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शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

muktika

मुक्तिका :
सूखी नदी भी रेत सीपी शंख दे देती हमें
हम मनुज बहती नदी को नित्य गन्दा कर रहे
.
कह रहे मैया! मगर आँसू न इसके पोंछते
झाड़ पत्थर रेत मछली बेच धंधा कर रहे
.
काल आ मारे हमें इतना नहीं है सब्र अब
गले मिलकर पीठ पर चाकू चलाकर हँस रहे
.
व्यथित प्रकृति रो रही, भूचाल-तूफां आ रहे
हम जलाने लाश अपनी आप चंदा कर रहे
.
सूरज ठहाका लगाता है, देख कोशिश बेतुकी
मलिन छवि भायी नहीं तो दीप मंदा कर रहे
.
वाह! शाबाशी खुदी को दे रहे कर रतजगा
बाँह में ये, चाह में वो आह फंदा कर रहे
.
सभ्यता-तरु पौल डाला, मूल्य अवमूल्यित किये
पाँच अँगुली हों बराबर, पञ्च रंदा कर रहे
*

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