सलिल सृजन नवंबर २१
०
गीत
बिटिया
.
तुहिना बिटिया लाजवाब है
.
सही लगे जो वह करती है
नहीं मुश्किलों से डरती है
करे परिश्रम, हार न माने
सफल हुए बिन कब रुकती है
सब कहते यह कामयाब है
तुहिना बिटिया लाजवाब है
.
बब्बा-दादी को अति प्यारी
मम्मी की यह राजदुलारी
पापा की आँखों का सपना
चाचा-बुआ कहें है न्यारी
कम न किसी से यह नवाब है
तुहिना बिटिया लाजवाब है
.
अपने पैरों आप खड़ी है
बाधाओं से जूझ लड़ी है
छोटे बच्चों में मिल छोटी
और बड़ों में हुई बड़ी है
निर्मल-निश्छल ज्यों सबाब है
तुहिना बिटिया लाजवाब है
२१.११.२०२५
.
दोस्त
जेब गर्म हो, न हो, गर्म दिली है।
दोस्त मिल गया तो मुफलिसी भी मिट गई।।
०
दस्तक दे दिल-द्वार पर, करता दोस्त प्रवेश।
दावा-दुआ सम पीर हर, हँसे दोस्त-दरवेश।।
०
दोस्त कृष्ण हो तो पार्थ युद्ध जीत ले।
दीन सुदामा समृद्ध एक पल में हो।।
०
दोस्त के भुज-पाश में, हो दोस्त को आनंद।
कान में जैसे सुनाई, दे रहा हो छंद ।।
२१.११.२०२५
०००
श्रीरामोत्तर तापीयोपनिषद
तारक सबको तारता, हो भव संकट पार
अविमुक्त काशी बसे, जो उसका उद्धार
प्रगटे प्रणव अकार से, लखन लीजिए जान
हैं शत्रुघ्न उकार से, भरत मकार सुजान
नाद बिंदु सिय मात हैं, अर्ध मात्रा राम
सकल सृष्टि ओंकार है, यह ही काम-अकाम
चार भाई मिल राम हैं, मिलकर खंड अखंड
चारों बहिनें सिया हैं, जाग्रत शक्ति प्रचंड
वैश्वानर जाग्रत लखन, सप्तांगी सत लोक
मुख में उन्नीस विधाएँ, संकर्षक हर शोक
शत्रुघ्न हैं दूसरे, मन रह करते कार्य
ज्ञाता अंत:करण के, सप्तांगी स्वीकार्य
अद्भुत व्याख्या कर रहीं, नमन सरोज प्रणम्य
कंठ विराजीं शारदा, कुछ भी नहीं अगम्य
भरत सुषुप्त रहें सदा, प्रभु से एकीभूत
महाप्राज्ञ श्री राम में, डूबें रहें प्रभूत
पाद चतुर्थ न अन्य है, हैं केवल श्री राम
निर्मल यश अज्ञान हर, करें कृपा निष्काम
वरणा नाशी देह में, देख सके तो देख
सारे दोष निवारती, पाप मिटाती लेख
मुक्त रहे मणिकर्णिका, घाट-दिवंगत जीव
कान दाहिने में मिले, मंत्र तरे पा जीव
राम मंत्र शिव दे रहे, राम शैव हैं मान
परम वैष्णव शिव स्वयं, परम सत्य लें जान
शंकर राम न भिन्न है, हैं दोनों प्रभु एक
कंकर शंकर-राम हैं, जाने सत्य विवेक
हैं अखंड रस आत्मा, राम रसिक अविराम
तारक मारक राम हैं, उद्धारक हैं राम
विधि हरि है श्री राम है, वे ही वेद-पुराण
परमात्मा जीवात्मा, करें प्राण संप्राण
निर्गुण होता सगुण जब, तब होता अवतार
प्रभु करते जब अवतरण, दें भक्तों को तार
अहंकार मन बुद्धि चित, अहंकार भी राम
सृष्टि अंत करते सदा, केवल प्रभु श्री राम
शारद रमा उमा सिया, हर देवी श्री राम
सूर्य सोम नवगृह नखत, सभी रूद्र श्री राम
सर्जक पालक विनाशक, चार मात्रा राम
राम महेश्वर महाहरि, रस लय यति गति राम
काशी में जप राम को, चल हो जाएँ मुक्त
अवध जपें शिव को जपें, हों दोनों संयुक्त
नमस्कार कर राम को, शिव प्रिय बन संजीव
शिव प्रणाम कर राम का, प्रिय हो जा रे जीव
दास राम का राम से, अधिक सत्य यह जान
कर कौशल योगेंद्र को, नमन सलिल दे मान
***
बिटिया को पाती
*
प्रिय बिटिया! नव खुशियाँ लाईं, महक गया आँगन-घर
पुरखों के आशीष फले, खुशियाँ उतरीं धरती पर
चहक उठी श्वासों की चिड़िया, आस कली मुस्काई
तुहिना आई साथ बहारें अनगिन सपने लाई
सफल साधना हुई शांति पा आशा पुष्पा फूली
स्नेह किरण सुषमा डोरी पर नव अभिलाषा झूली
वामन पग, नन्हें कर, सपने अगिन लिए थे नैना
मुस्काते अधरों पर सज्जित, कोकिल मीठे बैना
सुनी प्रार्थना प्रभु ने, मन्वन्तर ने बहिना पाई
अचल अर्चना, विनत वंदना संध्या की अरुणाई
राज बहादुर ही करते, बब्बा ने तुम्हें बताया
सत्य सहाय श्रमी का होता, नाना से समझाया
तुममें शारद रमा उमा की झलक नर्मदा हो तुम
भू पर पग रख गगन छू सको वरदा शुभदा हो तुम
तुममें हम हैं, हममें तुम हो, संजीवित हैं सपने
नेह नर्मदा सलिल सरीखे निर्मल नाते अपने
जो चाहो वह पाओ बिटिया! सुख-समृद्धि-संतोष
कभी न रीते किंचित वैभव-कीर्ति-सफलता कोष
शतवर्षी होने तक रहना सक्रिय-स्वस्थ्य हमेश
हर अभिलाषा पूरी हो, पाना न रहे कुछ शेष
***
द्विपदियाँ / अशआर
सिगरेट
*
गम सुलगते रहे, दर्द अंगुली हुए
मुफलिसी में बिताई जो ज़िंदगी सिगरेट है.
*
आशिक़ी सिगरेट की लत, छुड़ाए छूटे नहीं
सुकूं देती एक पल को, ज़िंदगी बर्बाद कर
*
फूँकता तुझको रहा, तू फूँकती मुझको रही
जेब खाली स्याह लब, सिगरेट तूने कर दिए
*
ज़िंदगी है राखदानी, हौसले हैं राख सब
कोशिशें सिगरेट जैसे, सुलग दिल सुलगा गईं
२१-११-२०२०
***
सरस्वती वंदना
भोजपुरी
*
पल-पल सुमिरत माई सुरसती, अउर न पूजी केहू
रउआ जनम-जनम के नाता, कइसे ई छुटि जाई
नेह नरमदा नहा-नहा माटी कंचन बन जाई
अलंकार बिन खुश न रहेलू, काव्य-कामिनी मैया
काव्य कलश भर छंद क्षीर से, दे आँचल के छैंया
आखर-आखर साँच कहेलू, झूठ न कबहूँ बोले
हमरा के नव रस, बिम्ब-प्रतीक समो ले
किरपा करि सिखवावलु कविता, शब्द ब्रह्म रस खानी
बरनौं तोकर कीर्ति कहाँ तक, चकराइल मति-बानी
जिनगी भइल व्यर्थ आसिस बिन, दस दिस भयल अन्हरिया
धूप-दीप स्वीकार करेलु, अर्पित दोऊ बिरिया
२१-११-२०१९
०००
कृति चर्चा:
'पहने हुए धूप के चेहरे' नवगीत को कैद करते वैचारिक घेरे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण २०१८, आई.एस.बी.एन. ९८७९३८०७५३४२३, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य ३००/-, आवरण सजीओल्ड बहुरंगी जैकेट सहित, गुंजन प्रकाशन,सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ मार्ग, मुरादाबाद, नवगीतकार संपर्क विधायन, एसएस १०८-१०९ सेक्टर ई, एल डी ए कॉलोनी, कानपुर मार्ग लखनऊ २८६०१२, चलभाष ९४५०४७५७९]
*
नवगीत के इतिहास में जनवादी विचारधारा का सशक्त प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधि हस्ताक्षर राजेंद्र प्रसाद अष्ठाना जिन्हें साहित्य जगत मधुकर अष्ठाना के नाम से जानता है, अब तक एक-एक भोजपुरी गीत संग्रह, हिंदी गीत संग्रह तथा ग़ज़ल संग्रह के अतिरिक्त ९ नवगीत संग्रहों की रचना कर चर्चित हो चुके हैं। विवेच्य कृति मधुकर जी के ६१ नवगीतों का ताज़ा गुलदस्ता है। मधुकर जी के अनुसार- "संवेदना जब अभिनव प्रतीक-बिम्बों को सहज रखते हुए, सटीक प्रयोग और अपने समय की विविध समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से जूझते साधारण जान के जटिल जीवन संघर्ष को न्यूनतम शब्दों में छांदसिक गेयता के साथ मार्मिक रूप में परिणित होती है तो नवगीत की सृष्टि होती है।"मधुकर के सृजन-कर्म का वैशिष्ट्य नवगीतों में समसामयिक विडंबनाओं, त्रासदियों, विरोधभासों आदि का संकेतन करना है। सटीक बिम्बों के माध्यम से पाठक उनके नवगीतों के कथ्य से सहज ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आम बोलचाल की भाषा में तत्सम - तद्भव शब्दावली उनके नवगीतों को जन-मन तक पहुँचाती है। ग्राम्यांचलों से नगरों की और पलायन से उपजा सामाजिक असंतुलन और पारिवारिक विघटन उनकी चिंता का विषय है-
बाबा लिए सुमिरनी झंखै
दादी को खटवाँस
जाये सब
परदेस जा बसे
घर में है वनवास
हरसिंगार की
पौध लगाई
निकले किन्तु बबूल
पड़ोसियों की
बात निराली
ताने हैं तिरसूल
'सादा जीवन उच्च विचार' की, पारंपरिक सीख को बिसराकर प्रदर्शन की चकाचौंध में पथ भटकी युवा पीढ़ी को मधुकर जी उचित ही चेतावनी देते हैं-
जिसमें जितनी चमक-दमक है
वह उतना नकली सोना है
आकर्षण के चक्र-व्यूह में
केवल खोना ही
खोना है
नयी पौध को दिखाए जा रहे कोरे सपने, रेपिस्टों की कलाई पर बाँधी जा रहे रही राखियां, पंडित-मुल्ला का टकराव,, सवेरे-सवेरे कूड़ा बीनता भविष्य, पत्थरों के नगर में कैद संवेदनाएँ, प्रगति बिना प्रगति का गुणगान, चाक-चौबंद व्यवस्था का दवा किन्तु लगातार बढ़ते अपराध, स्वप्न दिखाकर ठगनेवाले राजनेता, जीवनम में व्याप्त अबूझा मौन, राजपथों पर जगर-मगर घर में अँधेरा, नयी पीढ़ी के लिए नदी की धार का न बचना, पीपल-नीम-हिरन-सोहर-कजली-फाग का लापता होते जाना आदि-आदि अनेक चिंताएँ मधुकर जी के नवगीतों की विषय-वस्तु हैं। कथ्य में जमीनी जुड़ाव और शिल्प में सतर्क-सटीकता मधुकर जी के काव्य कर्म को अन्यों से अलग करता है। सम्यक भाषा, कथ्यानुरूप भाव, सहज कहन, समुचित बिम्ब, लोकश्रुत प्रतीकों और सर्वज्ञात रूपकों ने मधुकर जी की इन गीति रचनाओं को खास और आम की बात कहने में समर्थ बनाया है।
मधुकर जी के नवगीतकार की ताकत और कमजोरी उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है। उनके गीतों में लयें हैं, छंद हैं, भावनाएँ हैं, आक्रोश है किंतु कामनाएँ नहीं है, हौसले नहीं हैं, अरमान नहीं है, उत्साह नहीं है, उल्लास नहीं है, उमंग नहीं है, संघर्ष नहीं है, सफलता नहीं है। इसलिए इन नवगीतों को कुंठा का, निराशा का, हताशा का वाहक कहा जा सकता है।
यह सर्वमान्य है कि जीवन में केवल विसंगतियाँ, त्रासदियाँ, विडंबनाएँ, दर्द, पीड़ा और हताशा ही नहीं होती। समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों की, मानवीय जिजीविषा की पराजय की जय-जयकार करना मात्र ही साहित्य की किसी भी विधा का साध्य कैसे हो सकता है? क्या नवगीत राजस्थानी की रुदाली परंपरा या शोकगीत में व्याप्त रुदन-क्रंदन मात्र है?
नवगीत के उद्भव-काल में लंबी पराधीनताजनित शोषण, सामाजिक बिखराव और विद्वेष, आर्थिक विषमताजनित दरिद्रता आदि के उद्घोष का आशय शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर पारिस्थितिक सुधार के दिशा प्रशस्त करना उचित था किन्तु स्वतंत्रता के ७ दशकों बाद परिस्थितियों में व्यापक और गहन परिवर्तन हुआ है। दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए क्रमश: अविकसित से विकासशील, अर्ध विकसित होते हुए विकसित देशों के स्पर्धा कर रहा देश विसंगतियों और विडम्बनाओं पर क्रमश: जीत दर्ज करा रहा है।
अब जबकि नवगीत विधा के तौर पर प्रौढ़ हो रहा है, उसे विसंगतियों का अतिरेकी रोना न रोते रहकर सच से आँख मिलाने का साहस दिखते हुए, अपने कथ्य और शिल्प में बदलाव का साहस दिखाना ही होगा अन्यथा उसके काल-बाह्य होने पर विस्मृत कर दिए जाने का खतरा है। नए नवगीतकार निरंतर चुनौतियों से जूझकर उन्नति पथ पर निरंतर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। मधुकर अष्ठाना जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार की ओर नयी पीढ़ी बहुत आशा के साथ देख क्या वे आगामी नवगीत संग्रहों में नवगीत को यथास्थिति से जूझकर जयी होनेवाले तेवर से अलंकृत करेंगे?
नवगीत और हिंदी जगत दोनों के लिए यह आल्हादकारी है कि मधुकर जी के नवगीतों की कतिपय पंक्तियाँ इस दिशा का संकेत करती हैं। "आधा भरा गिलास देखिए / जीन है तो / दृष्टि बदलिए" में मधुयर्कार जी नवगीत कर का आव्हान करते हैं कि उन्हें अतीतदर्शी नहीं भविष्यदर्शी होना है। "यह संसद है / जहाँ हमारे सपने / तोड़े गए शिखर के" में एक चुनौती छिपी है जिसे दिनकर जी 'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध' लिखकर व्यक्त करते हैं। निहितार्थ यह कि नए सपने देखो और सपने तोड़ने वाली संसद बदल डालो। दुष्यंत ने 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो' कहकर स्पष्ट संकेत किया था, मधुकर जी अभी उस दिशा में बढ़ने से पहले की हिचकिचाहट के दौर में हैं। अगर वे इस दिशा में बढ़ सके तो नवगीत को नव आयाम देने के लिए उनका नाम और काम चिरस्मरणीय हो सकेगा।
इस पृष्ठभूमि में मधुकर जी की अनुपम सृजन-सामर्थ्य समूचे नवगीत लेखन को नई दिशाओं, नई भूमिकाओं और नई अपेक्षाओं से जोड़कर नवजीवन दे सकती है। गाठ ५ दशकों से सतत सृजनरत और ९ नवगीत संकलन प्रकाशित होने के बाद भी "समय के हाशिये पर / हम अजाने / रह गए भाई" कहते मधुकर जी इस दिशा और पथ पर बढ़े तो उन्हें " अधर पर / कुछ अधूरे / फिर तराने रह गए भाई" कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा। "होती नहीं / बंधु! वर्षों तक / खुद से खुद की बात", "छोटी बिटिया! / हुई सयानी / नींद गयी माँ की", "सोच संकुचित / रोबोटों की / अंतर मानव और यंत्र में", "गति है शून्य / पंगु आशाएँ", "अब न पीर के लिए / ह्रदय का कोई कण", "विश्वासों के / नखत न टूटे", "भरे नयन में / कौंध रहे / दो बड़े नयन / मचले मन में / नूपुर बाँधे / युगल चरण / अभी अधखिले चन्द्रकिरण के फूल नए / डोल रही सर-सर / पुरवैया भरमाई" जैसी शब्दावली मधुकर जी के चिंतन और कहन में परिवर्तन की परिचायक है।
"कूद रहा खूँटे पर / बछरू बड़े जोश में / आज सुबह से" यह जोश और कूद बदलाव के लिए ही है। "कभी न बंशी बजी / न पाया हमने / कोई नेह निमंत्रण" लिखनेवाली कलम नवल नेह से सिक्त-तृप्त मन की बात नवगीत में पिरो दे तो समय के सफे पर अपनी छाप अंकित कर सकेगा। "चलो बदल आएँ हम चश्मा / चारों और दिखे हरियाली" का संदेश देते मधुकर जी नवगीत को निरर्थक क्रंदन न बनने देने के प्रति सचेष्ट हैं। "दीप जलाये हैं / द्वारे पर / अच्छे दिन की अगवानी में" जैसी अभिव्यक्ति मधुकर जी के नवगीत संसार में नई-नई है। शुभत्व और समत्व के दीप प्रज्वलित कर नवगीत के अच्छे दिन लाये जा सकें तो नवगीतकार काव्यानंद-रसानंद व् ब्रम्हानंद की त्रिवेणी में अवगाहन कर समाज को नवनिर्माण का संदेश दे सकेंगे।
२१-११-२०१८
***
सरस्वती स्तवन:
मालवी
*
माँ सरसती! की किरपा घणी
मैया! कसी तमारी माया
नाम तमाया रहा भुलाया
सुमिरा तब जब मुस्कल पड़ी
माँ सरसती! दे मीठी बोली
ज्यूँ माखन में मिसरी घोली
सँग अक्कल की पारसमणि
मिहनत का सिखला दे मंतर
सच्चाई का दे दै तंतर
खुशियों की नी टूटै लड़ी
नादां गैरी नींद में सोयो
आँख खुली ते डर के रोयो
मन मंदिर में मूरत जड़ी
०००
दोहा द्विपदी ही नहीं-
दोहा द्विपदी ही नहीं, चरण न केवल चार
गौ-भाषा दुह अर्थ दे सम्यक, विविध प्रकार
*
तेरह-ग्यारह विषम-सम, चरण पदी हो एक
दो पद मिल दोहा बने, रचते कवि सविवेक
*
गुरु-लघु रखें पदांत में, जगण पदादि न मीत
लय रस भाव प्रतीक मिल, गढ़ते दोहा रीत
*
कहे बात संक्षेप में, दोहा तज विस्तार
गागर में सागर भरे, ज्यों असार में सार
*
तनिक नहीं अस्पष्टता, दोहे को स्वीकार्य
एक शब्द बहु अर्थ दे, दोहे का औदार्य
*
मर्म बेध दोहा कहे, दिल को छूती बात
पाठक-श्रोता सराहे, दोहा-कवि विख्यात
*
अमिधा मन भाती इसे, रुचे लक्षणा खूब
शक्ति व्यंजना सहेली, मुक्ता गहती डूब
*
आधा सम मात्रिक बना, है दोहे का रूप
छंदों के दरबार में, दोहा भूप अनूप
*
गति-यति दोहा-श्वास है, रस बिन तन बेजान
अलंकार सज्जित करें, पड़े जान में जान
*
बिंब प्रतीक मिथक हुए, दोहा का गणवेश
रहें कथ्य-अनुकूल तो, हों जीवंत हमेश
*
कहन-कथन का मेल हो, शब्द-भाव अनुकूल
तो दोहा हो फूल सम, अगर नहीं हो शूल
**
मैं बोला: आदाब पर, वे समझे आ दाब.
लपक-भागने में गए रौंदे रक्त गुलाब.
*
दोहा-यमक
किस मिस किस मिस को किया, किस बतलाए कौन?
तिल-तिल कर तिल जल रहा, बैठ अधर पर मौन.
*
बिल्ली जाती राह निज, वह न काटती राह
भरमाता खुद को मनुज, छोड़ तर्क की थाह.
*
जो जगमग-जगमग करे, उसे न सोना जान.जो जग कर कुछ तम हरे, छिड़क उसी पर जान.
*
समय सूचिका का करें, जो निर्माण-सुधार.
समय न अपना वे सके, किंचित कभी सुधार.
*
मैं बोला: आदाब पर, वे समझे आ दाब.
लपक-भागने में गए, रौंदे रक्त गुलाब.
मैं बोला: आदाब पर, वे समझे आ दाब.
लपक-भागने में गए, रौंदे रक्त गुलाब.
*
लखन-उर्मिला देह-मन, इसमें उसका वास.इस बिन उसका है कहाँ, कहिए अन्य सु-वास.
*
मन में बसी सुवास है, उर्मि-लखन हैं फ़ूल.
सिया-राम गलहार में, फूल रहे हैं झूल.
सिया-राम गलहार में, फूल रहे हैं झूल.
*
सिया-सिंधु की उर्मि ला, अँजुरी रखें अँजोर.
लछ्मन-मन नभ, उर्मिला, मनहर उज्ज्वल भोर.
लछ्मन-मन नभ, उर्मिला, मनहर उज्ज्वल भोर.
*
लखन लक्ष्मण या कहें, लछ्मन उसको आप.
लख न राम का काम कर, मेटें हर संताप.
*
हृदय रखे जो राम को, वही राम-जन जान.
लख आराम-विराम में, राम तीर संधान.
.
***
द्विपदी
जो न मौन को सुन पाता है वह शब्दों को कैसे समझे?
***
क्षणिका
मैं हूँ,
तुम हो,
तो ही
हम हैं।
इसीलिए
मैं की भी सुन.
...
एक रचना
*
भ्रमरवत करो सभी गुंजार,
बाग में हो मलयजी बयार.
अजय वास्तव में श्रीे के साथ
बसन्ती कांति लुटा मिथलेश
करें माया की हँस मनुहार.
कल्पना कांता सत्या संग
छंद रच करें शब्द- श्रन्गार.
अदब की पकड़े लीक अजीम
हुमा दे दस दिश नवल निखार.
देख विश्वंभर छिप रति-काम
मौन हो गए प्रशांत, न धार.
सुमन ले सु-मन, विनीता कली
चंचला तितली बाग-बहार.
प्रेरणा गिरिधारी दें आज
बिना दर्शन मेघा बेज़ार.
विनोदी पुष्पा हो संजीव,
सरस रस वर्षा करे निहार.
रहे जर्रार तेज-तर्रार,
विसंगति पर हो शब्द-प्रहार.
अनिल भू नभ जल अग्नि अमंद
काव्यदंगल पर जग बलिहार.
२०-११-२०१७
...
एक नया प्रयोग-
गीत
करेंगे वही
(छंद- अष्ट मात्रिक वासव जातीय, पंचाक्षरी)
[बहर- फऊलुन फ़अल १२२ १२]
*
सदा जो सही
*
न पाया कभी
न खोया कभी
न जागा हुआ
न सोया अभी
वरेंगे वही
लगे जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
सुहाया वही
लुभाया वही
न खोया जिसे
न पाया कभी
तरेंगे वही
बढ़े जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
गिराया हुआ
उठाया नहीं
न नाता कभी
भुनाया, सही
डरेंगे वही
नहीं जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
***
द्विपदी
जो न मौन को सुन पाता है
वह शब्दों को कैसे समझे?
.
क्षणिका
मैं हूं
तो ही
हम भी होंगे
इसीलिए
मैं की भी सुन.
...
एक रचना
*
भ्रमरवत करो सभी गुंजार,
बाग में हो मलयजी बयार.
अजय वास्तव में श्रीे के साथ
बसन्ती कांति लुटा मिथलेश
करें माया की हँस मनुहार.
कल्पना कांता सत्या संग
छंद रच करें शब्द- श्रन्गार.
अदब की पकड़े लीक अजीम
हुमा दे दस दिश नवल निखार.
देख विश्वंभर छिप रति-काम
मौन हो गए प्रशांत, न धार.
सुमन ले सु-मन, विनीता कली
चंचला तितली बाग-बहार.
प्रेरणा गिरिधारी दें आज
बिना दर्शन मेघा बेज़ार.
विनोदी पुष्पा हो संजीव,
सरस रस वर्षा करे निहार.
रहे जर्रार तेज-तर्रार,
विसंगति पर हो शब्द-प्रहार.
अनिल भू नभ जल अग्नि अमंद
काव्यदंगल पर जग बलिहार.
***
मुक्तिका
शांत हों, प्रशांत हों
पर नहीं अशांत हों
असंतुष्ट?, क्रांत हों.
युवा नहीं भ्रांत हों.
अस्त हो दिनांत हों.
कांत कांता सुशांत
शांत सफ़ल कांत हों.
सबद, प्रे, अजान सम
बात कह, दिशांत हों.
...
मुक्तिका
.
लोग हों सब साथ
हाथ में हों हाथ
.
साध लें आ नाथ
.
रखो पैर सम्हाल
झुक न जाए माथ
.
लक्ष्य पाते पैर
सहायक हो पाथ
.
फूल बनते माल
डोर ले यदि गाँथ
***
मुक्तिका
.
लोग हों सब साथ
हाथ में हों हाथ
.
साध लें आ नाथ
.
रखो पैर सम्हाल
झुक न जाए माथ
.
लक्ष्य पाते पैर
सहायक हो पाथ
.
फूल बनते माल
डोर ले यदि गाँथ
*
मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, सच्चा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, दुबारा रिश्ता लिखा
***
मुक्तक
शब्द ही करते रहे हैं, नित्य मुझसे खेल.
मैं अकेले ही बिचारा , रहा उनको झेल.
चाहती भाषा रखूँ मैं, भाव का भी ध्यान-
शिल्प चाहे हो डली, कवि नाक में नकेल
*कुछ नहीं में भी कुछ तो होता है
मौन भी शोर उर में बोता है
पंक में खिल रहा 'सलिल' पंकज
पग में लगता तो मनुज धोता है
मौन भी शोर उर में बोता है
पंक में खिल रहा 'सलिल' पंकज
पग में लगता तो मनुज धोता है
*
सूरज आया, नभ पर छाया
धरती पर सोना बिखराया
जग जाग उठा कह शुभ प्रभात
खग-दल ने गीत मधुर गाया
धरती पर सोना बिखराया
जग जाग उठा कह शुभ प्रभात
खग-दल ने गीत मधुर गाया
*
चतुष्पदी
चीर तम का चीर आता, रवि उषा के साथ.
दस दिशाएँ करें वंदन, भले आए नाथ.
करें करतल-ध्वनि बिरछ मिल, सलिल-लहर हिलोर.
'भोर भई जागो' गाती है, प्रात-पवन झकझोर.
***मनुहार-गीत
.
कर रहे मनुहार कर जुड़ मान भी जा
प्रिये! झट मुड़ प्रेम को पहचान भी जा
.
फ़ेरना मुँह है सुमुखि! केवल बहाना
बाँह में दे बाँह आ गलहार बन जा
बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा
चाहता रस आज बन रस-खान भी जा
.
अधर पर धर अधर आ रसलीन होले
बना दे रसखान मुझको श्वास बोले
द्वैत तज अद्वैत का मिल वरण कर ले
तार दे मुझको शुभांगी आप तर ले
मान रख मेरा ग्रहण कार पान भी जा
...
घनाक्षरी / कवित्त
मेरा पूरा परिचय, केवल इतना बेटा, हिंदी माता का हूँ गाता, हिंदी गीत हमेशा.
चारण हूँ अक्षर का, सेवक शब्द-शब्द का, दास विनम्र छंद का, पाली प्रीत हमेशा.
नेह नरमदा नहा, गही कविता की छैया, रस गंगा जल पीता, जीता रीत हमेशा.
भाव प्रतीक बिंब हैं, साथी-सखा अनगिने, पाठक-श्रोता बांधव, पाले नीत हमेशा.
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हिंदी मैया का जैकारा, गुंजा दें सारे विश्वों, देवों, यक्षों-रक्षों में, वे भी आ हिंदी बोलें.
हिंदी मैया दिव्या भव्या, श्रव्या-नव्या दूजी कोई, भाषा ऐसी ना थी, ना है, ना होगी हिंदी बोलें.
हिंदी मैया गैया रेवा, भू माताएँ पाँचों पूजे, दूरी मेटें आओ भेंटें, एका हो हिंदी बोलें.
हिंदी है छंदों से नाता, हिंदी गीतों की उद्गाता, ऊषा-संध्या चंदा-तारे, सीखें रे हिंदी बोलें.
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सच बात जाने बिना, अफ़वाहे सच मान, धमकी जो दे रहे हैं, नादां राजपूत हैं.
सत्य के न न्याय के वे, साथ खड़े हो रहे हैं, मनमानी चाहते हैं, दहशत-दूत हैं.
जातिवादी सोच हावी, जाने कैसी होगी भावी, राजनीति के खिलौने, दंभी भी अकूत हैं.
संविधान भूल रहे, अपनों को हूल रहे, सत्पथ भूल रहे, शांति रहे लूट हैं.
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महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी।
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी।।
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी।
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी।।
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बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी।
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी।।
विप्र जब द्वार आये, राखी बाँध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी।
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी।।
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संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो।।
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो।।
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न चाहतें, न राहतें, न फैसले, न फासले, दर्द-हर्ष मिल सहें, साथ-साथ हाथ हों।
न मित्रता, न शत्रुता, न वायदे, न कायदे, कर्म-धर्म नित करें, उठे हुए माथ हों।।
न दायरे, न दूरियाँ, रहें न मजबूरियाँ, फूल-शूल, धूप-छाँव, नेह नर्मदा बनें।।
गिर-उठें, बढ़े चलें, काल से विहँस लड़ें, दंभ-द्वेष-छल मिटें, कोशिशें कथा बुनें।।
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घन अक्षरी गाइए, डूबकर सुनाइए, त्रुटि नहीं छिपाइए, सीखिये-सिखाइए।
शिल्प-नियम सीखिए, कथ्य समझ रीझिए, भाव भरे शब्द चुन, लय भी बनाइए।।
बिंब नव सजाइए, प्रतीक भी लगाइए, अलंकार कुछ नए, प्रेम से सजाइए।।
वचन-लिंग, क्रिया रूप, दोष न हों देखकर, आप गुनगुनाइए, वाह-वाह पाइए।।
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फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िंदगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर धर, धीर पीर सहता।।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
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संसद के मंच पर, लोक-मत तोड़े दम, राजनीति सत्ता-नीति, दल-नीति कारा है ।
नेताओं को निजी हित, साध्य- देश साधन है, मतदाता घोटालों में, घिर बेसहारा है ।
'सलिल' कसौटी पर, कंचन की लीक है कि, अन्ना-रामदेव युति, उगा ध्रुवतारा है।
स्विस बैंक में जमा जो, धन आए भारत में , देर न करो भारत, माता ने पुकारा है।
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फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यह बेहतर, फेस 'बुक' हुआ है तो, छुडाना ही होगा।
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो, फेस की असलियत, जानना जरूरी है।।
फ़ेस देख दे रहे हैं, लाइक पे लाइक जो, हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।
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लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो, काम जो भी करना हो, झटपट करिए।
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं, मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए।।
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें, 'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिए।।
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२१-११-२०१७
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गीत
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क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
चिड़िया चहक-चहककर, नव आस बो रही है
*
तेरा नहीं ठिकाना, मंजिल है दूर तेरी
निष्काम काम कर ले, पल भर भी हो न देरी
कब लौटती है वापिस, जो सांस खो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
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दिनकर करे मजूरी, बिन दाम रोज आकर
नागा कभी न करता, पर है नहीं वो चाकर
सलिला बिना रुके ही हर घाट धो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
*
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कुन्डलिया
मन उन्मन हो जब सखे!, गढ़ें चुटकुला एक
खुद ही खुद को सुनाकर, हँसें मशविरा नेक
हँसें मशविरा नेक, निकट दर्पण के जाएँ
अपनी सूरत निरख, दिखाकर जीभ चिढ़ाएँ
तरह-तरह मुँह बना, तरेंरे नैना खंजन
गढ़ें चुटकुला एक, सखे! जब मन हो उन्मन
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कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ४
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(छंद- अठारह मात्रिक , ग्यारह अक्षरी छंद, सूत्र यययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२२ १२, यगण यगण यगण लघु गुरु ]
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मुक्तक
(छंद- अठारह मात्रिक , ग्यारह अक्षरी छंद, सूत्र यययलग )
निगाहें मिलाओ, चुराओ नहीं
जरा मुस्कुराओ, सताओ नहीं
ज़रा पास आओ, न जाओ कहीं
तुम्हें सौं हमारी भुलाओ नहीं
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कुन्डलिया
मन उन्मन हो जब सखे!, गढ़ें चुटकुला एक
खुद ही खुद को सुनाकर, हँसें मशविरा नेक
हँसें मशविरा नेक, निकट दर्पण के जाएँ
तरह-तरह मुँह बना, तरेंरे नैना खंजन
गढ़ें चुटकुला एक, सखे! जब हो मन उन्मन
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अंग्रेज दोहाकार फ्रेडरिक पिंकोट
हिंदी छंदों को कठिन और अप्रासंगिक कहनेवाले यह जानकर चकित होंगे कि स्वतंत्रता के पूर्व से कई विदेशी हिंदी भाषा और छंदों पर कार्य करते रहे हैं. एक अंग्रेज के लिये हिन्दी सीखना और उसमें छंद रचना सहज नहीं. श्री फ्रेडरिक पिंकोट ने द्वारा अपने मित्र भारतेंदु हरिश्चंद्र पर रचित निम्न सोरठा एवं दोहा यह भी तो कहता है कि जब एक विदेशी और हिन्दी न जाननेवाला इन छंदों को अपना सकता है तो हम भारतीय इन्हें सिद्ध क्यों नहीं कर सकते? सवाल इच्छाशक्ति का है, छंद तो सभी को गले लगाने के लिए उत्सुक है.
बैस वंस अवतंस, श्री बाबू हरिचंद जू.
छीर-नीर कलहंस, टुक उत्तर लिख दे मोहि.
शब्दार्थ: बैस=वैश्य, वंस= वंश, अवतंस=अवतंश, जू=जी, छीर=क्षीर=दूध, नीर=पानी, कलहंस=राजहंस, तुक=तनिक, मोहि=मुझे.
भावार्थ: हे वैश्य कुल में अवतरित बाबू हरिश्चंद्र जी! आप राजहंस की तरह दूध-पानी के मिश्रण में से दूध को अलग कर पीने में समर्थ हैं. मुझे उत्तर देने की कृपा कीजिये.
श्रीयुत सकल कविंद, कुलनुत बाबू हरिचंद.
भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद.
भावार्थ: हे सभी कवियों में सर्वाधिक श्री संपन्न, कवियों के कुल भूषण! आप भारत के हृदयरूपी आकाश में चंद्रमा की तरह उदित हुए हैं.
२१-११-२०१६
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कविता:
सफाई
मैंने देखा सपना एक
उठा तुरत आलस को फेंक
बीजेपी ने कांग्रेस के
दरवाज़े पर करी सफाई
नीतीश ने भगवा कपड़ों का
गट्ठर ले करी धुलाई
माया झाड़ू लिए
मुलायम की राहों से बीनें काँटे
और मुलायम ममतामय हो
लगा रहे फतवों को चाँटे
जयललिता की देख दुर्दशा
करुणा-भर करुणानिधि रोयें
अब्दुल्ला श्रद्धा-सुमनों की
अवध पहुँच कर खेती बोएँ
गज़ब! सोनिया ने
मनमोहन को
मन मंदिर में बैठाया
जन्म अष्टमी पर
गिरिधर का सोहर
सबको झूम सुनाया
स्वामी जी को गिरिजाघर में
प्रेयर करते हमने देखा
और शंकराचार्य मिले
मस्जिद में करते सबकी सेवा
मिले सिक्ख भाई कृपाण से
खापों के फैसले मिटाते
बम्बइया निर्देशक देखे
यौवन को कपड़े पहनाते
डॉक्टर और वकील छोड़कर फीस
काम जल्दी निबटाते
न्यायाधीश एक पेशी में
केसों का फैसला सुनाते
थानेदार सड़क पर मंत्री जी का
था चालान कर रहा
बिना जेब में रूपए डाले
टी. सी.बर्थें बाँट हँस रहा
आर. टी. ओ. लाइसेंस दे रहा
बिना दलाल के सच्ची मानो
अगर देखना ऐसा सपना
चद्दर ओढ़ो लम्बी तानो
२८-१०-२०१४
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नवगीत:
अंध श्रद्धा शाप है
आदमी को देवता मत मानिये
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप है
कौन गुरुघंटाल हो किसको पता?
बुद्धि को तजकर नहीं करिए खता
गुरु बनायें तो परखिए भी उसे
बता पाये गुरु नहीं तुझको धता
बुद्धि तजना पाप है
नीति-मर्यादा सुपावन धर्म है
आदमी का भाग्य लिखता कर्म है
शर्म आये कुछ न ऐसा कीजिए
जागरण ही ज़िंदगी का मर्म है
देव-प्रिय निष्पाप है
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नवगीत:
बग्घी बैठा
सठियाया है समाजवादी
हिन्दू-मुस्लिम को लड़वाए
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाए
आँसू सिसकी चीखें नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर
उढ़ा रहा है समाजवादी
खुद बीबी साले बेटी को
सत्ता दे, चाहे हेटी हो
घपलों-घोटालों की जय-जय
कथनी-करनी में अंतर कर
न्यायालय से
सजा पा रहा समाजवादी
बना मसीहा झाड़ू थामे
गाल बजाये, लाज न आए
कुर्सी मिले छोड़कर भागे
सपना देखे
ठोकर खाए समाजवादी
***
नवगीत:
वेश संत का
मन शैतान
मोह रहे हैं काम-कामना
शांत नहीं है क्रोध-अग्नि भी
शेष अभी भी द्वेष-चाहना
खुद को बता
रहे भगवान
.
शेष न मन में रही विमलता
भूल चुके हैं नेह-तरलता
पाखंडों घिर खंड-खंड हैं
कर्मकांड ने भर दी जड़ता
बन बैठे हैं ये हैवान
.
जोड़ रखी धन-संपद भारी
सीख-सिखाते हैं अय्यारी
बेचें भ्रम, क्रय करते निष्ठा
ईश्वर से करते गद्दारी
अनुयायी जो
हैं नादान
.
खुद को बतलाते अवतारी
मन भाती है दौलत-नारी
अनुशासन कानून न मानें
कामचोर-वाग्मी हैं भारी
पोल खोल दो
मन में ठान
२१-११-२०१४
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छंद सलिला :
प्रेमा छंद
*
उदाहरण:
१. मिलो-जुलो तो हमको तुम्हारे, हसीन वादे-कसमें लुभाएँ
देखो नज़ारे चुप हो सितारों, हमें बहारें नगमे सुनाएँ
२. कहो कहानी कविता रुबाई, लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें, सदा वही जो खुद भी सहा हो
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई, मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आएँ, बना न बातें भरमा नहीं रे!
***
मत ठुकराओ
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-ज्योत्सना बन झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
***
झाँझ बजा रे...
*
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
निज कर में करताल थाम ले,
उस अनाम का नित्य नाम ले.
चित्र गुप्त हो, लुप्त न हो-यदि
हो अनाम-निष्काम काम ले..
ताज फेंककर उठा मँजीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
झूम-झूम मस्ती में गा रे!,
पस्ती में निज हस्ती पा रे!
शेष अशेष विशेष सकल बन-
दुनियादारी अकल भुला रे!!
हरि-हर पर मल लाल अबीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
गद्दा-गद्दी को ठुकरा रे!
माया-तृष्णा-मोह भुला रे!
कदम जहाँ ठोकर खाते हों-
आत्म-दीप निज 'सलिल' जला रे!!
'अनल हक' नित गुँजा फकीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
२१-११-२०१०
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दोहा सलिला
*
लहर-लहर लहरा रहे, नागिन जैसे केश।
कटि-नितम्ब से होड़ ले, थकित न होते लेश।।
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नयन मिलाये रह सके, साहस रहा न शेष।।
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मनुज-भाल पर स्वेद सम, केश सजाये फूल।
लट षोडशी कुमारिका, रूप निहारे फूल।।
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मदिर मोगरा गंध पा, केश हुए मगरूर।
जूड़े ने मर्याद में, बाँधा झपट हुज़ूर।।
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केश-प्रभा ने जब किया, अनुपम रूप-सिंगार।
कैद केश-कारा हुए, विनत सजन बलिहार।।
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पलक झपक अलसा रही, बिखर गये हैं केश।
रजनी-गाथा अनकही, कहतीं लटें हमेश।।
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२४-५-२००९