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शनिवार, 21 जुलाई 2018

ॐ दोहा शतक इंद्रकुमार श्रीवास्तव


दोहा शतक
इंद्र बहादुर श्रीवास्तव
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चित्र में ये शामिल हो सकता है: Kavi Indr Bahadur Shrivastava, चश्मे और पाठ

जन्म: १४.५.१९४७, ग्राम डेलहा, मैहर, सतना मध्य प्रदेश। 
आत्मज: स्व. जानकी बाई-स्व. अवधेश प्रसाद श्रीवास्तव। 
जीवन संगिनी: स्व. कमलेश श्रीवास्तव। 
काव्य गुरु: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
शिक्षा: डिप्लोमा मैकेनिकल अभियांत्रिकी। 
लेखन विधा: दोहा, हास्य कविताएँ। 
संप्रति: सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी, वाहन निर्माणी जबलपुर। 
संपर्क: ४१६, स्वागतम चौक, जयप्रकाश नगर, अधारताल, जबलपुर ४८२००४। 
दूरभाष: ०७६१ ४०३७१११, चलभाष: ९१ ९३२ ९६६४२७२, ईमेल: ibshrivastava01@gmail.com ।
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इंद्रबहादुर श्रीवास्तव जी व्यवसाय से अभियंता होते हुए भी अभिरुचि से हास्य कवि हैं। अभियंता होने के कारण उन्हें हर कार्य समझ-बूझकर करने का अभ्यास है। दोहा शतक मंजूषा में सहभागिता हेतु अत्यल्प समय में दोहा के विधान का अभ्यास कर  उसमें अपनी मूल विधा हास्य को पिरोने में वे सफल रहे हैं। निम्न दोहा इसकी बानगी है:
पिता पुत्र से पूछते, 'खुश हो बीबी संग'?
नमक छिड़कते जले पर, खुद का उतरा रंग।।
पारिवारिक जीवन की एक और झलक इस दोहे में झलक रही है:
देख गैर के मर्द को, मुसकातीं कर जोड़।
अपना आया सामने, गुर्रातीं मुख मोड़।।
सरसरी दृष्टि से देखने पर परिंदों के लिए कहा गया यह दोहा मानव-व्यवहार के लिए भी प्रासंगिक है:
चें-चें, टें-टे कर रहे, हुए न एक विचार।
किसी शिकारी के लिए, हैं वे सुलभ शिकार।।
इंद्र जी में साहित्यिक दोहे रचने की सामर्थ्य का परिचय देता निम्नलिखित दोहा अनुप्रास, भ्रांतिमान, उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार से समृद्ध हुआ है:
देख नीर में बिंब निज, चाँद हुआ हैरान।
कौन दूसरा आ गया, जुड़वाँ बंधु समान।।
दोहा-रचना में संक्षिप्तता, सम्प्रेषणीयता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता तथा मर्म बेधकता के गुणों को यथावश्यक स्थान देने के प्रति सचेष्ट इंद्र जी का निम्न दोहा 'कम में अधिक' कहता है।     
जन मत; पर मत; विज्ञ मत, शास्त्र मतों की खान।
मन मत सर्वोपरि रखें, साथ रहे निज ज्ञान।।
इंद्र जी के कई दोहे नीति दोहों की तरह सरल-सहज किन्तु उपयोगी हैं। रण हेतु उत्सुक कोई योद्धा जिस तरह शस्त्रागार में विविध शस्त्र रखता है, इंद्र जी उसी तरह विविध रसों के दोहे रचने के लिए सक्रिय हैं। इंद्र जी का शब्द भण्डार, शब्द चयन और व्यंजनात्मक समझ उन्हें अन्यों से भिन्न बनाती है। दोहालोक में इंद्र जी के दोहे अपनी भिन्न भाव-भंगिमा से रोतों को हँसाने में भी सक्षम हैं।    
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चरण-कमल में शत नमन, लंबोदर गणराज।
दोहा-दोहा समर्पित, रिद्धि-सिद्धि-सरताज।।
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हे देवों के देव! जय, शंकर भोले नाथ।
चरणों में नत इंद्र है, करिए नाथ सनाथ।।
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नाग-माल पहने गले, बैल नांदिया साथ।
करें वास कैलाश में, डमरू ले प्रभु हाथ।।
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मुरली-धुन जबसे सुनी, मन है भाव-विभोर।
कहाँ छिपा है साँवरे, नटखट नंदकिशोर।।
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मन व्याकुल किसके लिए, तरस रस रहे हैं नैन।
मन बसिया तू है कहाँ, ग्वाल-बाल बेचैन।।

गुरु-चरणों में शत नमन, नित प्रति बारंबार।
करिए गुरु-आशीष से, शंका-संकट पार।।
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गुरु की महिमा का नहीं, कोई पारावार।
दोनों हाथ पसार लें, ज्ञान अमित भण्डार।।

छत्र-छाँव में पिता की, खुश रहता परिवार।
माँ की ममता अहर्निश, देती प्यार-दुलार।।
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जिसके मस्तक पर रहे, पूज्य पिता का हाथ।
उसके सब दुःख दूर हों, सुख रहते हैं साथ।।
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साया माता-पिता का, दैव न करना दूर।
हर मुश्किल आसान हो, उन्नति हो भरपूर।।
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मात-पिता का जो रखे, बिना कहे खुद ध्यान।
उसकी सब मन-कामना, पूर्ण करें भगवान्।।
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गर्मी के दिन आ गए, रंग दिखाए धूप।
बाहर जाता घूमने, जो हो श्याम स्वरूप।।
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गर्म  हवाएँ बह रहीं, आकुल-व्याकुल लोग।
धूप सही जाती नहीं, हुई घमोरी रोग।।
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गर्म थपेड़े लग रहे, बुरा हुआ है हाल।
गोरी के मेक'अप बिना, गाल गुलाबी लाल।।
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प्यास बुझाने के लिए, जीव-जंतु इंसान।
हैरां पानी के बिना, सूना सकल जहान।।
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तड़पें पशु; पक्षी विकल, तड़प रहे इंसान।
जीना पानी के बिना, कैसे हो भगवान्।।
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भानु तरेरे आँख जब, कर विकराल स्वरूप।
परेशान सब ग्रीष्म से, क्या गरीब क्या भूप।।
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गर्मी का पारा चढ़ा, सबका दिल बेचैन।
व्याकुल मन बेमन तके, कब दिन हो कब रैन।।
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धूप दिखाती रूप निज, तेजस्वी-विकराल।
जग-जीवन संत्रस्त हो, सूखें नदिया-ताल।।
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अंतर्मन की व्यथा का, कैसे करें बखान?
सूखी फसलें बिन पके, चिंतित हुए किसान।।
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तपे धूप जब जेठ में, कोई करे न काम।
घर-अंदर सर छिपाकर, करें न पा आराम।।
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धूप तापते ठण्ड में, बैठे रहते लोग।
भानु-किरण की ताप से, दूर भगाते रोग।।
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बीबी बात न मानती, कोई नहीं इलाज।
कहें किसी से आप मत, रहें छिपाए राज।।
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पिता पुत्र से पूछते, खुश हो बीबी संग?
नमक छिड़कते जले पर, खुद का उतरा रंग।।
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दिखी कभी क्या ख्वाब में, मैं मुन्नू के बाप?
सदा बचाते प्रेत से, हनुमत दिखीं न आप।। 
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देख गैर के मर्द को, मुसकातीं कर जोड़।
अपना आया सामने, गुर्रातीं मुख मोड़।।
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संस्कार अच्छे अगर, अपनाएँ माँ-बाप।
नेक कर्म करने लगें, बच्चे अपने आप।।
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रवि-किरणों की लालिमा, ज्यों छाई चहुँ ओर।
उड़ें परिंदे आप ही, कलरव कर हर भोर।।
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दान चुगने के लिए, मन में अति उत्साह।
नीड़ बनाने की नहीं, खोज रहे क्यों राह?
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चें-चें, टें-टे कर रहे, हुए न एक विचार।
किसी शिकारी के लिए, हैं वे सुलभ शिकार।।
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बड़े परिंदे नीड़ के, हैं तो पालनहार।
उदर भरण के वास्ते, खोज रहे आधार।। 
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दीपावली मना रहे , हो पुलकित सब लोग।
घी के दिए जला रहे, मिटे तिमिर भय रोग।।
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फोड़ पटाखे मत करो, शोर न दूषित वायु।
कलुषित पर्यावरण कर, घटा रहे निज आयु।।
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सीमा पर तैनात जो, रहें सुबह से शाम।
पहला दीपक जला दें, हम मिल उनके नाम।।
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टी. व्ही. जब से आ गया, ऐसा हुआ कमाल।
खुद को अपना ही नहीं, मिल पाता है हाल।।
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छोटे-बड़े शिकार हो, चिपके भूले काम।
थककर आये किंतु हैं, व्यस्त न कर आराम।।
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बच्चे टी. व्ही.देखकर, आँखें करें खराब।
'होमवर्क' को भूलकर,  चश्मिश हुए जनाब।।
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खाते टी. व्ही. देखकर, पिज्जा लोलीपोप।
कहना सुनें न बड़ों का, परेशान माँ-बाप।।
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अहो भाग्य है खुल गए, तन-पिंजरे के द्वार।
मन-पंछी चल उड़ चलें, नीलाम्बर के पार।।
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नील गगन में उड़ मिले, पंछी को आनंद।
बंदिश लगे उड़ान पर, पिंजरा नहीं पसंद।।
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हे प्रभु! दिखलाना नहीं, मुझको ऐसा काल।
पर कतरे उड़ने न दे, कोई पिंजरे-डाल।।
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साजन तेरे नाम की, हिना रचाई हाथ
राह देखते झुक रहा, आ जा! मेरा माथ
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फीका मेंहदी के बिना, नारी का श्रृंगार
लगा महावर पाँव में, बैठी बाट निहार
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हिंसा से बढ़कर नहीं, है कोई अपराध
मात्र अहिंसा ही हरे, सबके मन की व्याध
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मन, वचनों या कर्म से, मत देना संताप
सके अहिंसा ही मिटा, कलुषित मन के पाप
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देख नीर में बिंब निज, चाँद हुआ हैरान।
कौन दूसरा आ गया, जुड़वाँ बंधु समान।।
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चंद्र-चंद्रिका साथ हों, लगे सुहानी रात।
मन-द्वारा खटका रही, पिया मिलन की बात।।
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सूरज की किरणें उगीं, ऊषा ले चित-चोर।
बीरबहूटी देखकर, मन है भाव विभोर।।
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तन पर कपड़े अधूरे, मन में अमित उमंग।
खेल-खेल में बचपना, देता जीवन रंग।।
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बचपन के बीते हुए, दिन आते जब याद।
भूल बुढ़ापा मन कहे, हो जा फिर आज़ाद।।
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जन मत; पर मत; विज्ञ मत, शास्त्र मतों की खान।
मन मत सर्वोपरि रखें, साथ रहे निज ज्ञान।। 
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चलें सदा सदमार्ग पर, नहीं भटकिए राह।
नर ही नारायण बने, यदि सच्ची हो चाह।।
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जिनमें बसते दिव्य गुण, करें श्रेष्ठ व्यवहार।
निज-पर, छोटे-बड़ों से, मर्यादा-अनुसार।।
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शब्द-बाण मत मारिए, करें नहीं अपमान।
कटु वचनों से दूर हो, होंठों की मुस्कान।।
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सद्गति होती ही नहीं, बिना योग, गुरु-ज्ञान।
मुक्ति मिलेगी युक्ति से, बनिए कर्म-प्रधान।।  
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कुलदीपक कहते उसे, जो है घर का लाल। 
लाड़-प्यार से सीख दें, ले घर-द्वार सम्हाल।।
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बेटा-बेटी रत्न हैं, जीवन के अनमोल। 
बोली वही सीखिए, दे मिसरी सी घोल।।
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बेटा-बेटी बढ़ाते, दो-दो कुल की शान। 
किसी एक पर मत करें, आप निछावर जान।।
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करें बड़ा माता-पिता, मिल अपनी संतान।
बूढ़ें हो तो सम्हाले, संतति रहे निहाल।।  

रक्षा करते वतन की, जो देकर बलिदान। 
हम उनके परिवार को, अपनाकर दें मान।।
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हर दिन दीवाली मना, तनिक सुमीर लो राम। 
अहंकार लंका जला, मोह दशानन मार।।  

अभिनंदन नव वर्ष का, करें लुटाकर प्यार। 
आँसू पोछें किसी के, पाए दीन दुलार।।
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हुरियारे करते फिरें, होली में हुडदंग। 
जोश सयानों में अधिक, देख युवा हैं दंग।।
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फगुआ में फगुआ रहे, करते फिरें धमाल। 
माथ अबीरी हो रहा, गाल गुलाबी लाल।।
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भीगी चूनर देखकर, लगी जिया में आग। 
नैन शराबी हो रहे, कंठ सुनाए फाग।।   

तेज बढ़ा आदित्य का, रौब दिखाती धूप।
चेहरा उतरा हुआ है, संझा सूरज-रूप।।
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माँ शारद की कृपा बिन, ज्यों सूना साहित्य। 
त्यों अँधियारा हो जगत, जब डूबे आदित्य।।
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आँख मूँदकर सो रहा, शासन होकर मौन। 
देते जान किसान की, व्यथा सुने कब-कौन?
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खेती करते रात-दिन, लगा-लगाकर जान। 
भूखे गोली खा रहे, पालनहार किसान।।
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बेबस घिरे अशांति में, लोग रहे हैं भाग। 
धधक रही हर दिशा में, अब नफरत की आग।।  
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लोकतंत्र दम तोड़ता, मचती चीख-पुकार। 
नेता दावे कर रहे, कहीं-नहीं उपचार।। 
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मोबाइल घातक नशा, कर देता लाचार।
इंटरनेट न मिले तो, युवा हुए बीमार।। 

मित्र फेसबुक पर बना, पहली-पहली बार। 
हक्का-बक्का कवि हुआ, गले पड़ गई नार। 
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छैल-छबीली सुंदरी, नैना लगें कटार। 
बोली: 'मैं आ रही हूँ, छोड़ दिया घर-बार'।।
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शादी कर लें हम चलो, हो जीवन-भर साथ। 
महबूबा-महबूबा बन, आओ, थामो हाथ।।
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कवि को रास न आ सका, यह नाता नापाक। 
बोला: 'मैंने रात ही, किया आपको ब्लोक'।।
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बीबी बोली: 'मैं तुम्हें, प्यार करूँ घनघोर।
दिल मेरा चोरी किया, क्राइम है यह घोर'।। 
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कवि बोला: 'लूटा मुझे, तुमने क्राइम खास'।
दोनों ने पाई सजा, आजीवन कारावास।।
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कुर्सी पाकर तन गए, घूरें आँख तरेर। 
बिल्ली अब तक जो रहे, हाय! हो गए शेर।।
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एक साथ मिल-बैठकर, नेता दाँत निपोर। 
झट भत्ते बढ़वा; लड़ें, हैं जन-धन के चोर।।  
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नूर कुश्ती कर रहे, टी. व्ही. पर दिन-रात। 
कुत्ते कहते: 'बेहतर, इनसे अपनी जात'।।
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चीर हरें सिद्धांत का, लगा-लगा कर दाँव। 
काम पड़े तो पड़ रहे, गधे गधों के पाँव।।
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खेल रहे हैं दल सभी, राजनीति का खेल। 
बाहर तो टकराव है, पर भीतर है मेल।।  
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मुश्किल से हो पा रहा, अब जीवन निर्वाह। 
मँहगाई आकाश छू, बढ़ा रही है चाह।।

दिन दूने चौगुन बढ़े, नित अपराध-गुनाह। 
दूषित है परिवेश अब, मिले न खोजे राह।।
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करे परिश्रम रात-दिन, बेचारा मजदूर।
दो रोटी के वास्ते, फिर भी है मजबूर।     
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नहीं अदब के दिन रहे, संस्कार भी सुप्त। 
आपस में टकराव है, भाईचारा लुप्त।।

संस्कार हो गए हैं, अब चिट्ठी गुमनाम।    
घर-घर में अखबार सम, मिलते खोटे काम।   

कहाँ दूत श्री राम के, महावीर जी खास?
खुद हैं ऊपर गढ़ी में, इनका तंबू वास। 
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वृक्ष कटे तो हो गए, जैसे विधुर पहाड़। 
चट्टानें खुद तप रहीं, पथिक न पाता आड़।
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व्याकुल पक्षीगण हुए, मिलती कहीं न ठौर। 
अकुलाकर बतिया रहे, चलें कहीं अब और
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पर्यावरण सुधार पर, करे न कोई गौर। 
कोंक्रीटी वन उग रहे, आया कैसा दौर?
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बनें नासमझ समझकर, दाना भी नादान। 
वृक्ष काटकर कर रहे, अपना ही नुकसान।  
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पेड़ लगाओगे अगर, पुण्य रहेगा साथ। 
अंत समय वर्ना रहे, तेरे खाली हाथ
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तरु देते छाया सघन, जीवन हो खुशहाल। 
शुद्ध हवा तन को मिले, बीमारी दे टाल
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हरियाली दस दिश रहे, मन के मिटें विकार। 
वर्षा की बौछार हो जीवन का आधार
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भवन तानते जा रहे, पेड़ों को कर नष्ट।
बिना पेड़ हो आप ही, सारा दृष्ट अदृष्ट।   
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नहीं दिखेंगे यदि कहीं, हरे-भरे वन-बाग़। 
मिल पायेगी फिर नहीं, सुनने कोयल-राग 
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निज स्वार्थों का ध्यान रख, करते हैं जो काम। 
पौधारोपण का कभी, लेते हैं वे नाम
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अंतर्मन की व्यथा का, कैसे करें बखान?
सूखी फसलें देखकर, जीते मरे किसान
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