया
जनप्रतिनिधि चाहें सुविधा
जनहित-निजहित में दुविधा
शोषक बन बैठे अफसर
धनपति शोषक हैं अकसर
जन करता है नादानी
कानून तोड़ मनमानी
तुम मानो
हमको छूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
धनतंत्र हुआ है हावी
दलतंत्र करे बरबादी
दमतोड़ रहा जनतंत्र
फल-फूल रहा मनतंत्र
सर्वार्थ रहे क्यों टाल
निज स्वार्थ रहे हैं पाल
टकराकर
खुद से टूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
घात लगाये पडोसी हैं
हम खुद को कहते दोषी हैं
ठप करते संसद खुद हम
खुद को खुद ही देते गम
भूखे मजदूर-किसान
भूले हैं भजन-अजान
निज माथा
खुद ही कूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
कुदरत सचमुच नाराज
ला रही प्रलय गिर गाज
तूफ़ान बवंडर नाश
बिछ रहीं सहस्त्रों लाश
कह रहा समय सम्हलो भी
मिल संग सुपंथ चलो भी
सच्चे हों
शेष न झूठ रहे
*

१९-१२-२०१५ 

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