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शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

रसानंद दे छंद नर्मदा ३

रसानंद दे छंद नर्मदा : ३  

दोहा अविरल धार   

- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ, रसमय वाक्य, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन, ध्वनि को काव्य की आत्मा, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है। आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी१०। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युग्परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा भी पला-बढ़ा। जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है११

दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.

ललित छंद दोहा अमर, भारत का सिरमौर.
हिन्दी माँ का लाडला, इस सा छंद न और.

हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है, प्रेमियों को मिलाया है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये 

अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार.

दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय.
राह दिखाता मनुज को, जब वह हो निरुपाय.

नाना भाषा-बोलियाँ, नाना जनगण-भूप. 
पंचतत्व सम व्याप्त है, दोहा छंद अनूप. 

दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद. 
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद.

द्विपथा दोहयं दोहडा, द्विपदी दोहड़ नाम.
दुहे दोपदी दूहडा, दोहा ललित ललाम. 

कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद. 

(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र -यमक अलंकार)

कुछ पारंपरिक दोहे:

सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढ़े, बिन खर्चे घट जात.

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय.

समय बिताने के लिये, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरि का नाम.

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहाँ ले जाय.
 


दोहा मुक्तक छंद है :

संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है किंतु हिन्दी साहित्य का दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है१२. दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है१३. संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।

संस्कृत दोहा:

अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति ।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात् ॥

हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं। 

छंद : 

अक्षर क्रम संख्या तथा, गति-यति के अनुसार.
छंद सुनिश्चित हो 'सलिल', सही अगर पदभार.

छंद वह सांचा या ढांचा है जिसमें ढलने पर ही शब्द कविता कहलाते हैं। छंद कविता का व्याकरण तथा अविच्छेद्य अंग है। छंद का जन्म एक विशिष्ट क्रम में वर्ण या मात्राओं के नियोजन, गति (लय) तथा यति (विराम) से होता है। वर्णों की पूर्व निश्चित संख्या एवं क्रम, मात्र तथा गति-यति से सम्बद्ध विशिष्ट नियोजित काव्य रचना छंद कहलाती है। 

दोहा : 

दोहा दो पंक्तियों (पदों) का मुक्तक काव्य है। प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। हर पद दो चरणों में विभजित रहता है। विषम (पहले, तीसरे) पद में तेरह तथा सम (दूसरे, चौथे) पद में ग्यारह कलाएँ (मात्राएँ) होना अनिवार्य है। 

दोहा और शेर :

दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में उर्दू काव्य में भिन्न भावः-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ होती हैं, किंतु शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव१४। शेर बहर (उर्दू chhand) में कहे जाते हैं जबकि दोहा कहते समय हिन्दी के 'गण' का ध्यान रखना होता है। शे'रों का वज़्न (पदभार) भिन्न हो सकता है किंतु दोहा में हमेशा समान पदभार होता है। शे'र में पद (पंक्ति या मिसरा) का विभाजन नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं। 

हमने अब तक भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, तथा शब्द को समझने के साथ दोहा की उत्पत्ति लगभग ३००० वर्ष पूर्व संस्कृत, अपभ्रंश व् प्राकृत से होने तथा मुक्तक छंद की जानकारी ली। दोहा में दो पद, चार चरण तथा सम चरणों में १३-१३ और विषम चरणों में ११-११ मात्राएँ होना आवश्यक है। दोहा व शेर के साम्य एवं अन्तर को भी हमने समझा। अगले पाठ में हम छंद के अंगों, प्रकारों, मात्राओं तथा गण की चर्चा करेंगे। तब तक याद रखें-

भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष.
समय शंख दोहा करे, सदा सत्य का घोष.

गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश.
अन्य छंद शशि-तारिका, वे सुर द्विपदि सुरेश.

गौ भाषा को दूह कर, कवि कर अमृत पान.
दोहों का नवनीत तू, पाकर बन रसखान.

दोहा ने मोहा सलिल, रुद्ध हो गयी धार.
दिल हारे दिल जीतकर, दिल जीते दिल हार. 

परिवर्तन नव सृजन का, सत्य मानिये मूल. 
जड़ को करता काल ख़ुद, निर्मम हो निर्मूल.

हो निशांत ऊगे नयी, उजली निर्मल भोर.
प्राची से आकर उषा, कहती खुशी अँजोर.

लाल भाल है गाल भी, हुए लाज से लाल.
प्रियतम सूरज ने किया, हाय! हाल बेहाल.

छमछम छमछम नाचती, सूर्य किरण रह मौन.
कलरव करके पूछती, गौरैया तुम कौन?

बरगद बब्बा बांचते, किसका कैसा भाग्य.
जान न पाये कब हुआ, ख़ुद को ही वैराग्य. 

पनघट औ' चौपाल से, पूछ रहा खलिहान.
पायल कंगन क्यों गए शहर गाँव वीरान.

हूटर चीखा जोर से, भागे तुरत मजूर.
नागा मत काटें करें हम पर कृपा हजूर.

मालिक थे वे खेत के, पर नौकर हैं आज.
जो न किया सब कर रहे, तज मर्यादा लाज.

मुई सियासत ने किया, हर घर को बरबाद.
टूटा नाता नेह का, हो न सका आबाद.

लोभतंत्र की जीत है लोकतंत्र की हार.
प्रजा तंत्र सिर पीटता, तंत्र हुआ सरदार. 

आतंकी बम फोड़ते, हम होते भयभीत.
डरना अपनी हार है, मरना उनकी जीत.

दहशतगर्दों का नहीं, किंचित करें प्रचार.
टी. वी. अनदेखा करे, अनदेखी अख़बार.

जाति धर्म के नाम पर, क्यों करिए तकरार?
खुश हो हिल-मिल मना लें क्रिसमस का त्यौहार.

हिंद और हिन्दी हुआ, युग्म बहुत मशहूर.
हर भारतवासी करे, इन पर 'सलिल' गुरूर. 

चलते-चलते 

किस मिस को मिस कर रहे, किस मिस को किस आप.
देख मिसेस को हो गया, प्रेम पुण्य से पाप.

इन दोहों को बार-बार पढ़ें। इनमें लघु- मात्राओं की गणना साथ उनके स्थान पर गौर करें। दोहे की दो पंक्तियों (पद) में चार भाग हैं जिन्हें चरण या पाद कहते हैं दोनों पंक्तियों के प्रथम आधे भाग को विषम चरण तथा अंतिम आधे भाग को सम चरण कहा जाता है.पंक्ति के अंत अथवा सम चरण के अंत में गुरु-लघु मात्रा पर ध्यान दें विषम चरणों में १३-१३ तथा सम चरणों में ११-११ मात्राएँ, प्रत्येक पंक्ति में २४-२४ मात्राएँ हैं। लघु-गुरु मात्राओं की संख्या समान नहीं है। इस आधार पर दोहों के २३ भेद (प्रकार) हैं। इन दोहों को सस्वर पढ़कर उनकी नकल (पैरोडी) बनायें यहाँ बताई बातों की जांच करें। दोहे के विषम चरण के आरम्भ में एक शब्द में जगण (जभान = लघु गुरु लघु) वर्जित है। 

अगली कड़ी में रचना में मात्राबाँट और प्रकारों की चर्चा होगी   
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सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
१०. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०,
११. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४,
१२. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७,
१३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे,
१४. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', भूमिका- जैसे, हरेराम 'समीप'
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