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सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

navgeet: ek charcha

नवगीत : एक चर्चा 

डॉ. जगदीश व्योम, दिल्ली : 'नवगीत के लोकप्रिय न होने में एक कारण यह भी रहा है कि अनेक नवगीतकार अपने को और अपने द्वारा सम्पादित या रचित पुस्तकों का प्रचार करने तथा अन्य को तुच्छ सिद्ध करने में ही अपनी सारी ऊर्जा लगाने में लगे हुए हैं'

= मैं इस आकलन से सहमत नहीं हूँ कि नवगीत लोकप्रिय नहीं है, यह कहना निराधार है. काव्य सृजन की अनेक विधाओं में गीत/नवगीत, ग़ज़ल, छंद मुक्त कविता, दोहा, हाइकु आदि प्रमुख और लोकप्रिय हैं. इन्हें  पत्रिकाओं और गोष्ठियों-सम्मेलनों में सहज ही पढ़ा-सुना जा सकता है. छप्पय, घनाक्षरी आदि भी अपना रंग जमाये हैं. विचारधारा, वर्ण विषय और रास कोई भी हो शिल्पगत रूप से ये सभी विधाएँ लोकप्रिय हैं. गद्य से तुलना करें तो कहानी, निबंध, संस्मरण और लेख की तुलना में इन विधाओं के पाठक अधिक हैं. कठनाई संपादकों के साथ है जो पद्य विधाओं की समझ, गद्य की तुलना में कम रखते हैं. इसलिए पत्रिका के अधिक पृष्ठों पर गद्य पसरा होता है और पद्य को हाशिये पर स्थान मिलता है किन्तु इसकी भरपाई गद्य पर न्यून और पद्य पर अधिक गोष्ठियों और सम्मेलनों से हो जाती है. गोष्ठियों और सम्मेलनों में गद्य के श्रोत अल्प और पद्य के अधिक होते हैं. नवगीत कहीं भी अलोकप्रिय या काम लोकप्रिय नहीं है. 

डॉ. जगदीश व्योम: अपने संकलनों की प्रशंसात्मक समीक्षा लिखवाने और उसे प्रकाशित कराने में लगे रहते हैं। अपने गुट के लोगों की झूठी प्रशंसा करना अपना मुख्य कार्य मान लेते हैं." 

= यह प्रवृत्ति जीवन के हर क्षेत्र की तरह साहित्य में और साहित्य की हर विधा की तरह नवगीत में भी है. किसी संग्रह की भूमिका और समीक्षा लेखन महत्वपूर्ण किन्तु भिन्न प्रवृत्ति के कार्य हैं. दोनों के लिये विधा और विषय की जानकारी ही नहीं अपितु समझ भी जरूरी है. रचनाकार किसे चुनता है? यह उसका अधिकार है. इस पर कोई बंधन नहीं हो सकता. सुयोग्य भूमिका लेखक पाण्डुलिपि पढ़कर संकेत कर अनिवार्य संशोधन इंगित कर सुधरने का अवसर दे सकता है जबकि व्यक्तिगत संकोच या औपचारिकता निभा रहा व्यक्ति जो-जैसा है उसकी प्रशंसा कर मुक्त हो सकता है. भूमिका कृति के विषय में सकारात्मक संकेत कर पाठक के मन में पढ़ने की रूचि उत्पन्न करने के साथ गूढ़ को समझने का संकेत भी दे सकती है. समीक्षा, समालोचना या विवेचना कृति के अध्ययन पश्चात उसके गुण-दोषों की संतुलित-संक्षिप्त जानकारी देती हैं. किसी कृति पर विस्तार से चर्चा के लिये गोष्ठी अथवा परिचर्चा की जा सकती है. एकांगी अथवा प्रशंसात्मक भूमिका-समीक्षा रचनाकार, पाठक और साहित्य तीनों का अहित करता है किन्तु केवल इस कारण कोई विधा लोकप्रिय या अलोकप्रिय नहीं होती 

ओम प्रकाश तिवारी मुम्बई : ऐसा बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए। नवगीत, पिछले कुछ दशकों से लिखी जा रही गद्य कविता की तुलना में कहीं ज्यादा सशक्त माध्यम है। इसकी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कुछ ठोस योजना तैयार कर उस पर गंभीरतापूर्वक काम करने की जरूरत है। एक बात और। नवगीत लिखा तभी जाना चाहिए, जब मन में स्वतः कुछ उतरे। फैक्टरी जैसा लगाकर शब्दों को सजा देने भर से हम नवगीत का नुकसान ही करेंगे।

= उक्त मत से सहमत ही हुआ जा सकता है. 

संतोष कुमार सिंह: समीक्षा किससे लिखवानी चाहिये आदरणीय व्योम जी? क्या उससे जो यह मन में भाव रखता हो कि यह प्रसिद्ध न पा ले अथवा उससे जो अपना नजदीकी और सरल , सहज उपलब्ध हो और विद्वान भी हो. कुछ लोग उच्चकोटि के विद्वानों से भूमिका और समीक्षा लिखवा लेते हैं उनकी भी आलोचना होती है. अब आप ही सुझाव दें.

= भूमिका और समीक्षा किससे लिखवानी चाहिए? यह निर्णय रचनाकार को करना होता है. कुछ लोग महीनों तक समीक्षा न लिखकर पाण्डुलिपि लंबित कर लेते है, कुछ अन्य अतनी शीघ्रता से लिखते हैं कि कृति ही नहीं पढ़ते। कुछ बेगार टालते हैं तो कुछ अत्यधिक गुण या दोष दिखाकर  संबंधों या अहं की तुष्टि करते हैं.रचनाकार, भूमिका लेखक और समीक्षक तीनों भूमिकाओं के बाद मुझे लगता है कि लिखाते या लिखते समय विषय तथा विधा की समझ तथा यथासमय उपलब्धता को अधिक तथा संबंधों को  कम महत्त्व देना चाहिए. इन कार्यों के लिए पारिश्रमिक देने का प्रचलन अभी नहीं है किन्तु अपवाद अवश्य देखें हैं. निष्पक्ष आकलन से रचनाकार से संबंध बिगड़ने का स्वयं साक्षी हूँ. निस्वार्थ किये काम के बदले में सद्भाव भी नष्ट हो तो हवन करते हाथ जलने की सी पीड़ा होती है. 

सुरेश चौधरी आदरणीय व्योम जी सर्वप्रथम तो नवगीत किसे कहते हैं एवं गद्यकविता और नव गीत में क्या अंतर है यह ही लोगों की समझ में नही, अधिकतर लोगों से बात में पता चला कि वे आज की प्रगतिशील कविता अतुकांत कविता को ही नव गीत समझते हैं|  

= यह विषयांतर होते हुए भी केवल नवगीत के बारे में नहीं, हर विधा के बारे में हर समय यही स्थिति होती है. जानकारों की विदाई और नयी कलमों का प्रवेश रचनकार व पाठक-श्रोता दोनों में होता रहता है. समझना, ना समझना तथा समझकर भी नासमझ बने रहना तीनों स्थितियाँ शाश्वत सत्य की तरन अपरिवर्तनीय होती हैं.  इसी तरह मत-मतांतर भी सनातन है.हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह विचारों तथा व्यक्तित्वों की भिन्नता और असहमति बानी रहेगी. इसे छंटनीय नहीं स्वागतेय मानकर सहिष्णुता बनाये रखना ही श्रेयस्कर है. 

ओम प्रकाश तिवारी मुम्बई :नवगीत कहते किसे हैं, इस पर तो बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। समीक्षा भी लिखवाना और छपवाना गौड़ उद्देश्य होना चाहिए। पहली जरूरत है - अच्छे नवगीत लेखन की और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों को उन्हें छापने के लिए सहमत करने की। क्योंकि ये संपादकगण किसी ललित निबंध की पंक्तियों को तोड़कर तो कविता के नाम पर छाप देंगे, लेकिन नवगीत नहीं छापते।

= यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर है कि किसे प्रमुख और किसे गौड़ माने? जब तक पत्र-पत्रिकाओं तथा रेडियो-दूरदर्शन पर काव्य संपादक और स्थान / समय अलग से नहीं हो, परिस्थिति में बदलाव नहीं होगा। जब धनार्जन, सामाजिक प्रभाव, राजनैतिक स्वार्थ, वर्ग हित और अहं तुष्टि साध्य तथा बिक्री, सनसनी, मौज-मस्ती, प्रसिद्धि, और प्रचार साधन हों तो  नवगीत ही नहीं साहित्य भी निहित लक्ष्य प्राप्ति के उपक्रम मात्र रह जाते हैं. दुर्भाग्य से आज यही स्थिति है. अव्यवसायिक लघु पत्र-पत्रिकाएं ही  भाषा-साहित्य के प्रति चिंतित हैं किन्तु साधनाओं के अभाव न इन्हें बोनसाई बना रखा है.

भारतेंदु मिश्रा: कोई यह तो बताये कि नवगीत की समीक्षा/आलोचना के ग्रंथ/किताबें कौन सी हैं?..जरा उनके लेखको का नाम स्मरण करा दें।..चलिए दोचार ही किताबो के नाम मित्रो से पता कर लीजिए व्योम जी।..आप जब भी नवगीत की बात करोगे विमर्श के बारे मे बात आगे बढाओगे तो कोई न कोई मिल ही जाएगा जो नामकरण पर आपको ललकारने लगेगा।..आगे की सब बात वहीं चुक जाएगी।.....आरोप बहुत हद तक सही हैं लेकिन वह एक नवगीत मे नही साहित्य की सभी विधाओ पर लागू होते हैं।हा नवगीतकार/छन्दकार आत्ममुग्धता के शिकार ज्यादा होते हैं।गद्य विधाओ की अपेक्षा यहां स्थिति ज्यादा दयनीय है.

= मिश्रा जी ने समीक्षा-ग्रंथों के अभाव का महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है. इस अभाव का कारण सामग्री का एक स्थान पर उपलब्ध न होना, निष्पक्ष विवेचना को पसंद न किया जाना, श्रम का मूल्यांकन अथवा भुगतान तो दूर प्रकाशन तक के लाले पड़ जाना है. इस सन्नाटे को तोड़ने का कार्य श्री राधेश्याम बंधु  ने नवगीत के नए प्रतिमान लिखकर किया है. ऐसे कई ग्रन्थ आने चाहिए. भाई ओमप्रकाश तिवारी ने नवगीत पर समीक्षा ग्रन्थ लिखने का मुझसे आग्रह किया किन्तु प्रकाशन में कठिनाई, सामग्री की उपलब्धता ही बाधक है. 

मनोज जैन 'मधुर' : श्रद्धेय जगदीश व्योम जी आप ने जो प्रश्न उठाया है इस बात से में पूरी तरह सहमत हूँ। कमोवेश यह स्थिति पूरे देश में एक जैसी ही है । एक बात और जोड़ना चाहूँगा पहली बात तो यह कि आलोचकों ने गीत-नवगीत को तवज्जो दी ही नहीं कहीं किसी ने गीत की आलोचना कर दी तो गीतकार उसे बर्दाश्त नहीं कर पाता फिर इस मुआमले में हमारे नई कविता के मित्र प्रशंसनीय हैं वे आलोचना के महत्व की खासी समझ रखते हैं।

= मनोज जी से सहमति है किन्तु स्थिति में बदलाव सहज नहीं है. नयी कविता एक विचारधारा विशेष से प्रभावित होने के कारण प्रकाशन और पुरस्कृत होने का अवसर पा सकी. नवगीत के क्षेत्र में आरम्भ को ही मानक मानकर थोपने के प्रयास जारी हैं जबकि साहित्य जड़ नहीं एट परिवर्तनशील होता है. आरम्भ में नियत मानकों को लचीला कर नव-नवगीतकारों के कार्य को ख़ारिज करने के स्थान पर समायोजित कर नवगीत को व्यापक स्वीकृति और मान्यता दिये जाने की जरूरत है. अतीतमोही नवगीतकार जब नव सृजन को ही नहीं पचा पा रहा तो आलोचना को सहन कर पाना कैसे संभव होगा?  कथ्य, कहन और शिल्प तीनों में परिवर्तन को सही परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित करने से ही आलोचना और नवगीत दोनों संपुष्ट होंगे. गीत-नवगीत को एक दूसरे का विरोधी या स्पर्धी न मानकर पूरक मानने का भाव ही सहायक होगा

रमाकांत यादव: साहित्य की जिस विधा में विचार का अभाव होता है वह पिछड़ ही जायेगी।समकालीन साहित्य में हस्तक्षेप करना है तो अपनी पुष्ट वैचारिकी के साथ उतरना पड़ेगा।मेरी अपनी समझ से हिन्दी गीत नवगीत में जो लोग प्रभावी हैं हैं उनकी अपनी कोई वैचारिक दृष्टि नहीं है।गीत लिखना छपाना प्रचार करना उतना खराब काम नहीं है पर अपने गुट का अन्ध समर्थन जरूर बुरा है।और खुलकर कहा जाए तो यह कि गीत नवगीत में जाति के आधार पर गुट बने हुए हैं ।और यह भी कि गीत नवगीत में उच्च जाति वालों का ही कब्जा है।दलितों पिछड़ो शोषितों और उनके विचारों की भागेदारी जब तक गीत नवगीत में नहीं होगी तब तक यह विधा पिछड़ी ही रहेगी. 

= नवगीत में विचार या शिल्प प्रयोगों का भाव नहीं है. पुष्ट वैचारिकी से आशय किसी विचारधारा विशेष के प्रति आग्रह से है तो नवगीत उसी का विरोधी है. हर विचार, हर रस, हर भाव का वाहक होकर ही सर्वव्यापी होगा अन्यथा प्रगतिशील कविता की तरह वर्ग विशेष तक सीमित रहकर सूख जायेगा. नवगीत में जाति, क्षेत्र,  लिंग या विचार पर आधारित कोई गुट मेरे देखने में नहीं आया. समाज के दलित और पिछड़े वर्गों की पीड़ा को समय-समय पर नवगीतकार उद्घाटित करता है. जन्मना पिछड़े वर्ग के नवगीतकार भी अन्यों के साथ समान भागीदारी पाते हैं. 

जगदीश व्योम: जी रमाकान्त जी, आप सही कह रहे हैं "अपना गीत लिखना छपाना प्रचार करना उतना खराब काम नहीं है....." परन्तु नवगीतों के समवेत संकलनों का सम्पादन करके प्रकारान्तर से यह सिद्ध करने की कोशिश करना कि "नवगीत में जो कुछ किया है वह केवल और केवल मैंने किया है....." इससे नवगीत विधा और नवगीत के क्षेत्र में कदम रख रहे रचनाकारों को भ्रमित करना नहीं है क्या..?

= नहीं, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है. जितने अधिक संकलन आएंगे उतनी अधिक सहभागिता, चर्चा और पठन-पाठन होगा। भले ही कुछ लोग मठाधीशी का मुगालता पाल लें किन्तु अंतत: नवगीत ही पुष्ट होगा.

भारतेंदु मिश्रा: रमाकांत जी से अपेक्षा है कि जरा और स्पष्ट करें किस किस जाति और बिरादरी के गुट अब तक नवगीत /गीत मे बन चुके हैं।मुझे लगता है कि इससे आलोचना का कोई न कोई सिरा जरूर हाथ लगेगा।..जहां तक मै समझ पाया हूं-मेरी समझ मे आता है कि किसी नवगीतकार ने सोच समझकर किसी जाति बिरादरी मे जन्म नही लिया होगा।न इसमे आरक्षण मिलने वाला है।..हा यदि कोई नवगीतकार सोच समझकर किसी अपने ही जाति बिरादरी वाले पर लिखता है और उसके समकक्ष दूसरे के बारे मे विचार नही करता तो अवश्य चिंता की बात है।..जहां विचारधारा की बात करें तो किसी एक संगठन या विचारधारा से जुडे हुए लोग कभी महान साहित्यकार नही बने..वे बडे संगठन कर्ता अवश्य बने.

जगदीश व्योम: कृपया ध्यान दें... कि विमर्श के लिए जो विषय है उसी पर केन्द्रित चर्चा करें... दूसरे विषय को न लायें..... रमाकान्त जी ने इसमें जाति के आधार पर गुट होने की बात कही है इसका इस विमर्श से कोई सम्बंध नहीं है..... इसलिए उस पर टिप्पणी न करें.... रमाकान्त जी के विषय को अलग से रखेंगे तब उस पर चर्चा की जा सकती है...... एक बात और कि यहाँ जो चर्चा होती है इसे सहेज कर रखा जा रहा है......

योगेन्द्र व्योम; मैंने कई बार देखा है कि इस मंच पर विमर्श हेतु जब भी कोई मुद्दा रखा जाता है तो विचार अभिव्यक्ति के नाम पर विद्वान लोग अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग अलापने लगते हैं और विषयांतर कर देते हैं, जैसे किसी न्यूज़ चैनल पर बहस के समय छुटभैये नेता अनर्गल सनसनीखेज बयानबाजी से करते हैं। व्योम जी ने चर्चा के लिए बहुत महत्वपूर्ण विषय प्रस्तुत किया है किन्तु लोग इसमें भी चर्चा के नाम पर राजनीति कर रहे हैं, आरक्षण और जातिवाद से नवगीत की रिश्तेदारी जोड़ रहे हैं। दरअसल कुछ लोग यह सोचते हैं कि येनकेन प्रकरेण वह चर्चा के केंद्र में आ जायें और वह जो कह रहा है वही अन्तिम सत्य है। खैर, व्योम जी द्वारा चर्चा हेतु रखे गए उपर्युक्त विषय के संदर्भ में मेरा व्यक्तिगत मत है कि वर्तमान में समकालीन हिन्दी कविता की मुख्य धारा में नवगीत को लाने के लिए नवगीतकारों को अपने बीच में से ही समर्थ और पात्र आलोचक/समीक्षक तलाशने होंगे जो तटस्थ होकर नवगीतों का आधार सहित मूल्यांकन कर सकें।


 मनोज जैन 'मधुर': आदरणीय योगेन्द्र वर्मा व्योम जी ने आलोचना के मर्म को स्वीकारने वाली कहकर इस ओर इशारा तो कर ही दिया कि अभी हम लोग आलोचना के मामले में अपने आपको हाशिए पर ही पाते हैं और यह सच है। व्योम जी के अंतिम पैरा से पूर्णतः सहमत।

ओमप्रकाश तिवारी: आदरणीय रमाकांत जी का कथन तो आरोप लगाने जैसा है। रोका किसने है किसी वर्ग विशेष को गीत-नवगीत लिखने से ? मेरी जानकारी में तो अभी तक कोई आरक्षण लागू नहीं किया गया है गीत-नवगीत में सवर्णों के लिए। कम से कम साहित्य को तो जातिवाद से मुक्त रहने दीजिए महाशय।

जगदीश व्योम: सभी सदस्य नवगीतकारों, समीक्षकों से भी अनुरोध है कि वे भी अपने विचार रखें,  जिन बिन्दुओं से वे सहमत नहीं हैं उनका विरोध करें।

नवगीतकारों को अपने बीच में से ही समर्थ और पात्र आलोचक/समीक्षक तलाशने होंगे जो तटस्थ होकर नवगीतों का आधार सहित मूल्यांकन कर सकें। सहमत, विषयांतर से बचने के लिए अन्य बिन्दुओं को यहीं समाप्त करना उचित होगा.

रमाकांत यादव: और भारतेन्दु जी मेरा मानना यह भी है कि बिना विचार के कुछ भी जिन्दा नहीं बचेगा।न कविता न कहानी।

जगदीश व्योम: रमाकान्त जी, आपकी बात सही है, जहाँ विचार नहीं होता है वहाँ कविता नहीं हो सकती.... हाँ तुकबंदी हो सकती है. सन्तोष कुमार सिंह जी ने लिखा है कि-" समीक्षा किससे लिखवानी चाहिये आदरणीय व्योम जी ? क्या उससे जो यह मन में भाव रखता हो कि यह प्रसिद्ध न पा ले...."सन्तोष जी, यदि रचना स्तरीय है तो उसकी चर्चा होगी ही, किसी समीक्षक के यह सोच लेने से कि प्रसिद्धि न पा ले... प्रसिद्धि रुक नहीं सकती और यदि रचना केवल तुकबंदी है, विचारों की दृष्टि से शिथिल है तो चाहे कोई भी उसकी कितनी ही प्रशंसा क्यों न कर दे उससे लेखक प्रसिद्ध नहीं हो सकता..... उलटे कमजोर रचना की अतिशय प्रशंसा करने वाले अपना स्तर गिरा लेने का उपक्रम ही करते हैं..... इसलिए रचनाकार को अपने रचनाकर्म पर मेहनत करनी चाहिए.... लिखना तब चाहिए जब लिखना बहुत आवश्यक हो जाये.... केवल लिखने के लिए लिखना रचनाकर्म को कमजोर ही बनाता है...... रचना की सार्थकता उसकी गुणवत्ता में है मात्रा में नहीं.

= विचार से आशय विभेद या विभाजन की लकीर को खाई बनाना नहीं हो सकता। अपने विचार के साथ-साथ अन्य के विचार को समादृत करने की सहिष्णुता भी अपरिहार्य है. 

भारतेंदु मिश्र: रमाकांत जी विचार तक सही है लेकिन जब विचारधारा की बात करते हैं तो मार्क्सवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी धाराएं बहने लगती हैं। इस पक्ष का और विश्लेषण करने की आवश्यकता है। दुनिया में और खासकर हमारे देश में पुनर्जागरण किसी एक विचार धारा से नही आया उसमे आइंस्टीन,फ्रायड,मार्क्स,महात्मागान्धी, अम्बेडकर,विवेकानन्द, सावित्री बाई फुले जैसे तमाम लोग और उनकी विचार धाराएं शामिल थीं।इसलिए विचारधारा का मतलब केवल मार्क्सवाद /सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही नही है।..कविता साहित्य तो संवेदना की भाषा होती है उसमे से विचार सूत्र रूप मे फूटता है।मार्क्स ने स्वयं कहा था -थैक्स गाड आई एम नाट मार्क्सिस्ट।

रमाकांत यादव: विचार और विचार धारा दोनों का अस्तित्व है बशर्ते वे झूठ और पाखंड पर न टिकी हों।सांस्कृतिक राष्ट्रवाद गढ़ा हुआ शब्द है।भटकाने और इस्तेमाल करने के लिए।इसके नीचे की जमीन ठोस नहीं है।संवेदना की बात करके हम विचार को खारिज नहीं कर सकते।दरअसल संवेदना भी किसी शुद्ध विचार पर आश्रित होकर ही जीवन पाती है।

भारतेंदु मिश्र: किसी एक विचार का आग्रही बनते ही साहित्यकार उस विचारधारा /राजनैतिक दल का प्रचारक बन जाता है।इसलिए साहित्य और कलाओ मे समीक्षक/संपादक/साहित्य के निर्णायक पीठो पर सभी विचारो को जानने-मानने-/साहित्यकारो को समझनेवाले लोग होने चाहिए। नवगीतकारो को इन बारीकियो को भी जानना चाहिए।बहुत से नवयुवक राजनीतिक दलो से जुडने के लिए ऐसी रचनाएं रचने लगते हैं जो उन्हे उस विचार की राजनीति से जुडे लोगो से कुछ लाभ /नौकरी/यश/पैसा/विग्यापन/आदि दिलवा सके।पिछले २५ वर्षो मे अनेक युवा कवियो को दिल्ली मे देखा है जो बेरोजगारी के समय एक विचार के लिए पूरी तरह समर्पित रहे बाद मे सुविधा भोगी होते गये तोंद निकल आयी ,येन केन प्रकारेण पैसा ही उनके जीवन का ल्क्ष्य रह गया। सब विचार उड गया ।..तो भाई विचार एक तरह का फैशन बन गया है संवेदना पर किसी फैशन का असर नही पडता।जहां तक मेरी समझ मे आता है-बडा कवि/साहित्यकार वह नही होता जो किसी विचारधारा की नाव पर बैठकर प्रचारक बनकर साहित्य मे आगे बढता है बडा वह होता है जिसके पास अच्छी रचनाएं होती हैं।जिसका काम अच्छा और मनुष्यता की समष्टि के विकास के साथ जुडा होता है।

= रमाकांत जी राजनीति के चश्में से साहित्य को न देखें। राजनीति अपने विचार को सही शेष को गलत मानती है. साहित्य सबमें कुछ सही कुछ गलत देख पाता है. दिए का प्रकाश और उसके नीचे का अँधियारा दोनों सच होते हैं. केवल प्रकाश, केवल अँधेरा, केवल दिया, केवल तेल, केवल बाती जैसे वर्ग विभेदकारी विचार लड़ाने-भिड़ाने की जमीन बनाते हैं, साहित्य का उद्देश्य ही सबका समन्वय है. रचनाकार ब्रम्ह सहोदर कहा ही इसलिए जाता है की वह सकल सृषि को ब्रम्ह-रचित जानते हुए सबके न्यायोचित संघर्ष, अयाचित पीड़ा, समर्पण, कोशिशों और उपलब्धियों को अपना मानते हुए मूल्यांकित-विवेचित कर सके. सृजनकर्ता के लिए कोई अपना-पराया नहीं होता।  

== नवगीत के लोकप्रिय न होने में एक कारण यह भी रहा है कि अनेक नवगीतकार अपने को और अपने द्वारा सम्पादित या रचित पुस्तकों का प्रचार करने तथा अन्य को तुच्छ सिद्ध करने में ही अपनी सारी ऊर्जा लगाने में लगे हुए हैं। अपने संकलनों की प्रशंसात्मक समीक्षा लिखवाने और उसे प्रकाशित कराने में लगे रहते हैं।  

== कोई यह तो बताये कि नवगीत की समीक्षा/आलोचना के ग्रंथ/किताबें कौन सी हैं?..जरा उनके लेखको का नाम स्मरण करा दें।..चलिए दोचार ही किताबो के नाम मित्रो से पता कर लीजिए व्योम जी  

== वर्तमान में समकालीन हिन्दी कविता की मुख्य धारा में नवगीत को लाने के लिए नवगीतकारों को अपने बीच में से ही समर्थ और पात्र आलोचक/समीक्षक तलाशने होंगे जो तटस्थ होकर नवगीतों का आधार सहित मूल्यांकन कर सकें।  

== निवेदन है कि इन बिन्दुओं पर आगे बात हो तो समाधानकारक चर्चा हो सकेगी।

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