bundeli laghu katha dr. ranjana sharma
बुन्देली लघुकथाकार और लघुकथाएँ
डॉ रंजना शर्मा
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१. खिसकते पल
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अंधेरी रात हती, भीरु खेत मा खड़ो-खड़ो सोचत हतो के जीवन की डगर कित्ती लंबी हो गई? मुट्ठी में बंधे बे हँसी-खुसी के पल जाने किते बिला गए जब खेत में बीज डालतई अंकुर फूटबे की आस रैत ती? मनो कल्लई की बात हो आत-जात समै पंछियों घाईं उड़त बद्दल, बरसत पानी, अन्खुआउत बीज, लहलहात पौधे और कोलाहल करत बच्चे कित्तो कुछ बटोर लेओ चाहत थो मन, बो भी एकई पल में।
हाथ में छोटी सी लालटेन जौनकी चिमनी में कालिख जमी हती और उजालो चारई कदम तक जाके चुक जात तो थामे भए भीरू घर सें निकर आओ। दिन का परकास भीरू काजे अभिसाप बन गओ हतो, घर से निकलतई करजा वसूलबेवारन को तांता लग जात थो।
एक कदम बढ़तई ठिठका सायद कौनऊ की पदचाप है। तबई सन्नाटे को चीरत भई पत्नी की आवाज आई 'ऐ जी! इत्ती राते किते जा रए?'
"कहूँ नहीं जा रओ, तें घर जा मटरुआ जाग जैहे।"
"लौट जा तें, हों तो तनक हवा खा रओ।"
रमकू वापस आखें मटरुआ को कलेजे से लगाखें सो गईं। सकारे घर के सामनू भीड़ देखी तो पूछन लगी "काय भैया का हो गओ? इत्ते मरद काय जुटे हो?"
"हरिया धीरे से आगे आओ, मटरुआ के मूंड पर प्यार से हाथ फेरते भए बोलो "रमकू भौजी तनक इते आओ, भीरू भैया ने पीपर की डार तरें फांसी लगा लई।"
पतझड़ के दौड़ते पत्तों सी उन्मत्त रमकू, सन्नाटे में डूबी भीड़ को चीरती भीरू की लंबी गर्दन से लिपट गई। रोअत-रोअत ऑसू सूख गए तो उठकें धरती को अपने ऑचल सें झाड़-पोंछ कें भीरू को लिटा दओ।
कर्जा माँगबेबारों से एक पूछ परी "मरबे पे कित्ते दे रई आज-काल सरकार?' तुम औरन की भूख मिट जैहे की नई?
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२. पोल बड़े बड़ेन की
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"पड़ौस में कोऊ आ गओ, देखत हैं को है?"दिखात तो है लोग भले हैं, नमस्ते कर रओ तो। रमा और शंकर से दुआ सलाम भई और घरे बुलाबे को न्योता भी दे दओ। दोऊ जना जैसेई उनके इते सोफा पे बैठे कि पास में एक पींजरा में तोता राम-राम रट रओ तो।"
"बतराउत-बतराउत तनक अबेर हो गई तो तोता कैन लगो "जे जोन आये हैं कबे जैहें, पिरान खा रई"।
"बिने सरम सी लगी और पींजरा उठा कें भीतरे धर दओ"।
व्योहार तो निभाने तो सो रमा ने सोई बिनखों अपने घर आवे को कह दओ: 'आप औंरे घरे अइयो हमाये।'
दूसरे दिन पड़ौसी रमा के घरे पधार गए, उनके संगे उनको छोटो बेटा भी आओ।
"बेटा बोलो," जब तुम औरे हमारे घर आये ते तो हमने चाय-नाश्ता कराओ हतो। इत्ती देर हो गई अबे तक तुम औरन नें नाश्ता नई कराओ, चलो बाई घरे चलो।"
"रमा हँसी और झट सें नाश्ता लगाउन लगीं"।
"जैसेई नाश्ता लगो उनको हल्को मोड़ा प्लेट गोद में धर के खाउन लगो"।
"पड़ौसिन को सरम आई,"अरे, अरे बेटा आराम सें खाओ, देखो गिरे न"।
"बच्चे ने हवा में हाथ लहराते भए कहो:"जे देखो है"।
"रमा बच्चे और तोते के माध्यम से पड़ौसियों को भली प्रकार समझ चुकी हतीं।
३. श्यामवर्णा
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"जा बताओ रमा! "जे कालीमाई कौन पे गयी है?, घरे सब गोरे गट्ट धरे, ई कजाने किते सें हमाये पल्ले पड़ गयी?"
"दादी की रोज की रोज सुन के रमा खों बहुत बुरो लगत तो बा सोंचत ती कि दादी ऊ खों श्यामा कह सकत हैं या कृष्णा भी कह सकत हैं पर कल्लो कहबे से सायद दादी को संतुष्टी होत आय।
"आज रमा अपने लाने नओ हिमालय फेश वास लिआई और मोंह पे रगड़ रहीं थीं कि दादी पूँछ बैठी, जो का लगा रहीं हो?"
"कोयला होय न ऊजरो, सौ मन साबुन खाय"
"रंग अवश्य सांवला था पर रमा के नाक नक्श इतने सुगढ थे कि जैसे ही जज साहब के बेटे से बात चलायी तुरंत हां हो गयी"।
"दादी रमा के पास बैठ गयीं ,बोली रमा बिटिया काय हम खों भूल तो न जैहो?"
४. कर्मयोगी
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"का बकत हो,हों बिना सिर-पैर की बातें करत हों?"
"मो खों गुस्सा जिन दिलाओ"।
"देखो जा 'भ्रष्टाचार, लूटन-खसोटन, मंहगाई, बेरोजगारी जैसेई इनके लाने सोंसत हों, रामधई खुपड़िया खराब हो जात है"।
"नौने रओ तुमाई समझ में कछु ने आहे, जो दुनियादारी आय"
"का मतलब तुमाओ?"
"एक तो तम अपने संगी-साथी बदलो, जे ऐंसी-बेंसी बातें सिखाउत आंय, जी सें हर सभा में तुमाओ मजाक उड़त है"।
"ऐईसें आजकल गीता पढ़ रओ हों, बाई कै रई ती तनक ज्ञान बढ़ाओ"।
"मंदिर-मंदिर भी जा रओ, भगवान जरूर ज्ञान देहैं"।
"सभा में भीड़ देख के तुम्हें लग रओ हूऐ ,कछु-कछु करम योग समझ में आवे लगो"।
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५.छोड़-छुट्टी
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"देख गड़ासी उते फेंक दे, मोखों लक्षमीबाई की कसम, आज के तो तैं रेहे के हों रेहों?"
"निबका दे मोरे पैंजना, तैं मोखों मारहे? खसम खों?"
"हओ!! खसम गओ भाड़ में, चलो जा इते सें मोड़ा-मोड़ी उठ जेहैं तो पकड़ के तोरी अकल ठिकाने लगा देहें। पिरान कड़ जायें, पैंजना ने देहों जो तोरी कमाई के नइयां, डुक्को ने मोंह दिखाई में दए ते"।
"हों सीला के संगे रेहों, तोसें मन भर गओ। पटर -पटर करत ,खाबे खों दौड़त"।
"हओ चलो जा, तोखों रोज-रोज जनी बदलबे की आदत जोन पड़ गई आय"।
"अपने मोड़ी-मोड़ा खों भी लेत जा, जे तोरे आय तें पाल"।
"मोरो मन भी तोसें भर गओ"।
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