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बुधवार, 25 जुलाई 2018

घनाक्षरी छत्तीसगढ़ी

घनाक्षरी सलिला :
छत्तीसगढ़ी में अभिनव प्रयोग.
संजीव 'सलिल'
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अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
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नवी रीत बनन दे, नीक न्याब चलन दे, होसला ते बढ़न दे, कउवा काँव-काँव.
अगुवा के कोचिया, फगुवा के लोटिया, बिटिया के बोझिया, पिपल्या के छाँव..
अगोर पुरवईया, बटोर माछी भइया, अंजोर बैल-गइया, कुठरिया के ठाँव.
नमन माटी मइया, गले लगाये सइयां , बढ़ाव बैल-गइया, सुरग होथ गाँव....
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देस के बिकास बर, सबन उजास बर, सुरसती दाई माई, दया बरसाय दे.
नव-नवा काम होथ, देस स्वर्ग धाम होथ, धरती म धान बोथ, फसल उगाय दे..
टूरा-टूरी गुणी होथ, मिहनती-धुनी होथ, हिरदा से नेह होथ, सलीका सिखाय दे.
डौका-डौकी चाह पाल, भाड़ मा दें डाह डाल, ऊँचा ही रखें कपाल, रीत नव बनाय दे..
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रचना विधान: वर्णात्मक छंद, चार पद, हर पद में चार चरण, हर चरण में ८-८-८-७ पर यति, चरणान्त दीर्घ.
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
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