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गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

bundeli laghu kathayen hindi anuvad

बुन्देली लघुकथाएँ: (हिंदी अनुवाद)
१. पाठ 
संजीव
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हम दोनों बहुत दिनों तक एक साथ काम करते रहे थे। मुझे ज्ञात है कि वह अनीश्वरवादी हैं। जब तक साथ था तिलक-जनेऊ को लेकर मुझे छेड़ता रहता था। उसका वश चलता तो दुनिया में एक भी मंदिर शेष न रहता। आज अभूत दिनों बाद उसने फोन किया तो प्रसन्नता होनी ही थी, आश्चर्य कि उसने सत्यनारायण की कथा सुनने और उसके बाद भोजन करने के लिए कहा।  
मुझे बात कुछ समझ नहीं आई किन्तु बिना गए भी गुजरा नहीं था। अत: हाँ-ना करते-करते अपने राम पहुँच ही गए उसके घर। उसने लपककर स्वागत किया, हाथ-पैर धुलाए, भीतर कमरे में ले गया, पत्नी के साथ बैठकर कथा भी सुनी। हवन करने के बाद दोनों ने श्रद्धा सहित चरणस्पर्श कर दक्षिणा भी दी। मेरी दशा सांप-छछूँदर की सी थी। एक गाँव के होने के नाते कितना भी अपनापन था किंतु अंतत: वह अधिकारी था।  
उसने भोजन ग्रहण करने हेतु प्रार्थना की तो मेरा धर्म-संकट और अधिक बढ़ गया, भोजन  स्वयं खड़ा था।  सहमत कराया कि वह भी साथ ही भोजन करने बैठ जाए, भाभी जी दोनों को परोस देंगी। 
अवसर  देखकर उससे पूछा कि ईश्वर पर विश्वास कब से हो गया?
उसने छूटते ही कहा 'ज़िन्दगी इश्के बुतां में कटी मोमिन / आखिरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमान होंगे?' तुम्हारे भगवान् पर मुझे न तब था, न अब है।' 
मुझे बात समझ में  नहीं आई । फिर पूछा 'तो फिर यह कथा?'
वह ठहाका मारकर हँस पड़ा, फिर बोला 'रे पोंगा पंडित! तुम नहीं समझे, बुद्धि भगवान् के यहाँ गिरवी रख आए हो क्या? बात कुल इतानी है कि तुम्हारी भाभी हमारी हर बात आँख बंद कर मान लेती हैं। कभी किसी बात के लिए ना-नुकुर नहीं करतीं सिवाय इन भगवान के। तो क्या हम इतने गँवार हैं कि उनकी प्रसन्नता लिए इतना सा काम न कर सकें। अब वे  अपने स्थान पर प्रसन्न, हम अपने स्थान पर प्रसन्न।' 
मैं मुँह बाए देख रहा था उसे, अब तक मैं उसे नासमझ समझता था पर उसने पढ़ा दिया एक बहुमूल्य पाठ। 
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२. कुलच्छनी
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, जबलपुर 
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निकिता ने अपने पापा से साफ़-साफ़ कह दिया था कि उसका विवाह चाहे जहां पक्का कर लें किन्तु दहेज़ में मोटर साइकिल न   इस कारण सम्बन्ध टूट जाए । निकिता के मन में बाइक की आवाज और उसकी तेज रफ़्तार बहुत डर उत्पन्न कर देती थी। बाइक पर बैठने के लिए तो वह कभी भी तैयार नहीं हो सकती थी। उसने अपने बचपन में सामने से आते हुए एक बाइसिकिल सवार की ऐसी दुर्घटना देखी थी कि उसे याद कर वह अब तक थर्रा जाती थी। वह नहीं भूल पाती थी कि कैसे बाइक कुलाटी मार कर आग का गोला बन गयी थी?, कैसे उस  सिर से खून का फव्वारा छूटा था और कैसे प्राण छोड़ने पहले वह किलबिलाया था। उसके दिमाग पर ऐसा प्रभाव हुआ कि बाइक की आवाज से ही वह काँप जाती थी और आँख-कान बंद कर लेती थी। डॉक्टर ने 'साइक्लोफ़ोबिआ' रोग बता कर चिकित्सा भी करी किन्तु उसे बाइक से चिढ़ हो गई थी।
पापा ने भरोसो दिया कि लड़केवाले मोटरसाइकिल माँग तो रहे थे किन्तु उनकी बात सुनकर सहमत हो गए।  बिटिया और घर देखकर मुग्ध हो गए हैं। निकिता को तसल्ली हो गई। बारात आई, खुशी-खुशी भाँवरें पड़ गईं। दूसरे दिन दूल्हा रोहित कुंअर कलेबा की रस्म पर अड़ गया कि बाइक मिलने पर ही आतिथ्य ग्रहण करेगा।  उसे अधिक बढ़ावा देने लगे। निकिता के पिता तथा भाई नें बहुत समझाया किंतु दूल्हा अंगद के पाँव की तरह टस सें मस नहीं हुआ, जब तक मोटर साइकिल नहीं आ गई, तब तक वह हठ  करता रहा। यहीं से निकिता के मन में अपने पति रोहित के लिए अनादर पैदा हो गया।  का उल्लास उल्लास मिट गया।
विवाह की पहली रात न रोहित ने निकिता की सुख-सुविधा पूछी, न भविष्य की बातें करीं, बस अपनी ही शेखी बघारता रहा कि वह बाइक पर कैसे-कैसे करतब कर पुलिस से उलझता रहता है। निकिता पति के ओछेपन पर शर्मिन्दा और अपमानित महसूस करती रही, जैसे उसका विवाह निकिता से नहीं  मोटर साइकिल से हुआ हो। दो दिन बाद रोहित अपने दोस्तों के बुलाने पर नई बाइक लेकर प्रदर्शन करने चला गया, निकिता ने खुल कर विरोध किंतु किसी ने नहीं सुना। रोहित गया और प्रदर्शन करते समय ऐसी चोट रीढ़ की हड्डी पर लगी कि जीवन भर के लिए ज़िंदा लाश बनकर रह गया। निकिता अपना कर्तव्य निभाते हुए  सेवा-सुश्रुषा में दिन-रात  किन्तु सास कहती है बहू  कुलच्छनी।' 
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३. संतोष
प्रो. किरण श्रीवास्तव, रायपुर 

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'क्यों भाई? यह क्या हाल बना रखा है? हम दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। तुम हमेशा पहला आते थे और हम रहते थे पिछलग्गू।तुम्हारी कृपा से जैसे-तैसे पास हो जाते थे। बीस वर्ष हुए... मेरी एक छोटी सी दूकान थी वह लगातार बढ़ती गयी है, प्रभु की कृपा से चार लड़कों की चार दुकानें अलग से हैं।'
तुमसे कितनी बार कहा कि मेरे साथ जुड़ जाओ, यह कलम घिसना छोड़ो। क्या रखा है इसमें? बाबूगिरी से जो कुछ कमाते हो उस में घर ही  कठिनाई से चलता है, भाभी और बच्चे परेशान होते रहते हैं वह अलग। जैसे-तैसे किताब छपाते हो तो कोइ खरीदता नहीं है। अब भी मान जाओ, ये सम्मेलन-अम्मेलन छोड़ो। इस सबमें मिलता क्या है?'
' संतोष' कहते हुए वह जय राम जी की कर चल दिया
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४. घडियाली आँसू
 पुष्पा सक्सेना, बेंगलुरु 

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निर्भया काण्ड के बाद शहर में जुलूस और सभाओं की बाढ़ सी आ गई थी। वे पढ़ी-लिखी तेज-तर्रार नेता कहलाती थीं। चाहे जब उनके भाषण अखबारों में छपते थे। वे जब-तब पुरुषों को कोस-कोसकर औरतों को घर से बाहर निकलने के लिए उकसाती रहती थीं। लोग-बाग़ उनसे बहुत प्रभावित होते थे। 
विधि का विधान, उनकी सास को कैंसर हो गया लंबा और मँहगा इलाज चलने लगा। कहते हैं 'धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपात काल परखिहहिं चारी'। उनके पति निहायत सीदे-सादे इनसान थे। वे अम्मा के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे अम्मा को नर्सों का व्यवहार अच्छा नहीं लगता था। बे घर का बना स्वच्छ-हलका भोजन चाहती थीं किन्तु बहू रानी को अवकाश नहीं था, फिर कौन बनाए? महाराजिन  भोजन बीमार अम्मा को स्वाद नहीं लगता था। 
परिणाम यह हुआ कि पति-पत्नी में मन-मुटाव रहने लगा। कोई अन्य उपाय न देख पति ने अपनी बहिन को बुला लिया। बही रानी को इसमें भी चैन नहीं पड़ा। रोज-रोज नन्द से उलझने लगीं... अपनी सहेलियोन को घर बुलाकर रोज सभा-सम्मेलनों  की योजना बना थीं। ननद को अम्मा के लिए भोजन बनाने में कोइ कष्ट अनुभव नहीं होता था किन्तु भाभियों की सहेलियों की खातिरदारी करना नागवार गुजरता था। सहेलियों ने पट्टी पढ़ा दी तो बहू जी नें थाने में  भाई-बहिन के विरुद्ध शिकायत कर दी   दहेज़ के लिए परेशान  करते हैं। 
सब दिन जात एक समान नहीं जाते... धीरे-धीरे अम्मा का स्वास्थ्य सुधरने लगा। पुलिस की जाँच में बही जी के आरोप निराधार पाए गए। वे सबके मन सें उतर गईं। बेटे ने तलाक ने तलाक लेने का मन बनाया किन्तु अम्मा जी ने पोते-पोतियों के भविष्य की बात सोच कर रोक दिया। बहू जी की सहेलियों ने विपरीत समय देखा तो धीरे-धीरे मुँह मोड़ लिया। अब बहू जी के सर चढ़ा स्त्री-विमर्श का बुखार उतरा रहा है किन्तु इसके पहले ही वे खुद अपने बेटे-बेटी, पति और सास सबके मन सें उतर गई हैं। रोटी-कपड़ा की कमी नहीं है किन्तु आँसू लाड़-प्यार, सम्मान गंवाने के बाद वे अकेले बैठी घडियाली आँसू बहाती रहती हैं
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५ . नर्मदा मैया की जय  
सुरेन्द्र सिंह पवार, जबलपुर  

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बरगी बाँध और उसकी नहरें बनकर तैयार हो गईं। नहरों से पहली-पहली बार सिंचाई के लिए पानी छोड़ा जाना था। नहर के सिंचाई क्षेत्र में ज्वार, बाजार, मका की फसलें बोई गयी थीं। छोटे किसानों को खेतों में रबी की फसल की लगा ने के लिए उत्साह बढ़ाया जा रहा था। जमुनियाखेड़े के प्रधान कोंडीलाल राय से बात हुई तो वे तो एकदम उबल पड़े, बोले,-“साहब! आप भ्रम में हो, आपकी नहरें-वहरें कुछ काम नहीं देंगी, समझ लो, नरमदा मैया कुंवारी हें, उनखों अब तक कोई नहीं रोक पाया, न सोनभद्र , न सहस्त्रबाहु, आपका बाँध कैसे बचेगा सो भगवान ही जनता है।”
-दद्दू! आप ठीक कह रहे हैं किन्तुनर्मदा मैया ने कृपा की और नहरों के रास्ते में पानी पहुँच जाने दिया तो?'
_“देखेंगे!” उन्होंने बात टालने के लिए कह दिया। नियत दिन जब जमुनिया की नहरों में जल बहने  लगए तो बाजे–गाजे के साथ “नर्मदा मैया की जय” बोलते हुए गाँववालों के संग सबसे आगे खड़े थे प्रधानकोंडी लाल राय। 
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सुरेन्द्र सिंह पंवार/ 201, शास्त्रीनगर, गढ़ा,जबलपुरम(म.प्र.) / 9300104296/email- pawarss2506@gmail.com
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६. जागरूकता
प्रदीप शशांक, जबलपुर   


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आदिवासी जिले के सरकारी अस्पताल में दो दिनों से औरतों का नसबन्दी शिविर चल रहा था । उस शिविर में नसबन्दी कराने के  औरतों की भीड़ लगी थी । उन में परिवार नियोजन के लिए बढ़ती जागरूकता से डॉक्टर भी मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे

उत्सुकतावश डाक्टर ने मजदूर औरत से नसबन्दी कराने का कारण पूछा तो वह बोली: 'अरे डॉक्टर साब! कुछ मत पूछिए, हम मजदूरी करने जाते है तो ठेकेदार परेशान करता है और फिर नौ महीना तक उसका पाप हम औरतों को भोगना पड़ता है। इस बीच मजदूरी भी नहीं मिलती है, सो हमें और हमारे बच्चों को भूखे मरने की नौबत आ जाती है । ऐसे में सब झंझटों से मुक्ति पाने के लिए हम सब नसबंदी करा रही हैं। 
डॉक्टर उन की जागरूकता का रहस्य जानकर अवाक रह गए । 
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७. अरमान
प्रभुदयाल श्रीवास्तव, छिंदवाड़ा

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अपने आश्रम में बाबाजू अधलेटी अवस्था में विश्राम कर रहे थे। भक्तों की भीड़ लगी थी और बाबाजी की जयजयकार हो  एक औरत बाबा जी के चरणों में सर रखकर गिड़गिड़ा रही थी
"कृपा करो बाबा! मेरे पुत्र को ठीक कर दो, उसका दिमाग ठीक कर दो,  दो, उसका खूब और  ऐसा आशीर्वाद दो कि सबके सामने कथा कर रह सके"
" तेरे पुत्र को कुछ दुःख-तकलीफ है क्या?" बाबाजी  ने पूछा। 
"महराज!वह सवेरे से रात तक सच बोलता रहता है। झूठी बात बोल ही नहीं पाता कितना भी समझाओ-सीखो, कुछ असर नहीं होता"
"और क्या दिक्कत है बेटी"
"महराज वह ईमानदार भी है, न अपना हिट साझ सके, न किसी से रुपैया-पैसा ले सके'
"आगे बोलो"
'जब देखो गरीबों भुखमरों की सेवा में रहता है। अपने हिस्से की रोटी भी गरीबॉन को दे आता हैदरवाजे से कोइ खाली हाथ नहीं जा पाता। कहता है भगवान आए हैं न जाने कौन सी भाषा बोलने लगा है। पैसेवालों से दूर भागता है"
"इसमें क्या बुराई है?, गरीबों की मदद तो अच्छी बात है।'
"महराज! मैं चाहती हूँ कि वन अमीरों की तरह धन कमाने का हुनर सीखे। वह गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी और गाँधीजी के बारे में  करता है"
"तुम चाहतीहो?"
"मैं क्या बताऊं महराज, मेरी तो इच्छा है कि वह खूब पैसा कमाए, चरों तरफ उसका नाम हो, राजा-महाराजा बड़ा आदमी बने"
"तुम इन फालतू की बातों में क्यों पड़ रही हो?, लडके को बिगाड़ना क्यों चाहती हो?"
"महराज यह बिगाड़ नहीं सुधार है, सुधरेगा नहीं तो समाज में जगह कैसे बना सकेगा? बिना धन के उसे कौन पूछेगा? चार-छः लठैत साथ रहेंगे तो सारा गाँव सलाम करेगा नेता भी आगे-पीछे फिरेंगे कि चुनाव में उनकी  तरफ रहे मैं भी  सफल-संपन्न लडके की माता कहलाना चाहती हूँ
" क्या कहूँ? ऐसा करोलड़के कोचुनाव लड़वाओ, पंची-सरपंची सें आरम्भ करो। भगवान सीधे तो सब ठीक हो जाएगा"
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८. सूर्यास्त
राशि सिंह, मुरादाबाद
एम. ए. अंगरेजी साहित्य, बी.एड., एलएल. बी.

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''इस तरह से मुँह लटकाये हुए क्यों बैठे हो? जाओ, हाथ-पाँव धो लो और गाइयों को घास खिला दो।'' ताशला ने अपने पति चरन सिंह को समझाते हुए कहा ।

''क्या  समझ में नहीं आ रहा है। एक तो आकाश पर बदल छाये हैं, दूसरे मेरे मन बिजली चमक रही है, राम जाने क्या होगा?''चरन सिंह ने बेचैनी से टूटी हुई खाट से उठते हुए कहा।

''तुम चिंता मत करो, ऊपर वाला इतना निर्दयी नहीं है जो हमारी फ़सल का नुकसान  होने देगा।'' ताशला ने भरोसे सें कहा।

''देख ताशला! यहाँ फसल का कोइ भरोसा नहीं है और उधर सीमा पर हमारे लाल की ,तैनाती हुई है, मन बहुत घबरा रहा है। 

मेरे दोनों लाल संकट में हैं ।''-चरनसिंह अपने कुर्ते की जेब को बेवजह टटोलते बोला।

''दोनों लाल? हमारा तो..... ''

''हाँ, हमारा एक ही लाल है पर मैं तो इस फ़सल को भी अपनो लाल मानता हूँ। क्या करूँ?''चरन सिंह ने मेहरारू की बात काटते हुए कहा।

'तभी आसमान में बिजली कौंधी और तेज वर्षा के साथ ओले पड़ने लगे। ''ताऊ! प्रकाश की चिट्ठी लो, डाकिया दे गया है।'' कहता हुआ एक पडोसी बारिश में भीगते -भीगते चरनसिंह की झोपड़ी में घुसा।

''पिता जी! दुश्मन ने हमारे कैम्प पर हमला कर दिया है। हम दो-दो हाथ कर हैं मगर कुछ अनहोनी हो जाए तो अपना और अम्मा का ध्यान रखना।'' पढ़ते ही चरनसिंह का सिर घूम गया। उसे ऐसा लगा मानो जिंदगी का सूर्य अस्त होनेवाला है।

तालशा ने देखते ही चरण सिंह के हाथ सें गिरी उठाकर पढ़ी और कहा 'मन मन क्यों गिरते हो? वह देखो इतनी वर्षा होने के बाद भी वह चिड़िया अपना घोसला नहीं छोड़ रही। ये लो सूर्य देवता भी बिदा माँगने के लिए झाँकने लगे किन्तु वे कल सवेरे फिर आएँगे। जिसके बाद सूर्योदय न हो, कभी देखा है ऐसा सूर्यास्त?' कहते हुए त्रिशाला दिया-बत्ती करने लगी।
***
९.  खिसकते पल
डॉ रंजना शर्मा
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जन्म तिथि: २ जून १९५७ 
शिक्षा: एम. ए.,  पीएच. डी.संस्कृत)
प्रकाशित :  कहानियां, कविताएँ  पत्रिकाओं में 
पता :  सी-24 , सिध्दार्थ लेक सिटी, रायसेन मार्ग, भोपाल 462022
Mobile no : 8989159519
E mail :  ranjanasharma50@gmail.comranjanasharma50@gmail.com
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अंधेरी रात थी, भीरु खेत में खड़ा-खड़ा सोच रहा था कि जीवन की डगर कितनी लंबी हो गई? मुट्ठी में बँधे हँसी-खुशी के वे पल जाने कहाँ खो गए जब खेत में बीज डालते ही अंकुर फूटने की आशा रहती थी? जैसे कल हीकी बात हो आते-जाते समय पंछियों की तरह उड़ाते बादल, बरसता पानी, अङ्कुटित होते बीज लहलहाते पौधे और कोलाहल करते बच्चे कितना कुछ बटोर लेना चाहता था मन, वह भी एक ही पल में।
हाथ में छोटी सी लालटेन जिसकी चिमनी में कालिख जमी थी और उजाला चार कदम तक जाकर चूक जाता था, थामे हुए भीरू घर सें निकल आया। दिन का प्रकाश भीरू के लिए अभिसाप बन गथा, घर से निकते ही उधार वसूलनेवालों का ताँता लग जाता था।
एक कदम आगे बढ़ते ही ठिठका, शायद किसी की पदचाप सुनाई दे रही थी । तभी सन्नाटे को चीरटी हुई पत्नी की आवाज आई 'ऐ जी! इतनी रात को कहाँ जा रहे हो?'
" कहीं नहीं जा रहा, तू घर जा मटरू जाग जाएगा।"
"लौट जा तू, मैं तो हवा खा रहा हूँ।"
रमकू वापस आकर मटरू को कलेजे से लगाकर सो गई। सुबह घर के सामने भीड़ देखी तो पूछने लगी "क्यों भाई क्या हो गया? इतने लोग क्यों इकट्ठे हो?"
"हरिया धीरे से आगे आया, मटसिरपर प्यार से हाथ फेरते हुए बोला "रमकू भौजी! जरा यहाँआओ, भीरू भैया ने पीपर की डाल से फाँसी लगा ली है।"
सुनते ही पतझड़ के झड़ते पत्तों सी उन्मत्त रमकू, सन्नाटे में डूबी भीड़ को चीरती भीरू की लंबी गर्दन से लिपट गई। रोते-रोते ऑसू सूख गए तो उठकर धरती को अपने ऑचल सें झाड़-पोंछ कर भीरू को लिटा दिया।
कर्जा माँगनेवालों में से एक से पूछ लिया "आजकल मरनेवालों को सरकार कितना रुपया दे रही है?' तुम लोगों की भूख मिटजाएगी या नहीं?
***
१०. आड़
गीता गीत, जबलपुर

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वह रोज ही घरवाली से शराब पीने के लिए पैसे माँगता था, न मिले तो जमकर मार-पीट करता था। बच्चों को भरपेट रोटी भी न मिल पाने से बीमार और अधनंगे रहे आटे थे
कुछ दिन बाद उससे मुलाकात हुई तो पहले की तुलना में साफ़-सुथरी और शांत थी। लड़का-लडकी भी अच्छे थे। हाल-चाल पूछा तो उसने बताया ईंट बनने का काम करने लगी है। मेहनत तो बहुत है पर समय से मजदूरी मिला जाने से दाल-रोटी की व्यवस्था ठीक-ठाक हो जाती है
एक दिन सवेरे-सवेरे दिखी, बहुत परेशां थी। 'क्यों काम पर नहीं गईं?" मैंने पूछ तो कहने लगी 'मैडम! ये अस्पताल में भर्ती हैं, कहीं टकरा गए थे। उनको खाने के लिए कुछ दे आऊँ, फिर वहीं से काम पर जाना पड़ेगा।'
'नासपीटा अब इसे गली बकता है, लेकिन ये है कि उस पर जान छिड़कती है। काम का न काज का, दुसमन अनाज का, न सुधरता है, न मरता है। ऐसा पति हिने से तो न होना भला।' उसके साथवाली औरत बडबडाने लगी
'नहीं रे! ऐसा मत कहो। नरबदा मैया उनको हमेशा बनाए रखें। कैसे भी हैं, मेरे सुहाग (पति) हैं, मैया उनके सब कष्ट मुझे दे दे। मरते हैं तो क्या हुआ?, लाड भी तो करते हैं, उन्हीं से तो मेरी, घर औए बच्चों की आड़ है' कहते हुए उसके मुँह पर सुहाग की लाली ऐंसी सजी की वह और अधिक सुन्दर लगने लगी
***
११. जरूरत
लक्ष्मी शर्मा

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साहब के बंगले के बगीचे में माली पानी डाल रहा था। पानी डालते-डालते उसने सोचा कि मेरे घर में पानी की बहुत कमी है, आज नल में भी पानी नहीं आया है। मैं एक डब्बा पानी भर कर यहाँ से ले जाता हूँ, कुछ काम चल जायेगा। काम समाप्त करने के बाद माली ने डब्बे में पानी भरा और जा ही रहा था कि मालकन की गाडी पहुँच गई। मालकन नें पूछा- 'माली! ये क्या लिए जा रहे थे?'
माली ने कहा- 'मालकिन! मेरे घर में आज पानी नहीं आया, इसलिए एक डब्बे में पानी ले जा रहा हूँ।'
मालकिन ने कहा- 'देखो, हमारे पौधे पानी की कमी से सूखे जा रहे हैं। बहुत मँहगे खरीदे थे, ये पानी इनमें डाल दो। तुम कहीं और से भर लेना।'
'ठीक है मालकिन!' कहते हुए माली ने डब्बे का पानी पौधों में उड़ेल दिया
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हाय! अजनबी से लगे, अंतर्मन-जज्बात यादों की झप्पी मिली, प्रमुदित उषा-प्रभात
ज़ज़्बात २ २१
पारिजात २१ २१ मात्रा बाँट गड़बड़ हो रही है
उषा प्रभात १२ १२१

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