रचना - प्रति रचना:
गीत:
घुल गए परछाइयों में चित्र थे जितने
प्रार्थना में उंगलियाँ जुडती रहीं
आस की पौधें उगी तुड्ती रहीं
नैन छोड़े हीरकनियाँ स्वप्न की
जुगनुओं सी सामने उड़ती रहीं
उंगलियाँ गिनने न पाईं दर्द थे कितने
फिर हथेली एक फ़ैली रह गई
आ कपोलों पर नदी इक बह गई
टिक नहीं पाते घरोंदे रेत के
इक लहर आकर दुबारा कह गई
थे विमुख पल प्राप्ति के सब,रुष्ट थे इतने
इक अपेक्षा फिर उपेक्षित हो गई
भोर में ही दोपहर थी सो गई
सावनों को लिख रखे सन्देश को
मरुथली अंगड़ाई आई धो गई
फिर अभावों में लगे संचित दिवस बंटने
राकेश खंडेलवाल
५ अक्तूबर २०१५
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प्रतिगीत:
[माननीय राकेश खण्डेलवाल जी को समर्पित]
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घुल गये परछाइयों में
चित्र थे जितने
शेष हैं अवशेष मात्र
पवित्र थे जितने.
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क्षितिज पर भास्कर-उषा सँग
मिला थामे हाथ.
तुहिन कण ने नवाया फिर
मौन धारे माथ.
किया वंदन कली ने
नतशिर हुआ था फूल-
हाय! डाली पवन ने
मृदु भावना पर धूल.
दुपहरी तपती रही
चुभते रहे हँस शूल.
खो गये अमराइयों में
मित्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में
चित्र थे जितने.
.
साँझ मोहक बाँझ
चाहे सूर्य को ले बाँध.
तोड़कर भुजपाश
थामे वह निशा का काँध
जला चूल्हा धुएँ से नभ
श्याम, तम का राज्य.
चाँद तारे चाँदनी
मन-प्राण ज्यों अविभाज्य.
स्नेह को संदेह हरदम
ही रहा है त्याज्य.
श्वास-प्रश्वासों में घुलते
इत्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में
चित्र थे जितने.
.
हवा लोरी सुनाती
दिक् शांत निद्रा लीन.
नर्मदा से नेह पाकर
झूम उठती मींन.
घाट पर गौरी विराजी
गौर का धर ध्यान.
सावनों में, फागुनों में
गा सृजन का गान.
विंध्य मेकल सतपुड़ा
श्रम का सुनाते गान.
'सलिल' संजीवित सपन
विचित्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में
चित्र थे जितने.
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