त्रिपदिक गीत
"झरोखा"
सुनीता सिंह
अँधेरे से उजाले की ओर, १७
स्याह से हरियाली की ओर, १६
आस का एक झरोखा खुलता है ।। १९
५२
मन - तमस के उस पार ही, १४
कालिमा यदि हजार भी, १३
उम्मीद का सवेरा मिलता है।। १८
४५
खुद ही चमकना सूरज सा, १५
घोर अँधेरा धीरज का, १४
बस यही फ़लसफ़ा चलता है ।। १६
४४
लाखों आँधियाँ दिया बुझाएँ १७
आग जलाकर भस्म बनाएँ, १६
हर हाल अंतस दीप जलता है।। १८
५१
उड़ान हौसलों की रखकर १५
पहाड़ मुश्किलों के चढ़कर १५
उपलब्धि का गुल खिलता है।। १५
४५
दिल ख्वाब खोकर आहत हो, १५
जड़ पत्थर सी चाहत हो, १४
वक्त नहीं किसको छलता है।। १६
४५
ताश की तरह पत्तों का घर १६
या आग के कुछ ऊपर कागज १७
जीवन प्रतिकूल ही में पलता है। १९
५२
दम घुटता धुआँ हटाओ, १४
खोल झरोखा नूर बुलाओ, १६
एक बार जीवन मिलता है।। १६
४६
छल-कपट का तोहफा लिए, १५
जो झूठा फ़लसफ़ा कहे, १५
इक दिन वो हाथ मलता है।। १५
४५
गिरने पर जो हाथ बढ़ाए, १६
मन बदले तो साथ न आए, १६
कैसे बयां भी हो कितना खलता है।। २१
५३
अतिशय पीड़ा सहकर, १२
राह भरोसे ठोकर खाकर, १६
नूर दिल में छुपा निकलता है। १७
४५
घाव जहांँ से रिसे अधिक १४
चोट जहाँ पर सर्वाधिक १४
प्रकाश वहीं प्रवेश करता है।। १७
४५
उगता सूरज समां सजाये १६
किरणें बंद कोपलें खुलवायें १८
पर चढ़ता सूरज भी ढलता है।। १८
५२
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